जिन्दगी यादों का कारवाँ है.खट्टी मीठी भूली बिसरी यादें...क्यूँ ना उन्हें जिन्दा करें अपने प्रिय गीतों, गजलों और कविताओं के माध्यम से!
अगर साहित्य और संगीत की धारा में बहने को तैयार हैं आप तो कीजिए अपनी एक शाम मेरे नाम..
जगजीत सिंह ने न जाने कितनी भावप्रवण ग़ज़लें गाई होंगी पर अपने कंसर्ट के बीचों बीच चुटकुले सुनकर माहौल को एकदम हल्का फुल्का कर देना उन्हें बखूबी आता था। उनके और लता जी की मजाहिया स्वभाव का नतीजा ये था कि जब भी वे लोग साथ मिलते आधा घंटा एक दूसरे को चुटकुले सुनाने के लिए तय होता था।
जगजीत जी के साथ चित्रा जी ग़ज़लों की एक महफ़िल में
अपनी निजी ज़िंदगी में भी वो ऐसे ही थे। आज उनका एक बेहद पुराना वीडियो मिला जहां वे दोस्तों की एक महफिल में अपनी मशहूर गजल सरकती जाए है रुख से नकाब आहिस्ता आहिस्ता सुना रहे हैं। इधर कुछ जल्दी जल्दी है और उधर कह कर उनका चित्रा की ओर मजाहिया लहजे में देखना लाजवाब कर गया। साथ ही ये वीडियो मुझे उनके जीवन को वो मोड़ याद दिला गया जहां से उन्होंने साथ साथ रहने का निश्चय किया था।
दरअसल चित्रा जी की पहली शादी अपने से कहीं ज्यादा उम्र के देबू दत्ता से हुई थी। रिश्ता देबू की तरफ से ही आया था पर बाद में उन्हें लगा कि उन्होंने अपने लिए बेमेल हमसफ़र चुन लिया है। चित्रा को दूसरा घर दिलाकर वो अलग रहने लगे और बाद में उनसे तलाक ले लिया। इस अलग अलग रहने से थोड़े दिन पहले ही जगजीत चित्रा के संपर्क में आए थे। जब चित्रा अपनी बेटी के साथ अलग रहने लगीं तो वो उन दोनों का ख्याल रखने लगे। साथ साथ जिंगल गाने से लेकर कंसर्ट तक करने में ये रिश्ता और प्रगाढ़ हुआ और एक दिन बुखार में तपते शरीर लिए जगजीत ने चित्रा से प्रणय निवेदन भी कर दिया।
पर चित्रा जी की मानसिक स्थिति जगजीत के प्रेम को तुरंत स्वीकार करने के लायक नहीं थी। एक तो कागजी तौर पर पहले पति से तलाक हुआ नहीं था और दूसरे बेटी को ले के भी वो असमंजस की स्थिति में थीं। इसलिए अंतिम हामी भरने के पहले हमारे जगजीत जी को उनके घर के कई चक्कर लगाने पड़े।
अब वीडियो देखिए और समझिए कि जगजीत ने जल्दी जल्दी किस मजाहिया लहजे में कहा और कितने शरारती अंदाज़ में आहिस्ता आहिस्ता कह कर चित्रा की ओर देखा। सबके सामने जगजीत को ऐसा करते देख चित्रा जी शर्मा गईं। उनकी शर्मीली खिलखिलाहट और जगजीत जी का गाने का तरीका आप सब के मन को भी जरूर आनंदित करेगा ऐसा मेरा विश्वास है :)।
जगजीत सिंह यूं तो आधुनिक ग़ज़ल के बेताज बादशाह थे पर उन्होंने समय समय पर हिंदी फिल्मों के लिए भी बेहतरीन गीत गाए। अर्थ, साथ साथ, प्रेम गीत, सरफरोश जैसी फिल्मों में उनके गाए गीत तो आज तक बड़े चाव से सुने और गुनगुनाए जाते हैं। पर इन सब से हट कर उन्होंने कुछ ऐसी अनजानी फिल्मों के गीत भी निभाए जो बेहद कम बजट की थीं और ज्यादा नहीं चलीं या फिर ऐसी जो बनने के बाद रिलीज भी नहीं हो पाईं।
एक ऐसी ही फिल्म थी नर्गिस जिसमें राजकपूर की आखिरी फिल्म हिना से मशहूर होने वाली जेबा बख्तियार के साथ थे नसीर और हेमा जी। पर इतने नामचीन कलाकारों के होते हुए भी ये फिल्म रुपहले परदे का मुंह नहीं देख पाई। फिल्म का संगीत दिया था पंचम के मुख्य सहायक बासु चक्रवर्ती ने और बोल थे मजरूह सुल्तानपुरी साहब के।
हालांकि बाद में फिल्म का म्यूजिक एलबम जरूर रिलीज़ हुआ जिसमें जगजीत और लता जी का एक युगल गीत भी था। बासु ने पंचम के लिए तो काम किया ही साथ में वे कम बजट की ऐसी फिल्मों में भी बतौर संगीतकार संगीत देते रहे। मनोहारी सिंह के साथ मिलकर उनका काम सबसे बड़ा रुपैया में काफी सराहा गया था। किशोर लता के युगल स्वरों में दरिया किनारे एक बंगलो की मस्ती को कौन भूल सकता है।
जब मैं रुड़की में था तो मेरे एक मित्र जो कि जगजीत के बड़े प्रशंसक थे ने मुझे अपनी कलेक्शन से ये नग्मा सुनाया। जगजीत की आवाज़ के साथ मुखड़े में मजरूह की कविता मुझे इतनी प्यारी लगी थी कि मैं उनके कमरे से ये पंक्तियां गुनगुनाता हुआ निकला था
शफ़क़ हो, फूल हो, शबनम हो, माहताब हो तुम
नहीं जवाब तुम्हारा, कि लाजवाब हो तुम
मैं कैसे कहूँ जानेमन, तेरा दिल सुने मेरी बात
ये आँखों की सियाही, ये होंठों का उजाला
ये ही हैं मेरे दिन–रात...
शफ़क़ (सूर्य के निकलने और डूबने के समय क्षितिज पर दिखाई देनेवाली लाली), माहताब (चंद्रमा), शबनम (ओस)
जाहिर है कॉलेज के दिन थे तो ऐसी आशिकाना शायरी दिल को ज्यादा ही लुभाती थी।
कुछ दिनों पहले जननी कामाक्षी की आवाज़ में ये मुखड़ा फिर सुना तो वे दिन फिर एक बार याद आ गए। मुंबई में बतौर Information System Auditor के रूप में कार्य कर रहींजननी कामाक्षी कर्नाटक संगीत में तो प्रवीण हैं ही, फिल्मी गीतों, भक्ति संगीत और ग़ज़लों को भी गाहे बगाहे अपनी मधुर आवाज़ से तराशती रहती हैं। तो सुनिए उनके स्वर में जगजीत जी का ये गीत
काश तुझको पता हो, तेरे रुख–ए–रौशन से
तारे खिले हैं, दीये जले हैं, दिल में मेरे कैसे कैसे
महकने लगी हैं वहीं से मेरी रातें
जहाँ से हुआ तेरा साथ, मैं कैसे कहूँ जानेमन
रुख–ए–रौशन (चमकता हुआ चेहरा), गुल (फूल)
पास तेरे आया था मैं तो काँटों पे चलके
लेकिन यहाँ तो कदमों के नीचे फर्श बिछ गये गुल के
के अब ज़िन्दगानी, है फसलें बहाराँ
जो हाथों में रहे तेरा हाथ, मैं कैसे कहूँ जानेमन
बासु ने इस गीत को रचा भी क्या खूब कि बिना किसी संगीत के भी मन इस नग्मे के मीठे मीठे ख्यालातों को सुनकर हल्का हो जाता है। जगजीत की आवाज़ में ये रूमानियत सुनने वालों को एक ऐसे मूड में ले जाती थी जहाँ से निकलने में घंटों लग जाते थे। जननी ने तो इस गीत का सिर्फ मुखड़ा गाया पर वो भी इतने सुर में और अपनी खनकती मधुर आवाज़ के साथ कि जगजीत सुनते तो वे भी बेहद खुश होते।
कलाकार कितनी भी बड़ा क्यूँ ना हो जाए फिर भी जिसकी कला को देखते हुए वो पला बढ़ा है उसके साथ काम करने की चाहत हमेशा दिल में रहती है। सत्तर के दशक में जब जगजीत बतौर ग़ज़ल गायक अपनी पहचान बनाने में लगे थे तो उनके मन में भी एक ख़्वाब पल रहा था और वो ख़्वाब था सुर कोकिला लता जी के साथ गाने का।
जगजीत करीब पन्द्रह सालों तक अपनी इस हसरत को मन में ही दबाए रहे। अस्सी के दशक के आख़िर में 1988 में अपने मित्र और मशहूर संगीतकार मदनमोहन के सुपुत्र संजीव कोहली से उन्होंने गुजारिश की कि वो लता जी से मिलें और उन्हें एक ग़ज़लों के एलबम के लिए राजी करें। लता जी मदनमोहन को बेहद मानती थीं इसलिए जगजीत जी ने सोचा होगा कि वो शायद संजीव के अनुरोध को ना टाल पाएँ।
