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गुरुवार, मार्च 26, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 सरताज गीत : इक लौ इस तरह क्यूँ बुझी मेरे मौला !

आज उपस्थित हूँ वार्षिक संगीतमाला 2008 के सरताज गीत को लेकर। अपनी वार्षिक संगीतमालाओं में मैंने अक्सर उन्हीं गीतों को सरताज गीत का सेहरा पहनाया है जिन्होंने मुझे बुरी तरह उद्वेलित किया है, जिनके प्रभाव से मैं जल्द मुक्त नहीं हो पाया हूँ। इस गीत की आरंभिक धुन मैंने मुंबई त्रासदी के तुरंत बाद NDTV India पर सुनी थी। शुरुआत की धुन में बजता पियानो का टनटनाता स्वर जहाँ हमारी असहायता पर भारी चोट कर रहा था वहीं बाकी का संगीत आँखों को नम करने के लिए काफी था। इस गीत की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस गीत ने सारे देश के लोगों को NDTV के द्वारा चलाए गई मुहिम से जोड़ने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

पर जब आप इस पूरे गीत को सुनते हैं तो उन तमाम लोगों की तसवीर उभरती है जो वक़्त के क्रूर हाथों अपनी हँसती खेलती जिंदगी को अनायास ही खो कर ऐसे शून्य में विलीन हो गए जहाँ से लौटकर कोई नहीं आता।


'आमिर' फिल्म में ये गीत निर्दोष आमिर के आतंकवादियों के जाल में फँसने के बाद बम विस्फोट में उसकी असमय मृत्यु के बाद बजता है। आखिर क्या चाहता है एक आम आदमी अपनी जिंदगी से..एक ऍसा समाज जहाँ ना कोई नफ़रत की लकीरे हों और ना ही इंसान को इंसान से बाँटती सरहदें। इसीलिए गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य इन भावनाओं को अपने शब्द देते हुए लिखते हैं...

धूप के उजाले से ओस के प्याले से
खुशियाँ मिले हमको
ज्यादा माँगा है कहाँ , सरहदें ना हो जहाँ
दुनिया मिले हमको
पर ख़ुदा खैर कऱ उसके अरमां में
क्यूँ बेवज़ह हो कोई कुर्बां
गुनचा मुस्कुराता एक वक़्त से पहले
क्यूँ छोड़ चला तेरा ये ज़हां
इक लौ इस तरह क्यूँ बुझी मेरे मौला
इक लौ जिंदगी की मौला

ये एक ऍसा प्रश्न है जो हर ऍसी त्रासदी के बाद हमारे दिल के जख़्मों को और हरा कर देता है और जब तक घृणा और नफ़रत फैलाने वाले लोगों को हम अपने समाज से बाहर नहीं कर पाएँगे तब तक ये प्रश्न हमारे लिए अनुत्तरित ही बना रहेगा।

जैसा कि आपको पहले भी बता चुका हूँ कि आमिर फिल्म का संगीत दिया है अमित त्रिवेदी ने और इस गीत को गाया है शिल्पा राव ने। दरअसल आमिर फिल्म के संगीत निर्देशन के लिए अमित त्रिवेदी के नाम की सिफारिश शिल्पा राव ने ही की थी। इस साल शिल्पा राव का गाया सबसे लोकप्रिय गीत ख़ुदा जाने.. ही रहा है पर इससे पहले उनका गया वो अजनबी..भी चर्चित हुआ था।



शिल्पा राव एक छोटे से शहर से उपजी कलाकार हैं। और अगर मैं ये कहूँ कि वो शहर मेरे राज्य में स्थित है तो शायद ये तथ्य आप में से कइयों को चौका दे। शिल्पा जमशेदपुर से ताल्लुक रखती हैं और संगीत की आरंभिक शिक्षा उन्होंने अपने संगीतज्ञ पिता से ली। शुरुआती दौर में वो छोटे मोटे स्टेज शो किया करती थीं। ऍसी ही एक शो में उनकी मुलाकात शंकर महादेवन से हुई। शंकर के प्रोत्साहन से उन्होंने मुंबई का रुख किया और अब अपनी प्रतिभा से सबको प्रभावित कर रही हैं...

तो चलिए सुनते हैं आमिर फिल्म का ये दिलछूता नग्मा....


इक लौ इस तरह क्यूँ बुझी मेरे मौला
गर्दिशों में रहती बहती गुजरती
जिंदगियाँ हैं कितनी
इन में से इक है, तेरी मेरी अगली
कोई इक जैसी अपनी
पर ख़ुदा खैर कर, ऍसा अंजाम किसी रुह को ना दे कभी यहाँ
गुनचा मुस्कुराता एक वक़्त से पहले
क्यूँ छोड़ चला तेरा ये ज़हाँ
इक लौ इस तरह क्यूँ बुझी मेरे मौला
इक लौ जिंदगी की मौला

धूप के उजाले से ओस के प्याले से
खुशियाँ मिले हमको
ज्यादा माँगा है कहाँ , सरहदें ना हो जहाँ
दुनिया मिले हमको
पर ख़ुदा खैर कऱ उसके अरमां में
क्यूँ बेवज़ह हो कोई कुर्बां
गुनचा मुस्कुराता एक वक़्त से पहले
क्यूँ छोड़ चला तेरा ये ज़हां
इक लौ इस तरह क्यूँ बुझी मेरे मौला
इक लौ जिंदगी की मौला




वार्षिक संगीतमाला के समापन के साथ उन सभी पाठकों का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा जो इस लंबे सफ़र में साथ बने रहे।

सोमवार, मार्च 23, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 पुनरावलोकन : कौन रहा आपका पिछले साल का सर्वाधिक प्रिय गीत ?

वार्षिक संगीतमाला २००८ में बचा है सिर्फ शिखर पर बैठा सरताज गीत। पर इससे पहले कि उस गीत की चर्चा की जाए एक नज़र संगीतमाला के इस संस्करण की बाकी पॉयदानों पर। बतौर संगीतकार ए आर रहमान ने इस साल की संगीतमाला पर अपनी बादशाहत कायम रखी है। जोधा अकबर, युवराज, जाने तू या जाने ना, गज़नी की बदौलत इस संगीतमाला में उनके गीत दस बार बजे। रहमान के आलावा इस साल के अन्य सफल संगीतकारों में विशाल शेखर, सलीम सुलेमान और अमित त्रिवेदी का नाम लिया जा सकता है।

इस साल की संगीतमाला में अमिताभ वर्मा, जयदीप साहनी, अशोक मिश्रा, इरफ़ान सिद्दकी, मयूर सूरी, कौसर मुनीर,अब्बास टॉयरवाला और अन्विता दत्त गुप्तन जैसे नए गीतकारों ने पहली बार अपनी जगह बनाई। इतने सारे प्रतिभाशाली गीतकारों का उभरना फिल्म संगीत के लिए शुभ संकेत है।

वहीं गायक गायिकाओं में विजय प्रकाश, जावेद अली, राशिद अली, श्रीनिवास और शिल्पा राव जैसे नामों ने पहली बार संगीत प्रेमी जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।

तो आइए चलें इस साल की वार्षिक संगीतमाला के पुनरावलोकन पर..


वार्षिक संगीतमाला 2008 पुनरावलोकन:


इस श्रृंखला का समापन होगा अगली पोस्ट में सरताज गीत के साथ। पर मैं अपनी पसंद के उस गीत के बारे में बताने से पहले जानना चाहूँगा कि कौन रहा आपका पिछले साल का सर्वाधिक प्रिय गीत ?

गुरुवार, मार्च 19, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 रनर्स अप - कहने को जश्न-ऐ-बहारा है....

वार्षिक संगीतमाला का ये पिछले ढाई महिने का सफ़र तय कर के आ गए हैं हम वर्ष 2008 के दूसरे नंबर के गीत पर। और ये गीत है फिल्म जोधा अकबर से जिसके संगीत को आस चिट्ठे की साइडबार पर कराई गई वोटिंग में साल के सर्वश्रेष्ठ संगीत के लिए सबसे ज्यादा वोट मिले हैं। जावेद अली का गाया, जावेद अख्तर का लिखा और अल्लाह रक्खा रहमान का संगीतबद्ध ये गीत संगीत, बोलों और गायिकी तीनों ही दृष्टिकोणों से ग़ज़ब का प्रभाव डालता है।


वैसे तो जावेद अख्तर साहब को इस साल का फिल्मफेयर एवार्ड इसी फिल्म के एक और खूबसूरत नग्मे इन लमहों के दामन के लिए मिला है पर इस गीत के बोल भी कमाल के हैं। इस गीत में उन्होंने अकबर और जोधा के बीच के प्रेम और शादी की परिस्थितियों से पैदा तनाव को उभारा है वो गीत की हर पंक्ति में सहज ही महसूस किया जा सकता है।

जिंदगी में मनचाहा हमसफ़र अगर साथ हो तो खुशियाँ कभी बेहद नज़दीक सी महसूस होती हैं। पर उन खुशियों को दिल तक पहुँचने के लिए अपने बीच की अहम की दीवार को गिराना पड़ता है। पूर्वाग्रह मुक्त होना पड़ता है। कई बार हम ये सब जानते बूझते भी अपने को इस दायरे से बाहर नहीं निकाल पाते। और फिर मन मायूसी के दौर से गुज़रने लगता है।

देखिए इन भावनाओं से गुँथे जावेद के शब्दों को जावेद अली ने किस खूबसूरती से अदा किया है और पीछे से रहमान का बहता निर्मल संगीत दिल को गीत में रमने में मजबूर कर देता है।

और अगर जावेद अली आपके लिए नए नाम हों तो उनके बारे में इसी साल की संगीतमाला की ये पोस्ट देखिए....



कहने को जश्न-ऐ-बहारा है
इश्क यह देख के हैरां है
फूल से खुशबू ख़फा ख़फा है गुलशन में
छुपा है कोई रंज फ़िज़ा की चिलमन में
सारे सहमे नज़ारें हैं
सोये सोये वक़्त के धारे हैं
और दिल में खोई खोई सी बातें हैं

कहने को जश्न-ऐ-बहारा है....
कैसे कहें क्या है सितम
सोचते हैं अब यह हम
कोई कैसे कहे वो हैं या नहीं हमारे
करते तो हैं साथ सफर
फासले हैं फिर भी मगर
जैसे मिलते नहीं किसी दरिया के दो किनारे
पास हैं फिर भी पास नहीं
हमको यह गम रास नहीं
शीशे की इक दीवार है जैसे दरमियां
सारे सहमे नज़ारें हैं.....

