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मंगलवार, जून 18, 2013

खड़ीबोली के सरदार : अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की कविताओं से मेरा पहला परिचय बोर्ड की हिंदी पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से हुआ था। छायावादी कवियों की तुलना में हरिऔध मुझे ज्यादा भाते थे। अपने सहज शब्द चयन के बावज़ूद उनकी कविताएँ मानव जीवन के गूढ़ सत्यों को यूँ बाहर निकाल लाती थीं कि मन अचंभित हो जाता था। उनके व्यक्तित्व की एक बात और थी जो उन्हें अन्य कवियों से अलग करती थी और वो थी उनकी छवि । यूँ तो उनके नाम के आगे 'उपाध्याय' लगा हुआ था पर उनके चित्रों में उन्हें पगड़ी लगाए देख मैं असमंजस में पड़ जाता था कि वे सरदार थे या ब्राह्मण ? स्कूल के दिनों में अपने शिक्षकों से ना ये मैं पूछ पाया और ना ही उन्होंने इस बारे में कुछ बताया। बाद में द्विवेदी युग के कवियों के बारे में पढ़ते हुए मुझे पता चला कि हरिऔध वैसे तो ब्राह्मण खानदान से थे पर उनके पुरखों ने सिक्ख धर्म स्वीकार कर लिया था।


सिपाही विद्रोह के ठीक आठ साल बाद जन्मे हरिऔध आजमगढ़ जिले के निजामाबाद से ताल्लुक रखते थे। मिडिल की परीक्षा पास करने के बाद सरकार में कानूनगो के पद पर रहे। सेवा मुक्त होने के बाद 1923 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में गए और वहाँ दो दशकों तक हिंदी पढ़ाते रहे। हरिऔध ने कविता ब्रजभाषा के कवि बाबा सुमेर सिंह की छत्रछाया में शुरु की थी। ब्रजभाषा से शुरु हुई उनकी काव्य साधना उन्हें कुछ वर्षों में खड़ी बोली के शुरुआती कवियों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर देगी ये किसे पता था। हरिऔध ने अपने जीवन काल में पैंतालीस किताबें लिखी जिनमें उनका महाकाव्य 'प्रिय प्रवास' और खंड काव्य 'वैदही वनवास' सबसे प्रसिद्ध है।

पर आज मैं उनके भारी भरकम ग्रंथों की चर्चा करने नहीं आया बल्कि उनकी उन दो कविताओं को आपके सम्मुख लाना चाहता हूँ जिन्हें बार बार बोल कर पढ़ने के आनंद से अपने आप को दो चार करता आया हूँ। 

जीवन में बदलाव हममें से कितनों को अच्छा लगता है? अपना शहर, मोहल्ला, घर, स्कूल, कॉलेज और यहाँ तक बँधी बंधाई नौकरी को छोड़ने का विचार ही हमारे मन में तनाव ले आ देता है। जीवन की हर अनिश्चितता हमारे मन में संदेह के बीज बोती चली जाती है। पर उन से गुजर कर ही हमें पता चलता है कि हम ने अपनी ज़िदगी में क्या नया सीखा और पाया। तो चलिए मन में बैठी जड़ता को दूर भगाते हैं हरिऔध की इस आशावादी रचना के साथ..


ज्यों निकल कर बादलों की गोद से
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह ! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी ?

देव मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूँगी या मिलूँगी धूल में ?
या जलूँगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूँगी या कमल के फूल में ?

बह गयी उस काल एक ऐसी हवा
वह समुन्दर ओर आई अनमनी
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी ।

लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर ।



बूँद की कहानी तो आपने सुन ली और ये समझ भी लिया कि जीवन में एक जगह बँध कर हम अपने भविष्य के कई स्वर्णिम द्वारों को खोलने से वंचित रह जाते हैं। पर चलते चलते हरिऔध की एक और छोटी पर बेहद असरदार रचना सुनते जाइए जिसमें वो अहंकार में डूबे व्यक्तियों को एक तिनके के माध्यम से वास्तविकता का ज्ञान कराते हैं...

