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रविवार, दिसंबर 19, 2010

मित्रो मरजानी : एक अनूठे नारी व्यक्तित्व की दास्तान...

ज़िंदगीनामा पढ़ने के बाद मित्रों ने याद दिलाया था कि आपको कृष्णा सोबती की लिखी किताब मित्रो मरजानी भी पढ़नी चाहिए। मित्रो के किरदार से बहुत पहले एक मित्र ने अपनी ब्लॉग पोस्ट के ज़रिए मिलाया था। पर ज़िदगीनामा के मिश्रित अनुभव ने मित्रो.. को पढ़ने की इच्छा फिर से जगा दी थी। कुछ महिने पहिले जब पुस्तक मेले में राजकमल द्वारा प्रकाशित इसका सौ पेजों का पेपरबैक संस्करण देखने को मिला तो तत्काल मैंने इसे खरीद लिया। वैसे भी आजकल पतली किताबों को देखकर ज्यादा खुशी होती है क्यूँकि ये भरोसा तो रहता है कि एक बार पढ़ने बैठा तो ख़त्म कर के ही उठूँगा।

मित्रो मरजानी एक मध्यमवर्गीय संयुक्त व्यापारी परिवार की लघु कथा है जिसकी केंद्रीय किरदार 'मित्रो' यानी घर की मँझली बहू है। मित्रो को भगवान ने अनुपम सौंदर्य बख़्शा है और मित्रो इस बात पर इतराती भी है। अपने इस यौवन को वो पूरी तरह जीना चाहती है। पति सरदारी लाल से संपूर्ण शारीरिक सुख न मिलने पर वो कुढ़ती रहती है। अपनी कुढ़न को वो सास और देवरानी के सामने बिना किसी लाग लपेट के निकालती भी रहती है। कृष्णा सोबती की मित्रो उन औरतों में से नहीं है जो सरदारीलाल जैसे पुरुष को अपनी नियति मान कर, रोज़ के पूजा पाठ और चूल्हा चक्की में मन रमाकर अपनी शारीरिक सुख की अवहेलना कर सके। वो अपनी इस भूख की तृप्ति को अपना वाज़िब हक़ समझती है। सो पति की अनुपस्थिति में वो उसके मित्र प्यारों सै नैन मटक्का करने में परहेज़ नहीं करती। सरदारीलाल को अपनी कमी का अहसास है। पत्नी की रंगीन तबियत उसकी बौखलाहट को और बढ़ा देती है। वो अपनी पत्नी के चरित्र पर सवाल उठाता है। मार कुटौवल के बाद जब ससुर के सामने पंचायत जुड़ती है तो मित्रो अपनी सफाई बड़ी बेबाकी से कुछ यूँ देती है।

"सज्जनो मेरे पति की बात सच भी है और झूठ भी।........ अब आप ही कहो सोने सी अपनी देह झुर झुरकर जला लूँ या गुलजारी देवर की घरवाली की न्याय सुई सिलाई के पीछे जान खपा लूँ? सच तो यूँ जेठ जी कि दीन दुनिया बिसरा मैं मनुक्ख की जात से हँस खेल लेती हूँ। झूठ यूँ कि खसम का दिया राजपाट छोड़ कर मैं कोठे पर तो नहीं जा बैठी।"

पुरुष कालांतर से स्त्री को उसके शरीर से मापता तौलता आया है। पुरुष की इस लोलुपता को उसके स्वाभाव का अभिन्न अंग मान लिया गया। पर स्त्री अगर ऍसा रूप धारण कर ले तो क्या हो इस प्रश्न को कम ही लेखकों ने उपन्यास का विषय बनाया है। पर कृष्णा सोबती ने 1967 में गढ़े इस उपन्यास में एक ऐसे स्त्री चरित्र का निर्माण किया जिसे अपने शरीर और उसकी जरूरतों का ना सिर्फ ख्याल है पर उसे वो हर कीमत पर पाना भी चाहती है। कृष्णा जी ने इस किताब के अंग्रेजी अनुवाद To hell with Mitro के प्रकाशित होने के पूर्व अपने इस उपन्यास के बारे में कहा था कि तब का हिंदी इलाकों का समाज बेहद रुढ़िवादी था। इसके प्रकाशन के समय इस विषय को काफी उत्तेजक कहा गया पर लोगों ने उपन्यास के अंदर के तत्त्व को पहचाना और उसे उसी तरह लिया।

