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शुक्रवार, अगस्त 13, 2021

जे ऐथो कदि रावी लंग जावे : जब सज्जाद अली को आई परदेश में देश की याद ..Hindi Translation of Ravi by Sajjad Ali

अपने वतन से दूर रहने का दर्द अक्सर हमारे गीतों और कविता व शायरी की पंक्तियों में उभरता रहा है। अपने लोग, रहन सहन, संस्कृति की यादें अपनी जड़ों से दूर होने पर रह रह कर आती हैं। इतना ही नहीं बचपन में जिस रूप में हम आपने आस पास की प्रकृति में रमे होते हैं उन्हीं खेत खलिहानों, नदियों और पर्वतों में हमारा जी बार बार लौटने को करता है। नदी की बात से जान एलिया के वे शेर याद आ रहे हैं जो उन्होंने अमरोहा में एक समय बहने वाली नदी बान के लिए कहे थे।


ऐ मेरी सुब्ह ओ शाम ए दिल की शफ़क़ (गोधूलि बेला )
तू नहाती है अब भी बान में क्या

इस समंदर में तिश्ना‍-‍काम (प्यासा) हूँ मैं
बान तुम अब भी बह रही हो क्या

जान एलिया को जहाँ हमेशा अपने बान की कमी महसूस हुई वैसे ही सज्जाद अली को दुबई में बैठे रावी नदी की याद आ गयी और उन्होंने उस नदी के माध्यम से अपने इस गीत में अपना मुल्क़, संगी साथी व प्रेमी सबको याद कर लिया। यही वज़ह थी कि सज्जाद ने अपने इस गीत को उन परदेशियों को समर्पित किया है जिन्होंने अपने घर अपने मुल्क से दूर जा कर बनाए हैं।

सज्जाद अली के गीतों का मैं हमेशा से शैदाई रहा हूँ। इससे पहले भी उनके गीतों  लगाया दिल, मैंने इक किताब लिखी है, हर ज़ुल्म तेरा याद है, तुम नाराज हो, दिन परेशाँ है से आपको मिलवाता रहा हूँ। रावी यूँ तो दो साल पहले रिलीज़ हुई पर इस पंजाबी गीत से मेरा परिचय चंद महीने पहले अनायास ही हो गया। मैं गायिका हिमानी कपूर का एक लाइव सुन रहा था और उसी सेशन में सज्जाद अली की बिटिया जाव अली भी आ गयी और उन्होने हिमानी के गाने की तारीफ़ की। जवाब ने हिमानी ने भी बताया कि वो सज्जाद साहब की कितनी बड़ी फैन है और उन्होंने उसी वक़्त रावी गा कर सुनाया। हिमानी ने अभी गाना खत्म भी नहीं किया था कि सज्जाद अली स्वयं प्रकट हो गये और हँसते हुए कहने लगे यहाँ बिना मुझसे पूछे मेरे गाने कौन गा रहा है? 

पंजाबी में होने के बावज़ूद भी मैंने तुरंत इस गीत को सुना और बस सुनता ही चला गया। दिल को छूते शब्द. मन को सुकून देने वाला संगीत और सज्जाद अली की अद्भुत गायकी जिसमें वो दुबई के एक वाटर वे के किनारे वो टहलते हुए वो पंजाब की रावी नदी को याद कर रहे हैं। मैने आज कोशिश की है कि इस खूबसूरत गीत के केन्दीय भाव को इसके पंजाबी लफ़्ज़ों के साथ पेश करूँ ताकि आप भी एक परदेशी की उदासी को महसूस कर सकें।


जे ऐथो कदि रावी लंग जावे
हयाती पंजाबी बन जावे
मैं बेड़ियाँ हज़ार तोड़ लाँ
मैं पाणी चो साह निचोड़ लाँ
जे ऐथो कदि रावी लंग जावे...हो

काश ऐसा हो कि इस सरज़मीं पर वही रावी आ जाए जो पाँच नदियों से बने पंजाब की धरती पर बहा करती है। अपनी इस मुराद को पूरा करने के लिए मैं हज़ारों बेड़ियाँ तोड़ने को तैयार हूँ। एक बार उसकी झलक मिल  जाए तो उसके बहते पानी को निचोड़ परदेश में जलते इस हृदय की आग को ठंडा कर लूँगा।

