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शनिवार, मार्च 10, 2007

वार्षिक संगीतमाला 2006 सरताज गीत: बिटिया होने का सच !

दुख फसाना नहीं की तुझसे कहूँ
दिल भी माना नहीं की तुझसे कहूँ

आज तक अपनी बेकली का सबब
खुद भी जाना नहीं की तुझसे कहूँ

अहमद फराज

ये दुख भी अजीब सी चीज है । एक बार अंदर पलने लगे तो जी घुटता सा रहता है। इच्छा भी नहीं होती कि किसी को कहें। पर दिल की चारदीवारी के अंदर कोई भी बाँध कितना भी ऊँचा क्यूँ ना बनाएँ,...एक दिन तो वो बाँध भरेगा ही और उससे बह कर निकलने वाली पीड़ा दूसरों को भी दर्द में डुबायेगी ही । मेरी इस संगीत श्रृंखला के शिखर पर विराजमान इस गीत में कुछ ऐसी ही पीड़ा अन्तरनिहित है जो गीत के प्रवाह के साथ मन में रिसती हुई नक्श सी हो जाती है ।

आखिर उमराव जान 'अदा' की अमीरन ने उस बाँध के टूट जाने के बाद ही तो ऐसा कहा होगा ।
अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो....

तनिक अमीरन को क्षण भर के किए पीछे कर अपने चारों ओर के हालातों पर नजर दौड़ायें तो पाते हैं कि अभी भी हमारे समाज का एक वर्ग लड़की के रूप में जन्म लेने को एक अभिशप्त जिंदगी की शुरुआत मानता है ।

अगर ऐसा नहीं होता तो पंजाब जैसे समृद्ध और अपेक्षाकृत विकसित राज्य में मादा भ्रूण हत्याएँ इतनी ज्यादा क्यूँ कर होतीं ?


दहेज के लोभी अपनी नहीं तो किसी और की बिटिया को क्यूँ जलाते ?

शिक्षा के मंदिर / आश्रमों में भी पढ़ाई की आड़ में यौन शोषण की जुर्रत कोई कैसे करता ?

बलात्कर जैसे घिनौने अपराध के दोषी भी सीना तान के बिना किसी शर्मिन्दगी के न्यायालय में जाते और बेदाग छूट कर कैसे आते ?

रोज-रोज ऐसा देखते हुए भी हमारा समाज चेतनाशून्य सा क्यूँ बना रहता है ?.
सच तो ये है कि मस्तिष्क के किसी कोने में हमारी सोच नहीं बदली है ।

रिचा शर्मा की आवाज में जब भी ये गीत सुनता हूँ ,ये सारे प्रश्न दिलो दिमाग को सोचने पर मजबूर करते हैं ....

ये गीत इसलिए भी मेरी पहली पायदान का गीत है क्यूँकि इस गीत को सुनने के बाद ये जज्बा मजबूत होता है कि जो हो चुका उसे तो नहीं बदल सकते पर आने वाले कल में कुछ तो करें जिससे किसी कि बेटी इस गीत की व्यथा से न गुजरे ।


 


जावेद साहब ने इस गीत में एक बिटिया के दर्द को अपनी लेखनी के जादू से इस कदर उभारा है कि इसे सुनने के बाद आँखें नम हुये बिना नहीं रह पातीं । ऋचा जी की गहरी आवाज , अवधी जुबान पर उनकी मजबूत पकड़ और पार्श्व में अनु मलिक का शांत बहता संगीत आपको अवध की उन गलियों में खींचता ले जाता है ।गीत,संगीत और गायिकी के इस बेहतरीन संगम को शायद ही कोई संगीतप्रेमी सुनने से वंचित रहना चाहेगा।



अब जो किये हो दाता, ऐसा ना कीजो
अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो ऽऽऽऽ

जो अब किये हो दाता, ऐसा ना कीजो
अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो

हमरे सजनवा हमरा दिल ऐसा तोड़िन
उ घर बसाइन हमका रस्ता मा छोड़िन
जैसे कि लल्ला कोई खिलौना जो पावे
दुइ चार दिन तो खेले फिर भूल जावे
रो भी ना पावे ऐसी गुड़िया ना कीजो
अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो
जो अब किये हो दाता, ऐसा ना कीजो...