पर वास्तव में ऐसा हुआ नहीं। जगजीत सिंह की जीवनी से जुड़ी किताब बात निकलेगी तो फिर में सत्या सरन ने लिखा इस प्रसंग का जिक्र करते हुए लिखा है कि
लता ने कोई रुचि नहीं दिखाई, उन्होंने ये पूछा कि उनको जगजीत सिंह के साथ गैर फिल्मी गीत क्यों गाने चाहिए? हालांकि बतौर गायक वो जगजीत सिंह को पसंद करती थीं। इसके आलावा वे उन संगीतकारों के लिए ही गाना चाहती थीं जिनके साथ उनकी अच्छी बनती हो।
लता जी को मनाने में ही दो साल लग गए। एक बार जब इन दो महान कलाकारों का मिलना जुलना शुरु हुआ तो आपस में राब्ता बनते देर ना लगी। लता जी ने जब जगजीत की बनाई रचनाएँ सुनीं तो प्रभावित हुए बिना ना रह सकीं। जगजीत ने भी उन्हें बताया की ये धुनें उन्होंने सिर्फ लता जी के लिए सँभाल के रखी हैं। दोनों का चुटकुला प्रेम इस बंधन को मजबूती देने में एक अहम कड़ी साबित हुआ। संगीत की सिटिंग्स में बकायदा आधे घंटे अलग से इन चुटकुलों के लिए रखे जाने लगे। लता जी की गिरती तबियत, संजीव की अनुपलब्धता की वज़ह से ग़ज़लों की रिकार्डिंग खूब खिंची पर जगजीत जी ने अपना धैर्य बनाए रखा और फिर सजदा आख़िरकार 1991 में सोलह ग़ज़लों के डबल कैसेट एल्बम के रूप में सामने आया जो कि मेरे संग्रह में आज भी वैसे ही रखा है।
मुझे अच्छी तरह याद है कि तब सबसे ज्यादा प्रमोशन जगजीत व लता के युगल स्वरों में गाई निदा फ़ाज़ली की ग़ज़ल हर तरह हर जगह बेशुमार आदमी..फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी को मिला था। भागती दौड़ती जिंदगी को निदा ने चंद शेरों में बड़ी खूबसूरती से क़ैद किया था। खासकर ये अशआर तो मुझे बेहद पसंद आए थे
रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ हर नए दिन नया इंतज़ार आदमी ज़िन्दगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र आख़िरी साँस तक बेक़रार आदमी
यूँ तो इस एलबम में मेरी आधा दर्जन ग़ज़लें बेहद ही पसंदीदा है पर चूंकि आज बात लता और जगजीत की युगल गायिकी की हो रही है तो मैं आपको इसी एलबम की एक दूसरी ग़ज़ल ग़म का खज़ाना सुनवाने जा रहा हूँ जिसे नागपुर के शायर शाहिद कबीर ने लिखा था। शाहिद साहब दिल्ली में केंद्र सरकार के मुलाज़िम थे और वहीं अली सरदार जाफरी और नरेश कुमार शाद जैसे शायरों के सम्पर्क में आकर कविता लिखने के लिए प्रेरित हुए। चारों ओर , मिट्टी के मकान और पहचान उनके प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह हैं। जगजीत के आलावा तमाम गायकों ने उनकी ग़ज़लें गायीं पर मुझे सबसे ज्यादा आनंद उनकी ग़ज़ल ठुकराओ या तो प्यार करो मैं नशे में हूँ गुनगुनाने में आता है। 😊
जहाँ तक ग़म का खज़ाना का सवाल है ये बिल्कुल सहज सी ग़ज़ल है। दो दिल मिलते हैं, बिछुड़ते हैं और जब फिर मिलते हैं तो उन साथ बिताए दिनों की याद में खो जाते हैं और बस इन्हीं भावनाओं को स्वर देते हुए शायर ने ये ग़ज़ल लिख दी है। इस ग़ज़ल की धुन इतनी प्यारी है कि सुनते ही मज़ा आ जाता है। तो आप भी सुनिए पहले लता और जगजीत की आवाज़ में..
ग़म का खज़ाना तेरा भी है, मेरा भी ग़म का खज़ाना तेरा भी है, मेरा भी ये नज़राना तेरा भी है, मेरा भी अपने ग़म को गीत बनाकर गा लेना
अपने ग़म को गीत बनाकर गा लेना राग पुराना तेरा भी है, मेरा भी राग पुराना तेरा भी है, मेरा भी ग़म का खज़ाना .... तू मुझको और मैं तुमको, समझाऊँ क्या तू मुझको और मैं तुमको समझाऊँ क्या दिल दीवाना तेरा भी है, मेरा भी दिल दीवाना तेरा भी है, मेरा भी ग़म का खज़ाना तेरा भी है, मेरा भी शहर में गलियों, गलियों जिसका चर्चा है शहर में गलियों, गलियों जिसका चर्चा है वो अफ़साना तेरा भी है, मेरा भी मैखाने की बात ना कर, वाइज़ मुझसे मैखाने की बात ना कर, वाइज़ मुझसे आना जाना तेरा भी है, मेरा भी ग़म का खज़ाना तेरा भी है....
यूँ तो जगजीत और लता जी की आवाज़ को उसी अंदाज़ में लोगों तक पहुँचा पाना दुसाध्य
कार्य है पर उनकी इस ग़ज़ल को हाल ही में उभरती हुई युवा गायिका प्रतिभा सिंह
बघेल और मोहम्मद अली खाँ ने बखूबी निभाया। हालांकि गीत के बोलों को गाते हुए बोल की छोटी मोटी भूलें हुई हैं उनसे। लाइव कन्सर्ट्स में ऐसी ग़ज़लों को
सुनने का आनंद इसलिए भी बढ़ जाता है क्यूँकि मंच पर बैठे साजिंद भी अपने खूबसूरत
टुकड़ों को मिसरों के बीच बड़ी खूबसूरती से सजा कर पेश करते हैं। अब यहीं देखिए मंच
की बाँयी ओर वॉयलिन पर दीपक पंडित हैं जो जगजीत जी के साथ जाने कितने
कार्यक्रमों में उनकी टीम का हिस्सा रहे। वहीं दाहिनी ओर आज के दौर के जाने
पहचाने बाँसुरी वादक पारस नाथ हैं जिनकी बाँसुरी टीवी पर संगीत कार्यक्रमों से
लेकर फिल्मों मे भी सुनाई देती है।
सजदा का जिक्र अभी खत्म नहीं हुआ है। अगले आलेख बात करेंगे इसी एल्बम की एक और ग़ज़ल के बारे में और जानेंगे कि चित्रा जी को कैसी लगी थी लता जी की गायिकी ?
सत्तर के दशक में जगजीत जी ने कई ग़ज़लें गायीं। कभी निजी महफिलों में तो कभी स्टेज शो में। वो वक़्त ग्रामोफोन का हुआ करता था। चुनिंदा ग़ज़लें ही रिकार्ड होती थीं। जब कैसेट का युग आया तो भी उस शुरुआती दौर में HMV का एकाधिकार रहा। नतीजा ये हुआ कि जगजीत जी की बहुत सारी ग़ज़लें उनके उसे पहली बार गाने के कई दशकों बाद किसी एलबम का हिस्सा बनीं। आज इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दिकी की लिखी जो ग़ज़ल आपको सुनाने जा रहा हूँ वो इसी कोटि की है।
इस ग़ज़ल को लिखने वाले सीमाब अकबराबादी के पोते इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दिकी से आपकी मुलाकात मैंने फिल्म अर्थ के लिए लिखी उनकी चर्चित ग़ज़ल तू नहीं तो ज़िदगी में और क्या रह जाएगाके जिक्र के दौरान की थी। दादा की मौत के बाद उनका परिवार आगरा से मुंबई आया और विकट परिस्थितियों में शायर पत्रिका का सालों साल बिना रुके संपादन करता रहा। वे अपने किसी भी साक्षात्कार में फक्र से ये बताना नहीं भूलते कि एक समय वो भी था जब निदा फ़ाज़ली जैसा शायर उन्हें ख़त लिखता था कि उनकी शायरी पत्रिका में छाप दी जाए।
इमाम साहब की ज़िंदगी ने तब दुखद मोड़ लिया जब वर्ष 2002 में चलती ट्रेन पर चढ़ने की कोशिश में वो गिर पड़े और उस दुर्घटना के बाद उमका कमर से नीचे का हिस्सा बेकार हो गया। आज उनकी ज़िंदगी व्हीलचेयर के सहारे ही घिसटती है, फिर भी वो इसी हालत में 'शायर' के संपादन में जुटे रहते हैं। कुछ साल पहले भास्कर को दिए अपने साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि
"हमारी विरासत शायरी है। हम उसे आगे ले जाने के लिए हर सुबह आंखें खोलते हैं और रात में पलकें झपकाते हैं तो इस यकीन के साथ कि अगली सुबह फिर अदब को मज़बूती देने के लिए सांस लेते हुए उठेंगे। यही हमारी ज़िंदगी है। कई बार कुछ लोग कहते हैं कि जिस साहित्यिक समाज के लिए हमने सब कुछ दांव पर लगा दिया, उसने बेकद्री की है, लेकिन हमें ऐसा कतई नहीं लगता। तमाम संस्थाओं ने मान-सम्मान दिया है, हमारी ग़ज़लें पढ़ी-सुनी हैं, ‘शायर’ को अब तक हाथोहाथ लिया है तो चंद दुखों के आगे लोगों की मोहब्बत को हम कैसे नाकाफी कह दें।
जगजीत सिंह, चित्रा सिंह, पंकज उधास और सुधा मल्होत्रा जैसे गायक और गायिकाओं ने मेरे कलाम गाए, निदा फाज़ली और बशीर बद्र को फ़िल्म इंडस्ट्री से इंट्रोड्यूस कराने का मुझे मौका मिला, कृश्नचंदर, महेंदरनाथ, राजिंदर सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास से सोहबत रही- और बताइए, दौलत क्या होती है। "
इमाम साहब का ये जज़्बा यूँ ही बना रहे। उनकी मशहूर ग़ज़लों की तो रिकार्डिंग उपलब्ध नहीं पर उनको अगर आप तरन्नुम में गाते सुन लें तो यूँ महसूस होगा कि सफेद बालों के इस वृद्ध इंसान के भीतर रूमानियत से भरा एक युवा दिल आज भी धड़क रहा है।
वैसे तो मुझे उनकी ये पूरी ग़ज़ल ही प्यारी लगती है पर इसके दो शेर खासतौर पर दिल के करीब लगते हैं। पहला तो वो जिसमें इमाम साहब कहते हैं जिसे मिलना ही नहीं उससे मोहब्बत कैसी...सोचता जाऊँ मगर दिल में उतरता देखूँ और दूसरा वो चंद लम्हे जो तेरे कुर्ब के मिल जाते हैं...इन्ही लम्हों को मैं सदियों में बदलता देखूँ। जिन्हें हम पसंद करते हैं उनके साथ ज़िदगी बीते ना बीते उनका स्थान दिल की गहराइयों में वैसे ही बना रहता है और जब कभी ऐसी शख्सियत से मुलाकात होती है तो उन बेशकीमती पलों को हम हृदय में तह लगाकर रख देते हैं और जब जब मन होता है उन यादों को ओढ़ते बिछाते रहते हैं।
तू जो आ जाए तो इस घर को सँवरता देखूँ एक मुद्दत से जो वीरां है वो बसता देखूँ ख़्वाब बनकर तू बरसता रहे शबनम शबनम और बस मैं इसी मौसम को निख़रता देखूँ जिसे मिलना ही नहीं उससे मोहब्बत कैसी सोचता जाऊँ मगर दिल में उतरता देखूँ चंद लम्हे जो तेरे कुर्ब के मिल जाते हैं इन्ही लम्हों को मैं सदियों में बदलता देखूँ (कुर्ब : निकटता ) जगजीत जी ने इसी बहर में पाकिस्तान के मशहूर शायर अहमद नदीम कासिमी का भी एक शेर गाया है जो कुछ यूँ है
दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ 😄 -
स्टेज शो में तब जगजीत बहुत कुछ मेहदी हसन वाली शैली अपनाते थे। यानी ग़ज़ल के अशआरों के बीच श्रोताओं को उनकी शास्त्रीय गायिको सुनने का लुत्फ मिल जाया करता था। जगजीत ने इस ग़ज़ल में राग दुर्गा पर आधारित बंदिश का इस्तेमाल किया है।
जगजीत जी को ग़ज़लों के साथ कई नए तरह के वाद्य यंत्र जैसे वॉयलिन, पियानो, सरोद आदि इस्तेमाल करने का श्रेय दिया जाता है पर नब्बे के दशक के बाद उनके संगीत संयोजन में एक तरह का दोहराव आने लगा। अगर आप उस समय के एलबमों को सुनते हुए बड़े हुए हैं तो उनकी ये ग़ज़ल और उसका संगीत संयोजन आपको ग़ज़ल गायिकी की पारंपरिक शैली की ओर ले जाता मिलेगा। मुझे तो लुत्फ़ आ गया इसे सुन कर। आप भी सुनें।
प्रेम गीत और अर्थ के बाद अस्सी और नब्बे के दशक में जगजीत सिंह को करीब दर्जन भर फिल्मों के संगीत निर्देशन का मौका मिला। इस सिलसिले में उनकी गीतकार गुलज़ार के साथ संगीत निर्देशित फिल्म सितम का जिक्र तो मैंने इस श्रृंखला की पिछली कड़ी में किया ही था। इसके आलावा उन्होंने बिल्लू बादशाह, कानून की आवाज़, जिस्म का रिश्ता, आज, आशियाना, यादों का बाजार और खुदाई में संगीत दिया। मुझे भरोसा है कि एक दो को छोड़ शायद ही आप सबने इनमें किसी फिल्म का नाम सुना हो।
जगजीत सिंह कभी भी मुख्यधारा के संगीतकार नहीं रहे। अस्सी के दशक में ग़ज़ल गायिकी में उनका सितारा जिस बुलंदी पर था उसमें फिल्म संगीत पर ज्यादा ध्यान देना मुमकिन भी नहीं था। अगर इनमें महेश भट्ट द्वारा निर्देशित फिल्में आज और आशियाना को अपवाद स्वरूप छोड़ दें तो उन्होंने जिस तरह की फिल्में कीं उन्हें देख के तो यही लगता है कि ये काम तब पैसों के लिए कम बल्कि अपने मित्रों का मन रखने के लिए उन्होंने ज़्यादा किया।
इन गुमनाम सी फिल्मों में भी कुछ गीत अपना अगर छोटा सा भी मुकाम बना पाए तो उसमें ज्यादातर में उनकी आवाज़ का हाथ रहा। आज ऐसे ही चार अलग अलग गीतों का का जिक्र आपसे करूँगा जिसमें दो को ख़ुद जगजीत ने अपनी आवाज़ से सँवारा था। ये तो नहीं कहूँगा कि ये गीत हर दृष्टि से अलहदा थे पर हाँ इतना तो हक़ बनता ही था इनका कि ये संगीत के सुधी श्रोताओं तक पहुँचते।
फिल्म "आज" में उस दौर के युवा अभिनेता कुमार गौरव और राजकिरण की मुख्य भूमिकाएँ थीं। आज के बड़े सितारे अक्षय कुमार ने भी इसी फिल्म में एक छोटी सी भूमिका से अपनी फिल्मी पारी की शुरुआत की थी। जगजीत ने इस फिल्म अपनी पुरानी रचना वो क़ाग़ज की कश्ती के आलावा तीन गीत रचे जिनमें घनशाम वासवानी, विनोद सहगल और जुनैद अख्तर के सम्मिलित स्वर में गाई मदन पाल की ग़ज़ल ज़िंंदगी के बदलते रंगों की तस्वीर को कुछ यूँ पेश करती है।
ज़िंंदगी रोज़ नए रंग में ढल जाती है,
कभी दुश्मन तो कभी दोस्त नज़र आती है
कभी छा जाए बरस जाए घटा बेमौसम
कभी एक बूँद को भी रुह तरस जाती है....
जगजीत मुखड़े के पहले अपने संगीत में भांति भांति के वाद्यों का इस्तेमाल करते हैं। बाकी का काम उनके शागिर्द रहे घनशाम और अशोक बखूबी कर जाते हैं।
इसी फिल्म में जगजीत का गाया गीत फिर आज मुझे तुमको इतना ही बताना है..हँसना ही जीवन है हँसते ही जाना है भी सुनना मन में आशा की ज्योति जला लेने जैसा लगता है।
आशियाना में जगजीत का रचा और गाया नग्मा आज भी हम सब की जुबाँ पर आज भी गाहे बगाहे आता ही रहता है। मदन पाल के लिखे इस गीत का मुखड़ा था हमसफ़र बन के हम, साथ हैं आज भी.... फिर भी है ये सफ़र अजनबी अजनबी। नजदीक रह कर भी दो इंसान मानसिक रूप से दूर हो जाएँ तो साथ साथ रहना भी कितना पीड़ादायक हो जाता है ये गीत उस दर्द की गवाही देता है।
मजे की बात ये है कि इस गीत में मार्क जुबेर के साथ जगजीत सिंह फिल्मी पर्दे पर भी नज़र आए।
जगजीत सिंह से जुड़ी इस श्रृंखला का अंत मैं उस नज़्म से करना चाहूँगा जिसे गाया था दिलराज कौर ने। राजेश खन्ना और दीपिका पर फिल्मायी इस नज़्म की लय और दिलराज जी की सुरीली आवाज़ इसे बार बार सुनने को मजबूर करती है। सुदर्शन फाकिर के शब्द किस तरह मोहब्बत से महरूम एक लड़की का दर्द बयाँ करते हैं वो उनकी लिखी इन पंक्तियों में देखिए...
