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बुधवार, मार्च 26, 2014

मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा : वसीम बरेलवी / चंदन दास

अस्सी के दशक में जब जगजीत सिंह ग़ज़ल गायिकी को एक नया स्वरूप दे रहे थे तो उनके साथ साथ ग़जल गायकों की एक अच्छी पौध तैयार हो रही थी। उस दौर में पंकज उधास, पीनाज़ मसानी, तलत अज़ीज़ के साथ जो एक और नाम चमका वो चंदन दास का था। 

आप सोच रहें होंगे कि अचानक चंदन दास की याद मुझे कैसे आ गई। दरअसल पिछले हफ्ते चंदन दास का जन्मदिन था। अंतरजाल पर एक मित्र ने उनकी एक ग़ज़ल बाँटी। जबसे वो ग़ज़ल सुनी है तबसे उसी की ख़ुमारी में जी रहे हैं। ख़ैर ग़ज़ल सुनी तो फिर शायर पर भी ध्यान गया। शायर थे वसीम बरेलवी साहब।


ज़ाहिर है बरेलवी साहब का ताल्लुक उत्तर प्रदेश के बरेली शहर से है। जनाब रुहेलखंड विश्वविद्यालय में उर्दू के प्राध्यापक भी रहे। कुछ ही साल पहले वे फिराक़ इ्टरनेशनल अवार्ड से सम्मानित हुए हैं।  वसीम साहब से सबसे पहला तआरुफ जगजीत सिंह की गायी ग़ज़लों से ही हुआ था। अब भला  मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो, कि मैं जमीं के रिश्तों से कट गया यारों या फिर अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपायें कैसे जैसी ग़ज़लों को कोई कैसे भूल सकता है। वैसे जगजीत की गाई ग़ज़लों में में ये वाली ग़ज़ल मुझे सबसे पसंद है जिसमें वसीम कहते हैं

आपको देख कर देखता रह गया
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया
 
आते-आते मेरा नाम-सा रह गया
उस के होंठों पे कुछ काँपता रह गया

दिल हुआ कि जनाब वसीम बरेलवी को कुछ और पढ़ा जाए। पिछले चार पाँच दिनों में उनकी कई ग़ज़ले पढ़ डालीं। बरेलवी साहब का अंदाजे बयाँ मुझे बहुत कुछ बशीर बद्र साहब जैसा लगा यानि लफ्ज़ ऐसे जो कोई भी सहजता से समझ ले और गहराई ऐसी कि आप वाह वाह भी कर उठें। तो आइए आज की इस पोस्ट में उनके कुछ चुनिंदा अशआर आप की नज़र।

आज के दौर में समाज में बड़बोले और अपनी बेज़ा ताकत इस्तेमाल करने वालों का ही बोलबाला है। बरेलवी साहब बड़ी खूबसूरती से समाज के इस तबके पर इन अशआरों में तंज़ कसते नज़र आते हैं...

ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है

शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं
किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है


मैं हमेशा ये मानता हूँ कि व्यक्ति किसी विधा के बारे में कितना भी जान ले सीखने की गुंजाइश बनी रहती है। जैसे ही ये दंभ आया कि हम तो महारथी हो गए.. औरों की मेरे आगे क्या औकात तो समझो कि अपने सीखने की प्रक्रिया तो वहीं बंद हो गई। वसीम बरेलवी विनम्रता की जरूरत को कितने प्यारे ढंग से अपने इस शेर में समझाते नज़र आते हैं

अपने हर इक लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा
उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा


एक जगह और वो लिखते हैं
तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते
इसीलिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते

ये तो हुई हमारे आचार और व्यवहार की बातें। अब ज़रा देखें कि इंसानी रिश्तों और प्रेम के बारे में वसीम बरेलवी की कलम क्या कहती है? अव्वल इश्क़ तो जल्दी होता नहीं और एक बार हो गया जनाब तो उसकी गिरफ्त से निकलना भी आसान नहीं। इसीलिए बरेलवी साहब कहते हैं

बिसाते -इश्क पे बढ़ना किसे नहीं आता
यह और बात कि बचने के घर नहीं आते


और रिश्तों के बारे में उनके इन अशआरों की बात ही क्या
कितना दुश्वार है दुनिया ये हुनर आना भी
तुझी से फ़ासला रखना तुझे अपनाना भी

