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शनिवार, अप्रैल 25, 2009

राँची की एक शाम पीनाज मसानी के नाम : कहाँ थे रात को हमसे ज़रा निगाह मिले...

पिछली पोस्ट में पीनाज़ से जुड़ी यादों को बाँटते वक़्त आपसे वादा किया था यह बताने का कि आज की पीनाज़ मसानी मुझे क्यूँ नहीं भाती ? करीब ढाई साल पहले की बात रही होगी। कार्यालय के काम से कर्नाटक के शिमोगा के पास के अपने भद्रावती के संयंत्र में गया था। काम निपटने के बाद अचानक खबर मिली कि शाम को पीनाज़ मसानी का कार्यक्रम है।



पर दिक्कत ये थी कि कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए पॉस की जरूरत थी जो हमारे पास नहीं था। थी तो बस मित्र की एक एम्बेस्डर गाड़ी। अब एम्बेस्डर चाहे कैसी भी हो, इससे उतरने के माने एक छोटे से शहर में यही हैं कि आप सरकारी महकमे वाले हैं। तो जनाब पुलिस के बंदोबस्त के बीच हम कार से उतरे और बिना इधर उधर देखे सीधे हॉल के प्रांगण में चल पड़े। अब मजाल है कि कोई हमारे पॉस के बारे में पूछता। :)

दरअसल मैं और मेरे वरीय सहयोगी पीनाज़ की गाई ग़ज़लों के प्रशंसक रह चुके थे। अंदर पहुँचे तो स्टेज को देख माज़रा समझ नहीं आया। भला एक ग़जल गायिका के शो में इतनी प्रकाश व्यवस्था और पीछे रखे विशाल म्यूजिक सिस्टम का क्या काम ! कार्यक्रम शुरु होते ही जिस तरह नर्तकों और नृत्यांगनाओं के बीच पीनाज़ ने प्रवेश किया, ये समझ आ गया कि यहाँ ग़ज़लों के आलावा सब कुछ होने वाला है। और हुआ भी वही। ग़ज़लों को अपनी सुरीली आवाज़ से सँवारने वाली पीनाज़ नए चलताउ गानों में नर्तकों के साथ थिरकती नज़र आईं। गाने भी ऐसे जिसमें गायिकी से ज्यादा नाचने का स्कोप ज्यादा हो। मन ही मन दुखी हुए कि प्रवेश के लिए इतनी बहादुरी दिखाने के बाद ये नज़ारा देखने को मिलेगा। फिर ये सोचकर संतोष किया कि शायद ये कर्नाटक है, ये सोचकर पीनाज़ ने कार्यक्रम की रूपरेखा ऍसी रखी होगी।


इसीलिए जब एक हफ्ते पहले राँची में हमारे कार्यालय के सभागार कक्ष में पीनाज मसानी के कार्यक्रम के बारे में सुना तो सोचा राँची में सेलकर्मियों के बीच तो वो अपनी ग़ज़ल जरूर सुनवाएँगी। पर जब यहाँ भी उनके कार्यक्रम का वही रूप देखा तो मन बेहद निराश हो गया। म्यूजिक सिस्टम के शोर के बीच में सधा नृत्य करते नर्तक पर पीनाज़, सिर्फ गीत के मुखड़े और एक आध अंतरे को गा रही थीं और वो भी उखड़े उखड़े सुरों के साथ। शायद वो सोचती हैं कि आज के श्रोता अच्छी गायिकी से ज्यादा ग्लैमर और चकाचौंध पर ज्यादा विश्वास रखते हैं।



खैर इन फिल्मी गीतों के बीच उन्होंने बेटियों पर लिखा एक प्यारा नग्मा गा कर सुनाया जिसे सुन कर मन को थोड़ा सुकून पहुँचा

साँसों में प्रीत भरे,
रागों में गीत भरे,
सपनों में रंग भरे बेटी।
लक्ष्मी का दीप जले,
आरती का शंख बजे,
जिस घर में वास करे बेटी।'