मित्रो मरजानी की उत्पत्ति के बारे में कृष्णा जी का कहना था
एक सुबह मैंने मन ही मन एक दृश्य देखा कि कमरे में छाता लटका हुआ है और एक वृद्ध व्यक्ति नीचे पलंग पर लेटा हुआ है। संयुक्र परिवार के घर की इसी छवि से इस उपन्यास की शुरुआत हुई। मेरी एक बड़ी कमज़ोरी है। कहानी का अगर खाका मेरे मन में हो तो मैं नहीं लिख सकती। मैं चरित्रों को टोहती हूँ, परखती हूँ और आगे बढ़ती हूँ। चरित्रों की सोच पर मैं अपनी सोच नहीं लादती। मित्रो की अतृप्त इच्छाएँ जिस ठेठ भाषा में निकल कर आई हैं वो निहायत उसकी हैं।

कुछ मिसाल देखें

"जिन्द जान का यह कैसा व्यापार? अपने लड़के बीज डालें तो पुण्य, दूजे डालें तो कुकर्म.."

"मेरा बस चले तो गिनकर सौ कौरव जन डालूँ पर अम्मा, अपने लाडले बेटे का भी तो आड़तोड़ जुटाओ! निगोड़े मेरे पत्थर के बुत में भी तो कोई हरकत हो !.."

लेखिका  सिर्फ मित्रो की सोच को सामने नहीं रखती पर साथ साथ परिवार की मर्यादित बड़ी बहू के माध्यम से नारी के लिए बनाए गए सामाजिक मापदंडों का जिक्र करना नहीं भूलती। बड़ी बहू के अब इस कथन की ही बानगी लीजिए

"इस कुलबोरन की तरह जनानी को हया न हो, तो नित-नित जूठी होती औरत की देह निरे पाप का घट है।"
कृष्णा सोबती जी की भाषा शैली एक बार फिर विलक्षण है। सास बहुओं के झगड़े, जेठानी देवरानी के आपसी तानों, मित्रों की बेलगाम जुबान को कृष्णा सोबती ने जिस शैली में लिखा है उसे पढ़कर आप सीधे अपने आपको इन चरित्रों के बीच पाते हैं। जिंदगीनामा की तरह यहाँ भी आंचलिकता का पुट है पर पंजाबी के भारी भरकम शब्दों का बोझ नहीं। ख़ैर वापस चले मित्रों के चरित्र पर...

सोबती जी ने मित्रो के चरित्र के कई रंग दिखाए हें जो श्वेत भी हैं और श्याम भी। मित्रो मुँहफट जरूर है पर उसकी बातों की सच्चाई सामने वाले को अंदर तक कँपा देती है। मित्रो अपनी छोटी देवरानी की तरह काम से जी नहीं चुराती पर अगर उसका मूड ना हो तो उसे उसके शयन कक्ष से बाहर निकालना मुश्किल है। सास के सामने उनके बेटे की नामर्दी के ताने देने से वो ज़रा भी नहीं सकुचाती पर साथ ही छोटी बहू द्वारा सास का अपमान होते देख वो उसकी अच्छी खबर लेती है। साज श्रृंगार में डूबी रहने वाली मित्रो छोटे देवर के गबन से आई मुसीबत को दूर करने के लिए अपने आभूषण देने में एक पल भी नहीं हिचकती। हर रात पति के आने की प्रतीक्षा में घंटो बाट निहारती है तो दूसरी तरफ़ गैर मर्दों से अपनी हसरतों को पूरा करने के स्वप्न भी देखा करती है।

मित्रो की ये चारत्रिक विसंगतियाँ पाठकों के मन में उसके प्रति आकर्षण बनाए रखती हैं। मित्रो अपनी जिंदगी से क्या चाहती है ये तो लेखिका शुरु से ही विश्लेषित करती चलती हैं। पर मित्रों अपनी देवरानियों से अलग अनोखी क्यूँ हुई इसका संकेत उपन्यास के आखिर में जा कर मिलता है जब लेखिका पाठकों को मित्रों की माँ से मिलवाती हैं । जिंदगी भर अपने यौवन का आनंद उठाने वाली और उन्हीं कदमों पर अपनी बेटी को बढ़ावा देने वाली माँ का एक नया रूप मित्रो के सामने आता है जो उसे भीतर तक झकझोर देता है। उपन्यास के अंत में आया ये नाटकीय मोड़ बड़ी खूबी से रचा गया है।

आज जब नारी की आजादी को शारीरिक और मानसिक दोनों नज़रिए से देखने की बहस तेज हो चुकी है ये उपन्यास एक स्त्री के चरित्र की उन आंतरिक परतों को टटोलता है जिस पर हमारा समाज ज्यादातर चुप्पी साध लेता है।मात्र पचास रूपये के पेपरबैक संस्करण को अगर आपने नहीं पढ़ा तो जरूर पढ़ें। मित्रो का चरित्र आपको जरूर उद्वेलित करेगा।

