मन्ना डे लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
मन्ना डे लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, अप्रैल 29, 2014

आमाय भाशाइली रे ..क्या था गंगा आए कहाँ से..का प्रेरणास्रोत ? Aamay Bhashaili Ray..Ganga Aaye Kahan Se

कुछ दिनों पहले कोक स्टूडियो के सीजन 6 के कुछ गीतों से गुजर रहा था तो अचानक ही  बाँग्ला शीर्षक वाले  इस नग्मे पर नज़र पड़ी। मन में उत्सुकता हुई कि कोक स्टूडियो में बांग्ला गीत कब से संगीतबद्ध होने लगे। आलमगीर की गाई पहली कुछ पंक्तियाँ कान में गयीं तो लगा कि अरे इससे मिलता जुलता कौन सा हिंदी गीत मैंने सुना है? ख़ैर दिमाग को ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी और तुरंत फिल्म काबुलीवाला के लिए सलिल चौधरी द्वारा संगीतबद्ध और गुलज़ार द्वारा लिखा वो गीत याद आ गया  गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे..लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे....

जब इस ब्लॉग पर सचिन देव बर्मन के गाए गीतों की श्रंखला चली थी तो उसमें माँझी और भाटियाली  गीतों पर मैंने विस्तार से चर्चा की थी। बाँग्लादेश के लोक संगीत को कविता में ढालने वाले कवि जसिमुद्दीन की रचनाओं और धुनों से प्रेरित होकर सचिन दा ने बहुतेरे गीतों की रचना की। जब मैंने आमाय भाशाइली रे. सुना तो सलिल दा को भी उनसे प्रेरित पाया।  वैसे पाकिस्तान के पॉप संगीत के कर्णधारों में से एक आलमगीर ने कवि जसिमुद्दीन के लिखे जिस गीत को अपनी आवाज़ से सँवारा है उसे सलिल दा काबुलीवाले के प्रदर्शित होने से भी पहले बंगाली फिल्म में मन्ना डे से गवा चुके थे।


ख़ैर मन्ना डे तो मन्ना डे हैं ही पर पन्द्रह साल की आयु में अपना मुल्क बाँग्लादेश छोड़कर कराची में बसने वाले आलमगीर ने भी इस गीत को इतने दिल से गाया है कि मात्र दो मिनटों में ही वो इसमें प्राण से फूँकते नज़र आते हैं। इस गीत की लय ऐसी है कि अगर आपका बाँग्ला ज्ञान शून्य भी हो तो भी आप अपने आप को इसमें डूबता उतराता पाते हैं। कोक स्टूडिओ की इस प्रस्तुति में खास बात ये है कि इस लोकगीत में संगीत सर्बियन बैंड का है जो कि गीत के साथ ही बहता सा प्रतीत होता है।

तो आइए देखें इस लोकगीत में कवि जसिमुद्दीन हमसे क्या कह रहे हैं

आमाय भाशाइली रे आमाय डूबाइली रे
अकूल दोरियर बूझी कूल नाई रे


मैं भटकता जा रहा हूँ..मुझे कोई डुबाए जा रहा है इस अथाह जलराशि में जिसका ना तो कोई आदि है ना अंत

चाहे आँधी आए रे चाहे मेघा छाए रे
हमें तो उस पार ले के जाना माँझी रे

कूल नाई कीनर नाई, नाई को दोरियर पाड़ी
साबधाने चलइओ माँझी आमार भंग तोरी रे
अकूल दोरियर बूझी कूल नाइ रे


इस नदी की तो ना कोई सीमा है ना ही कोई किनारा नज़र आता है। माँझी मेरी इस टूटी नैया को सावधानी पूर्वक चलाना ताकि हम सकुशल अपने ठिकाने पहुँचें।

दरअसल कवि सांकेतिक रूप से ये कहना चाहते हैं कि ये जीवन संघर्ष से भरा है। लक्ष्य तक पहुँचने के लिए जोख़िमों का सामना निर्भय और एकाग्र चित्त होकर करना पड़ेगा वर्ना इस झंझावत में डूबना निश्चित ही है।

काबुलीवाला में  गुलज़ार ने  गंगा की इस प्रकृति को उभारा है कि उसमें चाहे जितनी भी भिन्न प्रकृति की चीज़ें मिलें वो बिना उनमें भेद किए हुए उन्हें एक ही रंग में समाहित किए हुए चलती है। गीत के अंतरों में आप देखेंगे कि किस तरह गंगा के इस गुण को गुलज़ार प्रकृति और संसार के अन्य रूपकों में ढूँढते हैं?

गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे
आए कहाँ से, जाए कहाँ रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे

रात कारी दिन उजियारा मिल गए दोनों साए
साँझ ने देखो रंग रूप के कैसे भेद मिटाए रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे, गंगा आए कहाँ से....

काँच कोई माटी कोई रंग बिरंगे प्याले
प्यास लगे तो एक बराबर जिस में पानी डाले रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे, गंगा आए कहाँ से....

गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे
आए कहाँ से, जाए कहाँ रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे

नाम कोई बोली कोई लाखों रूप और चहरे
खोल के देखो प्यार की आँखें सब तेरे सब मेरे रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे, गंगा आए कहाँ से....