किसी गाँव में इक हसीना थी कोई
वो सावन का भीगा महीना थी कोई
जवानी भी उस पर बड़ी मेहरबां थी
मोहब्बत ज़मीं है तो वो आसमां थी वो अब तक है जिन्दा वो अब तक जवां है किताबे मोहब्बत की वो दास्तां है उसे देखकर मोम होते थे पत्थर मगर हमसे पूछो न उसका मुकद्दर न घर की बहू वो बनाई गई थी अलग उसकी महफ़िल सजाई गई थी वो गाँव के लड़कों को चाहत सिखाती सबक वो मोहब्बत का उनको पढ़ाती मगर वक़्त कोई नया रंग लाया न पूछो कहानी में क्या मोड़ आया हुआ प्यार उसको किसी नौजवां से नतीजा न पूछो हमारी जुबां से मोहब्बत की राहों पे जिस दिन चली वो ज़माने की नज़रों में मुजरिम बनी वो नसीबों में उसके मोहब्बत नहीं थी मोहब्बत की उसको इजाज़त नहीं थी ज़माने ने आखिर उसे जब सजा दी हसीना ने अपनी ये जां तक लुटा दी वही आसमां है वही ये जमीं है जवां वो हसीना कही भी नहीं है मगर रुहे उल्फत की मंजिल जुदा है मोहब्बत की दुनिया का अपना खुदा है
वो अब तक है ..महीना थी कोई
दिलराज कौर की आवाज़ से मेरी मुलाकात उनकी गायी ग़ज़ल इतनी मुद्दत बाद मिले हो.. से हुई थी। इसके आलावा उनकी आवाज़ में इक्का दुक्का गीत सुनता रहा हूँ। इतनी प्यारी आवाज़ से हमारा राब्ता नब्बे के दशक में छूट सा गया। दिलराज़ इस नज़्म में भी नाममात्र के वाद्य यंत्रों के बावज़ूद अपनी आवाज़ का दिल पर गहरा असर छोड़ती हैं।
नब्बे के दशक में पुत्र की असमय मौत ने जगजीत को हिला कर रख दिया। वे ग़ज़लों और फिल्मी दुनिया से दूर होते चले गए। ग़ज़लों से तो उन्होंने दुबारा नाता जोड़ा पर फिल्मों में उन्होंने बतौर संगीतकार उसके बाद नाममात्र का काम किया।
चार भागों तक चली इस श्रृंखला का आज यहीं समापन होता है। कैसी लगी आपको जगजीत जी से जुड़ी ये श्रृंखला। अपनी राय देना ना भूलिएगा।
जगजीत सिंह के संगीत निर्देशन में कई गीत ऐसे बने जिसमें गायक के तौर पर जगजीत सिंह ने अपनी और चित्रा जी की आवाज़ का इस्तेमाल नहीं किया। सुरेश वाडकर, भूपेन हजारिका, विनोद सहगल, घनशाम वासवानी से लेकर शोभा गुर्टू और आशा भोसले जैसे पार्श्व गायक उनके गीतों की आवाज़ बने। इनमें कुछ गीत ऐसे हैं जो फिल्मों के ना चलने की वज़ह से अनमोल मोती की तरह सागर की गहराइयों में डूबे रहे।
ऐसा ही एक गीत आपके लिए लाया हूँ फिल्म सितम का जो 1984 में रिलीज़ हुई थी। इस गीत को लिखने वाले कोई और नहीं बल्कि हम सब के प्रिय गीतकार गुलज़ार थे। जगजीत और गुलज़ार ने जब भी साथ काम किया नतीजा शानदार ही रहा है। आप उनके साझा एलबम "मरासिम" या "कोई बात चले" को सुनें या फिर मिर्जा गालिब धारावाहिक जिसे गुलज़ार ने निर्देशित किया था, उसमें जगजीत का काम देखें। ग़ज़ब की केमिस्ट्री थी इनके बीच। सच तो ये है कि नब्बे के दशक में जगजीत फिल्म संगीत के पटल से गायब हुए पर 2002 में लीला में गुलज़ार के लिखे गीतों में अपने संगीत से फिर जान फूँकने में सफल हुए।
आपको जानकर ताज्जुब होगा कि जब मुंबई में जगजीत फिल्मों में पार्श्व गायक बनने के लिए संघर्ष कर रहे थे तो संगीत के मर्मज्ञ समझे जाने वाले ओम सेगान ने जगजीत की मुलाकात गुलज़ार से कराई थी और उनकी गुलज़ार से अपेक्षा थी कि शायद वे जगजीत को फिल्मों में काम दिलवा सकते हैं। तब गुलज़ार ख़ुद बतौर गीतकार अपनी जड़े ज़माने में लगे थे। वे जगजीत की आवाज़ से प्रभावित तो थे पर उनके मन में जरूर कहीं ना कहीं ये बात थी कि उनकी आवाज़ फिल्मों के लिए नहीं बनी और इसलिए उन्होंने जगजीत के लिए तब किसी से सिफारिश भी नहीं की़। बाद में इन दोनों महारथियों ने साथ काम किया और क्या खूब किया।
फिल्म सितम का ये गीत जितना जगजीत का है उतना ही आशा जी और गुलज़ार का भी। मैंने सितम नहीं देखी थी पर इस गीत पर लिखने के पहले उसे देखना जरूरी समझा। अपने समय से आगे की कहानी थी सितम की, फुटबाल के खिलाड़ियों से जुड़ी हुई। एक मैच के दौरान गोल किक बचाते हुए सिर पर चोट लगने से गोलकीपर की मौत हो जाती है और उसकी पत्नी गहन शोक में गोल किक लगाने वाले को इतना भला बुरा कहती है कि वो अपने आप को पूरी तरह अपराधी मान कर गहरे अवसाद में चला जाता है। स्थिति तब जटिल हो जाती है जब डाक्टर मृतक खिलाड़ी की पत्नी से ही अनुरोध करते हैं कि वो उसे समझाये कि गलती उसकी नहीं थी। उनका मानना है कि नायिका की कोशिश से ही वो ग्लानि मुक्त होकर सामान्य ज़िंदगी में लौट सकता है।
पति की मौत से आहत एक स्त्री के लिए उसकी मौत का कारण बने मरीज को मानसिक रूप से उबारने का कार्य सोचकर ही कितना कष्टकर लगता है। नायिका फिर भी वो करती है जो डाक्टर कहते हैं क्यूँकि उसे भी अहसास है कि मरीज की इस हालत के लिए वो भी कुछ हद तक जिम्मेदार है।
गुलज़ार ने मरीज को सुलाती नायिका के जीवन के नैराश्य को गीत के बोलों में व्यक्त करने की कोशिश की है। गीत में आँखों के बुझ जाने से उनका तात्पर्य किसी के जीवन से अनायास निकल जाने से है। उसके बाद भी तो ज़िंदगी जीनी पड़ती ही है वो कहाँ बुझती है? उसका तो कोई ठिकाना भी नहीं कब किस करवट बैठे? कब कैसी कठिन परीक्षा ले ले? अब देखिए ना जिस शख़्स के कारण पति दूसरी दुनिया का वासी हो गया उसी की तीमारदारी का दायित्व वहन करना है नायिका को अपने ख़्वाबों की चिता पर।
इसीलिए गुलज़ार लिखते हैं..आँखे बुझ जाती हैं ये देखा है, ज़िंदगी रुकती नहीं बुझती नहीं.. ख्वाब चुभते हैं बहुत आँखों में,नींद जागो तो कभी चुभती नहीं।।।डर सा रहता है ज़िंदगी का सदा, क्या पता कब कहाँ से वार करे,आँसू ठहरे हैं आ के आँखों में नींद से कह दो इंतज़ार करे।
मुखड़े और अंतरे में गुलज़ार के गहरे बोलों के पीछे जगजीत जी का शांत संगीत बहता है और इंटरल्यूड्स में फिर उभर कर आता है। आशा जी की आवाज़ गीत के दर्द को आत्मसात किए सी चलती है। तो आइए सुनते हैं इस गीत को जो कि फिल्म में स्मिता पाटिल और विक्रम पर फिल्माया गया है
सारा दिन जागे तो बेजान सी हो जाती हैं साँस लेती हुई आँखों को ज़रा सोने दो साँस लेती हुई आँखें अक्सर बोलती रहती है गूँगी बातें सारा दिन चुनती हूँ सूखे पत्ते रात भर काटी है सूखी रातें आँखे बुझ जाती हैं ये देखा है ज़िंदगी रुकती नहीं बुझती नहीं ख्वाब चुभते हैं बहुत आँखों में नींद जागो तो कभी चुभती नहीं डर सा रहता है ज़िंदगी का सदा क्या पता कब कहाँ से वार करे आँसू ठहरे हैं आ के आँखों में नींद से कह दो इंतज़ार करे
जगजीत सिंह से जुड़ी इन कड़ियों में आपसे बात हो रही थी ऐसी हिंदी फिल्मों की जिनके संगीतकार की भूमिका निभाई जगजीत सिंह ने। प्रेम गीत की शानदार सफलता के बाद अगले ही साल 1982 में एक और फिल्म जगजीत की झोली में आई और वो थी अर्थ। जगजीत सिंह ने जितनी भी फिल्मों का संगीत निर्देशन किया उसमें सबसे अधिक सफल यही फिल्म रही। फिल्म महेश भट्ट की थी और फिल्म का कथानक पति पत्नी व प्रेमिका के टूटते जुड़ते रिश्तों पर आधारित था। जगजीत ने कहानी की परिस्थितियों को कैफ़ी आज़मी की लिखी ग़ज़लों और नज़्मों में ऍसा ढाला कि फिल्म का हर एक गीत यादगार बन गया। झुकी झुकी सी नज़र और तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो और तू नहीं तो ज़िदगी में और क्या रह जाएगा..तो क्या आम क्या खास सबके दिलों में छा गया। अपनी बात करूँ तो उन दिनों एकाकी पलों में इस फिल्म की नज़्म कोई ये कैसे बताया कि वो तन्हा क्यूँ है आँखों में नमी पैदा कर देती थी।