जे रावी विच पाणी कोई नहीं
ते अपनी कहानी कोई नहीं
जे संग बेलिया कोई ना
ते किसी नूँ सुनाणी कोई नहीं
आखाँ च दरिया घोल के
मैं जख्माँ दी था ते रोड़ लाँ
जे ऐथो कदि रावी लग जावे...हो

अरे वही रावी तो थी जिसका पानी मुझे अपने दोस्तों की याद दिला देता था। आज ना वो बहता पानी है और ना ही वे दोस्त मेरे पास हैं फिर किस को मैं अपनी बीती हुई दास्ताँ बयाँ करूँ। परदेश का ये अकेलेपन दिल में ना जाने कितने जख़्म दे गया है। मन तो करता है कि अपनी आँखों में राबी का वो सारा पानी घोल लूँ और जब वो पानी दिल में उतरे तो मलहम की तरह इन घावों को भर दे।

एह कैसी मजबूरी हो गयी
कि सजना ते दूरी हो गयी
ते वेलया दे नाल वघ दी
एह जिंद कदों पूरी हो गई
बेगानियाँ दी राह छोड़ के
मैं अपनी महार मोड़ लाँ

रोज़ी रोटी पाने कि ये कैसी मजबूरी है जिसने मुझे मेरे प्यार से अलग कर दिया। दोस्तों के साथ बहती ज़िंदगी कब पीछे छूट कर अपने आख़िरी पड़ाव पर आ गयी ये पता ही नहीं चला। मेरा वश चले तो इन बेगानी राहों को मोड़ फिर अपने वतन पहुँच जाऊँ।


सज्जाद अली के संगीत वीडियो की खासियत है कि उसमें कोई ताम झाम नहीं होता। हाँ उनकी टीम का संगीत मन को सुकून पहुँचाने वाला जरूर होता है और उनके लिखे बोल उनकी आवाज़ में किसी भी श्रोता के दिल के रास्ते को चंद मिनटों में नाप लेते हैं।

मंगलवार, अक्टूबर 02, 2018

लगाया दिल बहुत पर दिल लगा नहीं.... Lagaya Dil

बहुत दिनों से एक शाम मेरे नाम पर जो चुप्पी छाई थी उसकी वज़ह थी यात्राएँ और उनकी तैयारियाँ। इस बीच में कई अच्छी फिल्में आई हैं जिनका संगीत काफी सराहा गया है। उनमें एक तो है अनु मलिक की सुई धागा जिसके कुछ गाने आप अगली वार्षिक संगीतमाला में जरूर सुनेंगे। इसी तरह पटाखा और मंटो के अलग तरह के विषयों पर आधारित होने के कारण श्रोताओं को इन फिल्मों से नया सुनने को मिल सकता है। ये तो हुई हिंदी फिल्मों की बात लेकिन आज मैं आपको एक हल्का फिल्मा गैर फिल्मी गीत सुनाने जा रहा हूँ जो सुनने में तो मधुर है ही और युवाओं को तो और भी पसंद आएगा।


ये गीत है लगाया दिल बहुत पर दिल लगा नहीं..जो इस साल अप्रैल में रिलीज़ हुआ था । गीत के बोल तो बेहद सहज थे पर मशहूर गायक सज्जाद अली की आवाज़ का जब इन शब्दों का साथ मिला तो उनका वज़न ही कुछ और हो गया। आप तो जानते ही हैं कि सज्जाद की आवाज़ का मैं शैदाई रहा हूँ। इस ब्लॉग में आप उनकी आवाज़ में गाए कुछ बेमिसाल नग्मे दिन परेशां है रात भारी है, हर जुल्म तेरा याद है भूला तो नहीं हूँ, मैंने इक किताब लिखी है, तुम नाराज़ हो पहले भी सुन चुके हैं।