 

शुक्रवार, अक्टूबर 25, 2013

मन्ना डे (1919-2013) : हम ना भूलेंगे तुम्हें अल्लाह कसम..!

कल सुबह कार्यालय पहुँचने के साथ ही मन्ना दा के जाने की ख़बर मिल गयी थी।  अपनी तरह की आवाज़, शास्त्रीयता पर गहरी पकड़ और किसी भी मूड के गीत को निभा पाने की सलाहियत के बावज़ूद मन्ना डे को वो मौके नहीं मिल पाए जिसके वो हक़दार थे। शायद ये उस युग में पैदा होने का दुर्भाग्य था जब रफ़ी, किशोर, लता व मुकेश की तूती बोलती थी। फिर भी मन्ना दा ने जितने भी गीत गाए वो उन्हें बतौर पार्श्व गायक अमरता प्रदान करने के लिए काफ़ी रहे।

सत्तर के उत्तरार्ध और फिर अस्सी के दशक में जब हमारी पीढ़ी किशोरावस्था की सीढ़ियाँ लाँघ रही थी तब हिंदी फिल्मी गीतों में मन्ना डे की भागीदारी बहुत सीमित हो गई थी। ऐसे में रेडियो ही मन्ना दा की आवाज़ को हम तक पहुँचाता रहा था। बचपन में मन्ना डे के जिस गीत ने मुझे सबसे ज्यादा आनंदित किया था वो गीत था फिल्म 'तीसरी कसम' से। गीत के बोल थे  'चलत मुसाफ़िर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया..'। मन्ना डे जब गीत की इस पंक्ति तक पहुँचते  'उड़ उड़ बैठी हलवइया दुकनिया, बर्फी के सब रस ले लिया रे पिंजरे वाली मुनिया' तो बालमन गीत की लय में पूरी तरह तरंगित हो जाता। हाँ ये जरूर था कि गीत के बोल  से मन में इस चिड़िया के बारे मैं कौतूहल जरूर उत्पन्न होता था कि ये कैसे मिठाई व कपड़ों का रस निकाल लेती होगी। अब ये क्या जानते थे कि गीतकार शैलेंद्र की इस विचित्र चिड़िया का संबंध 'खूबसूरत स्त्री' से था।

स्कूल के दिन में शास्त्रीय संगीत की ज्यादा समझ तो नहीं थी पर बहन को रियाज़ करता सुनते रहने से संगीत में उसकी अहमियत का भास जरूर हो आया था। ऐसे में रेडियो पर जब पहली बार मन्ना डे का फिल्म वसंत बहार के लिए गाया गीत 'सुर ना सजे क्या गाऊँ मैं .'.सुना तो बस इस गीत में डूबता चला गया और इतने दशकों बाद भी इसे गुनगुनाते हुए मन एक अलग ही दुनिया में विचरण करने लगता है। बाँसुरी की आरंभिक धुन के बाद मन्ना डे का आलाप मन को मोह लेता है और जब मन्नाडे की आवाज़ स्वर की साधना को परमेश्वर की आराधना का पर्याय बताती है तो उससे ज्यादा सच्ची बात कोई नहीं लगती।

सुर ना सजे क्या गाऊँ मैं, सुर के बिना जीवन सूना.
संगीत मन को पंख लगाए,गीतों से रिमझिम रस बरसाए
स्वर की साधना ....,स्वर की साधना परमेश्वर की
सुर ना सजे क्या गाऊँ मैं
सुर के बिना जीवन सूना.


मैंने मन्ना डे के मुरीद बहुतेरे संगीत प्रेमियों के संग्रह में उनके बेमिसाल शास्त्रीय गीतों की फेरहिस्त देखी है। मजे की बात ये है कि इनमें से अधिकांश ऐसे लोग थे जिन्हें शास्त्रीय संगीत के बारे में कोई ज्ञान नहीं था। ये मन्ना डे की गायिकी और आवाज़ का ही जादू ही था जो शास्त्रीय संगीत को आम संगीतप्रेमी जनमानस के करीब खींच सका। लपक झपक तू आ रे बदरवा, ऐ मेरी ज़ोहरा जबीं (राग पीलू), लागा चुनरी में दाग (राग भैरवी), तू छुपी है कहाँ (राग मालकोस) जैसे शास्त्रीय रागों पर आधारित कठिन गीतों को गाकर मन्ना डे ने आम जनमानस से जो वाहवाही लूटी वो किसी से छुपी नहीं है। शास्त्रीय रागों पर आधारित गीतों में मुझे राग अहीर भैरव पर आधारित मन्ना डे का फिल्म तेरी सूरत मेरी आँखें फिल्म का ये गीत बेहद प्रिय है.

पूछो ना कैसे मैने रैन बिताई 
इक पल जैसे, इक जुग बीता 
जुग बीते मोहे नींद ना आयी
उत जले दीपक, इत मन मेरा
फिर भी ना जाए मेरे घर का अँधेरा
तरपत तरसत उमर गँवाई,
पूछो ना कैसे...