ऐसी बिदाई बोलो देखी कहीं है
मैया ना बाबुल भैया कौनो नहीं है
होऽऽ आँसू के गहने हैं और दुख की है डोली
बन्द किवड़िया मोरे घर की ये बोली
इस ओर सपनों में भी आया ना कीजो
अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो

जो अब किये हो दाता, ऐसा ना कीजो...

गुरुवार, मार्च 08, 2007

वार्षिक संगीतमाला 2006 : पुनरावलोकन (RECAP) कौन होगा सरताज गीत ?


तो भाई इससे पहले कि इससे पहले कि इस साल के अपने सबसे प्रिय गीत का खुलासा करूँ एक नजर मारी जाए कि इस साल कौन से कलाकार छाए रहे गीत संगीत की दुनिया में । पिछले साल के हीरो सोनू निगम इस बार बहुत कम चर्चित गीतों के खेवैया रहे। यही हाल पिछले साल की जबरदस्त जोड़ी शान्तनु मोएत्रा और स्वानंद किरकिरे का रहा । मुन्ना भाई को छोड़ दें तो ये परिणिता और हजारों ख्वाहिशें ऐसी में दिये गए अपने उत्कृष्ट संगीत के पास भी नहीं फटक पाए ।
गीतकारों में गुलजार ओंकारा, गुरु, ब्लू अम्बरैला, जानेमन जैसी फिल्मों मे अपनी फार्म में दिखे। वही प्रसून जोशी ने रंग दे बसंती और फना के लिए और जावेद अख्तर ने कभी अलविदा ना कहना के लिए कुछ अच्छे गीत लिखे ।
संगीतकारों में विशाल भारद्वाज, शंकर अहसान लॉय और मिथुन चर्चित रहे । वैसे तो प्रीतम का गैंगस्टर का दिया संगीत हिट रहा पर संगीत की चोरी के आरोपों ने उनकी प्रतिष्ठा धूमिल कर दी।
श्रेया घोषाल, सुनिधि चौहान, अभिजीत, केके,शान जैसे स्थापित गायकों के साथ शफकत अमानत अली खाँ, आतिफ असलम, अमानत अली खाँ, चिन्मयी श्रीपदा और जुबीन गर्ग जैसे नवोदित पर प्रतिभावान गायक कंधे से कंधा मिलाता दिखे ।
संगीत संयोजन की,विविधता और बेहतरीन काव्यात्मक अभिव्यक्ति के चलते ओंकारा को इस साल का श्रेष्ठ एलबम कहने में मुझे कोई हिचक नहीं होगी । सहयोगी चिट्ठाकार जगदीश भाटिया जी का भी यही मत है ।
तो पहले नम्बर का गीत तो अगली पोस्ट में आएगा पर देखें आप सब क्या गेस करते हैं । क्या कहा मुश्किल है तो चलिए कुछ क्लू दे देते हैं आपको
पहला क्लू : ये गीत मेरे चहेते गीतकार गुलजार का लिखा नहीं है ।
दूसरा क्लू : इस गीत के गायक गायिका का सरनेम हमारे हिंदी चिट्ठा जगत के एक जाने माने चिट्ठाकार से मेल खाता है
तीसरा क्लू : इस गीत के भाव और
बेजी जी की हाल की पोस्ट में काफी कुछ समानता है ।
खैर अगर आपने गेस कर लिया तो बतायें और नहीँ भी किया तो इस साल का अपना सबसे पसंदीदा नग्मा जरूर बताएँ । मुझे आपकी पसंद जानकर खुशी होगी । और जब तक आप ये सब सोचें ले चलें आपको मेरी पसंदीदा नग्मों के एक पुनरावलोकन (Recap) पर !
  1. अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो (उमराव जान)
  2. मितवा... ( कभी अलविदा ना कहना )
  3. ओ साथी रे दिन डूबे ना... (ओंकारा)
  4. जागे हैं देर तक हमें कुछ देर सोने दो (गुरू)
  5. तेरे बिन मैं यूँ कैसे जिया... (बस एक पल )
  6. बीड़ी जलइ ले, जिगर से पिया.... (ओंकारा)
  7. अजनबी शहर है, अजनबी शाम है.... ( जानेमन )
  8. तेरे बिना बेसुवादी रतिया...(गुरू)
  9. मैं रहूँ ना रहूँ ....( लमहे-अभिजीत )
  10. लमहा लमहा दूरी यूँ पिघलती है...(गैंगस्टर)
  11. नैना ठग लेंगे...... (ओंकारा)
  12. तेरी दीवानी.... ( कलसा- कैलाश खेर)
  13. रूबरू रौशनी है...... (रंग दे बसंती)
  14. क्या बताएँ कि जां गई कैसे...(कोई बात चले)
  15. ये हौसला कैसे झुके.. ( डोर )
  16. ये साजिश है बूंदों की.....( फना )
  17. सुबह सुबह ये क्या हुआ....( I See You.)
  18. मोहे मोहे तू रंग दे बसन्ती....( रंग दे बसंती )
  19. चाँद सिफारिश जो करता.... ( फना )
  20. बस यही सोच कर खामोश मैं......( उन्स )