कहने को जश्न-ऐ-बहारा है....
हमने जो था नगमा सुना
दिल ने था उसको चुना
यह दास्तान हमें वक़्त ने कैसी सुनाई
हम जो अगर है गमगीन
वो भी उधर खुश तो नहीं
मुलाकातों में है जैसे घुल सी गई तन्हाई

मिल के भी हम मिलते नहीं
खिल के भी गुल खिलते नहीं
आँखों में है बहारें दिल में खिज़ा
सारे सहमे नज़ारे हैं
सोये सोये वक़्त के धारे हैं......


कहने को जश्न-ऐ-बहारा है....

और

सोमवार, मार्च 16, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 - पायदान संख्या 3 : सत्ता की ये भूख विकट आदि है ना अंत है, अब तो प्रजातंत्र है...

वार्षिक संगीतमाला में अब बची है आखिरी की तीन पॉयदान। तीसरी पॉयदान पर गीत वो जिसे आपके सुनने की संभावना कम ही होगी क्यूंकि इस गीत की चर्चा हिंदी चिट्ठा जगत में अब तक तो नहीं हुई है। नुक्कड़ गीतों की शैली में रचा ये गीत एक समूह गीत है जो इस देश में प्रजातंत्र की गौरवशाली परंपरा को पहले तो याद करता है और फिर आज के लोकतंत्र में आए खोखलेपन का जिक्र करता है। अब जब की लोकसभा के चुनावों की घोषणा हो गई है अगर इलेक्ट्रानिक मीडिया की नज़र इस गीत पर जाए तो इसका इस चुनावी मौसम में अच्छा इस्तेमाल हो सकता है।

नुक्कड़ गीतों की शैली में रचा ये गीत एक समूह गीत है जो इस देश में प्रजातंत्र की गौरवशाली परंपरा को पहले तो याद करता है और फिर आज के लोकतंत्र में आए खोखलेपन का जिक्र करता है। दरअसल इस तरह के गीत हिंदी फिल्मों में बेहद कम नज़र आते हैं जबकि आज के सामाजिक राजनीतिक हालातों में ऍसे कई गीतों की जरूरत है जो साठ सालों से चल रहे इस लोकतंत्र के बावजूद पैदा हुई विसंगतियों को रेखांकित कर सकें। पर ऍसे गीत तभी लिखे जाएँगे जब इन विषयों को लेकर फिल्में बनाई जाएँगी।

इस गीत को लिखा है अशोक मिश्रा ने। अशोक मिश्रा को इस तरह के गीत की रचना करने का मौका दिया निर्देशक श्याम बेनेगल ने अपनी फिल्म वेलकम टू सज्जनपुर में ! गीतकार ने गीत के दोनों अंतरे में जो बातें कहीं है वो आज के राजनीतिक हालातों का सच्चा आईना हैं। चाहे वो सत्ता की कभी ना मरने वाली भूख हो या फिर नोटों के बल पर वोटों की ताकत को प्रभावशून्य करने की बात।

संगीतकार शान्तनु मोइत्रा ने लोक धुन का स्वरूप अपनाते हुए इस समूह गान के मुख्य स्वर में कैलाश खेर को चुना जो कि शत प्रतिशत सही और प्रभावी चुनाव रहा। कुल मिलाकर कैलाश की गूंजती आवाज़, प्रभावी बोल और गीत के अनुरूप बनाई गई प्यारी धुन ने इस गीत को वार्षिक संगीतमाला की पहली तीन पॉयदानों में ला खड़ा किया है। तो आइए इस गीत के माध्यम से याद करें प्रजातंत्र के मूल तत्त्वों को और अपने वोट की अहमियत को पहचानते हुए मतदान का संकल्प लें।


आदमी आज़ाद है, देश भी स्वतंत्र है
राजा गए रानी गई अब तो प्रजातंत्र है

जन के लिए, जन के द्वारा जनता का राज है
प्रजातंत्र सबसे बड़ा, हम सबको नाज़ है
वोट छोटा सा मगर शक्ति में अनंत है
अब तो प्रजातंत्र है, अब तो प्रजातंत्र है

खिल रही थी कली कली, महके थी हर गली
आप कभी साँप हुए, हम हो गए छिपकली
सत्ता की ये भूख विकट आदि है ना अंत है

अब तो प्रजातंत्र है, अब तो प्रजातंत्र है

अरे जिसकी लाठी उसकी भैंस आपने बना दिया
हे नोट की खन खन सुना के वोट को गूँगा किया
पार्टी फंड, यज्ञ कुंड घोटाला मंत्र है

अब तो प्रजातंत्र है, अब तो प्रजातंत्र है

आदमी आज़ाद है, देश भी स्वतंत्र है
राजा गए रानी गई अब तो प्रजातंत्र है

सोमवार, मार्च 09, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 - पायदान संख्या 4 : अमित त्रिवेदी के साथ कीजिए डींग डाँग डाँग, डींग डाँग डाँग टिड़िंग टिंग

भाइयों और बहनों होली की इस पूर्व संध्या भी एक ऍसे सुखद संयोग पर आई है जब मेरी इस संगीतमाला का सबसे मस्तमौला गीत आपको झूमने झुमाने या यों कहिए कि आपको घुमाने के लिए तैयार है। दरअसल इस साल मेरे घर पर जब-जब आमिर फिल्म का ये गीत बजा है मेरे पाँव खुद बा खुद थिरक गए हैं जबकि मुझे नाचना बिल्कुल नहीं आता :)। अगर मैं ये कहूँ कि इस साल के सारे गीतों में सबसे ज्यादा जिस गीत पर मेरे परिवार के सारे सदस्य आनंदित हुए हैं तो ये वही गीत है।

गीतकार अमिताभ ने गीत में लफ्ज़ों का यूँ चुनाव किया है कि उसमें लोकगीतों का सा ठेठपन बरकरार रहे। दरअसल फिल्म की कहानी में ये गीत बैकग्राउंड में आता है जब नायक की जिंदगी की गाड़ी अचानक पटरी से उतर जाती है और वो इस चक्रव्यूह के दलदल में धँसता चला जाता है। अब देखिए अमिताभ का कमाल.. इस परिस्थिति को गली मोहल्ले की भाषा में कैसे व्यक्त करते हैं

अरे चलते चलते हाए हाए
हल्लू हल्लू दाएँ बाएँ हो
अरे देखो आएँ बाएँ साएँ
जिंदगी की झाँए झाँए हो
अरे निकले थे कहाँ को
और किधर को आए
कि चक्कर घुमिओ..



दूसरी ओर संगीतकार अमित त्रिवेदी ने राजस्थानी लोक धुन के साथ ताल वाद्यों का इतना बेहतरीन संयोजन किया है कि हर इंटरल्यूड में खुद झूमने के साथ औरों को भी झुमाने का मन करता है। अमित ने खुद इस गीत को अपनी आवाज़ दी है। आमिर फिल्म के इस गीत में अमित और अमिताभ की इस जोड़ी की प्रयोगधर्मिता की जितनी तारीफ की जाए कम होगी।

पर ये जोड़ी क्या अचानक ही हिंदी फिल्म संगीत के पर्दे पर उभर कर आ गई? नहीं ये अमित के दस वर्षों के कठिन संघर्ष का फल है जिसने फिल्म आमिर और अब डेव डी के माध्यम से उन्हें अपनी पहचान बनाने का मौका दिया है।

यूँ तो १५ वर्ष की उम्र से ही अमित को संगीत के प्रति रुचि बढ़ गई थी, पर उनका ये प्रेम तब मूर्त रूप ले सका जब कॉलेज से निकलने के बाद उन्होंने ओम नामक संगीत बैंड बनाया। १९‍ - २० साल की उम्र से ही अमित ने टीवी सीरियल, नाटकों आदि के लिए पार्श्व संगीत देने से लेकर विज्ञापन की धुनें बनाई और यहाँ तक कि डांडिया शो के आर्केस्ट्रा में भी काम किया। टाइम्स म्यूजिक ने इस समूह की प्रतिभा को पहचाना और अमित त्रिवेदी का पहला एलबम बाजार में आया। पर ठीक से प्रचार और प्रमोशन ना होने की वज़हों से उनलका ये प्रयास लोगों की नज़रों में नहीं आ पाया। खैर इनकी मित्र और नवोदित गायिका शिल्पा राव की सिफारिश से इन्हें अनुराग कश्यप ने डेव डी के लि॓ए अनुबंधित किया पर उसका काम बीच में ही रुक गया पर अनुराग ने तब इन्हें आमिर दिलवा दी और इस पहली फिल्म में ही उन्होंने अपनी हुनर का लोहा सनसे मनवा लिया।

अब होली के इस माहौल में इस गीत से आपकी दूरी और नहीं बढ़ाऊँगा। बस प्लेयर आन कीजिए, अपनी चिंताओं को दूर झटकिए और बस घूमिए और झूमिए।


डींग डाँग डाँग डींग डाँग डाँग टिड़िंग टिंग
डींग डाँग डाँग
डींग डाँग डाँग डींग डाँग डाँग टिड़िंग टिंग
डींग डाँग डाँग

अरे चलते चलते हाए हाए
हल्लू हल्लू दाएँ बाएँ हो
अरे देखो आएँ बाएँ साएँ
जिंदगी की झाँए झाँए हो
अरे निकले थे कहाँ को
और किधर को आए
कि चक्कर घुमियो
कि चक्कर कि चक्कर कि चक्कर कि चक्कर
पल्ले कुछ पड़े ना
कोई समझाए
कि चक्कर घुमियो
कि चक्कर कि चक्कर कि चक्कर कि चक्कर
अरे घुमियो रे, हाए घुमियो, रे घुमियो चक्कर घुमियो
हाए हाए घुमियो रे घुमियो घुमियो रे घुमियो चक्कर घुमियो

ले कूटी किस्मत की फूटी मटकी

रे फूटी....
दौड़न लागी तो चिटकी
खेल कबड्डी लागा
खेल कबड्डी लागा
भूल के दुनियादारी यारा खेल कबड्डी लागा
नींद खुली तो जागा
नींद खुली जो हाए
कि चक्कर घुमियो
कि चक्कर कि चक्कर कि चक्कर कि चक्कर
पल्ले कुछ पड़े ना
कोई समझाए कि चक्कर घुमियो
अरे घुमियो रे हाए घुमियो, रे घुमियो चक्कर घुमियो
हाए हाए घुमियो घुमियो घुमियो घुमियो चक्कर घुमियो
डींग डाँग डाँग डींग डाँग डाँग टिड़िंग टिंग

चिकोटी वक़्त ने काटी ऐसी चिकोटी
खुन्नस में तेरी सटकी
छींक मारे लागा, छींक मारे लागा
झाड़ा सच को धूल उड़ी तो
छींक मारे लागा
नींद खुली तो जागा
नींद खुली जो हाए
कि चक्कर घुमियो
कि चक्कर कि चक्कर कि चक्कर कि चक्कर
पल्ले कुछ पड़े ना...............