ख़ुद संगीतकार सचिन देव बर्मन अपनी पुस्तक 'सरगमेर निखाद' में इस गीत का जिक्र करते हुए कहते हैं 
"जब भी मैंने अपनी फिल्म के लिए जब भी शास्त्रीय गीत को संगीतबद्ध किया मेरी पहली पसंद मन्ना डे रहे और देखिए ये गीत किस खूबसूरती से मन्ना की आवाज़ में निखरा। ये एक गंभीर और धीमा गीत था जिसे निभाना बेहद कठिन था। मन्ना ने इस अंदाज़ में गीत को निभाया कि वो आज भी उतना ही लोकप्रिय है और मुझे पूरा विश्वास है कि आने वाले समय में भी ये संगीत के मर्मज्ञों और आम जनों द्वारा समान रूप से सराहा जाएगा। "
सचिन दा के आलावा संगीतकार सलिल चौधरी ने अंत तक मन्ना डे की आवाज़ का बेहतरीन इस्तेमाल किया। सलिल दा और मन्ना डे की इस जुगलबादी से निकले अपने तीन सर्वप्रिय गीतों 'ज़िंदगी कैसी है पहेली हाए..', 'फिर कोई फूल खिला, चाहत ना कहो उसको....' और 'हँसने की चाह ने इतना मुझे रुलाया है...' के बारे में पहले भी मैं विस्तार से लिख चुका हूँ।

इतने गुणी गायक होने के बावज़ूद मन्ना डे को फिल्मों में मुख्य नायक को स्वर देने के मौके कम ही मिले। कोई और गायक होता तो इस स्थिति में अवसादग्रस्त हो जाता पर मन्ना जीवटता से डटे रहे। उन्होंने फिल्मों के आम चरित्रों के लिए कुछ ऐसे परिस्थितिजन्य गीत गाए जिनकी पहचान उन फिल्मों से ना होकर उनमें व्यक्त भावों से हुई। आप ही कहिए क्या आप आज भी अपने लाड़ले को देखकर इस गीत की पंक्तियाँ नहीं गुनगुनाते तूझे सूरज कहूँ या चंदा, तुझे दीप कहूँ या तारा ...मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राजदुलारा .....



आज भी जब स्कूलों में प्रार्थना होती है तो फिल्म सीमा का ये गीत तू प्यार का सागर है, तेरी इक बूँद के प्यासे हम..... गाते ही हाथ भगवन की तरफ़ श्रद्धा से जुड़ जाते हैं।



वहीं स्वतंत्रता व गणतंत्र दिवस के दिनों में बजते फिल्म 'काबुलीवाला' के देशभक्ति गीत ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन तुझपे दिल कुर्बान... सुनकर आँखें डबडबा जाती हैं। 

abc

इसी तरह फिल्म उपहार में चरित्र अभिनेता प्राण पर फिल्माए गीत 
कसमे वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं...बातों का क्या, 
कोई किसा का नहीं ये झूठे नाते हैं...नातों का क्या 
में बिना किसी संगीत के जब मन्ना दा की आवाज़ आज भी उभरती है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं।




ये सारे गीत इस बात को साबित करते हैं मन्ना दा को भले ही नायकों के पर्दे पर के तिलिस्म का साथ ज्यादा नहीं मिला,फिर भी अपनी बेमिसाल गायिकी से उन्होंने इसकी कमी महसूस नहीं होने दी। ऐसी आवाज़ के मालिक थे मन्ना दा जो हर मूड को अपनी गायिकी से जीवंत कर देते थे। 

मन्ना डे ने जहाँ आओ टविस्ट करें जैसे तेज गीत गाए वहीं किशोर, रफ़ी, आशा व लता जैसे दिग्गजों के साथ इक चतुर नार...., ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे...., फिर तुम्हारी याद आई ऐ सनम...., ना तो कारवाँ की तलाश है..., ये रात भीगी भीगी... में भी अपनी उपस्थिति को बखूबी दर्ज किया। गैर फिल्मी गीतों का भी एक बहुत बड़ा खजाना मन्ना डे के नाम है। हरिवंश राय 'बच्चन' की मधुशाला को जन जन तक पहुँचाने का श्रेय जितना अमिताभ को है उतना ही मन्ना डे का है। इतनी बड़ी विरासत अपने पीछे छोड़ जाने वाले इस गायक के बारे में मेरे जैसे संगीतप्रेमी तो यही कहना चाहेंगे हम ना भूलेंगे तुम्हें अल्लाह कसम..!

शुक्रवार, नवंबर 23, 2012

सलिल, योगेश व मन्ना डे : ज़िंदगी कैसी है पहेली, हाए...