जगजीत जी के सम्मान में हुए एक कार्यक्रम में फिल्म की नायिका शबाना आज़मी ने अर्थ के संगीत को याद करते हुए कहा था कि "मैं बहुत खुशकिस्मत हूँ कि अर्थ के तीन गाने मेरे ऊपर फिल्माए गए थे। उन्होंने संगीत के साथ शब्दों में दर्द को इस तरह पिरोया था कि मेरे पास करने लायक कुछ रह नहीं गया था।"
फिल्म साथ साथ में भी जगजीत व चित्रा की गायिकी सराही गयी पर इस फिल्म का संगीत जगजीत ने नहीं बल्कि उनके मित्र कुलदीप सिंह ने दिया था। जगजीत जी को अर्थ की सफलता के बाद फिल्म संगीत रचने के जितने मौके मिलने चाहिए थे उतने नही मिले। शायद इसकी वज़ह जगजीत का अपने निजी एलबमों को ज्यादा तवज्जोहदेना भी रहा हो। उन्हें जो मौके मिले भी वो छोटे बैनर या लीक से हटकर बनी फिल्मों के लिए मिले। 1983 में शत्रुघ्न सिन्हा ने एक फिल्म कालका बनाई जिसमें अपनी गायिकी और संगीत के ज़रिए जगजीत ने शास्त्रीयता का एक अलग ही रूप दिखाया। अगर आपको अर्धशास्त्रीय संगीत पसंद है तो जगजीत के रचे "कैसे कैसे रंग दिखाए कारी रतिया", "तराना" और "बिदेशिया" को सुनना ना भूलिएगा।
इसी साल उन्होंने निर्वाण का भी संगीत दिया। इसका एक गीत चित्रा सिंह ने गाया है जिसके संगीत में आपको जगजीत के चिरपरिचित ग़ज़ल वाले संगीत की छाया तक नहीं मिलेगी। राही मासूम रज़ा के लिखे इस गीत का मुखड़ा था "रातें थीं सूनी सूनी, दिन थे उदास मेरे..तुम मिल गए तो जागे सोए हुए सवेरे "। बाद में इसे जगजीत ने अपने एलबम Rare Moments में शामिल कर लिया।
एक साल बाद उन्हें एक और फिल्म मिली जिसका नाम था रावण। इसी फिल्म के लिए उन्होंने अपनी मशहूर ग़ज़ल "हम तो यूँ अपनी ज़िंदगी से मिले अजनबी जैसे अजनबी से मिले....." रची थी जो आप सबने सुनी ही होगी।
निर्वाण,रावण और उसके बाद संगीत निर्देशित तुम लौट आओ के गीत तो ज्यादा चर्चित नहीं रहे पर ये इतनी छोटे बजट की फिल्में थी कि इनके संगीत तक आम जनता की कभी पहुँच ही नहीं हुई। पर इन फिल्मों के कुछ गीत निश्चय ही श्रवणीय थे। आज इन्हीं फिल्मों में से "तुम लौट आओ" का एक प्यारा सा नग्मा आपको सुनवाने जा रहा हूँ जिसे लिखा था सुदर्शन फ़ाकिर साहब ने और जिसका शुमार जगजीत चित्रा के कम सुने गीतों में होता है।
फिल्म में नायक विदेश जाने की तमन्ना में अपने प्यार और उससे अंकुरित बीज को प्रेमिका के गर्भ में छोड़ कर जाने को तत्पर हो जाता है। सुदर्शन जी ने प्रेम में टूटी और दिग्भ्रमित नायिका की बात को बड़ी खूबी से इन लफ़्ज़ों में बयाँ किया है रात सपना बहार का देखा, दिन हुआ तो ग़ुबार सा देखा..बेवफ़ा वक़्त बेज़ुबाँ निकला, बेज़ुबानी को नाम क्या दें हम। वहीं नायक इसे अपनी नहीं बल्कि जवानी की भूल बताकर जीवन में आगे बढ़ने को लालायित है। गीत के तीनों अंतरे इस परिस्थिति की दास्तान को बखूबी श्रोताओं के समक्ष रख देते हैं।
ज़ख़्म जो आप की इनायत है, इस निशानी को नाम क्या दें हम प्यार दीवार बन के रह गया है, इस कहानी को नाम क्या दें हम आप इल्ज़ाम धर गये हम पर, एक एहसान कर गये हम पर आप की ये भी मेहरबानी है, मेहरबानी को नाम क्या दें हम आपको यूँ ही ज़िन्दगी समझा, धूप को हमने चाँदनी समझा भूल ही भूल जिस की आदत है, इस जवानी को नाम क्या दें हम रात सपना बहार का देखा, दिन हुआ तो ग़ुबार सा देखा बेवफ़ा वक़्त बेज़ुबाँ निकला, बेज़ुबानी को नाम क्या दें हम
ग़ज़ल के बारे में लिखते हुए जगजीत का गाया ये अंतरा गुनगुनाने का मन हुआ तो उसे यहाँ शेयर कर रहा हूँ..
मुझे आशा है कि इस आलेख में उल्लेख किए गए कुछ गीत आपके लिए भी अनसुने होंगे। फिलहाल तो इजाज़त दीजिए। फिर लौटूँगा जगजीत जी की संगीत निर्देशित कुछ और फिल्मों के साथ।
पिछले हफ्ते जगजीत जी की सातवीं पुण्य तिथि थी जिसे लोग अक्सर किसी की याद का दिन भी कहते हैं पर जगजीत जी कब यादों से जुदा हुए हैं। उनकी आवाज़ का अक़्स तो रुह में नक़्श हो चुका है। जब तब कानों में गूँजती ही रहती है। ग़ज़लों के बेताज बादशाह थे वे। मैंने उनकी पसंदीदा ग़ज़लों के बारे इस ब्लॉग पर विस्तार से लिखा भी है और उसका प्रमाण ये है कि ये उन पर लिखा जाने वाला चालीसवाँ आलेख है।
एक ग़ज़ल गायक के आलावा जगजीत जी ने एक डेढ़ दशक तक फिल्मों में भी संगीत दिया। उनके द्वारा संगीत निर्देशित फिल्मों में से ज्यादातर बड़े बजट की फिल्में नहीं थीं। कुछ तो ठीक से देश भर में प्रदर्शित भी नहीं हुई इसलिए उनके गाने भी आम लोगों तक उस तरह नहीं पहुँचे जैसे उनके एलबम्स की ग़ज़लें पहुँचती थीं। इसलिए मैंने सोचा कि क्यूँ ना आपको उनके कुछ सुने और अनसुने संगीतबद्ध फिल्मी गीतों से मिलवाया जाए। इस सिलसिले की शुरुआत एक ऐसे गीत जिसे शायद ही किसी ने ना सुना हो और जिससे मेरी व्यक्तिगत यादें जुड़ी हैं।
बतौर संगीत निर्देशक उनकी पहली और सबसे नामी फिल्म प्रेम गीत (1981) थी। ऐसा नहीं है कि प्रेम गीत से पहले सत्तर के दशक में उन्होंने संगीत निर्देशन नहीं किया था। उन्हें इस दौरान कुछ फिल्में मिली भी पर वो कभी रुपहले पर्दे का मुँह नहीं देख पायीं और बनने के पहले ही बंद हो गयीं। उनकी गायी मशहूर नज़्म "बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी.." को तो उन्होंने एक फिल्म के लिए गायक भूपेंद्र की आवाज़ में रिकार्ड भी कर लिया था। उनके ऐसे कई संगीतबद्ध नग्मे अनसुने ही रह गए।
प्रेम गीत ने सब कुछ बदल कर रख दिया। The Unforgettables की सफलता के बाद उनकी आवाज़ और संगीत की जादूगरी की खनक फिल्मी दुनिया में फैल चुकी थी। जहाँ तक मुझे याद है कि जगजीत जी का गाया सबसे पहला फिल्मी गीत जो मैंने सुना था वो इसी फिल्म का था। जी हाँ होठों से छू लो तुम मेरा गीत अमर कर दो। मैं तब छठी कक्षा में रहा हूँगा। उस वक़्त क्या रेडियो क्या नुक्कड़ और क्या स्कूल सब जगह इसी गीत के चर्चे थे। इतने प्यारे, सहज और सच्चे शब्द थे इस गीत के कि उस छोटी उम्र में भी सीधे दिल पर लगे थे।
इसी गीत से जुड़ा एक वाकया है जिसे आपके साथ यहाँ बाँटना चाहूँगा। मैं कभी स्कूल में गाता नहीं था पर एक कार्यक्रम के लिए मेरी कक्षा से गायकों की तलाश हो रही थी़। जब क्लॉसटीचर ने इस कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए गायकों का चुनाव करने के लिए इच्छुक छात्रों का नाम पूछा तो पता नहीं मुझ जैसे संकोची बालक ने कैसे हाथ उठा दिया। जिन दो लोगों को अंततः शिक्षिका ने गाने के लिए चुना उनमें एक मैं भी था। कमाल की बात ये थी कि हम दोनों ही छात्रों ने होठों से छू लो तुम को ही गाने के लिए चुना था । मैंने कक्षा में उठकर पहली बार इसी गीत को गाया पर मेरे मित्र ने इसे और बेहतर निभाया और उसका कार्यक्रम के लिए चुनाव हो गया।
गीतकार के लिहाज से इंदीवर मेरे कभी प्रिय नहीं रहे पर इस गीत के लिए उनकी जितनी प्रशंसा की जाए कम होगी। जिस तरह शैलेंद्र आम से लहजे में गहरी बात कह देते थे उसी तरह इंदीवर ने इतने सीमित शब्दों में इस गीत के माध्यम से सच्चे प्रेम की जो परिभाषा गढ़ी वो नायाब थी।
ना उम्र की सीमा हो, ना जन्म का हो बंधन जब प्यार करे कोई, तो देखे केवल मन नई रीत चलाकर तुम, ये रीत अमर कर दो...