आशा है होली की मस्ती के साथ इस गीत ने भी आप सबको आनंदित किया होगा। एक शाम मेरे नाम के तमाम पाठकों को होली की ढ़े सारी शुकानाएँ !

शुक्रवार, मार्च 06, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 :पायदान संख्या 5 - विजय प्रकाश की मन मोहती शास्त्रीय प्रस्तुति लट उलझी सुलझा जा बालम...

इस साल की संगीतमाला अब अपने अंतिम चरण में पहुँच गई है। आखिरी पाँच पायदानों पर विराजमान गीतों में काफी विविधता है । कहीं मेलोडी की बहार है तो कहीं दिल को झकझोर देने वाले शब्द। कहीं नुक्कड़ गीतों की झलक है तो कही लोक संगीत और आज के संगीत का अद्भुत मिश्रण है।


पर पाँचवी पॉयदान का गीत तो इन सबसे अलग है। राग भीमपलासी पर आधारित इस गीत को संगीतकार ए आर रहमान ने सिंथिसाइजर की पार्श्व धुन के साथ मिश्रित किया है। इस गीत की धुन और गायक विजय प्रकाश का उत्कृष्ट शास्त्रीय गायन आपको गीत के साथ बहा ले जाता है। गीत की एकमात्र कमज़ोरी इसकी लंबाई है जो केवल 3 मिनट ग्यारह सेकेंड की है। जैसे ही इस गीत से अपने को आत्मसात पाता हूँ ये गीत खत्म हो जाता है। काश! रहमान गुलज़ार के लिखे इस गीत में एक अंतरा और बढ़वा लेते तो सोने पर सुहागा होता।


पर इससे पहले कि आप युवराज फिल्म के इस गीत को सुनें कुछ बातें गायक विजय प्रकाश के बारे में। विजय प्रकाश कर्नाटक से आते हैं और जी टीवी पर आने वाले कार्यक्रम सा रे गा मा की उपज है। १९९९ में सा रे गा मा प्रतियोगिता में ये फाइनल तक पहुँचे थे। अपनी आवाज़ की गुणवत्ता के हिसाब से विजय को उतने गीत नहीं मिले जितने मिलने चाहिए थे पर इस गीत की सफलता के बाद शायद हिंदी फिल्म जगत में उनका सितारा और बुलंद हो। वैसे एक बात बतानी यहाँ लाजिमी होगी की स्लमडॉग मिलयनियर के गीत के लिए रहमान ने जिन चार गायकों को अनुबंधित किया था उनमें विजय प्रकाश एक थे। हालांकि अंत में सुखविंदर ने इस गीत को गाया पर गीत में हाई पिच पर जय हो का उद्घोष विजय ने किया है।

गीत तूम तनना... के आकर्षित करने वाले लूप से शुरु होता है और फिर विजय अपनी शास्त्रीय गायन का हुनर बखूबी दिखाते हैं। ऍसे गीतों में बोल सुरों के उतार चढ़ाव के लिए सिर्फ सेतु का काम करते हैं...




लट उलझी सुलझा जा बालम
माथे की बिंदिया
बिखर गई है
अपने हाथ सजा जा बालम
लट उलझी
मनमोहिनी
मनमोहिनी मोरे मन भाए..
मनमोहिनी मन भाए..




वार्षिक संगीतमाला 2008 में अब तक :

मंगलवार, मार्च 03, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 :पायदान संख्या 6 - कुछ कम रौशन है रोशनी..कुछ कम गीली हैं बारिशें

वार्षिक संगीतमाला 2008 में लग गया था बेक्र जिस वज़ह से मेरी ये गाड़ी पॉयदान संख्या 7 पर रुकी हुई थी। और इसी बीच हिंदी फिल्म संगीत ने वो मुकाम तय किया जो अब तक हमें कभी नहीं मिला था। तो सबसे पहले ए आर रहमान और गुलज़ार की जोड़ी को आस्कर एवार्ड मिलने के लिए एक बड़ा सा जय हो ! ये इस बात को पुख्ता करता है कि भले ही हम अपने फिल्म संगीत के स्वर्णिम अतीत को पीछे छोड़ आए हों पर नया संगीत भी असीम संभावनाओं से भरा है और इससे बिलकुल नाउम्मीदी सही नहीं है।

तो चलें इस संगीतमाला की आखिर की छः सीढ़ियों का सफ़र तय करें कुछ अद्भुत गीतों के साथ। छठी पायदान पर एक ऐसे कलाकार हैं जो एक नामी संगीतकार जोड़ी का अहम हिस्सा तो हैं ही, वे गाते भी हैं और अपनी चमकदार चाँद के साथ दिखते भी बड़े खूब हैं। पर हुजूर अभी इनकी खूबियाँ खत्म नहीं हुई हैं। छठी पायदान के इस गीत को लिखा भी इन्होंने ही है। जी हाँ ये हैं विशाल ददलानी और मेरी संगीतमाला की छठी पायदान पर गीत वो जिसे फिल्म दोस्ताना में आवाज़ दी है शान ने...


गर जिंदगी की जद्दोज़हद में अगर आप उबे हुए हों तो निश्चय ही ये गीत आपके लिए मरहम का काम करेंगा। पियानों के प्यारे से आरंभिक नोट्स , शान की मखमली आवाज़ और गिरती मनःस्थिति में मन को सहलाते विशाल के शब्द इस गीत के मेरे दिल में जगह बनाने की मुख्य वज़हें रहीं हैं। तो आइए सुनें ये गीत जो एक शाम मेरे नाम पर प्रस्तुत किया जाने वाला १०० वाँ गीत भी है

कुछ कम रौशन है रोशनी
कुछ कम गीली हैं बारिशें
थम सा गया है ये वक्त ऍसे
तेरे लिए ही ठहरा हो जैसे

कुछ कम रौशन है रोशनी....
क्यूँ मेरी साँस भी कुछ भींगी सी है
दूरियों से हुई नज़दीकी सी है
जाने क्या ये बात है हर सुबह अब रात है
कुछ कम रौशन है रोशनी.....

फूल महके नहीं कुछ गुमसुम से हैं
जैसे रूठे हुए, कुछ ये तुमसे हैं
खुशबुएँ ढल गईं, साथ तुम अब जो नहीं
कुछ कम रौशन है रोशनी........






और इससे पहले कि आगे बढ़ें एक नज़र उन गीतों पर जो इस साल की संगीतमाला की शोभा बढ़ा चुके हैं।



वार्षिक संगीतमाला 2008 में अब तक :


गुरुवार, फ़रवरी 19, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 :पायदान संख्या 7 - आइए डूबें श्रेया और राहत के साथ मेलोडी की दुनिया में !

वार्षिक संगीतमाला की सातवीं पॉयदान पर भी मेलोडी उसी तरह बह रही है जैसी पिछली पॉयदान पर थी अंतर सिर्फ इतना कि पिछली सीढ़ी पर जहाँ रूप कुमार राठौड़ सुरों की गंगा बहा रहे थे वहीं आज की इस पॉयदान पर कोकिल कंठी श्रेया घोषाल विराजमान है।
सा रे गा मा जैसे म्यूजिकल टैलंट हंट (Musical Talent Hunt) की उपज श्रेया को गाने का पहला मौका संजय लीला भंसाली ने देवदास में दिया था और उसके बाद इस प्रतिभाशाली गायिका ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा है। सिंह इज किंग के इस युगल गीत में श्रेया का साथ दिया हैं जनाब राहत फतेह अली खाँ साहब ने। श्रेया की मीठी रूमानी आवाज़ के पार्श्व से जब राहत जी की बुलंद आवाज़ उभरती है तो इन दोनों आवाजों का संगम एक समां बाँध देता है जिसकी तासीर घंटों ज़ेहन में विद्यमान रहती है।

प्रीतम यूँ तो धुनों की चोरी के लिए बदनाम हैं पर हर साल वो कुछ ऍसी जबरदस्त धुनें भी देते हैं जिससे आश्चर्य होता है कि इतने प्रतिभाशाली होने के बावज़ूद धुन बनाने के लिए बारहा इन्हें inspired क्यूँ होना पड़ता है ? इस गीत के बोल लिखे हैं मयूर सूरी ने जो एक नवोदित गीतकार के साथ साथ संवाद लेखन का भी काम करते हैं। मयूर और प्रीतम की जोड़ी ने इससे पहले भी फिल्म प्यार के साइड एफेक्ट्स में एक कमाल का गीत जाने क्या चाहे मन बावरा... दिया था जो मुझे प्रीतम की सबसे दिलअजीज़ रचना लगती है।
तो आइए डालें इस गीत के बोलों पर एक नज़र और सुनें ये प्रेम से ओतप्रोत ये गीत...



