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शनिवार, जून 15, 2019

यादें इब्ने इंशा की : फ़र्ज़ करो हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों ! Farz Karo..

इब्ने इंशा का आज यानी 15 जून को जन्मदिन है। अगर वो आज हमारे साथ रहते तो उनकी उम्र 92 की होती। इब्ने इंशा मेरे पसंदीदा साहित्यकारों में से एक रहे हैं। शायर इसलिए नहीं कह रहा कि मुझे उनके लिखे व्यंग्य भी बेहद उम्दा लगते हैं। उर्दू की आखिरी किताब पढ़ते वक़्त जितना मैं हँसते हँसते लोटपोट हुआ था उसके बाद वैसी कोई मजेदार किताब पढ़ने को नहीं मिली। उनके यात्रानामों का अभी तक हिंदी में अनुवाद नहीं आया है। जिस दिन आएगा उस दिन चीन जापान से लेकर मध्य पूर्व के उनके यात्रानामों को पढ़ने की तमन्ना है।



जो लोग कविता को पढ़ पढ़ कर रस लेते हैं उनके लिए इब्ने इंशा जैसा कोई शायर नहीं है। इंशा जी की शायरी में जहाँ एक ओर शोखी है, शरारत है तो वहीं दूसरी ओर एक बेकली, तड़प और एक किस्म की फकीरी भी है। अपने दुख के साथ साथ समाज के प्रति अपने दायित्व को उनकी नज़्में बारहा उभारती हैं। ये बच्चा किसका बच्चा है और बगदाद की एक रात उनकी ऍसी ही श्रेणी की लंबी नज़्में हैं। 

आजकल के शायरों में अगर चाँद किसी की नज़्मों और गीतों मे बार बार दिखता है तो वो गुलज़ार साहब हैं पर जिनलोगों ने इब्ने इंशा को पढ़ा है वो जानते हैं कि चाँद के तमन्नाइयों में इंशा सबसे ऊपर हैं। बचपन में उनकी शायरी से मेरा परिचय जगजीत सिंह की गाई ग़ज़ल कल चौदहवीं की रात थी, से ही हुआ था। इंशा ने अपनी पहली किताब का भी नाम चाँदनगर रखा। इंशा ने इस बात का जिक्र भी किया है कि उनका घर एक रेलवे स्टेशन के पास था जिसके ऊपर बने पुल पर वो घंटों चर्च के घंटा घर की आवाज़ें सुनते और चाँद को निहारा करते थे। चाहे वो एकांत में रहें या शहर की भीड़ भाड़ में, चाँद से उनकी प्रीति बनी रही। चाँदनगर की प्रस्तावना में अपनी शायरी के बारे में इंशा लिखते हैं...   
मैं शुरु से स्वाभाव का रूमानी था पर मैं ऍसे संसार का वासी हूँ जहाँ सब कुछ प्रेममय नहीं है। मेरी लंबी नज़्में मेरे आस पास की घटनाओं का कटु सत्य उजागर करती हैं। हालांकि कई बार ऐसा लेखन मेरी रूमानियत के आड़े आता रहा। फिर भी मैंने कोशिश की चाहे प्रेम हो या जगत की विपदा जब भी लिखूँ मन की भावनाओं को सच्चे और सशक्त रूप में उभारूँ।
अब फर्ज करो को ही लीजिए। कैसी शरारत भरी नज़्म है कि एक ओर तो उनके दिल में दबा प्रेम इस रचना के हर टुकड़े से कुलाँचे मार कर बाहर निकलना चाहता है तो दूसरी ओर अपनी ही भावनाओं को हर दूसरी पंक्ति में वो विपरीत मोड़ पर भी ले जाते हैं ताकि सामने वाले के मन में संशय बना रहे। ये जो इंसानी फितरत है वो थोड़ी बहुत हम सबमें हैं। प्रेम से लबालब भरे पड़े हैं पर जब सीधे पूछ दिया जाए तो कह दें नहीं जी ऐसा भी कुछ नहीं हैं। आपने आखिर क्या सोच लिया और फिर बात को ही घुमा दें? अपनी बात कहते हुए जिस तरह इंशा ने हम सब की मनोभावनाओं पर चुपके से सेंध मारी है,वो उनकी इस रचना को इतनी मकबूलियत दिलाने में सफल रहा।


