अस्सी का दशक मेरे लिए हमेशा नोस्टालजिया जगाता रहा है। फिल्म संगीत के उस पराभव काल ने ग़ज़लों को जिस तरह लोकप्रिय संगीत का हिस्सा बना दिया वो अपने आप में एक अनूठी बात थी। उस दौर की सुनी ग़ज़लें जब अचानक ही ज़ेहन में उभरती हैं तो मन आज भी एकदम से पच्चीस साल पीछे चला जाता है। बहुत कुछ था उस समय दिल में महसूस करने के लिए, पर साथ ही बड़े कम विकल्प थे मन की भावनाओं को शब्द देने के लिए।
पहले भी आपको मैं अपनी इन्हीं पुरानी यादों के सहारे राजकुमार रिज़वी, राजेंद्र मेहता, अनूप जलोटा व पीनाज़ मसानी की गाई अपनी पसंदीदा ग़ज़लों से मिलवाता रहा हूँ। इसी क्रम में आज बारी है उस दशक के लोकप्रिय ग़ज़ल गायक पंकज उधास की। उस दशक में पंकज जी की लोकप्रियता का आलम ये था कि उनके गाए गीत व ग़ज़लें मिसाल के तौर पर 'चाँदी जैसा रंग है तेरा', 'इक तरफ तेरा घर इक तरफ मैकदा..', 'घुँघरू टूट गए..' गली नुक्कड़ों पर ऐसे बजा करते थे जैसे आज के हिट फिल्मी गीत।

इतना होते हुए भी पंकज उधास मेरे पसंदीदा ग़ज़ल गायक कभी नहीं रहे। पर इस नापसंदगी का वास्ता मुझे उनकी आवाज़ से कम पर उनके द्वारा चुनी हुई ग़ज़लों से ज्यादा रहा है। पंकज उधास ने ग़ज़लों के चुनाव से अपनी एक ऐसी छवि बना ली जिससे उनकी गाई हर ग़ज़ल में 'शराब' का जिक्र होना लाज़िमी हो गया। ग़ज़लों का दौर मंदा होने पर पंकज ने कुछेक फिल्मी गीतों में भी अपनी आवाज़ दी और बीच बीच में ग़ज़ल के इक्का दुक्का एलबम निकालते रहे।
वर्ष 2006 में ग़ज़ल गायिकी के 25 साल पूरे होने पर उन्हें पद्मश्री से सम्मानित भी किया गया। हाल फिलहाल में पंकज उधास अपनी उस पुरानी छवि को धोने का प्रयास कर रहे हैं। 2004 में उन्होंने मीर तकी 'मीर' की ग़ज़लों से जुड़ा एलबम निकाला और आजकल वो दाग 'देहलवी' की ग़ज़लों से जुड़े एलबम को निकालने की तैयारी में हैं।
ख़ैर लौटते हैं आज की ग़ज़ल पर जिसका मुखड़ा अनायास ही पिछले हफ्ते मेरे होठों पर आ गया.. क़ाबिल अजमेरी की लिखी इस ग़ज़ल को यूँ तो इकबाल बानो ने भी गाया है पर पंकज उधास का अंदाज़ कहीं ज्यादा दिलकश है। तो आइए गुनगुनाते ते हैं पंकज उधास के साथ इस ग़ज़ल को
तुम ना मानो मगर हक़ीकत है
इश्क़ इंसान की जरूरत है
हुस्न ही हुस्न जलवे ही जलवे
सिर्फ एहसास की जरूरत है
उस की महफिल में बैठ के देखो
ज़िंदगी कितनी खूबसूरत है
जी रहा हूँ इस ऍतमाद* के साथ
ज़िंदगी को मेरी जरूरत है
*विश्वास
पर पंकज जी ने क़ाबिल अजमेरी साहब की पूरी ग़ज़ल नहीं गाई है। इसके बाकी अशआरों से रूबरू होने से पहले इस अनजान से शायर के बारे में कुछ बातें। क़ाबिल अज़मेरी, मोहसीन भोपाली, अख़्तर अंसारी अकबराबादी व हिमायत अली शायर के समकालीन थे। साठ के दशक में क़ाबिल का नाम पाकिस्तान के साहित्यिक परिदृश्य में उभरा। पर फलक़ पर ये तारा ज्यादा दिनों तक चमक ना सका और इकतिस साल की कम उम्र में ही टीबी की बीमारी से पीड़ित होने की वज़ह से वो चल बसे। अपने समय के शायरों की आपसी प्रतिद्वंदिता और उनकी बीमारी ने उन्हें जीवन भर परेशान रखा। फिर भी जिंदगी के प्रति उनकी आस्था खत्म नहीं हुई और शायद इसीलिए उन्होंने लिखा।
जी रहा हूँ इस ऍतमाद के साथ
ज़िंदगी को मेरी जरूरत है
कुछ साल पहले पाकिस्तान में उनका एक काव्य संकलन छपा था जिसका नाम उनकी इसी मशहूर ग़ज़ल के नाम पर 'इश्क़ इंसान की जरूरत है' रखा गया है। तो आइए पढ़ें इस ग़ज़ल के बाकी अशआर
कुछ तो दिल मुब्तला ए वहशत* है
कुछ तेरी याद भी क़यामत है
* डरा सहमा सा
मेरे महबूब मुझसे झूठ ना बोल
झूठ सूरत ए गर सदाक़त* है
* गवाही
उस के वादे पे नाज़ थे क्या क्या
अब दरो ओ बाम से नदामत* है
* शर्मिन्दगी
रास्ता कट ही जाएगा क़ाबिल
शौक़ ए मंजिल अगर सलामत है