दिल खो गया, हो गया किसी का...
अब रास्ता मिल गया खुशी का...
आँखों में है ख्वाब सा किसी का...
अब रास्ता मिल गया खुशी का...
रिश्ता नया रब्बा, दिल छू रहा है
खींचे मुझे कोई डोर तेरी ओर
तेरी ओर, तेरी ओर, तेरी ओर हाय रब्बा
तेरी ओर, तेरी ओर, तेरी ओर...
तेरी ओर, तेरी ओर, तेरी ओर हाय रब्बा
तेरी ओर, तेरी ओर, तेरी ओर ....

खुलती फिजाएँ खुलती घटाएँ ...
सर पे नया है आसमां .......
चारों दिशाएँ , हँसके बुलाएँ ...
वो सब हुये हैं मेहरबा......

हमें तो यही रब्बा , कसम से पता है
दिल पे नहीं कोई जोर, कोई जोर...
तेरी ओर,.......

इक हीर थी और, था एक रांझा ....
कह्ते हैं मेरे गाँव में ...
सच्चा हो दिल तो सौ मुश्किलें हो....
झुकता नसीबा पाँव में .....
आँचल तेरा रब्बा फलक़ बन गया है
अब इसका नहीं कोई ओर कोई छोर
तेरी ओर..................दिल खो.....

मंगलवार, फ़रवरी 17, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 - पायदान संख्या 8 :रूप कुमार राठौड़ की मखमली आवाज़ जो दिखाती है रब का रास्ता...

वार्षिक संगीतमाला २००८ में डेढ़ महिने का सफ़र पूरा कर हम सब आ चुके हैं आठवीं पॉयदान पर। और इस पॉयदान पर गीत उस फिल्म का जिसे लोकप्रियता में एक शाम मेरे नाम के हिंदी और रोमन संस्करणों के पाठकों ने कुल मिलाकर अबतक सबसे ज्यादा वोट दिए हैं। जी हाँ इस संगीतमाला की आठवीं पॉयदान पर फिल्म रब ने बना दी जोड़ी का वो गीत जिसे लिखा जयदीप साहनी ने, धुन बनाई सलीम सुलेमान ने और अपनी मखमली आवाज़ से निखारा रूप कुमार राठौड़ ने..


रूप कुमार राठौड़ एक ऍसे गायक हैं जिन्हें बतौर पार्श्व गायक , चुनिंदा गीत ही मिलते हैं पर उसमें वे वो प्रभाव पैदा करते हैं जो सालों साल मन से नहीं निकल पाता। अब वो चाहे बार्डर का गीत संदेशे आते हों हो या अनवर का मौला मेरे मौला। और पिछले साल मनोरमा फिल्म का गीत तेरे सवालों के वो जवाब जो मैं दे ना, दे ना सकूँ में उनके लगाए बेहतरीन ऊँचे सुर, उस गीत को मेरी संगीतमाला की छठी पॉयदान तक ले गए थे।

क्या आप जानते हैं कि इतनी सधी आवाज़ के मालिक रूप कुमार राठौड़ ने संगीत का ये सफ़र एक गायक के तौर पर नहीं बल्कि तबला वादक की हैसियत से शुरु किया था? अस्सी के दशक की शुरुआत में जब ग़जलों का स्वर्णिम काल चल रहा था तब रूप कुमार राठौड़ सारे मशहूर गज़ल गायकों के चहेते तबला वादक थे। बाद में जब पत्नी सोनाली राठौड़ ने उनसे गाने के लिए प्रेरित किया तो वो गायिकी के क्षेत्र में आ गए।

रूप कुमार राठौड़ का परिवार संगीतिक विभूतियों से भरा पड़ा है। पिता पंडित चतुर्भुज राठौड़ खुद एक शास्त्रीय गायक थे। बड़े भाई श्रवण एक मशहूर संगीतकार रहे जिन्होंने नदीम के साथ मिलकर नब्बे के दशक में कई हिट फिल्में दीं और छोटे भाई विनोद भी पार्श्व गायक हैं।

अगर इस गीत को रूप साहब की आवाज़ में सुनकर आप गीत की भावपूर्ण मेलोडी से अभिभूत हो जाते हैं तो उसका श्रेय गीतकार और संगीतकार की जोड़ी को भी जाता है। जयदीप साहनी के लिए इस तरह के गीत को रचना एक अलग अनुभव था। अपने प्यार को अपना अराध्य मानने का ख्याल भारतीय संस्कृति में कोई नया नहीं है पर आजकल इस परिकल्पना को लेकर बनाए गए गीतों की तादाद बेहद कम रह गई है। जयदीप के लिए मुश्किल ये थी कि वो खुद भी इस तरह की सोच से मुतास्सिर नहीं थे फिर भी उन्होंने कहानी की माँग के हिसाब से इस विचार को अपने बोलों में ढाला और जो परिणाम निकला वो तो आप देख ही रहे हैं। जयदीप खुद अपने प्रयास से बेहद संतुष्ट हैं और कहते हैं कि
"अपनी सोच की चारदीवारी में जो गीतकार बँध के रह गया वो अलग अलग पटकथाओं के अनुरूप गीतों की रचना कैसे कर पाएगा?"

चलिए बातें तो आज बहुत हो गईं अब सुनते हैं ये बेहद प्यारा सा नग्मा


तू ही तो जन्नत मेरी, तू ही मेरा जूनून
तू ही तो मन्नत मेरी, तू ही रूह का सुकून
तू ही अँखियों की ठंडक, तू ही दिल की है दस्तक
और कुछ ना जानूँ, मैं बस इतना ही जानूँ
तुझमें रब दिखता है, यारा मैं क्या करूँ
सज़दे सर झुकता है, यारा मैं क्या करुँ

कैसी है ये दूरी, कैसी मजबूरी
मैंने नज़रों से तुझे छू लिया
कभी तेरी खुशबू, कभी तेरी बातें
बिन माँगे ये जहां पा लिया
तू ही दिल की है रौनक, तू ही जन्मों की दौलत
और कुछ ना जानूँ, बस इतना ही जानूँ
तुझमें रब दिखता है, यारा मैं क्या करूँ...

छम छम आए, मुझे तरसाए
तेरा साया छेड़ के चूमता..
तू जो मुस्काए, तू जो शरमाये
जैसे मेरा है ख़ुदा झूमता..
तू मेरी है बरक़त, तू ही मेरी इबादत
और कुछ ना जानूँ, बस इतना ही जानूँ
तुझमें रब दिखता है, यारा मैं क्या करूँ ...

और पर्दे पर शाहरुख अनुष्का की जोड़ी पर फिल्माए इस मधुर गीत की झलक आप यहाँ देख सकते हैं

गुरुवार, फ़रवरी 12, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 - पायदान संख्या 9 : मेरी माँ..प्यारी माँ..मम्मा कैलाश खेर का दिल छूता गीत !

दसविदानिया (Dasvidaniya)! है ना अज़ीब नाम एक भारतीय फिल्म के लिए। निर्देशक सुशांत शाह ने अपनी फिल्म के लिए इस रशियन जुमले का इस्तेमाल किया जिसका अर्थ होता है goodbye यानि अलविदा! खैर, अभी वार्षिक संगीतमाला २००८ को अलविदा कहने में तो काफी वक़्त बाकी है पर आज बारी है प्रथम दस पायदानों में से
नौवीं पायदान की, जहाँ इसी फिल्म से लिया गया वो गीत है जिसमें व्यक्त की गई भावनाओं को हम सब अपनी माँ के लिए महसूस करते हैं।




एक आम आदमी के किरदार में विनय पाठक का काम इस फिल्म में तो बेहतरीन है ही साथ ही कैलाश खेर का दिया संगीत भी मन को लुभाता है। कैलाश ने इस गीत की पूरी धुन में गिटार का प्रमुखता से प्रयोग किया है जो बोलों के साथ सरसता से घुलता नज़र आता है। कैलाश खेर के रचित गीतों की खासियत है कि उनमें ज्यादा कविताई नहीं होती.. वे सहज भाषा का प्रयोग करते हैं । पर जब यही सीधे सच्चे बोल उनके स्वर में उभरते हैं तो दिल का कोना कोना गीत की भावनाओं से पिघलता प्रतीत होता है। उनकी आवाज़ में एक दिव्यता है जो उनके गाए गीतों को एक अलग ही मुकाम पर ले जाती है। मुझे कैलाश जी की इस अंतरे की अदायगी सबसे बेहतरीन लगती है जब वो गाते हैं ...

दुनिया में जीने से ज्यादा उलझन है माँ
तू है अमर का ज़हां
तू गुस्सा करती है, बड़ा अच्छा लगता है
तू कान पकड़ती है बड़ी जोर से लगता है
मेरी माँ..प्यारी माँ..मम्मा


.....बचपन की ढ़ेर सारी यादें एक साथ आँखों के सामने घूम जाती हैं। तो आप भी सुनिए ना ये गीत। खुद बा खुद माँ की ममतामयी छवि आपकी आँखों के सामने आ जाएगी...

माँ मेरी माँ
प्यारी माँ..मम्मा
हो माँ..प्यारी माँ..मम्मा
हाथों की लकीरें बदल जाएँगी
गम की ये जंजीरें पिघल जाएँगी
हो खुदा पे भी असर, तू दुआओं का है घर
मेरी माँ..प्यारी माँ..मम्मा


बिगड़ी किस्मत भी सँवर जाएगी
जिंदगी तराने खुशी के गाएगी
तेरे होते किसका डर , तू दुआओं का है घर
माँ मेरी माँ...प्यारी माँ..मम्मा


यूँ तो मैं सबसे न्यारा हूँ
तेरा माँ मैं दुलारा हूँ
दुनिया में जीने से ज्यादा उलझन है माँ
तू है अमर का ज़हां
तू गुस्सा करती है, बड़ा अच्छा लगता है
तू कान पकड़ती है बड़ी जोर से लगता है
मेरी माँ..प्यारी माँ..मम्मा


हाथों की लकीरें बदल जाएँगी,
ग़म की ये जंजीरें पिघल जाएँगी
हो ख़ुदा पे भी असर, तू दुआओं का है घर
माँ मेरी माँ...प्यारी माँ..मम्मा


विनय पाठक पर फिल्माए इस गीत को आप यू ट्यूब पर भी देख सकते हैं..