गीत के बाकी अंतरे भी एक ऐसे टूटे हुए इंसान का दर्द बयाँ करते हैं जो अब अपनी सूखी बिखरी ज़िदगी में अपनी प्रेयसी के प्रेम की फुहार पाकर फिर से जी उठना चाहता है।
इस गीत में जगजीत की आवाज़ और संगीत इस तरह घुल मिल गए है कि उन पर अलग अलग टिप्पणी करना संभव नहीं। भगवान ने जगजीत जी की आवाज़ बनाई ही ऐसी थी जिससे दर्द यूँ छलकता था जैसे लबालब भरी हुई मटकी से पानी और इसीलिए आज भी लोग इसे सुनते हैं तो भावुक हो जाते हैं।
जहाँ तक फिल्मी गीतों की बात है ये उनकी सबसे सुरीली पेशकश रही है। इस फिल्म के लिए जगजीत ने एक और संगीत रचना की थी जो सराही गयी थी। गीत के बोल थे आओ मिल जाएँ सुगंध और सुमन की तरह। वैसे जगजीत ने अगले ही साल फिल्म अर्थ में जो संगीत दिया वो सफलता के सारे रिकार्ड तोड़ गया लेकिन अर्थ में सिर्फ ग़ज़लों और नज्मों का इस्तेमाल हुआ था जिसमें जगजीत जी की माहिरी जगज़ाहिर थी। जगजीत की संगीत निर्देशित फिल्मों की चर्चा आगे भी ज़ारी रहेगी। फिलहाल तो प्रेम गीत का ये अजर अमर गीत सुनिए।
होठों से छू लो तुम, मेरा गीत अमर कर दो बन जाओ मीत मेरे, मेरी प्रीत अमर कर दो ना उम्र की सीमा हो, ना जन्म का हो बंधन जब प्यार करे कोई, तो देखे केवल मन नई रीत चलाकर तुम, ये रीत अमर कर दो होठों से छू लो तुम ... आकाश का सूनापन, मेरे तनहा मन में पायल छनकाती तुम, आ जाओ जीवन में साँसें देकर अपनी, संगीत अमर कर दो होठों से छू लो तुम ... जग ने छीना मुझसे, मुझे जो भी लगा प्यारा सब जीता किये मुझसे, मैं हर दम ही हारा तुम हार के दिल अपना, मेरी जीत अमर कर दो
चचा ग़ालिब की शायरी से सबसे पहले गुलज़ार के उन पर बनाए गए धारावाहिक के ज़रिए ही मेरा परिचय हुआ था। हाईस्कूल का वक़्त था वो! किशोरावस्था के उन दिनों में चचा की ग़ज़लें आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक..., हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले...., दिल ही तो है ना संगो ख़िश्त ...और कोई दिन गर जिंदगानी और है ... अक्सर जुबां पर होती थी। जगजीत चित्रा की आवाज़ का जादू तब सिर चढ़कर बोलता था।
पर ग़ालिब की शायरी में उपजी ये उत्सुकता ज़्यादा दिन नहीं रह पाई। जब भी
उनका दीवान हाथ लगा उनकी ग़ज़लों को समझने की कोशिश की पर अरबी फ़ारसी के
शब्दों के भारी भरकम प्रयोग की वज़ह से वो दिलचस्पी भी जाती रही। मिर्जा के समकालीन साहित्यकार फ़ारसी में ही कविता करने और यहाँ तक की पत्र व्यवहार करने में ही अपना बड़प्पन समझते थे और ख़ुद मिर्जा ग़ालिब का भी ऐसा ही ख़्याल था। पचास की उम्र पार करने के बाद उन्होंने उर्दू में दिलचस्पी लेनी शुरु की। पर शायरी कहने का उनका अंदाज़ भाषा के मामले में पेचीदा ही रहा।
मरने के सालों बाद ग़ालिब को जो लोकप्रियता मिली उसका नतीजा ये हुआ कि अपनी शायरी चमकाने के लिए बहुतेरे कलमकारों ने अपने हल्के फुल्के अशआरों में मक़्ते के तौर पर ग़ालिब का नाम जोड़ दिया। चचा के नाम पर इतने शेर कहे गए कि उन्हें देखकर उनका अपनी कब्र से निकलने कर जूतमपाज़ी करने का जी चाहता होगा। इंटरनेट पर ग़ालिब के नाम से इकलौते शेरों को जमा कर दिया जाए तो उसका एक अलग ही दीवान बन जाएगा। ये दीगर बात है कि उसमें से दस से बीस फीसदी शेर चचा के होंगे।
बहरहाल एक बात मैंने गौर की कि चचा ग़ालिब की ग़ज़लों को जब जब गाया गया वो सुनने में बड़ी सुकूनदेह रहीं। उनकी ऐसी ही एक ग़ज़ल मैंने पिछले दिनों सुनी पहले जनाब मेहदी हसन और फिर जगजीत सिंह की आवाज़ों में। अब ये फ़नकार ऐसे हैं कि किसी ग़ज़ल में जान डाल दें और ये ग़ज़ल तो चचा की है।
आपकी सहूलियत के लिए चचा ग़ालिब की इस ग़ज़ल का अनुवाद भी साथ किए दे रहा हूँ।
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे, वो दिल नहीं रहा
हालात ये हैं कि अब ये दिल प्रेम की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के भी लायक नहीं रहा। अब तो इस जिस्म में वो दिल ही नहीं रहा जिस पर कभी गुरूर हुआ करता था।
जाता हूँ दाग़-ए-हसरत-ए-हस्ती लिये हुए
हूँ शमआ़-ए-कुश्ता दरख़ुर-ए-महफ़िल नहीं रहा
कितनी तो ख़्वाहिशें थीं! कहाँ पूरी होनी थीं? जीवन की उन अपूर्ण ख़्वाहिशों का दाग़ मन में लिए रुख़सत ले रहा हूँ मैं। मैं तो वो बुझा हुआ दीया हूँ जो किसी महफिल की रौनक नहीं बन पाया।
मरने की ऐ दिल और ही तदबीर कर कि मैं
शायाने-दस्त-ओ-बाज़ू-ए-कातिल नहीं रहा
अब तो लगता है कि इस दिल को लुटाने का कुछ और बंदोबस्त करना होगा। अब तो मैं अपने क़ातिल के कंधों और बाहों में क़ैद होकर मृत्यु का आलिंगन कर सकने वाला भी नहीं रहा।
वा कर दिये हैं शौक़ ने बन्द-ए-नक़ाब-ए-हुस्न
ग़ैर अज़ निगाह अब कोई हाइल नहीं रहा
अब कहाँ मेरा हक़ उन पर सो मेरी चाहत ने भी स्वीकार कर लिया है उन पर्दों को खोलना जिनमें उनकी खूबसूरती छिपी थी। अब उन पर गैरों की निगाह पड़ने की रुकावट भी नहीं रही।
गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हाए-रोज़गार
लेकिन तेरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा
यूँ तो ज़िदगी ही दुनिया के अत्याचारों से पटी रही मगर फिर भी तुम्हारी यादें मेरे दामन से कभी अलग नहीं हुईं ।
दिल से हवा-ए-किश्त-ए-वफ़ा मिट गया कि वां
हासिल सिवाये हसरत-ए-हासिल नहीं रहा
दिल की ज़ानिब आती वो हवा जो हमारी वफ़ाओं की नाव को किनारे लगाने वाली थी वही रुक सी गयी जैसे । ठीक वैसे ही जैसे तुम तक पहुँचने की वो हसरत, वो तड़प ना रही बस तुम रह गई ख़यालों में ।
बेदाद-ए-इश्क़ से नहीं डरता मगर 'असद'
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा
प्यार का ग़म झेलने सेे कभी डरा नहीं मैं पर अब तो प्यार करने का वो जिगर ही नहीं रहा जिस पर कभी मुझे नाज़ था।
ग़ालिब की ये ग़ज़ल मायूस करने वाली है। सोचिए तो जिसे हम दिलों जाँ से चाहें और फिर कुछ ऐसा हो कि वो चाहत ही मर जाए तो फिर दिल उस शख़्स के बारे में सोचकर कैसा खाली खाली सा हो जाता है। भावनाएँ मर सी जाती हैं, कुछ ऐसी ही कैफ़ियत , कुछ ऐसे ही अहसास दे जाती है ये ग़ज़ल... इस ग़ज़ल को मेहदी हसन साहब की आवाज़ में सुनने में बड़ा सुकून मिलता है।
कुछ दिन पहले की बात है। एक मित्र ने व्हाट्सएप पर एक ग़ज़ल का वीडियो भेजा। जानी पहचानी ग़ज़ल थी। अस्सी के दशक में जगजीत चित्रा की आवाज़ में खूब बजी और सुनी हुई। पर जो वीडियो भेजा गया था उसमें महिला स्वर नया सा था। बड़ी प्यारी आवाज़ में ग़ज़ल के कुछ मिसरे निभाए गए थे। अक्सर भूपेंद्रव मिताली मुखर्जी की आवाज़ में जगजीत चित्रा की कई ग़ज़लें पहले भी सुनी थीं। तो मुझे लगा कि ये मिताली ही होंगी।