ऐसे रिश्ते का भरम रखना बहुत मुश्किल है
तेरा होना भी नहीं और तेरा कहलाना भी


तो आइए अब उस ग़ज़ल की ओर रुख किया जाए जिसकी वज़ह से ये पोस्ट अस्तित्व में आई...
क्या मतला लिखा है बरेलवी साहब ने ! और अंत के दो शेर तो भई कमाल ही कमाल हैं ..एक बार सुन लीजिए फिर दिल करता है कि अपने ''उन'' के ख़यालों में डूबते हुए बार बार सुनें। क्यूँ आपको नहीं लगता ऐसा?


मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तिहान क्या लेगा 


ये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा

मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चराग़ नहीं हूँ जो फिर जला लेगा

कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल (बिना ताकत /हुकूमत के) है वो बदला किसी से क्या लेगा

मैं उसका हो नहीं सकता, बता ना देना उसे
लकीरें हाथ की अपनी वो सब जला लेगा


हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता वसीम
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा




चंदन दास और उनकी ग़ज़लों में कुछ और डूबना चाहते हों तो उनकी पसंदीदा ग़ज़लों से जुड़ी मेरी फेरहिस्त ये रही....

शुक्रवार, जून 19, 2009

दोस्ती हर दिन की मेहनत है चलो यूँ ही सही : क्या सोचते हैं चंदन ग़ज़ल और ग़ज़ल गायिकी के भविष्य पर ?

चंदन दास पर आधारित इस श्रृंखला का समापन आज निदा फ़ाज़ली की इस बेहतरीन ग़ज़ल से। पर जैसा कि पिछली पोस्ट में मैने जिक्र किया था, आज ये भी जानेंगे कि क्या सोचते हैं चंदन दास ग़ज़ल गायिकी, इसके श्रोताओं और भविष्य में इसकी लोकप्रियता के बारे में ? कुछ साल पहले अंग्रेजी दैनिक ट्रिब्यून और यूनआई को उन्होंने अलग अलग साक्षात्कारों में बताया था कि
चाहे कितनी तरह का संगीत आए या जाए, ग़ज़लों के प्रशंसक हर काल में रहे हैं और आगे भी रहेंगे। हाँ ये जरूर है कि ग़ज़ल जैसी विधा हर संगीत प्रेमी को आकर्षित नहीं करती। हर कालखंड में ग़ज़ल वैसे ही लोगों द्वारा सराही गई हे जिन्हें उच्च दर्जे की कविता की समझ हो। ग़ज़ल सुनने से थिरकने का मन नहीं होता या जोर से झूमने की इच्छा होती है ये तो अपने अशआरों की अन्तरनिहित भावनाओं से सीधे दिल के पुर्जों को झिंझोड़ देती है। अब गालिब की शायरी को ही लें, उनकी मृत्यु की दो शताब्दियों के बाद भी उसके असर का मुकाबला किसी अन्य लोकप्रिय संगीत से नहीं किया जा सकता। इसका मतलब ये भी नहीं कि संगीत के अन्य रूपों डिस्को, जॉज, पॉप , रिमिक्स की जगह नहीं। है पर दोनों की प्रकृति में कोई साम्य नहीं , दोनों की दुनिया ही अलग है।
ग़ज़ल में शब्दों का बहुत महत्त्व है। वैसे तो ग़ज़ल गायक कई बार जनता का ध्यान रखते हुए ऍसी ग़ज़लों को चुनते हैं जो उनकी आसानी से समझ आ जाए। पर इस बाबत एक सीमा से ज्यादा समझौता करने वाले गायक ज्यादा दिनों तक लोकप्रियता का दामन नहीं छू पाते।
ग़ज़लों को बढ़ावा देने में टीवी के रोल से चंदन असंतुष्ट हैं. वो कहते हैं कि ".....एक ज़माने में जब दूरदर्शन था तो ग़ज़लों और मुशायरों के कई कार्यक्रम हुआ करते थे पर आज जब टीवी के पर्दे पर चैनलों की बाढ़ आई हुई है तो संगीत की अन्य विधाओं के सामने शेर ओ शायरी और कविता से जुड़े कार्यक्रम कहीं नज़र ही नहीं आते।..."