सज्जाद की आवाज़ में जो ठहराव है वो श्रोताओं को अपनी ओर खींच ही लेता है। आप बस उनकी आवाज़ सुनते हैं खो जाते हैं। अपने गीतों में वो गिटार का बेहद खूबसूरत इस्तेमाल करते हैं। कई दफ़े अपने गीतों को वो लिखते भी ख़ुद हैं। इस गीत को भी उन्होंने ही लिखा और शायद अपने स्कूल और कॉलेज के उन दिनों को याद कर के लिखा होगा जब बतौर इंसान समझने की कोशिश में लगे रहते हैं कि इश्क़ आख़िर चीज़ क्या है पर उसका अक़्स समझते समझते ज़िदगी बीत जाती है। उम्र के इस दौर में युवाओं के मन में चलते उहापोह को सज्जाद ने
 इस गीत के ज़रिए टटोलना चाहा है।

लगाया दिल बहुत पर दिल लगा नहीं
तेरे जैसा कोई हमको मिला नहीं

ज़माने भर की बातें उनसे कह दीं
जो कहना चाहिए था वो कहा नहीं

वो सच में प्यार था या बचपना था
मोहब्बत हो गयी थी क्या पता नहीं

वो मुझको लग रहा था प्यार मेरा
वो जैसा लग रहा था वैसा था नहीं

ना रोया था बिछड़ने पर मैं उनके
मगर हाँ ज़िदगी में फिर हँसा नहीं

ये तोहफे हैं जो अपनों से मिले हैं 
हमें गैरों से कोई भी गिला नहीं


इस गीत की रचना के समय सज्जाद ने कुल आठ अशआर लिखे थे जिसमें तीन गीत की लंबाई को कम रखने के लिए हटा दिए गए। पर जो अशआर हटाए गए उनमें एक में सज्जाद शायर जॉन एलिया की तारीफ करते नज़र आए हैं कि उनके जैसा कुछ पढ़ा नहीं..

गलत निकला जो बचपन में सुना था
वफ़ा का अज्र मिलता है सजा नहीं

अगर कुछ रह गया है तो बता दो
कहो क्या रह गया है क्या किया नहीं

अगर पढ़ने लगो तो जॉन पढ़ना
बड़े शायर पढ़े ऍसा पढ़ा नहीं





वैसे बतौर गायक सज्जाद की आवाज़ आपको कैसी लगती है और उनका गाया आपका पसंदीदा नग्मा कौन सा है?

शनिवार, अक्टूबर 07, 2017

मैंने इक किताब लिखी है... सज्जाद अली Tera Naam by Sajjad Ali

सज्जाद अली की आवाज़ से पहली बार मैं फिल्म बोल के गीत दिल परेशां है रात भारी है से परिचित हुआ था और तबसे मैं उनकी आवाज़ का शैदाई हूँ। यूँ तो उन्होंने हर तरह के गीत लिखे हैं पर उदासी भरे गीतों में उनकी गायिकी का कमाल देखते ही बनता है। कुछ ही महीने पहले मैंने आपको उनकी आवाज़ में आफ़ताब मुज़्तर की लिखी ग़ज़ल हर जुल्म येरा याद है भूला तो नहीं हूँ सुनवाई थी। ये उनकी आवाज़ का ही असर है कि संगीतप्रेमियों को तो इसका हर  शेर दिल में नासूर सा बन कर रह रह कर टीसता है। तुम नाराज हो में मामूली से शब्द को भी अपनी गायकी से वे श्रोताओं  के दिल के करीब ले आते हैं। यही वज़ह है कि संगीतकार ए आर रहमान तक उनकी प्रतिभा का लोहा मानते हैं।