सलिल दा और योगेश रचित फिलासफिकल गीतों की इस श्रृंखला में पिछली पोस्ट में बात हो रही थी गीत ना जाने क्यूँ होता है ये ज़िंदगी के साथ....... की। और हाँ इस गीत को गाते वक़्त इसके पहले अंतरे के बाद भटक कर मैं जा पहुँचा था एक दूसरे गीत की इस पंक्ति कभी देखो मन नहीं जागे पीछे पीछे सपनों के भागे पर। शायद दोनों गीतों की कुछ पंक्तियाँ एक जैसे मीटर में हों। ख़ैर आनंद का ये गीत ज़िदगी की इस पहेली के सच को चंद शब्दों में इस खूबसूरती से उभारता है कि मन इस गीत को सुनकर अंदर तक भींग जाता है। सलिल दा की मेलोडी, मन्ना डे की दिल तक पहुँचती आवाज़ और योगेश के सहज पर मन को चोट करते शब्द इस गीत का जादू हृदय से कभी उतरने नहीं देते। 

पिछली पोस्ट में आपको बताया था कि किस तरह सलिल दा पश्चिमी शास्त्रीय संगीत से प्रभावित थे। आनंद के इस गीत का आरंभ ऐसे ही संगीत संयोजन से होता है। साथ ही मन्ना डे की आवाज़ के पीछे वही कोरस पार्श्व में लहराता हुआ चलता है जो सलिल दा के गीतों का एक ट्रेडमार्क था। पर उस कोरस पर सलिल दा ने जिस तरह भारतीय मेलोडी की परत चढ़ाई है वो काबिले तारीफ़ है। सलिल दा अक्सर कहा करते थे..
"Music will always be dismantling and recreating itself, and assuming new forms in reaction to the times. To fail to do so would be to become fossilized. But in my push to go forward I must never forget that my heritage is also my inspiration.
"यानि संगीत हमेशा अपने आप को बँधे बँधाए ढांचे से तोड़ता और पुनर्जीवित करता चलेगा। इस प्रक्रिया में उसका स्वरूप समय की माँग के अनुरूप बदलेगा। अगर वक़्त की ये आहट कोई नहीं समझ सकेगा तो वो अतीत की गर्द में समा जाएगा। पर वक़्त के साथ आगे चलते वक़्त हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हमारी विरासत भी हमारी प्रेरणास्रोत है।"
सलिल दा के गीतों में मेहनतकशों का लोक संगीत है तो दूसरी ओर मोजार्ट की सिम्फोनी भी। सलिल मोजार्ट के संगीत से इस क़दर प्रभावित थे कि वो अपने आपको रिबार्न मोजार्ट (Reborn Mozart) कहा करते। पर उनकी सफलता का राज ये रहा कि इस सिम्फोनी को उन्होंने भारतीय रंग में ढाला।  हाल ही में सलिल दा की पुत्री अंतरा चौधरी ने विविधभारती में दिये अपने साक्षात्कार में कहा था
"बाबा प्रील्यूड और इंटरल्यूड को गीत के बोलों के साथ जोड़ कर अपने संगीत की रचना करते थे। जब भी कोई बाबा का गाना गाता है तो वो प्रील्यूड और इंटरल्यूड को गुनगुनाए बिना मुखड़े व अंतरे तक पहुँच ही नहीं पाएगा।"
कहने का मतलब ये कि सलिल दा के लिए प्रील्यूड और इंटरल्यूड गीत के अतरंग हिस्से हुआ करते थे। अंतरा की बात को मन्ना डे के गाए इस गीत को सुनकर बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। पर इस गीत में सपनों के पीछे भागते मन का चित्र अंकित करने वाले गीतकार योगेश के योगदान को भी हमें भूलना नहीं चाहिए। अच्छे कवि को अपनी बात कहने के लिए शब्दों का महाजाल रचने की आवश्यकता नहीं होती। योगेश कितनी खूबसूरती से जीवन के यथार्थ को एक पंक्ति में यूँ समेट लेते हैं ...एक दिन सपनों का राही चला जाए सपनों के आगे कहाँ. भई वाह।

वैसे आनंद के पहले योगेश बतौर गीतकार बहुत जानामाना नाम नहीं थे। उनकी माली हालत ऐसी थी कि अपने खुद के लिखे गीतों को सुनने के लिए उन्हें सविता चौधरी के पास जाना पड़ता था। योगेश सविता जी को तब से जानते थे जब उनकी शादी सलिल दा से नहीं हुई थी। सविता ने ही गीतकार के लिए योगेश का नाम सलिल दा को सुझाया था। सलिल दा तब तक अपना ज्यादातर काम शैलेंद्र के साथ किया करते थे। शैलेंद्र की मृत्यु के बाद उन्हें एक नए गीतकार की तलाश थी। जब पहली बार सलिल दा ने योगेश को आधे घंटे में एक गीत लिखने को दिया तो योगेश से कुछ लिखा ही नहीं गया। निराश मन से योगेश घर के बाहर निकल आए। मजे की बात ये रही कि बस स्टॉप तक पहुँचते ही उनके मन में एक गीत शक्ल लेने लगा। जब वापस आ कर उन्होंने सलिल दा का वो गीत सुनाया तो सलिल दा ने तुरंत अपनी पत्नी को बुलाकर कहा कि इसने तो बहुत अच्छा लिखा है।

गीत सुनते वक़्त आपने ध्यान दिया होगा कि किस तरह मन्ना डे ऊँचे सुरों में  एक दिन सपनों का राही तक पहुँचते हैं और उस के बाद  नीचे के सुरों में  चला जाए.... सपनों के.... आगे कहाँ गाते हुए हमारे दिल को वास्तविकता के बिल्कुल करीब ले आते हैं। ये प्रतिभा होती है एक अच्छे संगीतकार की जो शब्दों की लय को इस तरह रचता है कि सुनने वाले पर उसका अधिकतम असर हो। तो आइए सुनते हैं इस गीत को सलिल दा के अनूठे संगीत संयोजन के साथ


ज़िंदगी कैसी है पहेली, हाए
कभी तो हँसाए
कभी ये रुलाए
ज़िंदगी ...