पीनाज़ ने बताया कि इस गीत की संगीत रचना शांतनु मोइत्रा की है और वो अपने हर कार्यक्रम में इस गीत को जरूर पेश करती हैं ताकि इस बारे में लोगों में जागरुकता बढ़े।

जब ग़ज़ल सुनने आई जनता को गीतों की ये मार भारी पड़ने लगी तो किसी ने पीछे से आवाज़ दी कि ग़ज़ल सुनने को कब मिलेंगी? पीनाज़ तुरंत माहौल को समझ गई़ और कहा कि म्यूजिशियन तो मैं अपने साथ लाई नहीं फिर भी आपकी क्या फरमाइश है। पहले अनुरोध पर उन्होंने यूँ उनकी बज्म ए खामोशियों ने काम किया..सुनाया जिसे सुन कर मन गदगद हो गया। फिर किसी ने आज जाने की जिद ना करो का अनुरोध किया। उनके गाए हुए भाग की एक हिस्से की रिकार्डिंग मैं कर पाया। लीजिए सुनिए...


और जब इसके बाद उन्होंने पूछा और कोई रिक्वेस्ट तो मुझसे ना रहा गया और मैं कह बैठा कहाँ थे रात को हमसे ज़रा निगाह मिले सुनाइए और पीनाज़ ने उसे भी गा कर सुनाया। पिछली पोस्ट में पेश की गई ग़ज़ल की तरह जनाब दाग़ देहलवी की ये ग़ज़ल भी मुझे बेहद प्रिय रही है। जो लोग मुँह की बजाए आँखों के ज़रिए अपनी भावनाओं को संप्रेषित करने में विश्वास रखते हैं उन्हें से ग़ज़ल निश्चय ही पसंद आएगी..


कहाँ थे रात को हमसे ज़रा निगाह मिले
तलाश में हो कि झूठा कोई गवाह मिले


ये है मजे कि लड़ाई ये है मजे का मिलाप
कि तुझसे आँख लड़ी और फिर निगाह मिले


तेरा गुरूर समाया है इस क़दर दिल में
निगाह भी न मिलाऊँ जो बादशाह मिले

मसलहत* ये है कि मिलने से कोई मिलता है
मिलो तो आँख मिले, मिले तो निगाह मिले


रहस्य, परामर्श *

ये सब सुनकर कार्यक्रम के पहले हिस्से में हो रहा मलाल कुछ हद तक धुल गया। पर कार्यक्रम खत्म होने के बाद हम सब यही विचार विमर्श करते रहे कि जिस सुर में और जिस सिद्धस्थता के साथ वो ग़ज़लें गाती हैं उसे छोड़कर एक बेहद मामूली तरह के स्टेज गायक की छवि ओढ़ने की उन्हें क्या जरूरत पड़ गई है। इस सवाल का जवाब तो पीनाज मसानी ही दे सकती हैं पर आप कहें कि आप की क्या राय है इस बारे में...

मंगलवार, अप्रैल 21, 2009

पीनाज़ मसानी से जुड़ी यादें : यूँ उनकी बज्म-ए-खामोशियों ने काम किया

पीनाज मसानी अस्सी के दशक में एक ऍसी आवाज़ थी जिसे बारहा हम और आप दूरदर्शन पर सुना करते थे और सराहा करते थे। उस वक्त घर में ग़ज़लों की कैसेट कम ही आ पाती थीं क्यूँकि उनके दाम उस जमाने में भी अस्सी रुपये से ऊपर हुआ करता थे और वो हमारे उस वक़्त के जेब खर्च से कहीं ज्यादा था।