शुक्रवार, मार्च 02, 2007

वार्षिक संगीतमाला गीत # 2 : मेरे मन ये बता दे तू किस ओर चला है तू...

इस संगीतमाला के रनर्स अप का सेहरा बाँधा है जावेद अख्तर के लिखे और शंकर अहसान लॉय के संगीतबद्ध इस गीत ने ।
फिल्म कभी अलविदा ना कहना के इस गीत को गाया है शफकत अमानत अली खाँ ने जिनके बारे में इस गीतमाला में
पहले भी चर्चा हो चुकी है ।

जावेद अख्तर अपनी बात हमेशा सीधे सरल अंदाज में करते हैं। पर अक्सर अपने गीतों में वो जीवन के उन पहलुओं को अनायास ही छू देते हैं जिन्हें कभी ना कभी किसी ना किसी रूप में हम सबने महसूस किया होता है। इस गीतमाला में वो देर से ही तशरीफ लाए हैं पर आए हैं अपने इस बेहतरीन गीत के साथ । क्या प्रथम दस गीतों में उनकी ये इकलौती पेशकश होगी , ये राज तो अभी राज ही रहने दें । ये गीत मुझे क्यूँ प्रिय है ये मैं पहले ही आपको विस्तार से
यहाँ बता चुका हूँ । इस गीत के बोल भी आप वहीं पढ़ सकते हैं ।

रविवार, फ़रवरी 25, 2007

वार्षिक संगीतमाला गीत # 3 : ओ साथी रे दिन डूबे ना...

आपके सामने आज वक्त मिला है इस गीतमाला के शीर्ष के तीन गीतों में पहले पर से पर्दा उठाने का । ये गीत फिल्म ओंकारा से है और सागर भाई ने एक गेस भी किया था । अपनी ४ अक्टूबर की प्रविष्टि मैंने इसी गीत पर लिखी थी और तभी मैंने लिखा था...

"......गुलजार एक ऐसे गीतकार है जिनकी कल्पनाएँ पहले तो सुनने में अजीब लगती हैं पर ऐसा इसलिए होता है कि उनकी सोच के स्तर तक उतरने में थोड़ा वक्त लगता है । पर जब गीत सुनते सुनते मन उस विचार में डूबने लगता है तो वही अनगढ़ी कल्पनाएँ अद्भुत लगने लगती हैं।


इसलिये उनके गीत के लिये कुछ ऐसा संगीत होना चाहिए जो उन भावनाओं में डूबने में श्रोता की मदद कर सके । गुलजार के लिये पहले ये काम पंचम दा किया करते थे और इस चलचित्र में बखूबी ये काम विशाल कर रहे हैं। ....."