ऍसा ही जादू वो एक बार फिर जगाने में सफल रहे हैं कोक स्टूडियो के नए सीजन 10 में। फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार उनके लफ़्ज़ रूमानियत की चाशनी में घुले हैं और उदासी की बजाए गीत की मधुरता और संगीत का रिदम मन को खुश कर देता है। अपने इस गीत के बारे में वो कहते हैं
"बहुत साल पहले मैंने एक रोमांटिक गाना बनाया था जिसके बोल थे मैंने इक किताब लिखी है, उस किताब के पहले सफ़े पे तेरा नाम लिखा है। बस इतना ही लिखा था। कुछ महीने पहले  कोक स्टूडियो के लिए इस गाने को पूरा लिखना था। पर जब मैं लिखने बैठा तो ये गाना काग़ज़ पर इस तरह उतरता गया कि ये एक हम्द (भगवान की स्तुति में गाया जाने वाला गीत) बन गयी।"
बहरहाल मुझे तो ये गीत अभी भी प्रेम में डूबे हुए आशिक़ का ही नज़र आता है जिसके दिलो दिमाग पर बस एक ही चेहरा है, एक ही आवाज़ है, एक ही अस्तित्व है और वो है अपनी माशूका का। सज्जाद की आवाज़ की चंचलता मन को लुभाती है वहीं गीत की धुन झूमने पर मजबूर कर देती है।

पर अगर आप सज्जाद का नज़रिया देखें तो किताब के पन्ने ज़िंदगी के अलग अलग मोड़ पर परवरदिगार को खोजने परखने और अपने उत्तरों को पाने की कोशिश का पर्याय बन जाते हैं।

सज्जाद इस गीत के संगीतकार भी हैं। इस गीत को उन्होंने जब पहली बार लिखा था तभी एक धुन उनके दिमाग में थी। उनकी कोशिश यही थी कि जो रिदम उन्होंने गीत के लिए सोची थी उसी में चीजें आती जाएँ और अपनी जगह उसी रिदम में बनाती जाएँ। गीत में गिटार, वायलिन और ताल वाद्यों की धनक के साथ बाँसुरी का अच्छा मिश्रण है। तो सुनिए एक बार ये गीत feel good का अहसास देर तक तारी रहेगा...

मैंने इक किताब लिखी है
उस किताब के पहले सफ़े पर 
तेरा नाम तेरा नाम तेरा नाम लिखा है तेरा नाम

दूसरे सफ़े पे  मैंने
सीधी साधी बातें लिखीं
लिखी हुई बातों से भी आती है आवाज़
मैंने जो आवाज़ सुनी है
उस आवाज़ के पहले सुरों में
तेरा नाम तेरा नाम तेरा नाम सुना है तेरा नाम

तीसरा सफ़ा क्या लिखा
कहकशाएँ खुलने लगीं
सदियों पुराने सभी राज खुल गए
मुझ पे क़ायनात खुली है
क़ायनात के पहले सिरे पर 
तेरा नाम तेरा नाम तेरा नाम खुला है तेरा नाम


वैसे आपको बता दूँ कि सज्जाद पचास की उम्र पार कर चुके हैं फिर भी उनकी आवाज़ की शोखी जस की तस है। कोक स्टूडियो में इस बार उन्होंने अपनी बेटी ज़ाव अली के साथ भी एक नज़्म गाई है। ख़ैर उसकी बात तो फिर कभी फिलहाल अपने "उस" के नाम की मदहोशी में मेरी तरह आप भी डूबिए...

मंगलवार, अप्रैल 04, 2017

हर ज़ुल्म तेरा याद है, भूला तो नहीं हूँ Har Zulm

कुछ महीने पहले WhatsApp और फेसबुक पर एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें ज़मीन पर बैठा एक शख़्स गा रहा था। उसके कपड़े पर चूने के छींटे थे और पीछे उसका साथी दीवारों की पुताई में व्यस्त था। पर दो मिनट के वीडियो में उसकी सधी हुई गायिकी ने मुझे ऍसा प्रभावित किया कि कुछ दिनों तक तो ये ग़ज़ल होठों से चिपकी ही रही। 

इंटरनेट पर तो ये तुरंत ही पता चल गया कि ये ग़जल सज्जाद अली की गायी है। वही सज्जाद अली जिनकी आवाज़ की ओर मेरा ध्यान बोल फिल्म के गीत दिन परेशां है, रात भारी है से गया था। सज्जाद ने पहली बार इस ग़ज़ल को अपने एलबम कोई तो बात हो....  में पन्द्रह वर्ष पहले 2002 में शामिल किया था।  चार साल पहले जब इसका वीडियो यू ट्यूब पर रिलीज़ हुआ लोगों ने इसे काफी पसंद किया। सज्जाद के बारे में पहले भी यहाँ काफी कुछ लिख चुका हूँ। संगीत में दशकों से सक्रिय रहते हुए पचास वर्षीय सज्जाद फिलहाल दुबई में रहते हैं और इक्का दुक्का ही सही अपने सिंगल्स रिलीज़ करते रहते हैं।