सोमवार, फ़रवरी 09, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 - पायदान संख्या 10 : ख्वाज़ा मेरे ख्वाज़ा सुनिए ये सूफियाना कव्वाली और इसकी बेहतरीन धुन

कार्यालय के दौरों ने वार्षिक संगीतमाला की गति मंथर कर दी है। बोकारो से लौटकर अब भिलाई की ओर प्रस्थान कर रहा हूँ पर जाने के पहले आपको इस संगीतमाला की पॉयदान की ये सूफ़ी कव्वाली और इसकी निराली धुन जरूर सुनवाते जाऊँगा। पिछली पोस्ट में फिल्म आमिर के गीत ने जो सूफ़ियाना माहौल रचा था, वो इस पायदान पर भी बरक़रार है। जोधा अकबर के इस सूफ़ी कलाम को संगीतबद्ध किया रहमान और गाया भी रहमान ने।


दरअसल इस गीत से मेरा जुड़ाव इसकी पिक्चराइजेशन देखने के बाद हुआ। उसके बाद जब मैंने इस सूफ़ी क्ववाली का इनस्ट्रूमेंटल वर्सन सुना मन ऐसी शांति और सुकून में डूब गया कि इस धुन को बार बार सुनने की इच्छा होती रही। फिर पिछले साल के बड़े हिस्से तक ये धुन मेरी मोबाइल की रिंग टोन बनी रही। अल्लाह रक्खा रहमान को लोग यूँ ही संगीत समीक्षक जीनियस की उपाधि नहीं देते। क्या धुन बनाई है उन्होंने !




इस धुन को उन्होंने वुडविंड श्रेणी के वाद्य oboe का बखूबी इस्तेमाल किया है जो बहुत हद तक क्लारिनेट से मिलता जुलता वाद्य यंत्र है सिवाए इसके कि इसमें माउथपीस नहीं होता। इस वाद्य यंत्र के बारे में विस्तार से जानना चाहते हों तो यहाँ देखें ।अगर ये गीत मेरी इस गीतमाला के प्रथम दस में जगह पा सका है तो इसके पीछे इस धुन का बहुत बड़ा हाथ है।

अब धुन तो आपने सुन ली अब जरा इसके बोलों पर ज़रा गौर फरमाएँ । इसे दोहराते हुए आपका मन भी उस ऊपरवाले की खिदमत में झुक जाएगा।



ख्वाज़ा जी.. ख्वाज़ा
या गरीबनवाज़ या गरीबनवाज़ या गरीबनवाज़
या मोइनुद्दीन या मोइनुद्दीन या मोइनुद्दीन
या ख्वाज़ा जी या ख्वाज़ा जी...

ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा
दिल में समा जा
शाहों का शाह तू
अली का दुलारा

ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा
दिल में समा जा
बेकसों की तक़दीर
तूने है सँवारी
ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा

तेरे दरबार में ख़्वाजा
नूर तो है देखा
तेरे दरबार में ख़्वाजा
सर झुकाते हैं औलिया
तू है हिमलवली ख़्वाजा
रुतबा है न्यारा
चाहने से तुझको ख़्वाजा जी
मुस्तफ़ा को पाया
ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा

मेरे पीर का सदक़ा मेरे पीर का सदक़ा
है मेरे पीर का सदका
तेरा दामन है थामा
ख़्वाजा जी.... टली हर बला हमारी
छाया है ख़ुमार तेरा
जितना भी रश्क़ करें बेशक तो कम हैं ऍ मेरे ख़्वाजा
तेरे कदमों को मेरे रहनुमा नहीं छोड़ना गवारा
ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा


गुरुवार, फ़रवरी 05, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 - पायदान संख्या 11 : हाँ रहम हाँ रहम फरमाए ख़ुदा...'आमिर' का एक प्यारा सूफ़ियाना नग्मा

वार्षिक संगीतमाला के एक महिने से चल रहे सफ़र में अब तक आप मेरे साथ गीत संख्या २५ से लेकर १२ तक का सफ़र तय कर चुके हैं। अब तक आपने कभी उदासी तो कभी मुस्कुराहट के रंगों से भरे गीत सुनें। पर आज ११ वीं पायदान पर चढ़ा है माहौल सूफी संगीत का। और एक रोचक तथ्य ये कि इस पॉयदान के संगीतकार, गीतकार और सारे गायकों के लिए मेरी किसी भी संगीतमाला में ये पहली इन्ट्री है।

ग्यारहवीं पायदान का ये गीत है फिल्म आमिर से। इसके संगीतकार हैं अमित त्रिवेदी और गीतकार हैं अमिताभ। इस गीत को अपनी आवाज़ दी है अमित त्रिवेदी, मुर्तजा कादिर और अमिताभ की तिकड़ी ने।
आमिर का संगीत मुझे अद्भुत लगता है । विभिन्न प्रकार के ताल वाद्यों (Percussion instruments) का प्रयोग अमित ने ताली की संगत के साथ जिस तरह किया है वो मुझे मंत्रमुग्ध कर देता है। मज़े की बात ये है कि २९ वर्षीय अमित त्रिवेदी को इस गीत की धुन तब दिमाग में आई जब वो एक 20-20 मैच देखने के लिए दोस्तों की प्रतीक्षा करते हुए सैंडविच खाने की योजना बना रहे थे। अमित त्रिवेदी के बारे में विस्तार से चर्चा होगी पर उसके लिए आपको कुछ और पॉयदानों तक प्रतीक्षा करनी होगी।

अमिताभ के बोल गीत के मूड के अनुरूप सूफियाना रंग से रँगे दिखते हैं। अब इस अंतरे को देखें ...हमारे जीवन की सारी डोरियाँ ऊपरवाले के हाथ में हैं इस सीधी सच्ची बात को अमिताभ ने बड़ी खूबसूरती से यहाँ पेश किया है।

सोने चमक में सिक्के खनक में
मिलता नहीं मिलता नहीं
धूल के ज़र्रों में, ढूँढे कोई तो
मिलता वहीं मिलता वहीं
क्या मजाल तेरी मर्जी के आगे बंदों की चल जाएगी

ताने जो उँगली तू, कठपुतली की चाल बदल जाएगी... जाएगी

गीत के अंत तक पहुँचने तक गीत की धुन, बोल और गायिकी तीनों मिलकर ऍसा असर डालते हैं कि मन इसे गुनगुनाए बिना रह नहीं पाता। तो चलिए सुनते हैं मन को शांत करता ये सूफ़ियाना नग्मा


आनी जानी है कहानी
बुलबुले सी है जिंदगानी
बनती कभी बिगड़ती
तेज हवा से लड़ती भिड़ती
हाँ रहम हाँ रहम फरमाए ख़ुदा
महफूज़ हर कदम करना ऐ ख़ुदा
ऐ ख़ुदा....

साँसों की सूखी डोर अनूठी
जल जाएगी जल जाएगी
बंद जो लाए थे हाथ की मुट्ठी
खुल जाएगी खुल जाएगी
क्या गुमान करें काया ये उजली
मिट्टी में मिल जाएगी
चाहें जितनी शमाए रोशन कर लें, धूप तो ढ़ल जाएगी... जाएगी
हाँ रहम हाँ रहम फरमाए ख़ुदा...

सोने चमक में सिक्के खनक में
मिलता नहीं मिलता नहीं
धूल के ज़र्रों में, ढूँढे कोई तो
मिलता वहीं मिलता वहीं
क्या मजाल तेरी मर्जी के आगे बंदों की चल जाएगी
ताने जो उँगली तू, कठपुतली की चाल बदल जाएगी... जाएगी
हाँ रहम हाँ रहम फरमाए ख़ुदा...

मंगलवार, फ़रवरी 03, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 - पायदान संख्या 12 : जिंदगी जिंदगी क्या कमी रह गई, आँख की कोर में, क्यूँ नमी रह गई ?

वार्षिक संगीतमाला की बारहवीं पॉयदान पर गीत वो जिसे गाया एक केमिकल इंजीनियर ने, धुन बनाई रहमान ने और गीत के बोल लिखे गुलज़ार ने। फिल्म का नाम तो आप पहचान ही गए होंगे जी हाँ युवराज । रही बात गायक की तो ये कोई नए नवेले गायक नहीं। सबसे पहले मैं इनकी आवाज़ का क़ायल हुआ था फिल्म दिल चाहता है के गीत कैसी है ये रुत की जिसमें.. से । फिर लगान के गीत मितवा में उदित नारायण का इन्होंने बखूबी साथ दिया था। इसके आलावा सपने और Earth 1947 के गीतों को ये अपनी आवाज़ दे चुके हैं।


ये हैं श्रीनिवास ! कनार्टक संगीत में दक्ष इस गायक को अपने सपने को पूरा करने में दस साल लग गए। तो क्या था इनका सपना? श्रीनिवास का सपना था इलयराजा के संगीत निर्देशन में गाना गाना। पर इनका शौक जब तक अंजाम तक पहुँचता तब तक रोज़ी रोटी का ज़रिया भी तो ढूँढना था। सो टेक्सटाइल उद्योग में नौकरी कर ली पर संगीत से अपना नाता नहीं तोड़ा। और बदकिस्मती ये कि जब पहली बार इलइराजा ने गाने का मौका देना चाहा तो गले में संक्रमण के चलते वो मौका गवाँ बैठे। पर जहाँ प्रतिभा हो वहाँ मौके तो मिलेंगे ही । श्रीनिवास ने अपने अगले मौके का भरपूर उपयोग किया और तमिल फिल्म उद्योग की जानी पहचानी आवाज़ बन बैठे।

ए आर रहमान की खासियत है कि वो नए प्रतिभावान चेहरों को हिंदी फिल्म जगत में मौके देते रहते हैं। आपको याद होगा कि फिल्म गुरु में तेरे बिना तेरे बिना बेसुवादी रतियाँ में उन्होंने चिन्मयी को मौका दिया था और इस साल जावेद अली, राशिद अली और इस गीत में श्रीनिवास को अपना हुनर दिखाने का उन्होंने मौका दिया है।

जब भी युवराज का ये गीत सुनता हूँ तो श्रीनिवास की आवाज़ की खनक और स्पष्टता सीधे दिल में उतर जाती है। तो आइए सुनें एकाकीपन के लमहों को बयाँ करता ये उदास नग्मा



जिंदगी जिंदगी क्या कमी रह गई
आँख की कोर में, क्यूँ नमी रह गई
तू कहाँ खो गई..........
तू कहाँ खो गई, कोई आया नहीं
दोपहर हो गई, कोई आया नहीं
जिंदगी जिंदगी...