शायद आठवीं क्लॉस में रहा हूंगा जब घर में नेपाल सीमा पर रहने वाले एक रिश्तेदार वहाँ से कुछ कैसेट लाए थे। उन्हीं में से एक कैसेट थी जिसकी एक साइड में पीनाज मसानी और दूसरी साइड में तलत अज़ीज की गज़ले थीं। वो कैसेट मुझे बेहद पसंद आई। लिहाज़ा उसे रिवाइंड कर कर इतना सुना गया कि उसका टेप रगड़ खाकर टूट गया। बाद में पीनाज को सुनते रहे पर उतना आनंद कभी नहीं आ पाया।

मुंबई यूनिवर्सिटी से स्नातक, पीनाज़ मसानी आगरा घराने की शागिर्द रही हैं और ग़ज़ल गायिकी उन्होंने उस्ताद मधुरानी जी से सीखी। १९८१ में बतौर ग़ायिका के रूप में उन्हें पहचान मिली। पर इसका एक बड़ा श्रेय संगीतकार जयदेव को भी जाता है जिन्होंने पीनाज की प्रतिभा को १९७८ में एक संगीत प्रतियोगिता के दौरान पहचाना। इस प्रतियोगिता में पीनाज अव्वल रही थीं। जयदेव ने इस युवा प्रतिभा के कैरियर में काफी दिलचस्पी ली जिसकी वज़ह से पीनाज़ दूरदर्शन पर ग़ज़ल गायिका के रूप में पहचानी जाने लगीं।

अस्सी का दशक ग़ज़ल गायकों के लिए स्वर्णिम काल कहा जा सकता है। क्या पंकज उधास, क्या अनूप जलोटा सब के सब गोल्ड और प्लेटिनम डिस्क जीत रहे थे। इस दौर में पीनाज के भी दर्जनों एलबम आए और वो भी प्लेटिनम डिस्क की हक़दार बनीं। पर ज्यों ही फिल्म संगीत नब्बे के दशक से फिर अपने को स्थापित करने लगा, म्यूजिक कंपनियों की रुचि इन कलाकारों में कम होने लगी। पिछले दस सालों में पीनाज ने बहुत कम ही गाया है, पर उनके पुराने समय को याद कर, सरकार ने हाल ही में उन्हें पद्मश्री सम्मान से विभूषित किया।

आज जो ग़ज़ल आपके सामने पेश कर रहा हूँ ये उसी कैसट का हिस्सा थी जिसका जिक्र, मैंने इस प्रविष्टि के शुरु में किया है।। इस ग़ज़ल का संगीत संयोजन किया था मधुरानी जी ने तो और इसके बोल लिखे थे सईद राही ने। पीनाज़ की गायिकी का अंदाज़ कुछ ऐसा है कि सामान्य से लगने वाले अशआरों मे उनकी आवाज़ की खनक से एक नई चमक आ जाती है



यूँ उनकी बज्म-ए-खामोशियों ने काम किया
सब ही ने मेरी मोहब्बत का एहतराम किया

हमारा नाम भी लेने लगे वफ़ा वाले
हमें भी आ के फरिश्तों ने सलाम किया

तेरे ही ख़त, तेरी तसवीर ले के बैठ गए
ये हमने काम यही सुबह शाम किया

ज़माना उनको हमेशा ही याद रखेगा
वो जिसने इश्क़ की दुनिया में अपना नाम किया

तू बेवफ़ा है मगर मुझको जां से प्यारा है
इसी अदा ने राही तेरा गुलाम किया

पर अचानक पीनाज मसानी मुझे क्यूँ कर याद आ गईं? दरअसल कुछ दिनों पहले वो राँची आई थीं, हमारा यानि सेल परिवार का मनोरंजन करने और मैंने भी उस कार्यक्रम में भाग लिया था। अगली पोस्ट में आपको बताऊँगा कि आज की पीनाज मसानी मुझे क्यों निराश करती हैं ? साथ ही होगी उसी कैसट की मेरी एक और पसंदीदा ग़ज़ल जिसकी कुछ पंक्तियाँ उन्होंने मेरे अनुरोध पर कार्यक्रम में गाकर सुनाईं...
 

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