कल मुझे पता चला कि वो आवाज़ मिताली की नहीं बल्कि कविता मूर्ति देशपांडे की है। कविता मूर्ति जी ने ये ग़ज़ल अपने एक कान्सर्ट Closer to Heart के अंत में गुनगुनाई थी। कविता नूरजहाँ, शमशाद बेगम, सुरैया व गीत्ता दत्त जैसे फनकारों की आवाज़ों में अपनी आवाज़ को ढालती रही हैं। पुराने नग्मों को आम जन की याद में जिंदा रखने के इस कार्य में पिछले एक दशक से लगी हैं और पाँच सौ से ज्यादा कानसर्ट में अपनी प्रतिभा के ज़ौहर दिखलाती रही हैं। पर वो ग़ज़ल उनकी अपनी आवाज़ में कानों में एक मिश्री सी घोल गई।
ये ग़ज़ल लिखी थी साहिर साहब ने। ये वो साहिर नहीं जिसने अपनी अज़ीम शायरी से लुधियाना को शेर ओ शायरी की दुनिया में हमेशा हमेशा के लिए नक़्श कर दिया। पंजाब में एक और शायर हुए इसी नाम के। बस अंतर ये रहा कि उन्होंने लुधियाना की जगह होशियारपुर में पैदाइश ली। ये शायर थे साहिर होशियारपुरी। साहिर होशियारपुरी का वास्तविक नाम राम प्रसाद था । उन्होंने होशियारपुर के सरकारी कॉलेज से पारसी में एम ए की डिग्री ली और फिर कानपुर से पत्र पत्रिकाओं के लिए लिखते रहे। होशियारपुरी, जोश मलसियानी के शागिर्द थे जिनकी शायरी पर दाग देहलवी का काफी असर माना जाता रहा है।
साहिर होशियारपुरी ने तीन किताबें जल तरंग, सहर ए नग्मा व सहर ए ग़जल लिखीं जो उर्दू में हैं। यही वज़ह है कि उनकी शायरी लोगों तक ज़्यादा नहीं पहुँच पाई। जगजीत सिंह ने उनकी ग़ज़लों तुमने सूली पे लटकते जिसे देखा होगा और कौन कहता है कि मोहब्बत कि जुबाँ होती हैं को गा कर उनकी प्रतिभा से लोगों का परिचय करा दिया।
जगजीत की ग़ज़लों के आलावा उनकी एक ग़ज़ल मुझे बेहद पसंद थी । पूरी ग़ज़ल तो याद नहीं पर इसके जो शेर मुझे पसंद थे वो अपनी डॉयरी के पन्नो् से यहाँ बाँट रहा हूँ।
दोस्त चले जाते हैं तो कोई शहर एकदम से बेगाना लगने लगता है और अकेलापन काटने को दौड़ता है और तब साहिर की उसी ग़ज़ल के ये अशआर याद आते हैं..
किसी चेहरे पे तबस्सुम1, ना किसी आँख में अश्क़2 अजनबी शहर में अब कौन दोबारा जाए शाम को बादाकशीं3, शब को तेरी याद का जश्न मसला ये है कि दिन कैसे गुजारा जाए
वैसे इसी ग़ज़ल के ये दो अशआर भी काबिले तारीफ़ हैं।
तू कभी दर्द, कभी शोला, कभी शबनम है तुझको किस नाम से ऐ ज़ीस्त4 पुकारा जाए हारना बाजी ए उल्फत5 का है इक खेल मगर लुत्फ़ जब है कि इसे जीत के हारा जाए
तो बात हो रही थी कि साहिर होशियारपुरी की इस ग़ज़ल को जगजीत चित्रा ने तो अपनी आवाज़ से अमरत्व दे दिया था पर कविता मूर्ति ने अपनी मीठी आवाज़ में इसे सुनाकर हमारी सुषुप्त भावनाओं को एक बार फिर से जगा दिया। पर उन्होंने ये ग़ज़ल पूरी नहीं गाई।
वाकई कितनी प्यारी ग़ज़ल है।आँखों ही आंखों में इशारे हो गया वाला गीत तो हम बचपन से सुन ही रहे हैं ,साहिर साहब ने आँखों की इसी ताकत से ग़ज़ल का खूबसूरत मतला गढ़ा है। और ख़लिश वाले शेर की तो बात ही क्या ! वो ना रहें तो उनकी याद खाने को दौड़ती है और सामने आ जाएँ तो दिल इतनी तेजी से धड़कता है कि उस पर लगाम लगाना मुश्किल। मक़ते में सुलगती चिता के रूप में ज़िंदगी को देखने का उनका ख़्याल गहरा है
। तो आइए पहले सुनें इस ग़ज़ल को कविता मूर्ति की आवाज़ में..
कौन कहता है मोहब्बत की जुबाँ होती है ये हकीक़त तो निगाहों से बयाँ होती है वो ना आए तो सताती है ख़लिश1 दिल को वो जो आए तो ख़लिश और जवाँ होती है। रूह को शाद2 करे दिल को जो पुरनूर3 करे हर नजारे में ये तनवीर4कहाँ होती है ज़ब्त-ऐ-सैलाब-ऐ-मोहब्बत को कहाँ तक रोके दिल में जो बात हो आंखों से अयाँ5 होती है जिंदगी एक सुलगती सी चिता है "साहिर" शोला बनती है न ये बुझ के धुआँ होती है
मिर्जा ग़ालिब मेरी ज़िंदगी में पहली बार उन पर बने टीवी सीरियल की वज़ह से आए थे। अस्सी का दशक ख़त्म हो रहा था। जगजीत सिंह की आवाज़ के साथ उनकी गाई ग़ज़लों का चस्का लग चुका था। ग़ालिब सीरियल देखने की वज़ह भी जगजीत ही थे। पर गुलज़ार के निर्देशन और नसीरुद्दीन शाह की कमाल की अदाकारी की वज़ह से चचा गालिब भी प्रिय लगने लगे थे। उर्दू जुबान के लफ्जों को समझने का दौर जारी था पर चचाजान की भाषा में इस्तेमाल अरबी फ़ारसी के शब्द सर के ऊपर से गुजरते थे। वो तो गुलज़ार ने उस सीरियल में उनके अपेक्षाकृत सरल शेर इस्तेमाल किए जिसकी वज़ह से ग़ालिब की कही बातों का थोड़ा बहुत हमारे पल्ले भी पड़ा और जितना पड़ा उसी में दिल बाग बाग हो गया।
तब मैं इंटर में था। पढ़ाई लिखाई तो एक ओर थी पर किशोरावस्था में जैसा होता है एक अदद दोस्त की कमी से बेवज़ह दिल में उदासी के बादल मंडराते रहते थे। ऐसे में जब जगजीत की आवाज़ में हजारों ख़्वाहिशें ऐसी की हर ख़्वाहिश में दम निकले, आह को चाहिए बस उम्र बसर होने तक, दिल ही तो है ना संगो खिश्त सुनते तो मायूस दिल को उस आवाज़ में एक मित्र मिल जाता। सो जैसे ही वो दो कैसटों का एलबम बाजार में आया उसी दिन अपने घर ले आए।
आज उसी में से एक ग़ज़ल का जिक्र कर रहे हैं जिसे पहले पहल ग़ालिब ने लिखा और बाद में दाग़ देहलवी साहब ने उसी ज़मीन पर एक और ग़ज़ल कही जो गालिब की कृति जैसी कालजयी तो नहीं पर काबिले तारीफ़ जरूर है।
तो पहले आते हैं चचा की इस ग़ज़ल पर। चचा का जब भी जिक्र होता है तो एक अज़ीम शायर के साथ साथ एक आम से आदमी का चेहरा उभरता है। सारी ज़िदगी उन्होंने मुफ़लिसी में गुजारी। घर का खर्च चलाने के लिए जब तब कर्जे लेते रहे। सात औलादें हुई पर सब की सब ख़ुदा को प्यारी हो गयीं। लेकिन अपनी जिंदगी पर कभी उन्होंने इन तकलीफ़ों को हावी नहीं होने दिया। हँसते मुस्कुराते रहे और जीवन की छोटी छोटी खुशियों को जी भर कर जिया। फिर चाहे वो आम के प्रति उनका लगाव हो या फिर उनकी चुहल से भरी हाज़िर जवाबी। पर उनके भीतर की गहरी उदासी रह रह कर उनकी ग़ज़लों में उभरी और ये ग़ज़ल उसका ही एक उदाहरण है।
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त1 दर्द से भर न आये क्यों
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यों
1. ईंट और पत्थर
दैर2 नहीं, हरम3 नहीं, दर नहीं, आस्तां4 नहीं
बैठे हैं रहगुज़र5 पे हम, ग़ैर हमें उठाये क्यों
2. मंदिर 3. काबा 4. चौखट 5.रास्ता
क़ैद- ए -हयात- ओ -बंद- ए -ग़म6 अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों
6. जीवन की क़ैद और गम का बंधन
हाँ वो नहीं ख़ुदापरस्त, जाओ वो बेवफ़ा सही
जिसको हो दीन-ओं-दिल अज़ीज़, उसकी गली में जाये क्यों
"ग़ालिब"-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन-से काम बन्द हैं
रोइए ज़ार-ज़ार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों
आज भी जब गुमसुम होता हूँ तो इस ग़ज़ल को सुनना अच्छा लगता है। अपना ग़म हर
मिसरे से छन के आते दर्द के विशाल सागर में मानो विलीन सा हो जाता है। तो
सुनिए ये ग़ज़ल जगजीत सिंह और फिर चित्रा जी की आवाज़ों में...