सोमवार, सितंबर 06, 2010

अविभाजित पंजाब की ग्रामीण संस्कृति का दर्पण : ज़िंदगीनामा / कृष्णा सोबती

आंचलिक भाषा में लिखे उपन्यासों की अपनी एक अलग ही मिठास होती है। ऐसे उपन्यासों को पढ़कर आप उन अंचलों की तहज़ीब, रिवायतों से अपने आप को करीब पाते हैं। आंचलिक उपन्यासों का ध्यान आते ही मन में फणीश्वरनाथ रेणू की कृतियाँ याद आती हैं जो हमें बिहार के उत्तर पूर्वी जिले पूर्णिया के ग्रामीण जीवन के पास ले जाती थी। कुछ साल पहले कुमाँउनी भाषा और संस्कृति को करीब से जानने समझने का मौका मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास 'कसप' को पढ़ने के बाद मिला था। इसलिए पिछले हफ़्ते जब कृष्णा सोबती का उपन्यास ज़िंदगीनामा हाथ लगा तो उसके कुछ पन्ने पलटकर ये लगा कि इस उपन्यास के माध्यम से पूर्व और पश्चिमी पंजाब के ग्रामीण परिवेश से रूबरू होने का मौका मिलेगा। पर क्या सचमुच ऐसा हो सका? हुआ पर कुछ हद तक ही...
(चित्र सौजन्य : विकीपीडिया)

मैंने कृष्णा सोबती जी को पहले नहीं पढ़ा था। इसलिए पुस्तक पुस्तकालय से लेने के पहले कहानी का सार जानने के लिए वहीं प्रस्तावना पढ़ डाली। उसमें सोबती जी की साहित्यिक कृतियों और हिंदी साहित्य में उनके योगदान की बाबत तो कई जानकारियाँ मिलीं पर उपन्यास की विषय वस्तु का जिक्र वहाँ ना होकर पुस्तक के पिछले आवरण पर था। उसे पढ़ कर मन थोड़ा भ्रमित भी हुआ और रोमांचित भी। वहाँ लिखा था

ज़िंदगीनामा जिसमें ना कोई नायक। न कोई खलनायक। सिर्फ लोग और लोग और लोग। जिंदादिल। जाँबाज। लोग जो हिंदुस्तान की ड्योढ़ी पंचनद पर जमे, सदियों गाजी मरदों के लश्करों से भिड़ते रहे। फिर भी फसलें उगाते रहे। जी लेने की सोंधी ललक पर जिंदगियाँ लुटाते रहे।
और किताब पढ़ने के बाद पुस्तक का ये संक्षिप्त परिचय बिल्कुल सही मालूम होता है। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत से द्वितीय विश्व युद्ध के बीच के एकीकृत पंजाब के ग्रामीण जीवन को कृष्णा सोबती जी ने अपनी पुस्तक की कथावस्तु चुना है। पूरी पुस्तक में लेखिका ने उन किसानों के दर्द को बार बार उभारा है जो जमीन पर हर साल मेहनत मशक्कत कर फसलें तो उगाते हैं पर उसके मालिक वो नहीं है। सूद के कुचक्र में फँसकर उनकी ज़मीनें साहूकारों के हाथों में है। दरअसल पंजाब में विभाजन पूर्व तक जमीन पर हिंदू साहूकारों का कब्ज़ा रहा जबकि खेतों पर मेहनतकरने वाले अधिकांश किसान सिख या मुस्लिम थे। लेखिका ने इस सामाजिक संघर्ष के ताने बाने में उस वक़्त देश में घटती घटनाओं को भी अपने किरदारों के माध्यम से पाठकों के समक्ष रखने की कोशिश की है। ऐसा उन्होंने क्यों किया है ये उनकी इस टिप्पणी से स्पष्ट हो जाता है। लेखिका का मानना है..