पर जैसा मैंने शुरुआत में कहा कि इस ग़ज़ल से मेरी मुलाकात उस शख़्स ने करवायी जो पाकिस्तान में पेंटर बाबा के नाम से अपनी गायिकी के लिए जाना जाता है पर उनका वास्तविक नाम है ज़मील अहमद। सज्जाद ने जब अपनी गायी इस ग़ज़ल को ज़मील की आवाज़ में सुना तो वो भी ज़मील के हुनर की दाद दिए बिना नहीं रह सके। वैसे ज़मील ने इस अचानक मिली लोकप्रियता के बाद ग़ुलाम अली की ग़ज़ल चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला को भी अपनी आवाज़ दी है।

सज्जाद अली व आफ़ताब मुज़्तर
वैसे क्या आपको पता है कि इस ग़ज़ल को किसने लिखा? इसे लिखा है आफ़ताब मुज़्तर ने जो कराची से ताल्लुक रखते हैं और लेखक व शायर होने के साथ साथ एक रिसर्व स्कॉलर भी हैं। आफ़ताब साहब की इस ग़ज़ल में यूँ तो आठ अशआर थे पर सज्जाद ने गाने के लिए इनमें से चार को चुना। अपनी इस ग़ज़ल के बारे में आफ़ताब कहते हैं कि इस ग़ज़ल का वो शेर साहिल पे खड़े हो..  उनके उस्ताद ख़ालिद देहलवी को बेहद पसंद था और जब भी वे उनके पास जाते उस्ताद इस शेर की फर्माइश जरूर करते। तो आइए इस ग़ज़ल को सुनाने से पहले रूबरू कराते  हैं आपको इसके सारे अशआरों से..

हर ज़ुल्म तेरा याद है, भूला तो नहीं हूँ
ऐ वादा फ़रामोश मैं तुझ सा तो नहीं हूँ


ऐ वक़्त मिटाना मुझे आसान नहीं है
इंसान हूँ कोई नक़्श-ए-कफ़-ए-पा तो नहीं हूँ

तुम्हारा ढाया हर सितम मुझे याद है पर क्या करूँ मैं तुम्हारे जैसा तो हूँ नहीं जो अपने हर वादे से मुकर जाए। ऐ वक़्त मुझे उन पदचिन्हों की तरह ना समझो जिस पर चल कर तुम उसका निशां मिटा दो।

चुपचाप सही मसलेहतन वक़्त के हाथो,
मजबूर सही, वक़्त से हारा तो नहीं हूँ


उनके लिए लड़ जाऊँगा तक़दीर मैं तुझ से
हालांकि कभी तुझसे मैं उलझा तो नहीं हूँ

आज मैं सब कुछ जानते हुए किसी प्रयोजन से चुप हूँ।  मेरी इस मजबूरी, इस चुप्पी का ये मतलब मत लगा लेना कि मैंने तुम्हारे  सामने अपने घुटने टेक दिए हैं। यूँ तो भाग्य ने जिस ओर चलाया उसी ओर चलता रहा हूँ। पर जब बात उनकी हो तो फिर अपनी तक़दीर से  दो दो हाथ करने में मुझे परहेज़ नहीं।
ये दिन तो उनके तग़ाफ़ुल ने दिखाए
मैं गर्दिश ए दौरां तेरा मारा तो नहीं हूँ


साहिल पे खड़े हो तुम्हें क्या ग़म, चले जाना
मैं डूब रहा हूँ, अभी डूबा तो नहीं हूँ


मुझे तो बेहाली कभी छू भी नही सकी थी, ये दौर तो अब तेरी बेरुखी की वज़ह से आया है। तेरे ग़म में आज बदहवास सा मैं डूब रहा हूँ। और तुम हो कि बस बस यूँ ही दूर खड़े किनारे से देख भर रहे हो। जाओ, बस संतोष कर लो इस बात का कि मैं अभी तक डूबा नहीं हूँ।