रातें कटतीं ना थीं या यूँ कहें रातों को कटने देना कोई चाहता ही नहीं था । पर भई प्रेमियों के लिये ये कोई नई बात तो रही नहीं सो अब उन्होंने दिन को अपना निशाना बनाया है । और क्या खूब बनाया है कि सूर्यदेव भी उनकी गिरफ्त में आ गए । अब चिंता किस बात की जब सूरज ही शिकंजे में हो । अब उनका हाथ अपने हाथ में ले कर धूप और छाँव के साथ जितना मर्जी कट्टी-पट्टी खेलो कौन रोकेगा भला ।

और जनवरी २००७ में दिये हुए अपने
साक्षात्कार में गुलजार साहब ने इस गीत के बारे में कहा

मैं सोचता हूँ कि संगीत की दृष्टि से ओंकारा में काफी विविधताएँ एवम् रंग हैं। इस फिल्म के गीत ओ साथी रे मैंने एक अलग तरह की काव्यात्मक सोच पर गीत बुनने की कोशिश की है । सूर्यास्त की बेला को मैंने यूँ वर्णित किया है मानो आकाश की फिसलन की वजह से सरकता डगमगाता सूरज नदी में डूबने वाला ही है ।और इसीलिए उसे रोकते प्रेमी युगल जाल डाल कर उसे पीठ पर ले जाने की तैयारी में हैं।

पार्श्व गायन की बात करें तो श्रेया घोषाल की मधुर आवाज में जो शोखी और चंचलता है वो इस गीत के रोमांटिक मूड को और प्रभावी बनाती है।वहीं विशाल भारद्वाज की ठहरी आवाज गीत के बहाव को एक स्थिरता सी देती है। कुल मिलाकर गीत, संगीत और गायन मिलकर मन में ऐसे उतरते हैं कि इस गीत के प्रभाव से उबरने का मन नहीं होता ।

ओऽऽ साथी रे दिन डूबे ना
आ चल दिन को रोकें
धूप के पीछे दौड़ें
छाँव छाँव छुए ना ऽऽ
ओऽऽ साथी रे ..दिन डूबेऽऽ ना


थका-थका सूरज जब, नदी से हो कर निकलेगा
हरी-हरी काई पे , पाँव पड़ा तो फिसलेगा
तुम रोक के रखना, मैं जाल गिराऊँ
तुम पीठ पे लेना मैं हाथ लगाऊँ
दिन डूबे ना हा ऽ ऽऽ
तेरी मेरी अट्टी पट्टी
दाँत से काटी कट्टी
रे जइयोऽ ना, ओ पीहू रे
ओ पीहू रे, ना जइयो ना

कभी कभी यूँ करना, मैं डाँटू और तुम डरना
उबल पड़े आँखों से मीठे पानी का झरना
हम्म, तेरे दोहरे बदन में, सिल जाऊँगी रे
जब करवट लेगा, छिल जाऊँगी रे
संग लेऽ जाऊँऽगाऽ

तेरी मेरी अंगनी मंगनी
अंग संग लागी सजनी
संग लेऽऽ जाऊँऽ

ओऽऽ साथी रे दिन डूबे ना
आ चल दिन को रोकें
धूप के पीछे दौड़ें
छाँव छुए नाऽऽ
ओऽऽ साथी रे ..दिन डूबेऽऽ ना




बुधवार, फ़रवरी 21, 2007

वार्षिक गीतमाला पायदान # 4: रात, नींद, ख्वाब और गुलजार !

देवियों और सज्जनों, एक बार फिर आपका ये सीरियल मेकर :) हाजिर है अपनी इस गीतमाला के चौथे नंबर के गीत को लेकर । अगर आपकी शिकायत ये है कि इस गीतमाला की रफ्तार इन दिनों पैसेंजर की माफिक क्यूँ हो गई है तो उसका जवाब यही है कि पिछले १२ दिनों में मैं सिर्फ तीन दिन ही घर पर बिता पाया हूँ और आगे भी हालात कुछ ऐसे ही नजर आ रहे हैं। खैर, इस बार हम लौटे हैं कानपुर की निम्मी -निम्मी ठंड का मजा लेते हुए । नींद, ख्वाब और रात के बारे में मैं सोचूँ तो अभी तो मुझे सफर में अपने डिब्बे की थोड़ी सी खुली खिड़की से आती सर्द हवा की याद आती है जिसने हमारी कच्ची नींद में जब तब सेंध लगाई ,पर गुलजार की रात में जागती आँखें तो कोई और फसाना बयां करती हैं ।

आखिर कौन है इन जागती आँखों का कुसूरवार?