चंदन की बात वाज़िब है। यूँ तो संगीत चेनल के नाम पर MTV, etc और चैनल V जैसे कई चैनल हैं पर इनमें से किसी ने भी ग़ज़लों को केंद्रित कर दैनिक या साप्ताहिक श्रृंखला नहीं चलाई। आज के हिट गीतों को तो ये दिन में बीसियों बार बजा सकते हैं पर एक अच्छा ग़ज़लों का कार्यक्रम करने के बारे में ये सोचते तक नहीं। विविध भारती को छोड़ दें तो निजी एफ एम चैनलों की भी कमोबेश यही हालत है। ये स्थिति चिंतनीय है और इसे सुधारने के लिए आम श्रोताओं को भी एक दबाव बनाना होगा नहीं तो आगे की पीढ़ियाँ संगीत की इस अनमोल विधा को सुनने से वंचित रह जाएँगी।

इस श्रृंखला में


तो लौटते हैं आज की ग़ज़ल पर जो मुझे तीनों ग़ज़लों में सबसे अधिक प्रिय है। ये ग़ज़ल चंदन दास की अब तक पेश की गई ग़ज़लों से भिन्न एक दूसरे मिज़ाज़ की ग़ज़ल है जिसका हर शेर आपको कुछ सोचने पर मजबूर कर देता है। खासकर एक शेर तो आज के इस सोशल नेटवर्किंग के दौर में खास मायने रखता है। फेसबुक, आर्कुट में सैकड़ों की संख्या में हम दोस्त बना लेते हैं पर क्या हमारे पास उनमें से सभी तो छोड़ें कुछ खास के लिए भी पर्याप्त वक़्त होता है। इसी लिए मुझे निदा फ़ाज़ली का ये शेर सबसे ज्यादा कचोटता है

मैले हो जाते हैं रिश्ते भी लिबासों की तरह
दोस्ती हर दिन की मेहनत है चलो यूँ ही सही
चंदन दास ने जिस संयमित और सधी आवाज़ में इस ग़ज़ल का निर्वाह किया है उसे आप उनकी आवाज़ में इस ग़ज़ल को सुनकर ही महसूस कर सकते हैं।





आती जाती हर मोहब्बत है चलो यूँ ही सही
जब तलक़ है खूबसूरत है चलो यूँ ही सही

जैसी होनी चाहिए थी वैसी तो दुनिया नहीं
दुनियादारी भी जरूरत है चलो यूँ ही सही

मैले हो जाते हैं रिश्ते भी लिबासों की तरह
दोस्ती हर दिन की मेहनत है चलो यूँ ही सही

हम कहाँ के देवता हैं, बेवफा वो हैं तो क्या
घर में कोई घर की ज़ीनत है चलो यूँ ही सही


यूँ तो चंदन दास की ग़ज़लों की फेरहिस्त बेहद लंबी है पर मैंने अभी तक उनके कई एलबमों को नहीं सुना है। इस बार की श्रृंखला तो आज यहीं खत्म कर रहा हूँ पर फिर कभी उनकी कुछ और बेहतरीन ग़ज़लें हाथ लगेंगी तो आपके साथ उन्हें जरूर शेयर करूँगा।

मंगलवार, जून 16, 2009

जब मेरी हक़ीकत जा जा कर उनको जो सुनाई लोगों ने :चंदन दास / इब्राहिम अश्क़

पिछली पोस्ट में आपने सुनी चंदन दास की आवाज़ में जनाब मुराद लखनवी की ग़ज़ल। इससे पहले इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए आज की ग़ज़ल की चर्चा की जाए कुछ बातें चंदन दास के बारे में।

अक्सर देखा गया है कि संगीत से जुड़े फ़नकार एक सांगीतिक विरासत के उत्तराधिकारी होते हैं पर चंदन दास को ऍसा सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। उन्हें तो ग़ज़ल गायिकी के क्षेत्र में आने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी।

उनके पिता चाहते थे कि चंदन उनका मुर्शीदाबाद का व्यापार सँभाले। चंदन इस बात के लिए राजी नहीं हुए और ग्यारहवीं कक्षा के बाद वो अपने चाचा के यहाँ पटना आ गए। १९७६ में उन्हें दिल्ली के ओबेरॉय होटल में काम करने का मौका मिला। दिल्ली आने के बाद दो साल बाद उनकी किस्मत तब खुली जब गाने के लिए मुंबई की संगीत कंपनी का न्योता उन्हें मिला। चंदन की खुशकिस्मती थी कि उनकी पहली एलबम में उनका परिचय खुद ग़ज़ल गायक तलत अज़ीज ने दिया।