कभी देखो मन नहीं जागे
पीछे पीछे सपनों के भागे
एक दिन सपनों का राही
चला जाए सपनों के आगे कहाँ
ज़िंदगी ...

जिन्होने सजाए यहाँ मेले
सुख-दुख संग-संग झेले
वही चुनकर ख़ामोशी
यूँ चले जाए अकेले कहाँ
ज़िंदगी ...

चलते चलते इस गीत से जुड़ा एक और किस्सा आपसे बाँटता चलूँ । आनंद के गीतों को लिखने के लिए लिए हृषिकेश दा ने गुलज़ार और सलिल दा ने योगेश को कह रखा था। पर दोनों ने ये बात एक दूसरे को नहीं बताई थी। लिहाजा एक ही परिस्थिति के लिए गुलज़ार ने ना जिया लागे ना लिखा और योगेश ने ना ना रो अखियाँ  लिखा। गीत तो गुलज़ार का ही रखा गया पर हृषिकेश दा ने योगेश की मेहनत को ध्यान में रखकर पारिश्रमिक के रूप में एक चेक दिया। योगेश ने कहा जब उनका गीत फिल्म में है ही नहीं तो फिर काहे के पैसे। इस समस्या के सुलझाव के लिए ज़िंदगी कैसी है पहेली को ..मूल स्क्रिप्ट में जोड़ा गया। वैसे आनंद के लिए योगेश ने मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने बुने भी लिखा।

सलिल दा से जुड़ी श्रृंखला का अगला गीत जीवन में आए दुखों से लड़ने की प्रेरणा देता है। इस बेहद कठिन गीत को एक बार फिर आवाज़ दी थी लता जी ने। बताइए तो कौन से गीत की बात मैं कर रहा हूँ?

सलिल दा और योगेश इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

गुरुवार, मई 10, 2012

हँसने की चाह ने इतना मुझे रुलाया है :कौन थे कनु रॉय ?

पिछली पोस्ट में आपसे बात हो रही थी मन्ना डे, कपिल कुमार और कनु रॉय की तिकड़ी की। इस त्रिमूर्ति का एक और गीत मुझे बेहद पसंद है।पर इससे पहले 1974 में आई फिल्म आविष्कार के इस संवेदनशील नग्मे की बात करूँ कुछ बातें इसके संगीतकार कनु रॉय के बारे में। 


कनु राय ने अपने संगीत का सफ़र बंगाली फिल्मों से शुरु किया था। पचास के दशक में वे गायक बनने का सपना लेकर हावड़ा से मुंबई पहुँचे। गायिकी का काम नहीं मिला पर सलिल दा से परिचित होने की वज़ह से उन्हें उनके सहायक का काम जरूर मिल गया। सलिल दा ही के यहाँ उनकी मुलाकात बासु भट्टाचार्य से हुई। हिंदी फिल्मों में बतौर संगीतकार उन्हें बासु भट्टाचार्य ने मौका दिया और फिर वे बासु दा की सारी फिल्मों के
ही संगीत निर्देशक बन गए। उसकी कहानी, अनुभव, आविष्कार, श्यामला और स्पर्श में उनका काम सराहा गया। 

कनु राय एक अंतरमुखी इंसान थे। काम माँगने के लिए निर्देशकों के पास जाने में उन्हें झिझक महसूस होती थी। शायद इसके लिए उनकी पिछली पृष्ठभूमि जिम्मेदार रही हो। क्या आपको पता है कि कनु रॉय फिल्मों में काम करने से पहले एक वेल्डर का काम किया करते थे? कहते हैं कि युवावस्था में कनु ने हावड़ा ब्रिज की मरम्मत का काम भी लिया था।

फिल्मफेयर को दिये अपने एक साक्षात्कार में गुलज़ार अविष्कार का जिक्र करते हुए कहते हैं कि बासु दा वैसे तो बेहद भले आदमी थे पर फिल्मों को बनाते समय खर्च कम से कम करते थे। वो अक्सर ऐसे कलाकारों के साथ काम करते जिनसे कम पैसों या मुफ्त में भी काम लिया जा सके। गुलज़ार को उन्होंने आविष्कार की पटकथा लिखने के लिए दो सौ रुपये देते हुए कहा था कि मैं इतना तुम्हें इसलिए दे रहा हूँ कि तुम बाद में ये ना कह सको कि बासु ने तुमसे इस फिल्म के लिए मुफ्त में काम करवाया। आप सोच सकते हैं कि जब गुलज़ार का ये हाल था तो कनु दा की क्या हालत होती होगी। 