दिन आए दिन जाए,
सदियाँ भी गिन आए, सदियाँ रे....
तनहाई लिपटी है
लिपटी है साँसों की रस्सियाँ रे
तेरे बिना बड़ी प्यासी हैं
तेरे बिना हैं प्यासी रे
नैनों की दो सखियाँ रे
तनहा रे.. मैं तनहा रे
जिंदगी जिंदगी क्या कमी रह गई....

सुबह का कोहरा है
शाम की धूल है तनहाई
रात भी ज़र्द है
दर्द ही दर्द है रुसवाई
कैसे कटें साँसें उलझी हैं
रातें बड़ी झुलसी झुलसी हैं
नैना कोरी सदियाँ रे, तनहा रे
जिंदगी जिंदगी क्या कमी रह गई....



और ये है इस गीत का वीडिओ यू ट्यूब पर

शनिवार, जनवरी 31, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 - पायदान संख्या 13 : जानिए हौले हौले हवा चलती है के रचित होने के पीछे की सोच

तो आ गई है वार्षिक संगीतमाला के बीचों बीच की 13 वीं पायदान और यहाँ गीत वो जो पूरे देश को अपने लफ़्जों के बल पर हौले हौले झुमा रहा है। तो किसने लिखा ये गीत? एक समय तो मीडिया में ये खबरें भी आ गईं कि इसे लिखने वाले कोई और हैं और उन सज्जन ने टीवी पर इस गीत से सुसज्जित इक किताब भी दिखा डाली जो उनके हिसाब से कई साल पहले ही छप गई थी। खैर मीडिया की कई कहानियों की तरह वो स्टोरी भी आई गई हो गई। खैर, मैं तो यही मान कर चलूँगा कि ये गीत जयदीप साहनी का ही लिखा है जो इससे पहले चक दे इंडिया के गीतों को लिख कर चर्चा में आ चुके हैं।

वेसे क्या आप बता सकते हैं कि जयदीप और जावेद अख्तर में क्या समानता है? भई इन दोनों ने फिल्म जगत मं अपने कैरियर की शुरुआत बतौर पटकथा लेखक से की। ये अलग बात है कि जावेद साहब अब गीतों की रचना में ही वक़्त लगाते हैं जबकि जयदीप अभी भी पटकथा लेखक के तौर पर ज्यादा जाने जाते हैं।

जयदीप के बारे में आपको कुछ और बताएँगे आगे की पायदानों में पर अभी तो ये जानिए कि क्या कहना है गीतकार जयदीप साहनी का इस गीत के बारे में..
संध्या अय्यर को हाल ही में दिए गए एक साक्षात्कार में जयदीप ने बताया कि "...ये गीत फिल्म के मुख्य पात्र सूरी की मनोदशा कहने का प्रयास करता है कि दिल से जुड़े मसलों के बारे में वो कैसे सोचता है। मेरा ये गीत एक ऐसे चरित्र की बात करता है जो खुद को विश्वास दिलाना चाहता है कि सब्र करने से काम अंत में जाकर बनता है। पर ये काम सूरी के लिए आसान नहीं क्योंकि उसी के दिल के दूसरे हिस्से की सोच बिल्कुल अलग है। यानि एक ओर सब्र तो दूसरी ओर लक्ष्य पाने की जल्दी। अब ना तो सूरी स्टाइलिश है, ना कोई प्रखर वक्ता और ना ही चुम्बकीय व्यक्तित्व का स्वामी। वो तो एक आम आदमी है, विद्युत विभाग का अदना सा कर्मचारी, जो वो जुमले बोल भी नहीं सकता जो भारतीय फिल्मों के नायक अक्सर प्रेम में पड़ने के बाद बोलते हैं। पर सूरी के पास एक खूबी तो है ही और वो है उसकी लगन और सच्चाई और वो अपनी इसी ताकत को खुद को बता रहा है। और इसी सोच पर मैंने इस गीत को रचा है।...."

शायद गीत की यही सच्चाई है जिसने इसे आम जन और समीक्षकों दोनों में इसे लोकप्रिय बनाया है। जयदीप साहनी के बोलों के साथ सलीम सुलेमान का संगीत पूरी तरह न्याय करता है। सुखविंदर सिंह ने हौले हौले चलने वाले नग्मे की खूबसूरत अदाएगी कर ये जतला दिया है कि उनका हुनर सिर्फ ऊँचे सुरों वाले डॉन्स नंबर तक ही सीमित नहीं।
तो आइए पहले चलें रब ने बना दी जोड़ी के इस गीत की शब्द यात्रा पर


हौले-हौले से हवा लगती है,
हौले-हौले से दवा लगती है,
हौले-हौले से दुआ लगती है, हाँ......

हाए ! हौले-हौले चंदा बढ़ता है,
हौले-हौले घूँघट उठता है,
हौले-हौले से नशा चढ़ता है... हाँ.......

तू सब्र तो कर मेरे यार
ज़रा साँस तो ले दिलदार
चल फिक्र नूँ गोली मार
यार है दिन जिंदड़ी दे चार
हौले हौले हो जाएगा प्यार, चलया
हौले हौले हो जाएगा प्यार, चलया

इश्क ए दी गलियाँ तंग हैं
शरमो शर्मीले बंद हैं
खुद से खुद की कैसी ये जंग है
पल पल ये दिल घबराए
पक पल ये दिल शरमाए
कुछ कहता है और कुछ कर जाए
कैसी ये पहेली मुआ.दिल मर जाना
इश्क़ में जल्दी बड़ा जुर्माना
तू सब्र........हौले.....प्यार

रब दा ही तब कोई होणा, करें कोई यूँ जादू टोणा
मन जाए मन जाए हाए मेरा सोणा
रब दे सहारे चल दे, ना है किनारे चल दे
कोई है ना कहारे चल दे
क्या कह के गया था शायर वो सयाना
आग का दरिया डूब के जाना
तू सब्र........हौले.....प्यार


गीत तो आप ने सुन लिया अब आइए जानते हैंइस रोचक वीडिओ में सलीम सुलेमान, जयदीप, शाहरुख, वैभवी आदि से कि कैसे बना ये गीत! (वैभवी मर्चेंट इस गीत की कोरियोग्राफर हैं।)

गुरुवार, जनवरी 29, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 - पायदान संख्या 14 : जब धूप की तरह बदन को छू गई गुलज़ार की मुस्कुराहट

जैसा कि मैंने आपसे कहा था कि 15 से 22 पायदानों तक के गीतों के स्तर में ज्यादा फर्क नहीं था। पर अब शुरु हो रहा है इस संगीतमाला का वो दौर जिसमें आते हैं 14 वीं से छठी पायदान तक के गीत जो मेरी रेटिंग में बेहद आस पास हैं। तो आइए दूसरे दौर का आगाज़ करें गुलज़ार के लिखे युवराज फिल्म के इस गीत से जिसकी धुन बनाई ए.आर. रहमान ने और जिसे आवाज़ दी अलका यागनिक और जावेद अली ने ....

कहते हैं कि "मुस्कुराहट हुस्न का जेवर है" और गुलज़ार जब इस मुस्कुराहट को अपने बिंबों में ढालते हैं तो इस गीत से कविता सरीखे स्वर फूट पड़ते हैं अब इन लफ्ज़ों पर गौर करें
तू मुस्करा जहाँ भी है तू मुस्कुरा
तू धूप की तरह बदन को छू जरा
शरीर* सी ये मुस्कुराहटें तेरी
बदन में सुनती हूँ मैं आहटें तेरी
* नटखट
गीत का इतना हिस्सा सुनते ही आप गुलज़ार के शब्द जाल में बँध जाते हैं और गीत की रूमानियत के साथ बहते चले जाते हैं। इसमें मदद करता है रहमान का बेहतरीन संगीत संयोजन। चार मिनट तक अलका की मीठी आवाज़ सुनने के बाद ज़ावेद का स्वर गीत में प्रेम के अहसास को पूर्णता देता प्रतीत होता है। उसके बाद की शास्त्रीय बंदिश और पार्श्व से आता अलका जी का आलाप मन को मोह लेता है। खुद गुलज़ार, युवराज में रहमान के दिए गए संगीत को उनके सबसे अच्छे काम में से एक मानते हैं।
अब हमारी छोड़िए खुद ही महसूस कीजिए मोहब्बत की चाशनी में डूबे इस गीत को रहमान की मधुर धुन के साथ...


तू मुस्करा जहाँ भी है तू मुस्कुरा
तू धूप की तरह बदन को छू जरा
शरीर सी ये मुस्कुराहटें तेरी
बदन में सुनती हूँ मैं आहटें तेरी
लबों से आ के छू दे अपने लब जरा
शरीर सी.................आहटें तेरी

ऍसा होता है खयालों में अक्सर
तुझको सोचूँ तो महक जाती हूँ
मेरी रुह में बसी है तेरी खुशबू
तुझको छू लूँ तो बहक जाती हूँ

तेरी आँखों में, तेरी आँखों में
कोई तो जादू है तू मुस्करा
जहाँ भी है तू मुस्कुरा......
तू मुस्करा.......आहटें तेरी

तेज चलती है हवाओं की साँसें
मुझको बाहों में लपेट के छुपा ले
तेरी आँखों की हसीं नूरियों में
मैं बदन को बिछाऊँ तू सुला ले
तेरी आँखों में, तेरी आँखों में
कोई तो नशा है तू मुस्कुरा
तू मुस्करा.......आहटें तेरी





वार्षिक संगीतमाला 2008 में अब तक :

मंगलवार, जनवरी 27, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 - पायदान संख्या 15 : दिल हारा रे..सुखविंदर सिंह की उर्जात्मक प्रस्तुति !