क्यूँ शोर बरपा है ज़रा देखो तो निकल कर
मैं उसकी गली से अभी गुजरा तो नहीं हूँ

मुज़्तर मुझे क्यूँ देखता रहता है ज़माना
दीवाना सही उनका तमाशा तो नहीं हूँ


लो अभी मैं उसकी गली तक पहुँचा भी नहीं और पहले से ही छींटाकशी शुरु हो गयी। आख़िर ज़माना मुझ पर ही क्यूँ बातें बनाता है? मैंने कोई तमाशा तो नहीं सिर्फ प्यार ही तो किया है।

यूँ तो सज्जाद ने इस ग़ज़ल में गिटार का खूबसूरती से उपयोग किया है पर इस ग़ज़ल के बोलों में जो दर्द और इसकी धुन में जो मिठास है वो बिना किसी संगीत के ही दिल में बस जाने का माद्दा रखती है। तो आइए सुनते हैं इसे सज्जाद अली की आवाज़ में।

शुक्रवार, सितंबर 26, 2014

तुम नाराज़ हो... मेरे कितने पास हो Tum Naraz Ho Sajjad Ali Coke Studio

ज़िदगी में बनते बिगड़ते रिश्तों को तो आपने जरूर करीब से देखा होगा। कुछ रिश्ते तो भगवान ऊपर से ही मुकर्रर कर के भेजता है, और कुछ हम स्वेच्छा से बनाते हैं। नए रिश्तों के पनपने के उस दौर में साथ जिए लमहे अक्सर खास से हो जाते हैं। दिल के लॉकर में हिफाजत से पड़े उन क्षणों को मन का ये कबूतर जब तब फुदक फुदक के देख आता है। आख़िर इन पलों को इतनी अहमियत क्यूँ? क्यूँकि जिंदगी के इन्हीं पलों में आपका दिल अंदरुनी चक्रवातों में फँसा रहता है। इन चक्रवातों में फँसने की पीड़ा और और उनसे निकलने का सुख मिला जुला कर जीवन की वो अनमोल निधि बन जाते हैं जिसमें निहित खट्टे मीठे अहसासों को आप बार बार याद करना चाहते हैं।

जब आप किसी को पसंद करने लगते हैं तो मन ही मन ये भी तो चाहते हैं ना कि उसे भी आपका साथ उतना ही प्यारा लगे। अब ये प्यारा लगना इतना आसान भी तो नहीं । चंद मुलाकातों में भला कोई किसी को क्या जान पाता है? आप ने उन्हें संदेश भेजा और जवाब नहीं आया और आप इधर उधेड़बुन में खो गए कि हे राम मैंने कुछ उल्टा पुल्टा तो नहीं लिख दिया। बड़ी मुश्किल से उपहार खरीदा पर भेजने के बाद उनका धन्यवाद भरा जवाब नहीं आया फिर वहीं चिंता। हँसी मजाक में खिंचाई कर दी उस वक़्त तो जम कर हँसे पर शाम अकेले में सोचने बैठे तो ये ख्याल दौड़ने लगा कि यार कहीं उसने बुरा तो नहीं मान लिया। लबेलुबाब ये कि आप किसी हालत में अपने पल्लवित होते रिश्ते में नाराजगी का अंश मात्र भी देखना नही चाहते। जगजीत सिंह की ग़ज़ल का वो मतला तो याद है ना आपको 

आप से गिला आप की क़सम 
सोचते रहें कर न सके हम।

पर आपके सोचने से क्या होता है? गलतियाँ फिर भी हो जाती हैं । कभी जाने में तो कभी अनजाने में। किसी से शिकायत तो तभी होती है जनाब जब वो शख़्स आपसे उम्मीदें रखता हो और किसी से उम्मीदें तब ही रखी जाती हैं जब आप दिल से उस व्यक्ति का सम्मान करते हों। इसीलिए रिश्तों में शिकवे और शिकायते हों तो समझिए कि मामला दुरुस्त है शायद इसीलिए तो इस गीत में कहा गया है
कोई शिकवा भी नहीं कोई शिकायत भी नहीं
और तुम्हें वो हमसे पहली सी मोहब्बत भी नहीं