गुलज़ार ऐसे ही एक प्रसंग के बारे में कहते हैं
"कनु के पास कभी भी छः से आठ वादकों से ज्यादा रिकार्डिंग के लिए उपलब्ध नहीं रहते थे। और बेचारा कनु उसके लिए कुछ कर भी नहीं पाता था। मुझे याद है कि कितनी दफ़े कनु , बासु दा से एक या दो अतिरिक्त वॉयलिन के लिए प्रार्थना करता रहता। बासु दा और कनु मित्र थे। सो जब भी कनु का ऐसा कोई अनुरोध आता बासु दा उसे वो वाद्य अपने पैसों से खरीदने की सलाह दिया करते थे। अब उसके पास कहाँ पैसे होते थे। बासु की बहुत हुज्जत करने के बाद वे उसे वॉयलिन और सरोद देने को राजी होते थे।"
ताज्जुब होता है कि इतनी कठिनाइयों के बीच भी कनु दा ने इन चुनिंदा फिल्मों में इतनी सुरीली धुनें बनायीं और वो भी लगभग न्यूनतम संगीत संयोजन से।। आज तकनीक कहाँ से कहाँ पहुँच गई। संगीत पर पैसा पानी की तरह बहाया जाता है फिर भी मधुर धुनों को सुनने के लिए कितना इंतज़ार करना पड़ता है।

फिल्म आविष्कार में एक बार फिर कपिल कुमार का लिखा ये गीत देखिए। मुखड़े के पहले बाँसुरी की जो धुन बजती है वो वाकई लाजवाब है। इंटरल्यूड्स में बाँसुरी के साथ कनु दा का प्रिय वाद्य यंत्र सितार भी आ जाता है। खुली छत पर एकाकी रातों में दुख से बोझल साँसों के बीच आसमान में टिमटिमाते तारों के लिए कपिल जी का ये कहना कि किसी की आह पर तारों को प्यार आया है.....मन को निःशब्द कर देता है। मन्ना डे की दर्द में डूबती सी आवाज़ और उसका कंपन इतना असरदार है कि गीत को सुनकर आप भी अनमने से हो जाते हैं। तो आइए सुनते हैं ये नग्मा....

  

हँसने की चाह ने इतना मुझे रुलाया है
कोई हमदर्द नहीं, दर्द मेरा साया है
हँसने की चाह ने इतना मुझे रु..ला..या है

दिल तो उलझा ही रहा ज़िन्दगी की बा..तों में
साँसें  चलती हैं कभी कभी रातों में 

किसी की आह पर तारों को प्यार आया है
कोई हमदर्द नहीं ...

सपने छलते ही रहे रोज़ नई रा..हों से
कोई फिसला है अभी अभी बाहों से
 
किसकी ये आहटें ये कौन मुस्कुराया है
कोई हमदर्द नहीं ...

राजेश खन्ना वा शर्मिला टैगौर द्वारा अभिनीत फिल्म आविष्कार में ये गीत शुरुआत में ही आता है.. 


 कनु दा से जुड़ी अगली कड़ी में बातें होगी गीता दत्त के गाए और उनके द्वारा संगीतबद्ध कुछ बेहतरीन गीतों की...

 कनु दा से जुड़ी इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ 

सोमवार, मई 07, 2012

फिर कहीं कोई फूल खिला, चाहत ना कहो उसको : क्या आप निराशावादी हैं?

आप आशावादी (optimist) हैं या निराशावादी (pessimist) ये तो मुझे नहीं पता पर बचपन में ये प्रश्न मुझे बड़ा परेशान करता था। अक्सर बड़े लोगों के साक्षात्कार पढ़ता तो ये जुमला बारहा दिख ही जाता था कि I am an eternal optimist। अपने दिल को टटोलता तो कभी भी इन पंक्तियो को वो पूरी तरह स्वीकार करने को इच्छुक नहीं होता।  होता भी कैसे? बचपन से ही उसे अपनी आशाओं को वास्तविकता के तराजू में तौलने की आदत जो हो गई थी। परीक्षा के बाद दोस्त लोग नंबर पूछते तो मैं मन में अंक देने में कंजूस आध्यापक की छवि बनाता और उस हिसाब से गणना कर अपने दोस्तों को अपना अनुमान बता देता। ज़ाहिर है उनके अनुमान मेरे से हमेशा ज्यादा होते पर जब परिणाम आते तो नतीजा उल्टा होता। इंटर में रहा हूँगा जब पहली बार मुझे देखकर एक कन्या ने बड़े प्यार से हाथ हिलाया। प्रचलित जुबान में कहूँ तो wave.. किया। पर जनाब उस का प्रत्युत्तर देने के बजाए मैंने ये देखा कि मेरी नीचे और ऊपर की मंजिल की बॉलकोनी पर कोई लड़का खड़ा तो नहीं है। ऐसे में आप ही बताइए मैं अपने आप को आशावादी कैसे कह सकता हूँ? पर मन ये मानने को तैयार नहीं था कि मैंने नैराश्य की चादर अपने ऊपर ओढ़ रखी है। दिन बीतते गए पर मुझे अपने व्यक्तित्व को परिभाषित करने के लिए उपयुक्त जवाब नहीं मिला और इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान कब ये प्रश्न मुझसे दूर हो गया मुझे पता ही नहीं चला।

और फिर एक दिन अखबार में छपी किसी के ये उक्ति नज़रों से गुजरी 

"Success or failure..I will  always be pleasantly surprised rather than bitterly disappointed."