इब्ने इंशा को उनके जन्मदिन पर याद करने के लिए उनकी बेहद लोकप्रिय नज़्म पढ़ने की कोशिश की है। यूँ तो इब्ने इंशा की इस नज़्म को छाया गाँगुली और हाल फिलहाल में जेब बंगेश ने अपनी आवाज़ से सँवारा है पर जो आनंद इसे बोलते हुए पढ़ने में आता है वो संगीत के साथ सुनने में मुझे तो नहीं आता। आशा है आप भी पूरे भावों के साथ साथ ही में पढ़ेंगे इसको

फ़र्ज़ करो हम अहले वफ़ा हों, फ़र्ज़ करो दीवाने हों
फ़र्ज़ करो ये दोनों बातें झूठी हों अफ़साने हों

फ़र्ज़ करो ये जी की बिपता, जी से जोड़ सुनाई हो
फ़र्ज़ करो अभी और हो इतनी, आधी हमने छुपाई हो

फ़र्ज़ करो तुम्हें ख़ुश करने के ढूंढे हमने बहाने हों
फ़र्ज़ करो ये नैन तुम्हारे सचमुच के मयख़ाने हों

फ़र्ज़ करो ये रोग हो झूठा, झूठी पीत हमारी हो
फ़र्ज़ करो इस पीत के रोग में सांस भी हम पर भारी हो

फ़र्ज़ करो ये जोग बिजोग का हमने ढोंग रचाया हो
फ़र्ज़ करो बस यही हक़ीक़त बाक़ी सब कुछ माया हो




एक शाम मेरे नाम पर इब्ने इंशा

शुक्रवार, अप्रैल 26, 2019

उदासी के रंग : कुँवर नारायण Udaasi ke Rang

रंगों की दुनिया मुझे बेहद पसंद है। हर रंग का हमारे दिलो दिमाग पर एक अलग असर होता है। कुछ रंग हमारी कमज़ोरी होते हैं और उनसे रँगे साजो समान हमें तुरत फुरत में पसंद आ जाते हैं जबकि कुछ को देख कर ही हम अपनी नाक भौं सिकोड़ने लगते हैं। 

रंगों से हमारी मुलाकात बचपन में प्रतीकों के तौर पर करायी गयी थी। सफेद रंग शांति का तो काला शोक का। लाल को गुस्से से तो नीले को सौम्यता से जोड़ कर देखा गया। कभी कभी मन में सवाल उठता है कि रंगों की दुनिया क्या इतनी सहज और एकरूपी है? सच पूछिए तो हर रंग एक आईने की तरह है। देखनेवाला उसे जिस भावना से देखे वही अक़्स उस रंग में नज़र आने लगता है।



आधुनिक हिंदी कविता के जाने माने हस्ताक्षर कुँवर नारायण ने एक कविता लिखी थी उदासी के रंग। अब शायद ही जीवन का कोई हिस्सा हो जहाँ उल्लास के साथ उदासी का रंग ना फैला हो। ऐसे ही उदास मन से कुँवर नारायण ने जब अपने आसपास की प्रकृति को देखा तो उन्हें क्या नज़र आया पढ़िए व सुनिए मेरी आवाज़ में.. 

उदासी भी
एक पक्का रंग है जीवन का
उदासी के भी तमाम रंग होते हैं
जैसे
फ़क्कड़ जोगिया
पतझरी भूरा
फीका मटमैला
आसमानी नीला
वीरान हरा
बर्फ़ीला सफ़ेद
बुझता लाल
बीमार पीला
कभी-कभी धोखा होता है
उल्लास के इंद्रधनुषी रंगों से खेलते वक्त
कि कहीं वे
किन्हीं उदासियों से ही
छीने हुए रंग तो नहीं हैं ?


यानी रंगों की दुनिया कुछ नहीं बस हमारे मन की दुनिया है जिसे पर हम अपमी भावनाओं की कूचियाँ चलाते हैं।
 

मेरी पसंदीदा किताबें...

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