बहरहाल दोस्ती या प्रेम में नारजगी पर मैंने इतनी सारी बातें की। इसके पीछे कोक स्टूडियो के सीजन 7 में सज्जाद अली का गाया ये नग्मा है जिसे मैंने हाल में सुना और जो मन में कुछ ऐसे ही भावों को जन्म देता है। सज्जाद अली पाकिस्तान के मशहूर पॉप गायकों में से एक है। इनकी अलग सी आवाज़ को पहली बार फिल्म बोल के गीत 'दिन परेशाँ है रात भारी है जिंदगी है कि तब भी ज़ारी है ' में सुना था और सुनकर मेरी आँखें नम हो उठी थीं। उनकी आवाज़ में कुछ तो है ऐसा जो दर्द और बेचैनी जेसे भावों को सहज उभार देता है।

इस गीत को सज्जाद ने सबसे पहले अपने एलबम लव लेटर्स में गाया था। पर कोक स्टूडियो में बड़ी खूबसूरती से इस गीत का संगीत संयोजन बदला गया। शुरुआत का वायलिन और गीत के अंत में सज्ज़ाद की अद्भुत आवाज़ के साथ लहराती बाँसुरी सुन कोई भी नाराज हृदय पिघल उठेगा। गीत के बोल तो साधारण ही हैं पर सज्जाद की आवाज़ और संगीत संयोजन पूरे गीत को श्रवणीय बना देता है।

छोड़ो भी गिला, हुआ जो हुआ
लहरों की जुबाँ को ज़रा समझो
समझो क्या कहती है हवा
तुम नाराज़ हो मेरे कितने पास हो
नाजुक नाजुक सी, प्यारी प्यारी सी
मेरे जीने की आस हो

गुरुवार, फ़रवरी 23, 2012

वार्षिक संगीतमाला 2011 - पॉयदान संख्या 3 : दिन परेशां है रात भारी है...ज़िदगी है कि फिर भी प्यारी है

वार्षिक संगीतमाला की तीसरी पॉयदान पर के गीत के लिए मैं सिर्फ एक कलाकार की ही प्रतिभा को नमन कर सकता हूँ। वैसे भी जब किसी गीत के गीतकार, संगीतकार और गायक की भूमिका एक ही शख़्स निभा रहा हो तो मेरे पास विकल्प ही क्या बचता है? इस शख़्स का नाम है सज्जाद अली और ये गीत है पाकिस्तान में बनी फिल्म 'बोल' का जो पिछले साल भारत में भी प्रदर्शित और सराही गई थी़। आप भले ही सज़्जाद से परिचित ना हो पर ये कलाकार पिछले तीन दशकों से संगीत की दुनिया में सक्रिय हैं।


46 वर्षीय सज्जाद के पिता शफ़क़त हुसैन एक क्रिकेट खिलाड़ी थे पर बच्चे में संगीत के प्रति रुझान देखते हुए उन्हें शास्त्रीय संगीत की तालीम दी जाने लगी। 1983 में पीटीवी पर अपने कार्यक्रम की बदौलत सज्जाद पाकिस्तान में चर्चा में आए। पिछले तीन दशकों में सज्जाद, शास्त्रीय, सूफ़ी व पॉप जैसे भिन्न भिन्न प्रकृति के संगीत में अपनी काबिलियत दिखलाते रहे हैं। यही नहीं सज्जाद ने दो फिल्में भी बनाई और अभिनय भी किया है। कोई ताज्जुब नहीं कि बहुमुखी प्रतिभा के इस कलाकार के हुनर के शैदाइयों में ए आर रहमानहंस राज हंस जैसे धुरंधर भी शामिल हैं।