और  मुझे लगा कि अपने बारे में ये ख्याल मुझे पहले क्यूँ नहीं आया। संयोग देखिए उस दिन के मात्र एक हफ्ते बाद ही बहुराष्ट्रीय कंपनी के एक कैंपस इंटरव्यू में ये सवाल मुझपे दागा गया Are you an optimist or pessimist ? मैंने भी छूटते ही ऊपर वाली पंक्ति दोहरा दी। अब मुझे क्या पता था कि मैनेजमेंट फिलॉसफी के तहत मेरा जवाब ठीक नहीं बैठेगा। मेरे जवाब के बाद कुछ देर शांति छाई रही फिर उन्होंने मुझे रफा दफ़ा कर दिया। पर इतने दशकों बाद भी मैं अपने फलसफ़े पर कायम हूँ। ख़्वाबों की दुनिया में उड़ने से मुझे कभी परहेज़ नहीं रहा पर पैर धरातल से उखड़े नहीं ये बात भी दिमाग में रही बहुत कुछ मेरी इस कविता की तरह।

वैसे इन सब बातों को आपसे साझा मैं क्यूँ कर रहा हूँ? उसकी वज़ह है आज का वो गीत जो मैं आपको सुनवाने जा रहा हूँ। इस गीत का मर्म भी वही है। जीवन में घट रही तमाम धनात्मक घटनाओं को उतना ही आँकें जिनके लायक वो हैं। नहीं तो अपने सपनों के टूटने की ठेस को शायद आप बर्दाश्त ना कर पाएँ।

ये गीत है फिल्म अनुभव का  जिसे लिखा था कपिल कुमार ने और धुन बनाई थी कनु रॉय ने। कपिल कुमार फिल्म उद्योग में एक अनजाना सा नाम हैं। कनु रॉय के साथ उन्होंने दो फिल्मों में काम किया है अनुभव और आविष्कार। पर इन कुछ गीतों में ही वो अपनी छाप छोड़ गए। यही हाल संगीतकार कनु रॉय का भी रहा। गिनी चुनी दस से भी कम फिल्मों में काम किया और जो किया भी वो सारे निर्देशक बासु भट्टाचार्य के बैनर तले। बाहर उनको काम ही नहीं मिल पाया। पर इन थोड़ी बहुत फिल्मों से भी अपनी जो पहचान उन्होंने बनाई वो आज भी संगीतप्रेमियों के दिल में क़ायम है।

अब इसी गीत को लें गीत के मुखड़े में मन्ना डे का स्वर उभरता है फिर कहीं और पीछे से कनु  की संयोजित वाइलिन और सितार की धुन आपके कानों में पड़ती है। इंटरल्यूड्स में भी यही सितार आपके मन को झंकृत करता है। कनु के संगीत की खासियत ही यही थी कि वे बेहद कम वाद्य यंत्रों में भी सुरीले गीतों को जन्म देते थे। पर  सबसे अद्भुत है मन्ना डे की गायिकी । बेहद  अनूठे अंदाज़ में उन्होंने गीतकार की भावनाओं को अपनी गायिकी से उभारा है।  मन्ना डे साहब हर अंतरे की आखिरी पंक्ति में बदलती लय में लहरों का लगा जो मेला..... या दिल उनसे बहल जाए तो.... गाते हैं तो बस मन एकाकार सा हो जाता है उन शब्दों के साथ। 

पिछले हफ्ते अपना 93 वाँ जन्मदिन मनाने वाला ये अनमोल गायक आज भी हमारे बीच है, यह हमारी खुशनसीबी है। मन्ना डे ने शास्त्रीय से लेकर हल्के फुल्के गीतों को जितने बेहतरीन तरीके से निभाया है वो ये साबित करता है उनके जैसा संपूर्ण पार्श्वगायक बिड़ले ही मिलता है।

फिर कहीं...
फिर कहीं  कोई फूल खिला, चाहत ना कहो उसको
फिर कहीं  कोई फूल खिला, चाहत ना कहो उसको
फिर कहीं कोई दीप जला, मंदिर ना कहो उसको
फिर कहीं ...

मन का समंदर प्यासा हुआ, क्यूँ... किसी से माँगें दुआ
मन का समंदर प्यासा हुआ, क्यूँ... किसी से माँगें दुआ
लहरों का लगा जो मेला.., तू..फ़ां ना कहो उसको
फिर कहीं  कोई फूल खिला, चाहत ना कहो उसको
फिर कहीं ...

देखें क्यूँ सब वो सपने, खुद ही सजाए जो हमने...
देखें क्यूँ सब वो सपने, खुद ही सजाए जो हमने...
दिल उनसे बहल जाए तो, राहत ना कहो उसको
फिर कहीं ...


फिल्म अनुभव में इस गीत को फिल्माया गया है मेरे चहेते अभिनेता संजीव कुमार और तनुजा पर..


पर  कनु रॉय और उनके संगीत का ये सफ़र अभी थमा नहीं है। इस श्रृंखला की अगली कड़ी में चर्चा करेंगे इस तिकड़ी के एक और बेमिसाल गीत की..

 कनु दा से जुड़ी इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ 

शुक्रवार, सितंबर 28, 2007

मधुशाला की चंद रुबाईयाँ हरिवंश राय बच्चन , अमिताभ और मन्ना डे के स्वर में...