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ
एक दिन जब था मुँडेरे पर खड़ा
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा

मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन सा
लाल होकर आँख भी दुखने लगी
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे
ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भगी

जब किसी ढब से निकल तिनका गया
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिये
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा
एक तिनका है बहुत तेरे लिए


 वैसे आप हरिऔध की कविताएँ कितनी पसंद करते हैं?

गुरुवार, अप्रैल 06, 2006

आँख का आँसू : अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

आँसुओं की लीला भी बड़ी विचित्र है । ये कब, क्यों और कैसे निकल जाएँ इस बारे में पहले से कोई भविष्यवाणी करना अत्यन्त दुष्कर है । जब भी दिल की भावनायैं, चाहे वो अपार हर्ष की हों या गहरे विषाद की, जब्त करने में हम अपने आपको असहाय पाते हैं, अश्रु की बूँदें निकल ही पड़ती हैं । इस कविता में अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध ने आँसुओं की कहानी को उनको जन्म देने वाली भावनाओं के साथ प्रस्तुत किया है ।

आँसू उस शख्स के लिये निकलते हें जिससे हमें स्नेह हो । अपने करीबी के कष्ट से हमारी आखों का द्रवित होना उसके प्रति हमारा प्यार जतलाने का एक तरीका होता है । बकौल कतील शिफाई 
कोई आसूँ तेरे दामन पे गिराकर
बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ
 
और यहाँ कवि मन को छू लेने वाली पंक्तियों में कहते हैं

आँख के आँसू निकल करके कहो
चाहते हो प्यार जतलाना किसे ?

पर हर वक्त इन मोतियों को यूं ही बहाते रहना भी तो ठीक नहीं...कभी कभी आँसुओं को हमें दिल में सहेज के रखना पड़ता है...कभी अपने मान सम्मान के लिए तो...कभी उन गमों को दिल ही में दफन करने के लिये जिसकी काली छाया हम अपने करीबियों पर नहीं पड़ने देना चाहते ।

इसीलिये तो कविता के अंत में कवि आँसुओ को उलाहना देते हुए कहते हैं
हो गया कैसा निराला यह सितम
भेद सारा खोल क्यों तुमने दिया
यों किसी का है नहीं खोते भरम आँसुओं, तुमने कहो यह क्या किया ?तो पेश है एक बेहद मर्मस्पर्शी रचना जिसके शब्द शायद आपको भी अश्रु विगलित कर दें
 
आँख का आँसू ढ़लकता देखकर
जी तड़प कर के हमारा रह गया
क्या गया मोती किसी का है बिखर
या हुआ पैदा रतन कोई नया ?

ओस की बूँदे कमल से है कहीं
या उगलती बूँद है दो मछलियाँ
या अनूठी गोलियाँ चांदी मढ़ी
खेलती हैं खंजनों की लडकियाँ ।

या जिगर पर जो फफोला था पड़ा
फूट कर के वह अचानक बह गया
हाय था अरमान, जो इतना बड़ा
आज वह कुछ बूँद बन कर रह गया ।

पूछते हो तो कहो मैं क्या कहूँ
यों किसी का है निराला पन भया
दर्द से मेरे कलेजे का लहू
देखता हूँ आज पानी बन गया ।

प्यास थी इस आँख को जिसकी बनी
वह नहीं इस को सका कोई पिला
प्यास जिससे हो गयी है सौगुनी
वाह क्या अच्छा इसे पानी मिला ।

ठीक कर लो जांच लो धोखा न हो
वह समझते हैं सफर करना इसे
आँख के आँसू निकल करके कहो
चाहते हो प्यार जतलाना किसे ?

आँख के आँसू समझ लो बात यह
आन पर अपनी रहो तुम मत अड़े
क्यों कोई देगा तुम्हें दिल में जगह
जब कि दिल में से निकल तुम यों पड़े ।

हो गया कैसा निराला यह सितम
भेद सारा खोल क्यों तुमने दिया
यों किसी का है नहीं खोते भरम
आँसुओं, तुमने कहो यह क्या किया ?

- अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
 

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