'बोल' फिल्म का ये गीत जब मैंने पहली बार सुना था तो मन अनमना सा हो गया था। जाने क्या दर्द था इस नग्में में। मैंने फिल्म 'बोल' देखी तो नहीं थी पर इतना जानता था कि इसकी कहानी एक ऐसी लड़की की कहानी है जो क़त्ल के जुर्म में फाँसी के तख्ते पर लटकाई जा रही है। फिल्म फ्लैशबैक में चलती है नायिका की कथा को अतीत से निकालती हुई। छः लड़कियों के बाद एक रुढ़िवादी पिता को अगली संतान के रूप में ऐसा पुत्र मिलता है जो एक लड़की जैसा दिखना और बनना चाहता है। पिता की सारी आकांक्षाएँ जब मिट्टी में मिल जाती हैं तो वो अपने अंदर की हताशा अपने बच्चे व बेटियों पर निकालता है।

एक ओर प्यारा भाई तो दूसरी ओर उन्हें हेय दृष्टि से देखने वाला ज़ालिम पिता जिसे ना तो अपनी बेटियों की खुशियाँ सुहाती हैं ना अपने निर्दोष बच्चे की मासूमियत। ऐसी ही कठोर परिस्थितियों में चलती ज़िंदगी को सज्जाद अपने बोलों से उभारते हैं

इस कहानी को कौन रोकेगा
उम्र ये सारी कौन सोचेगा, कौन सोचेगा
साथ काटी है या गुजारी है
ज़िंदगी है कि फिर भी प्यारी है
दिल परेशां है रात भारी है

कितना सही कह गए सज्जाद ! ऐसा जीवन कटता नहीं बल्कि जैसे तैसे गुजर जाता है। 'बोल' फिल्म का ये गीत भले ही कहानी के अनुरूप लगे पर सच ये है कि सज्जाद ने ये गीत सबसे पहले अपने एलबम 'चहर बलिश' (Chahar Balish) के लिए लिखा था जो अप्रैल 2008 आया था। सज्जाद को बोल के लिए भी ये गीत उपयुक्त लगा तो उन्होंने उस गीत के एक अंतरे को बदलकर एकदम अलग संगीत संयोजन के साथ इस नग्मे को दोबारा फिल्म 'बोल' में शामिल किया। पर यहाँ ये बताना जरूरी होगा कि सज्जाद ने इस गीत का मुखड़ा अज़ीम शायर जनाब क़ाबिल अजमेरी की ग़ज़ल के मतले दिन परेशां है से लिया है। इस गीत से एकदम अलग इस रूमानी ग़ज़ल को  हरिहरण की आवाज़ में आप यहाँ सुन सकते हैं

इस गीत के बारे में तो बस इतना ही कहना चाहूँगा कि सीधे सच्चे शब्दों में व्यक्त पीड़ा जब पूरी तन्मयता से आप तक पहुँचे तो आँखे क्या दिल तक नम हो जाता है. बोल के इस नग्मे की यही ताकत है। गीत के बोल और संगीत खासकर बीच बीच में उभरती बाँसुरी की तान उदासी की चादर लपेटे हुए हैं जो दिल को कचोटते है। गीत सुनने के बाद भी इस टीस से उबरने में बहुत वक़्त लगता है। शायद आपको भी लगे...




दिन परेशां है रात भारी है
ज़िदगी है कि फिर भी प्यारी है
क्या तमाशा है कब से जारी है
ज़िंदगी है कि फिर भी प्यारी है

इस कहानी को कौन रोकेगा
उम्र ये सारी कौन सोचेगा, कौन सोचेगा
साथ काटी है या गुजारी है
ज़िंदगी है कि फिर भी प्यारी है
दिन परेशां है...

रंगों से कहूँ, लकीरों से कहूँ
मैली मैली सी तसवीरों से कहूँ, तसवीरों से कहूँ
बेक़रारी सी बेक़रारी है
ज़िदगी है कि फिर भी प्यारी है

बहुत लोगों को सज्जाद की आवाज़ सामान्य पुरुष स्वर से अलग लगती है। मुझे भी लगी थी पर इस गीत के बोल और संगीत का कुल मिलाकर असर ऐसा है कि उनकी आवाज़ की बनावट (texture) कम से कम मुझे तो इस गीत से विमुख नहीं करती।


 

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इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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