पर आज ये ग़ज़ल याद आई जब मैंने इसी ज़मीन पर कही दाग़ देहलवी की ग़ज़ल
पढ़ी। दाग रूमानी शायर थे सो उन्होंने शब्दों का धरातल तो वही रखा पर ग़ज़ल
का मिजाज़ बदल दिया। जहाँ गालिब की ग़जल सुन जी भर उठता है वहीं दाग़ की
चुहल मन को गुदगुदाती है। अब मतले को ही देखिए। दाग़ कहते हैं
दिल ही तो है ना आए क्यूँ, दम ही तो है ना जाए क्यूँ हम को ख़ुदा जो सब्र दे तुझ सा हसीं बनाए क्यूँ
यानि
ईश्वर ने हमें दिल दिया है तो वो धड़केगा ही और ये जाँ दी है तो जाएगी ही।
अगर ख़ुदा ने तुम्हें ये बेपनाह हुस्न बख़्शा है तो मुझे भी ढेर सारा सब्र दिया तुम्हारे इस खूबसूरत दिल तक देर सबेर पहुँचने के लिए।
गो नहीं बंदगी कुबूल पर तेरा आस्तां तो है काबा ओ दैर में है क्या, खाक़ कोई उड़ाए क्यूँ
आख़िर
तेरी आसमानी चौखट तो हमेशा मेरे सिर पर रहेगी फिर मंदिर और मस्जिद क्यूँ
जाए तुझे पूजने? इसी वज़ह से कोई मेरी बेइज़्ज़ती करे क्या ये सही है?
लोग हो या लगाव हो कुछ भी ना हो तो कुछ नहीं बन के फरिश्ता आदमी बज़्म ए जहान में आए क्यूँ
लोगों
से भरी इस दुनिया में अगर इंसान आया है तो वो प्यार के फूल खिलायेगा ही।
अगर तुम सोचते हो ऐसा ना हो तो फिर उसे इस संसार में भेजने की जरूरत ही
क्या है?
जुर्रत ए शौक़ फिर कहाँ वक़्त ही जब निकल गया अब तो है ये नदामतें सब्र किया था हाए क्यूँ
शायर को अफ़सोस है कि अपने दिल पर सब्र रखकर उसने वक़्त रहते इश्क़ नहीं किया। अब तो वो ऐसा सोचने से भी कतराते हैं ।
रोने पे वो मेरे हँसे रंज़ में मेरे शाद हो छेड़ में है कुछ तो मज़ा वर्ना कोई सताए क्यूँ
उन्हें
मुझे रोता देख हँसी आती है और तो और मेरी शिकायत से वो खुश हो जाते हैं।
पर क्या सच में ऐसा है। उनके छेड़ने से मेरा हृदय भी तो पुलक उठता है नहीं
तो वे सताते क्यूँ।
ग़ालिब की ग़ज़ल तो आपने जगजीत व चित्रा जी की आवाज़ में सुन ली दाग़ की ग़ज़ल को मेरी आवाज़ में सुन लीजिए..
जावेद अख़्तर और जगजीत सिंह यानि 'ज' से शुरु होने वाले वे दो नाम जिनकी कृतियाँ जुबान पर आते ही जादू सा जगाती हैं। अस्सी के दशक के आरंभ में एक फिल्म आई थी साथ साथ जिसके संगीतकार थे कुलदीप सिंह जी। इस फिल्म के लिए बतौर गायक व गीतकार, जगजीत और जावेद साहब को एक साथ लाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। तुम को देखा तो ख्याल आया.. तो ख़ैर आज भी उतना ही लोकप्रिय है जितना उस समय हुआ था। पर फिल्म के अन्य गीत प्यार मुझसे जो किया तुमने तो क्या पाओगी.... और ये तेरा घर ये मेरा घर... तब रेडियो पर खूब बजे थे।
फिल्मों के इतर इन दो सितारों की पहली जुगलबंदी 1998 में आए ग़ज़लों के एलबम 'सिलसिले ' में हुई। क्या कमाल का एलबम था वो। सिलसिले की ग़ज़ले जाते जाते वो मुझे अच्छी निशानी दे गया.., दर्द के फूल भी खिलते हैं बिखर जाते हैं.. और नज़्म मैं भूल जाऊँ तुम्हें, अब यही मुनासिब है... अपने आप में अलग से एक आलेख की हक़दार हैं पर आज बात उनके सिलसिले से थोड़ी कम मक़बूलियत हासिल करने वाले एलबम सोज़ की जो वर्ष 2001 में बाजार में आया।
सोज़ का शाब्दिक अर्थ यूँ तो जलन होता है पर ये एलबम श्रोताओं के सीने में आग लगाने में नाकामयाब रहा। फिर भी सोज़ ने शायरी के मुरीदों को दो बेशकीमती तोहफे जरूर दिये जिन्हें गुनगुनाते रहना उसके प्रेमियों की स्वाभावगत मजबूरी है। इनमें से एक तो ग़ज़ल थी और दूसरी एक नज़्म। मजे की बात ये थी कि ये दोनों मिजाज में बिल्कुल एक दूसरे से सर्वथा अलग थीं। एक में अनुनय, विनय और मान मनुहार से प्रेमिका से मुलाकात की आरजू थी तो दूसरे में बुलावा तो था पर पूरी खुद्दारी के साथ।
पर पहले बात ग़ज़ल तमन्ना फिर मचल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ.. की। ओए होए क्या मुखड़ा था इस ग़ज़ल का। समझिए इसके हर एक मिसरे में चाहत के साथ एक नटखटपन था जो इस ग़ज़ल की खूबसूरती और बढ़ा देता है। आज भी जब इसे गुनगुनाता हूँ तो मन एकदम से हल्का हो जाता है तो चलिए एक बार फिर सुर में सुर मिलाया जाए..
तमन्ना फिर मचल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ यह मौसम ही बदल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ मुझे गम है कि मैने जिन्दगी में कुछ नहीं पाया ये ग़म दिल से निकल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ नहीं मिलते हो मुझसे तुम तो सब हमदर्द हैं मेरे ज़माना मुझसे जल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ ये दुनिया भर के झगड़े, घर के किस्से, काम की बातें बला हर एक टल जाए, अगर तुम मिलने आ जाओ
सोज़ की ये ग़ज़ल भले दिल को गुदगुदाती हो पर उसकी इस नज़्म के बारे में आप ऐसी सोच नहीं रख पाएँगे। प्रेम किसी पर दया दिखलाने या अहसान करने का अहसास नहीं। ये तो स्वतःस्फूर्त भावना है जो दो दिलों में जब उभरती है तो एक दूसरे के बिना हम अपने आप को अपूर्ण सा महसूस करते हैं। पर इस मुलायम से अहसास को जब भावनाओं का सहज प्रतिकार नहीं मिलता तो बेचैन मन खुद्दार हो उठता है। प्रेमी से मिलन की तड़प को कोई उसकी कमजोरी समझ उसका फायदा उठाए ये उसे स्वीकार नहीं। तभी तो जावेद साहब कहते हैं कि अहसान जताने और रस्म अदाएगी के लिए आने की जरूरत नहीं.... आना तभी जब सच्ची मोहब्बत तुम्हारे दिल में हो..
अब अगर आओ तो जाने के लिए मत आना
सिर्फ एहसान जताने के लिए मत आना
मैंने पलकों पे तमन्नाएँ सजा रखी हैं
दिल में उम्मीद की सौ शम्मे जला रखी हैं
ये हसीं शम्मे बुझाने के लिए मत आना
प्यार की आग में जंजीरें पिघल सकती हैं
चाहने वालों की तक़दीरें बदल सकती हैं
तुम हो बेबस ये बताने के लिए मत आना
अब तुम आना जो तुम्हें मुझसे मुहब्बत है कोई
मुझसे मिलने की अगर तुमको भी चाहत है कोई
तुम कोई रस्म निभाने के लिए मत आना
जगजीत तो अचानक हमें छोड़ के चले गए पर अस्पताल में भर्ती होने से केवल एक दिन पहले उन्होंने जावेद साहब के साथ अमेरिका में एक साथ शो करने का प्रोग्राम बनाया था जिसमें आपसी गुफ्तगू के बाद जावेद साहब को अपनी कविताएँ पढ़नी थीं और जगजीत को ग़ज़ल गायिकी से श्रोताओं को लुभाना था। जगजीत के बारे में अक्सर जावेद साहब कहा करते थे कि उनकी आवाज़ में एक चैन था., सुकून था। इसी सुकून का रसपान करते हुए आज की इस महफ़िल से मुझे अब आज्ञा दीजिए पर ये जरूर बताइएगा कि इस एलबम से आपकी पसंद की ग़ज़ल कौन सी है ?
उत्तरी कारो नदी में पदयात्रा Torpa , Jharkhand
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कारो और कोयल ये दो प्यारी नदियां कभी सघन वनों तो कभी कृषि योग्य पठारी
इलाकों के बीच से बहती हुई दक्षिणी झारखंड को सींचती हैं। बरसात में उफनती ये
नदियां...
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