इतिहास वो नहीं जो हुक़ूमतों की तख्तगाहों में प्रमाणों और सबूतों के साथ ऍतिहासिक खातों में दर्ज कर सुरक्षित कर दिया जाता है, बल्कि वह है जो लोकमानस की भागीरथी के साथ साथ बहता है..पनपता और फैलता है और जनसामान्य के सांस्कृतिक पुख़्तापन में ज़िंदा रहता है।
इसीलिए उपन्यास में इस इलाके का इतिहास गाँव के साहूकार शाह जी की बैठकों से छन छन कर निकलता हुआ पाठकों तक पहुँचता रहता है। गाँव में हो रही घटनाओं की जानकारी इस मज़लिस के आलावा शाहनी की जमाई महफिलों से भी मिलती है। सोबती जी ने ग्रामीण जीवन के सभी रंगों को इस पुस्तक में जगह दी है। किसानों का असंतोष, ज़मीनी विवाद, सामाजिक जश्नों में जमकर खान पान, सास बहू के झगड़े, सौतनों के रगड़े, मदरसों की तालीम, मुज़रेवालियों के ज़लवे, चोर डकैतों की कारगुजारियाँ सब तो है इस कथाचक्र में। पर ये कथाचक्र कहीं रुकता नहीं और ना ही सामान्य तरीके से आगे बढ़ता है। दरअसल कई बार किसी घटना का विवरण देने या उल्लेख करने के बाद उपन्यास में आगे लेखिका उसका जिक्र ना कर सब कुछ पाठकों के मन पर छोड़ देती हैं। वैसे भी लेखिका का उद्देश्य किसी एक किरदार की ज़िंदगी में उतरने का ना हो के आम जन के जीवन को झाँकते हुए आगे चलते रहने का है। पर इसका नतीजा ये होता है कि कथा टूटी और बिखरी बिखरी लगती है। उपन्यास के समापन में भी सोबती कुछ खास प्रभाव नहीं छोड़तीं और वो भी अनायास हो गया लगता है।

पर उपन्यास में कुछ तत्व ऐसे हैं जो कथानक में रह रह कर जान फूँकते हैं। पंजाब का सूफ़ी व लोक संगीत पुस्तक के पन्नों में रह रह कर बहता है। कहीं बुल्लेशाह,कहीं हीर तो कहीं सोहणी महीवाल के गीत आपको पंजाब की समृद्ध सांगीतिक विरासत से परिचय कराते ही रहते हैं। मुझे इस पुस्तक सा सबसे अच्छा पहलू ये लगा कि पुस्तक लोकगीतों , कवित्त और पंजाबी लोकोक्तियों और तुकबंदियों का अद्भुत खज़ाना है। कुछ मिसाल देना चाहूँगा

नौजवानों ने पनघट पर सजीली युवतियों की अल्हड़ता देखी तो हीर के स्वर उठ गए
"तेरा हुस्न गुलज़ार बहार बनवा
अज हार सब भाँवदा दी
अज ध्यान तेरा आसमान ऊपर
तुझे आदमी नज़र न आँवदा री.."

प्रेम पर सूफ़ियत का रंग चढ़ा तो बुल्लेशाह दिल से होठों पर आ गए
"मैं सूरज अगन जलाऊँगी
मैं प्यारा यार मनाऊँगी
सात समुन्दर दिल के अंदर
मैं दिल से लहर उठाऊँगी..."

मौलवी मदरसे में पढ़ाते है तो देखिए उसकी भी एक लय बन जाती है...
पक्षियों में सैयद : कबूतर
पेड़ों में सरदार : सीरस
पहला हल जोतना : न सोमवार ना शनिवार
गाय भैंस बेचनी : न शनीचर ना इतवार
दूध की पहली पाँच धारें : धरती को
नूरपुर शहान का मेला : बैसाख की तीसरी जुम्मेरात को

और बच्चों की शैतानियाँ वो भी तुकबंदी में
लायक से बढ़िया फायक
अगड़म से बढ़िया बगड़म
हाज़ी से बड़ी हज़्जन
मूत्र से बड़ा हग्गन

या फिर
शमाल में कोह हिमाला
जुनूब में तेरा लाला
मशरिक में मुल्क ब्रह्मा
मग़रिब में तेरी अम्मा :)

कृष्णा सोबती द्वारा लोकभाषा और बोलियों का धाराप्रवाह इस्तेमाल इस उपन्यास का सशक्त और कमजोर पहलू दोनों है। कमजोर इसलिए कि जिन पंजाबी ठेठ शब्दों या पंजाबी लोकगीतों का इस्तेमाल पुस्तक में किया गया है उनका अर्थ गैर पंजाबी पाठकों तक पहुँचाने की आवश्यकता लेखिका या प्रकाशक ने नहीं समझी है। इन बोलियों का प्रयोग उपन्यास को वास्तविकता के धरातल पर तो खड़ा करता है पर साथ ही कथ्य गैर पंजाबी पाठकों को किरदारों की भावनाओं और मस्तमौला पंजाबी संस्कृति के बहते रस का पूर्ण माधुर्य लेने से वंचित रखता है।

करीब 400 पृष्ठों का ये उपन्यास साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हो चुका है। राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस उपन्यास की कीमत डेढ़ सौ रुपये है। इंटरनेट पर इस पुस्तक को आप यहाँ से खरीद सकते हैं

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