अपने इन्हीं अनुभवों को ध्यान में रख कर चंदन दास ने एक साक्षात्कार में कहा था कि ...."नए गायकों को संगीत के क्षेत्र में और संयम से अपनी दिशा तय करनी चाहिए। आज की पीढ़ी सफलता का स्वाद जल्दी चखने के लिए संगीत की उस विधा को चुन लेती हे जहाँ आसानी से नाम और पैसा कमाया जा सके। दरअसल उन्हें निरंतर रियाज़ करते हुए ये तय करना चाहिए कि वे अपनी काबिलियत के बल पर किस क्षेत्र में अपना मुकाम हासिल कर सकते हैं।"


इस श्रृंखला में


चंदन दास ने गंभीर और हल्की फुल्की (जिसमें गीत का मिज़ाज ज्यादा और बोलों का वज़न कम हो) दोनों तरह की ग़ज़ले गाई हैं। आज की ग़ज़ल कौ मैं इन दोनों श्रेणियों के बीच की मानता हूँ। यानि अच्छे अशआरों के साथ गाई एक ऍसी ग़ज़ल जिसे सुनते ही मन प्रफुल्लित हो जाता है। दरअसल जब इब्राहिम अश्क़ जैसा मँजा हुआ गीतकार ग़ज़ल लिखता है तो उसकी गेयता तो अच्छी होगी ही। इस ग़ज़ल में चंदन दास ने संगीत भी लफ़्जों के उतार चढ़ाव के अनुरूप ही रखा है जिसे इसे सुनने का आनंद बढ़ जाता है। शायद ही कोई ग़ज़ल प्रेमी हो जो इसे सुनकर साथ ही साथ इसे गुनगुनाने का लोभ संवरण कर सके।

और अब सुनिए चंदन दास की मोहक आवाज़ में ये ग़ज़ल



जब मेरी हक़ीकत जा जा कर उनको जो सुनाई लोगों ने
कुछ सच भी कहा कुछ झूठ कहा कुछ बात बनाई लोगों ने


ढाए हैं हमेशा जुल्म ओ सितम दुनिया ने मोहब्बत वालों पर
दो दिल को कभी मिलने ना दिया दीवार उठाई लोगों ने

आँखों से ना आँसू पोंछ सके, होठों पे खुशी देखी ना गई
आबाद जो देखा घर मेरा तो आग लगाई लोगों ने

तनहाई का साथी मिल ना सका रुसवाई में शामिल शहर हुआ
पहले तो मेरा दिल तोड़ दिया फिर ईद मनायी लोगों ने

इस दौर में जीना मुश्किल है ऐ अश्क़ कोई आसान नहीं
हर एक कदम पर मरने की अब रस्म चलाई लोगों ने


इस श्रृंखला की अगली कड़ी में होगी निदा फाज़ली की एक संवेदनशील ग़ज़ल और साथ में जानेंगे कि चंदन दास क्या सोचते हैं ग़ज़ल गायिकी के भविष्य के बारे में..

शनिवार, जून 13, 2009

खेलने के वास्ते अब दिल किसी का चाहिए, उम्र ऍसी है कि तुमको इक खिलौना चाहिए

पिछले महिने एक शाम मेरे नाम पर अस्सी के दशक में ग़ज़लों की दुनिया के लोकप्रिय गायकों और गायिकाओं की चर्चा चल रही थी। इस सिलसिले में मैंने आपको पीनाज़ मसानी, राज कुमार रिज़वी और राजेंद्र मेहता - नीना मेहता की गाई अपनी कुछ पसंदीदा ग़ज़लों को सुनवाया था। इसी सिलसिले को आज आगे बढ़ाते हैं अस्सी के दशक की एक और सुरीली आवाज़ से, जिसे आप और हम चंदन दास के नाम से जानते हैं। पीनाज़ मसानी की तरह ही चंदन दास को सबसे पहले देखने और सुनने का मौका मुझे दूरदर्शन की वज़ह मिला। पीनाज़ की तरह ही उन दिनों चंदन अक्सर अपने चिरपरिचित सफेद या क्रीम कुर्ते में दूरदर्शन के सुगम संगीत के कार्यक्रम में बारहा नज़र आते थे।