वार्षिक संगीतमाला २००८ में अब बचे हैं चोटी के पन्द्रह गीत। अब तक पेश निचली पायदानों के दस गीतों में पाँच ए. आर रहमान और तीन विशाल शेखर के द्वारा संगीत निर्देशित रहे हैं। १४ वीं पायदान का ये गीत एक बार फिर विशाल शेखर की झोली में है। टशन फिल्म के इस गीत को गाया आजकल के बहुचर्चित गायक सुखविंदर सिंह ने, गीत के बोल लिखे बहुमुखी प्रतिभा के धनी पीयूष मिश्रा ने।

वैसे तो ये गीत इस संगीतमाला के तीन झूमने झुमाने वाले गीतों में से एक है। इस कोटि का एक गीत आप २५ वीं पायदान पर सुन चुके हैं और इसी तरह की मस्ती और उर्जा से भरपूर एक गीत आपको पहली पाँच पायदानों के अंदर सुनने को मिलेगा। तो जब तक आप सोचे विचारें वो गीत कौन सा हो सकता है , तब तक इस गीत के बारे में कुछ बात कर ली जाए

१४ वीं पायदान का गीत उनके लिए है जो जीवन को बेफिक्री के साथ मस्तमौला अंदाज़ में जीते हैं। जिनके सिर पर ना तो बीते कल का बोझ है और ना ही आने वाले कल की चिंता। जो ना सामने आने वाले खतरों की परवाह करते हैं और ना ही याद रखते हैं अपने अतीत को। पर जिंदगी की इस दौड़ में अगर ये हारे हैं तो बस अपने दिल से...
भारतीय नाट्य संस्थान से स्नातक, अभिनेता और गीतकार पीयूष मिश्रा ने गीत में इन भावों को तो खूबसूरती से पिरोया है। विशाल शेखर का संगीत गीत के साथ थिरकने पर मजबूर करता है। सुखविंदर सिंह की आवाज़ इस तरह के उर्जात्मक गीतों के लिए बिल्कुल उपयुक्त है। इसलिए तो गीत सुनते ही श्रोताओं के मुँह से ये सहज निकलता है कि इन्होंने तो समा ही बाँध दिया..

तो आइए डालें इस गीत के बोलों पर इक नज़र


कैसे भागे रे, पागल मनवा
ताबड़ तोड़ नाच लूँ , नाच लूँ, नाच लूँ, नाच लूँ, रे
हो हो छप्पन तारे तोड़ नाच लूँ
सूरज चंदा मोड़ नाच लूँ
अब तो ताबड़ तोड़ नाच लूँ
मैं तो बंजारा रे

बन के आवारा मैं किस मेले में पहुँच गया हूँ
कोई तो रोको खो जाऊँ रे
मस्ती का मारा, ये क्या बोलूँ मैं, किसे कहूँ मैं
दिल का मैं हारा हो जाऊँ रे
दिल हारा रे.....
दिल हारा हारा, दिल हारा हारा, मैं हारा
ओ यारा रे...दिल हारा हारा, दिल हारा हारा, मैं हारा दिल हारा रे....

आज अकेले हर हालात से आगे
जुबानी बात से आगे चला आया
हर तारे की आँख में आँखें डाले
चाँदनी रात से आगे चला आया
किसको बोलूँ मैं, कैसे बोलूँ मैं
कोई मुझको बता के जाए, कोई तो बता जाए
दिल हारा रे.........

हो..रस्ता बोला, रे कि थक जाएगा
बीच में रुक जाएगा, अभी रुक जा
अरे आगे जा के, गरज के आँधी होगी
गरज के तूफाँ होगा, अभी रुक जा
मैं तो दीवाना, बोला आ जाना
दोनों संग में चलेंगे हाँ
आ भी जा तू आ जा रे
दिल हारा रे.........


सोमवार, जनवरी 26, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 - पायदान संख्या 16 : मर जावाँ... भीगे भीगे सपनों का जैसे खत है

आज बारी है इस संगीतमाला के गीत नम्बर सोलह की और इस पायदान पर गीत वो जिसकी, गायिका, संगीतकार और यहाँ तक की गीतकार भी इस साल पहली बार अपनी जगह बना रहे हैं। ये गीत मैंने तब सुना जब मैं इस संगीतमाला की सारी २५ पायदानें की सूची तैयार कर चुका था। पर इस साल की सा रे गा मा पा की विजेता वैशाली म्हाणे को जब मैंने ये गीत गाते सुना तो मुझे लगा कि इस गीत के लिए तो जगह बनानी पड़ेगी। पहली बार इस गीत को सुनते ही गायिका श्रुति पाठक की पीठ थपथपाने की इच्छा होती है। इस गीत में नीचे के सुरों को जिस तरह उन्होंने निभाया है वो निसंदेह तारीफ के काबिल है।

पर इस प्रशंसा की हक़दार सिर्फ श्रुति नहीं हैं। अगर श्रुति की गहरी आवाज़ का जादू आप पर होता है तो वो इरफ़ान सिद्दकी के बोलों की वज़ह से। प्रेम में डूबी एक लड़की की भावनाओं को जब वो इरफ़ान के इन शब्दों में हम तक पहुँचाती हैं तो मन बस गुलजारिश हो जाता है।

सोचे दिल कि ऍसा काश हो
तुझको इक नज़र मेरी तालाश हो
जैसे ख्वाब है आँखों में बसे मेरी
वैसे नीदों पे सिलवटें पड़े तेरी
भीगे भीगे अरमानों की राहत है
हाए गीली गीली ख्वाहिश भी तो बेहद है
मर जावाँ मर जावाँ तेरे इश्क़ पे मर जावाँ......
इरफान सिद्दकी एक युवा गीतकार हैं और गुलज़ार से खासे प्रभावित भी। वे कहते हैं कि गुलज़ार हल्के फुल्के शब्दो के साथ गहरे शब्दों के मिश्रण की कला जानते हैं। इरफ़ान वैसे तो गीत के बोल सहज रखने पर विश्वास रखते हैं पर वो ये भी महसूस करते हैं कि उर्दू शब्दों का प्रयोग करने से गीत का असर और बढ़ जाता है। जैसे इसी गीत की चर्चा करते हुए वे कहते हैं कि उन्होंने नीचे की पंक्तियों में 'खत' और 'लत' का इस्तेमाल इसी लिहाज़ से किया
भीगे भीगे सपनों का जैसे ख़त है
हाए! गीली गीली चाहत की जैसे लत है
इसी गीत के साथ पहली बार बतौर संगीतकार सलीम सुलेमान ने इस साल की संगीतमाला में प्रवेश कर लिया है। सलीम सुलेमान इससे पहले पिछले साल डोर और चक दे इंडिया के गीतों के साथ वार्षिक संगीतमालाओं का हिस्सा बन चुके हैं। इस गीत में सलीम मर्चेंट ने अंतरे के बीच अरबी बोलों का समावेश किया है जो कुछ सुनने में इस तरह लगते हैं

रादी क्राह दी क्रावा, वल हवा वसाबाह
वादी क्राह हितावह्त, अल्लाह दुखा वसाबाह
लातेह्वाल फलाहवह्त, अल्लाह दुखा वसाबाह
वादी क्राह हितावह्त, अल्लाह दुखा वसाबाह

अब इस की लिखनें में भूलें तो अवश्य हुई होंगी पर चूंकि अरबी का जानकार नहीं हूँ इसलिए इसे नज़रअंदाज कर दीजिएगा। अंतरजाल पर इसके अनुवाद से इन लफ्ज़ों के भावों का अंदाज़ लगता है जो कुछ इस तरह से है...."भगवान साक्षी है कि तेरी याद में तरसने और अपना गुनाह कुबूल करने के बावजूद तुमने अपना वादा नहीं निभाया"

खैर सलीम का ये तरीका गाने में एक नयापन लाता है पर मुझे लगता है कि अरबी बोलों के बिना भी और हल्के संगीत संयोजन से भी गीत की प्रभाविकता बनी रहती। तो आइए सुने और देखें फैशन फिल्म का ये गीत

मर जावाँ मर जावाँ
तेरे इश्क़ पे मर जावाँ
भीगे भीगे सपनों का जैसे खत है
हाए गीली गीली चाहत की जैसे लत है
मर जावाँ मर जावाँ तेरे इश्क़ पे मर जावाँ......

सोचे दिल कि ऍसा काश हो
तुझको इक नज़र मेरी तालाश हो
जैसे ख्वाब है आँखों में बसे मेरी
वैसे नीदों पे सिलवटें पड़े तेरी
भीगे भीगे अरमानों की राहत है
हाए गीली गीली ख्वाहिश भी तो बेहद है
मर जावाँ मर जावाँ तेरे इश्क़ पे मर जावाँ......


शुक्रवार, जनवरी 23, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 - पायदान संख्या 17 : इन लमहों के दामन में पाकीज़ा से रिश्ते हैं

वार्षिक संगीतमाला की १७ वीं पायदान पर पहली बार इस साल अवतरित हुए हैं सोनू निगम और जावेद अख्तर साहब और साथ में हैं ए.आर. रहमान। भारतीय वाद्य यंत्रों और उर्दू की मिठास के साथ फिल्म जोधा अकबर के इस गीत का आग़ाज होता है। जावेद साहब ने इस गीत की शुरुआत में इतने प्यारे बोल लिखे हैं कि मन वाह वाह कर उठता है। सोनू निगम ने इस साल बेहद चुनिंदा नग्मे ही गाए हैं और इस गीत के हिसाब से उन्होंने इसकी अदाएगी में एक मुलायमियत घोली है जो मन को छू जाती है।

इन लमहों के दामन में
पाकीज़ा से रिश्ते हैं
कोई कलमा मोहब्बत का
दोहराते फरिश्ते हैं

ए. आर. रहमान द्वारा संगीत निर्देशित इस गीत के तीन स्पष्ट हिस्से हैं। एक में शहंशाह अकबर के दिल की इल्तिजा है तो दूसरे में महारानी जोधा की प्रेम की स्वीकारोक्ति। रहमान ने गीत के इन दोनों के बीच एक कोरस डाला है जो इन दो हस्तियों की इस प्रेम कथा में प्रजा के स्वर जैसा लगता है। पर मुखड़े के बाद का कोरस, गीत के पूरे मूड से थोड़ा लाउड लगता है।

इन लमहों के दामन में
पाकीज़ा से रिश्ते हैं
कोई कलमा मोहब्बत का
दोहराते फरिश्ते हैं

खामोश सी है ज़मीन हैरान सा फलक़ है
इक नूर ही नूर सा अब आसमान तलक है
नग्मे ही नग्मे हैं जागती सोती फिज़ाओं में
हुस्न है सारी अदाओं में
इश्क़ है जैसे हवाओं में

कैसा ये इश्क़ है
कैसा ये ख्वाब है
कैसे जज़्बात का उमड़ा सैलाब है
दिन बदले रातें बदलीं, बातें बदलीं
जीने के अंदाज़ ही बदले हैं
इन लमहों के दामन में .....