पिछली पोस्ट की टिप्पणी में पंडित नरेंद्र शर्मा की पुत्री लावण्या जी ने 'मधुशाला' की रचना से जुड़ी एक बेहद रोचक जानकारी बाँटी है। लावण्या जी लिखती हैं
"......मधुशाला लिखने से पहले के समय की ओर चलें। श्यामा, डा.हरिवंश राय बच्चन जी की पहली पत्नी थीं जिसके देहांत के बाद कवि बच्चन जी बहुत दुखी और भग्न ह्र्दय के हो गये थे। तब इलाहाबाद के एक मकान में मेरे पापा जी के साथ कुछ समय बच्चन जी साथ रहे। तब तक बच्चन जी , ज्यादातर गद्य ही लिखते थे। पापा जी ने उन्हें "उमर खैयाम " की रुबाइयाँ " और फिट्ज़्जराल्ड, जो अँग्रेजी में इन्हीं रुबाइयों का सफल अनुवाद कर चुके थे, ये दो किताबें, बच्चन जी को भेंट कीं और आग्रह किया था कि
"बंधु, अब आप पद्य लिखिए " और "मधुशाला " उसके बाद ही लिखी गई थी।........"

'मधुशाला' की लोकप्रियता जैसे-जैसे बढ़ती गई हर कवि सम्मेलन में हरिवंश राय 'बच्चन' जी इसकी कुछ रुबाईयाँ सुनानी ही पड़तीं। मैंने सबसे पहले की कुछ रुबाईयाँ मन्ना डे की दिलकश आवाज़ में सुनी थी। उसी कैसेट में हरिवंश राय 'बच्चन' जी की आवाज में ये रुबाई सुनने का मौका मिला था। आप भी सुनें...



मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।

मन्ना डे की सधी आवाज़ में HMV पर रिकार्ड किया हुआ कैसेट तो आप सब सुन चुके ही होंगे। पर अमिताभ बच्चन की आवाज में 'मधुशाला' की पंक्तियाँ सुनने का आनंद अलग तरह का है। वो उसी लय में 'मधुशाला' पढ़ते हैं जैसे उनके पिताजी पढ़ते थे। और अमिताभ की आवाज़ तो है ही जबरदस्त। पीछे से बजती मीठी धुन भी मन में रम सी जाती है और बार-बार हाथ रिप्ले बटन पर दब जाते हैं। तो पहलें सुनें अमिताभ की आवाज में 'मधुशाला' की चंद रुबाईयाँ जो उन्होंने पिता के सम्मान में किए गए कवि सम्मेलन के दौरान सुनाईं थीं।




अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,
फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया -
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!

एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।

मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला ।

यम आयेगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला,
पी न होश में फिर आएगा सुरा-विसुध यह मतवाला,
यह अंतिम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है,
पथिक, प्यार से पीना इसको फिर न मिलेगी मधुशाला।

मेरे अधरों पर हो अंतिम वस्तु न तुलसीदल प्याला
मेरी जीह्वा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला,
मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना
राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।

मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आँसू में हाला
आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला,
दे मुझको वो कांधा जिनके पग मद डगमग होते हों
और जलूं उस ठौर जहाँ पर कभी रही हो मधुशाला।

और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला
कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,
प्राणप्रिये यदि श्राद्ध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालों को बुलवा कर खुलवा देना मधुशाला।
'मधुशाला' लिखने के बाद बच्चन जी ने कुछ रुबाईयाँ और लिखीं थी जिनमें से कुछ का जिक्र मैंने पिछली पोस्ट में किया था। वहीं अपनी टिप्पणी में संजीत ने जिस रुबाई का ज़िक्र किया है उसे सुनकर आँखें नम हो जाती हैं। बच्चन जी ने इसके बारे में खुद लिखा था...

".......जिस समय मैंने 'मधुशाला' लिखी थी, उस समय मेरे जीवन और काव्य के संसार में पुत्र और संतान का कोई भावना केंद्र नहीं था। अपनी तृष्णा की सीमा बताते हुए मृत्यु के पार गया, पर श्राद्ध तक ही

प्राणप्रिये यदि श्राद्ध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालों को बुलवा कर खुलवा देना मधुशाला।

जब स्मृति के आधार और आगे भी दिखलाई पड़े तो तृष्णा ने वहाँ तक भी अपना हाथ फैलाया और मैंने लिखा....

पितृ पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला। .........."

मन्ना डे ने बड़े भावपूर्ण अंदाज में इन पंक्तियों को अपना स्वर दिया है। सुनिए और आप भी संग गुनगुनाइए ....

 

मेरी पसंदीदा किताबें...

सुवर्णलता
Freedom at Midnight
Aapka Bunti
Madhushala
कसप Kasap
Great Expectations
उर्दू की आख़िरी किताब
Shatranj Ke Khiladi
Bakul Katha
Raag Darbari
English, August: An Indian Story
Five Point Someone: What Not to Do at IIT
Mitro Marjani
Jharokhe
Mailaa Aanchal
Mrs Craddock
Mahabhoj
मुझे चाँद चाहिए Mujhe Chand Chahiye
Lolita
The Pakistani Bride: A Novel


Manish Kumar's favorite books »

स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

एक शाम मेरे नाम Copyright © 2009 Designed by Bie