भारतीय ग़ज़ल गायिकी में ग़ज़लों को गीतनुमा शैली में गाने की उनकी शैली बिल्कुल अलग थी। अपनी ग़ज़लों में संगीत तो उन्होंने परंपरागत ही इस्तेमाल किया पर ज्यादातर ऍसी ग़ज़लें चुनी जिसे उर्दू का विशेष ज्ञान ना रखने वाला भी समझ सकता था। और फिर चंदन की जानदार आवाज़ और लफ्ज़ों का पैना उच्चारण, आम के साथ विशिष्ट जनों को भी अपनी पकड़ में ले ही लेता था।
चंदन दास की एक खासियत और रही वो ये कि उन्होंने अपने समकालीनों की तरह, अपने आप को एक प्रारूपित ढांचे में नहीं ढाला। मेरा इशारा पंकज उधास और अनूप जलोटा की ओर है । पंकज जी का ध्यान आते ही सुर के साथ सुरा याद आने लगती है वहीं अनूप जलोटा नाम सुनते ही मन में घुँघरु खनकने लगते हैं। शायद यही वज़ह रही की पच्चीस सालों बाद भी चंदन दास की गाई कई ग़ज़लें मन कि तहों से निकल निकल कर ज़ुबान पर आती रहती हैं। हाल ही में विमल भाई ने आपको चंदन दास की लोकप्रिय ग़ज़ल

ना जी भर के देखा ना कुछ बात की
बड़ी आरजू थी मुलाकात की

सुनवाते हुए ये लिखा था कि इतनी अच्छी आवाज़ के मालिक होते हुए भी चंदन की ग़ज़लों की फेरहिस्त ज्यादा नहीं है। पर अगर चंदन दास के संगीत सफ़र पर ध्यान दें तो उनके एलबमों की तादाद बीस को पार कर जाती है जिसे कम भी नहीं कहा जा सकता।


इस श्रृंखला में


इस श्रृंखला के लिए मैंने जिन ग़जलों को आपके सामने प्रस्तुत करने की इच्छा है वो वे ग़जलें हैं जिन्हें नब्बे के दशक में मैंने बहुत सुना और गुनगुनाया है। इस कड़ी में आज पेश है मुराद लखनवी की एक ग़जल जिसका मतला मुझे इस ग़जल की जान लगता है।

खेलने के वास्ते अब दिल किसी का चाहिए
उम्र ऍसी है कि तुमको इक खिलौना चाहिए

तो क्यूँ ना इसे गुनगुनाना शुरु किया जाए..


वैसे आप ये बताइए क्या आजकल दिल लगाना और तोड़ना एक खेल की तरह नहीं हो गया है? और तो और अगर जेब भरी हो तो प्रेम की लता ज़रा ज्यादा तेजी से फलती फूलती है इसलिए तो मक़ते में मुराद कहते हैं

कल तलक था दिल जरूरी राह ए उलफत में मुराद
आज के इस दौर में चाँदी औ सोना चाहिए

तो लीजिए सुनिए चंदन दास की धारदार आवाज़ में इस ग़ज़ल को



खेलने के वास्ते अब दिल किसी का चाहिए
उम्र ऍसी है कि तुमको इक खिलौना चाहिए

मुझ को कहिए हाथ में मेंहदी लगाना है अगर
खूने दिल दूँ या कि फिर खूने तुमन्ना चाहिए

बज़्म मे आओ किसी दिन कर के तुम सोलह सिंगार
इक क़यामत वक़्त से पहले भी आना चाहिए

तुम कहो तो मर भी जाऊँ मैं मगर इक शर्त है
बस कफ़न के वास्ते आँचल तुम्हारा चाहिए

कल तलक था दिल जरूरी राह ए उलफत में मुराद
आज के इस दौर में चाँदी और सोना चाहिए

ये ग़ज़ल चंदन दास के एलबम सितम का हिस्सा है जिसे बाजार में टी सीरीज द्वारा लाया गया था।
इस श्रृंखला की अगली कड़ी में चंदन दास से जुड़ी कुछ और बातें होंगी और साथ में होगी उनकी एक प्यारी सी ग़ज़ल ...
 

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