पर फिर मधुश्री की मीठी आवाज़ गीत को वापस उसी धरातल पर पहुँचा देती है जहाँ से ये शुरु हुआ था और मन में वही सुकून तारी हो जाता है जिसका अहसास गीत के प्रारंभ से होना शुरु हुआ था...

समय ने ये क्या किया
बदल दी है काया
तुम्हें मैने पा लिया
मुझे तुमने पाया
मिले देखो ऍसे हैं हम
कि दो सुर हो जैसे मद्धम
कोई ज्यादा ना कोई कम
किसी आग में.. कि प्रेम आग में
जलते दोनो ही थे
तन भी है मन भी
मन भी है तन भी

मेरे ख्वाबों के इस गुलिस्ताँ में
तुमसे ही तो बहार छाई है
फूलों में रंग मेरे थे लेकिन
इनमें खुशबू तुम्हीं से आई है

क्यूँ है ये आरज़ू
क्यूँ है ये जुस्तज़ू
क्यूँ दिल बेचैन है
क्यूँ दिल बेताब है

दिन बदले रातें बदलीं, बातें बदलीं
जीने के अंदाज़ ही बदले हैं

इन लमहों के दामन में ....

नग्मे ही नग्मे हैं जागती सोती फिज़ाओं में...
इश्क़ है जैसे हवाओं में

तो आइए सुनें और देखें जोधा अकबर का ये प्यारा सा नग्मा....




शनिवार, जनवरी 17, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 पायदान संख्या 18 : कहीं तो होगी वो..दुनिया जहाँ तू मेरे साथ है.

तो हुजूर वक़्त आ गया है वार्षिक संगीतमाला के थोड़ा रूमानी होने का और इसीलिए यहाँ गाना वो जो पिछले महिने बनाए गए मेरे क्रम से पाँच छलाँगे ऊपर मार कर आ पहुँचा है पायदान संख्या 18 पर। जाने तू या जाने ना के इस गीत की धुन बनाई है अल्लाह रक्खा रहमान यानि वही अपने चहेते ए. आर. रहमान ने और सच कहूँ तो गीत शुरु होने के प्रथम 35 सेकेंड्स में ही आप उनकी दी हुई धुन से इस गीत के मूड को समझ जाते हैं कि ये एक प्यारा सा रोमांटिक नग्मा होगा।

मुझे ये धुन कमाल की लगती है..और धुन का असर गहरा हो ही रहा होता है कि नेपथ्य से आती है राशिद अली की आवाज और गूँजते हैं ये स्वर...
कहीं तो ..कहीं तो
होगी वो
दुनिया जहाँ तू मेरे साथ है
जहाँ मैं, जहाँ तू
और जहाँ बस तेरे मेरे जज़्बात हैं

बस मूड एकदम से बदल जाता है। मुझे इस गीत की ये पंक्तियाँ सुनकर अपनी किशोरावस्था के दिन याद आ जाते हैं जब हम ऍसी ही कितनी कल्पनात्मक उड़ानों में डूबते उतराते रहते थे। अब्बास टॉयरवाला की तारीफ करनी होगी की बेहद सरल शब्दों का प्रयोग करते हुए भी अपनी बात को हम तक पहुँचा पाते हैं। कभी कभी इस भागदौड़ भरी जिंदगी में कोरी भावुकता की भी जरूरत महसूस होती है और तब ऍसे गीत मन को बड़े भले लगते हैं।

राशिद अली के बारे में तो हम पिछली पोस्ट में विस्तार से बात कर चुके हैं इस गीत में राशिद का एक अंतरे में साथ दिया है मानसून वेडिंग में नायिका की भूमिका निभाने वाली वसुंधरा दास ने। बस इस गीत की एक ही बात नहीं जमती और वो है अंत में कोरस को लाने के लिए गीत के स्केल में लाया गया बदलाव। इसलिए चार मिनट दस सेकेंड बीतते ही मैं गीत की पुनरावृति कर लेता हूँ। तो लीजिए पहले पढ़िए इस गीत के बोल.....
कहीं तो ..कहीं तो
होगी वो
दुनिया जहाँ तू मेरे साथ है
जहाँ मैं, जहाँ तू
और जहाँ बस तेरे मेरे जज़्बात हैं
होगी जहाँ सुबह तेरी
पलकों की किरणों में
लोरी जहाँ चाँद की
सुने तेरी बाहों में

जाने ना कहाँ वो दुनिया है
जाने ना वो है भी या नहीं
जहाँ मेरी जिंदगी मुझसे
इतनी ख़फा नहीं

साँसें खो गई है किसकी आहों में
मैं खो गई हूँ जाने किसकी बाहों में
मंजिलों से राहें ढूँढती चली
खो गई है मंजिल कहीं राहों में

कहीं तो कहीं तो
है नशा
तेरी मेरी हर मुलाक़ात में
होठों से, होठों को चूमते
ओ रहते हैं हम हर बात पे
कहती है फिज़ा जहाँ
तेरी जमीं आसमान
जहाँ है तू मेरी हँसी
मेरी खुशी मेरी जाँ
जाने ना कहाँ वो दुनिया है
जाने ना वो है भी या नहीं
जहाँ मेरी जिंदगी मुझसे
इतनी ख़फा नहीं...

तो अब सुनिए रहमान, अब्बास और राशिद खाँ की इस बेहद रोमांटिक पेशकश को...


गुरुवार, जनवरी 15, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 पायदान संख्या 19 : खुदा जाने कि मैं फ़िदा हूँ...

जहाँ तक संगीत निर्देशकों की बात है वार्षिक संगीतमाला २००८ में अब तक ए. आर. रहमान का दबदबा कायम है। पर अब तक हम कई नए गीतकारों क़ौसर मुनीर, शब्बीर अहमद और अब्बास टॉयरवाला को सुन चुके हैं। आज बारी है अन्विता दत्त गुप्तन की जिन्होंने लिखा है वार्षिक संगीतमाला की 19 वीं पायदान का ये गीत जिसे खूबसूरती से फिल्माया गया है दीपिका रणवीर की जोड़ी पर।


वैसे आप जरूर जानना चाहते होंगे कि ये अन्विता दत्त गुप्तन हैं कौन ? अन्विता के गीतकार बनने का सफ़र दिलचस्प है और कुछ हद तक प्रसून जोशी से मिलता है। अन्विता जब २४ साल की थीं तब अपनी बॉस के साथ 'दिलवाले दुलहनिया ले जाएँगे ' देखने गईं और तभी उनके दिल में फिल्म जगत से जुड़ने का ख्वाब पलने लगा। तब तक अन्विता प्रसून की तरह विज्ञापन जगत का हिस्सा बन चुकीं थीं और अपने चौदह सालों के कैरियर में विभिन्न विज्ञापन एजेंसियों में बतौर क्रिएटिव डायरेक्टर के पद पर कार्य कर चुकी हैं।

प्रसून से उलट, करीब दो साल पहले उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया और बतौर गीतकार अपने सपने को पूरा करने की सोची। अन्विता ने अब तक अपने गीतों में प्रसून जैसी काव्यत्मकता का परिचय तो नहीं दिया पर सहज शब्दों से आम संगीतप्रेमी जन का ध्यान खींचने में वो सफल रही हैं।

रहमान के बाद इस साल सबसे ज्यादा लोकप्रियता अगर किसी ने बटोरी है तो वो है विशाल शेखर की जोड़ी ने। इस संगीतमाला में उनका संगीत निर्देशित ये तीसरा गीत है। इस गीत को अपनी मधुर आवाज़ से सँवारा है केके और शिल्पा राव ने। इस गीत में केके यानि कृष्ण कुमार मेनन ने जिस खुले गले से सुर लगाए हैं वो दिल को खुश कर देते हैं और मन इस गीत को गुनगुनाने का करने लगता है। झारखंड के जमशेदपुर से ताल्लुक रखने वाली शिल्पा को इस साल की उदीयमान गायिका या खोज कह सकते हैं। अपनी गहरी आवाज़ में वो केके का अच्छा साथ निभाती नज़र आई हैं।
तो आइए सुनें बचना ऍ हसीनों फिल्म का ये नग्मा



सजदे में यूँ ही झुकता हूँ, तुम पे ही आ के रुकता हूँ
क्या ये सबको होता है,
हमको क्या लेना है सब से
तुम से ही सब बातें अब से, बन गए हो तुम मेरी दुआ

सजदे में यूँ ही झुकता हूँ, तुम पे ही आ के रुकता हूँ....
खुदा जाने कि मैं फ़िदा हूँ
खुदा जाने मैं मिट गया
खुदा जाने ये क्यूँ हुआ है
कि बन गए हो तुम मेरे खुदा

तू कहे तो तेरे ही कदम के मैं निशानों पे
चलूँ रुकूँ इशारे पे
तू कहे तो ख्वाब का बना के मैं बहाना सा
मिला करुँ सिरहाने पे
तुमसे दिल की बातें सीखीं
तुमसे ही ये राहें सीखीं
तुम पे मर के मैं तो जी गया

खुदा जाने कि मैं फ़िदा हूँ............

दिल कहे कि आज तो छुपा लो तुम पनाहों में
कि डर है तुमको खो दूँगा
दिल कहे संभल ज़रा खुशी को ना नज़र लगा
कि डर है मैं तो रो दूँगा
करती हूँ सौगातें तुमसे
बाँधे दिल के धागे तुमसे, ये तुम्हें ना जाने क्या हुआ
खुदा जाने कि मैं फ़िदा हूँ............



 

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