अरे वही मुए ख्वाब जो उनकी नींद के साथ एक अर्से से कबड्डी खेलते आए हैं। याद है आपको घर फिल्म का किशोर दा का गाया वो गीत जिसने हॉस्टल के बन्द कमरे में हमारी कितनी ही रातों की नींद चुराई थीं ।

फिर वही रात है...
फिर वही रात है, ख्वाबों की
रात भर ख्वाब में, देखा करेंगे तुम्हें...
मासूम सी नींद में, जब कोई सपना चले
हमको बुला लेना तुम पलकों के पर्दे तले
ये रात है ख्वाब की, ख्वाब की रात है...


और फिर इंतजार की उन घड़ियों को गिनती ( फिल्म -खामोशी) की पुकार तो कभी मंद नहीं पड़ी..

ख्वाब चुन रही है रात बेकरार है, तुम्हारा इंतजार है....पुकार लो..!

या फिर जीवा में आशा जी का गाया ये गीत हो

रोज-रोज आँखों तले, एक ही सपना चले
रात भर काजल जले, आँख मे जिस तरह
ख्वाब का दीया जले...


नींद..रात ..ख्वाब..चाँद गुलजार के प्रिय विषय रहे हैं। शायद ये उनकी निजी जिंदगी में भी कुछ खास मायने रखते हों । यही वजह है कि इन शब्दों को पिरोकर निकला उनका हर गीत एक नए आयाम देता प्रतीत हुआ है । चौथी पायदान की ये छोटी सी नज्म इन शब्दों को जोड़ती हुई दिल को करीब से छूते हुए गुजर जाती हैं । गुरु फिल्म में इस नज्म की आरंभिक चार पंक्तियों का प्रयोग हुआ है क्योंकि वो कथानक पर दुरुस्त बैठती हैं।

जागे हैं देर तक हमें कुछ देर सोने दो
थोड़ी सी रात और है सुबह तो होने दो
आधे अधूरे ख्वाब जो पूरे ना हो सके
इक बार फिर से नींद में वो ख्वाब बोने दो

और अगर कोई ख्बाब देखते-देखते आपकी नींद टूट जाए तो भी हिम्मत ना हारें क्योंकि

इक ख्वाब टूट जाने का अहसास ही तो है
थोड़ी सी रात और सहर पास ही तो है !


गुरु की इस नज्म को अपना स्वर दिया है के. एस. चित्रा और ए.आर. रहमान ने । वैसे रहमान ने किसी दूसरे गायक को मौका दिया होता तो नतीजा और बेहतर होता ।

शनिवार, फ़रवरी 17, 2007

पायदान # 5 : तेरे बिन मैं यूँ कैसे जिया...

पिछला हफ्ता कार्यालय के दौरों में बीता । नतीजा ये कि इस गीतमाला की गाड़ी वहीं की वहीं रुक गई । अब इससे पहले कि फिर बाहर निकलूँ अपनी गाड़ी को ५ वीं सीढ़ी तक पहुँचा ही देता हूँ। आज का ये गीत यहाँ इसलिए है क्योंकि इसे जिस अंदाज में गाया गया है वो अपनेआप में काबिले तारीफ है ।
'बस एक पल' के इस गीत के असली हीरो आतिफ असलम हैं। स्कूल के दिनों में आतिफ पढ़ाई के बाद अपना सारा समय क्रिकेट के अभ्यास में लगाते थे। उनका ख्वाब था पाकिस्तान की टीम में एक तेज गेंदबाज की हैसियत से दाखिल होना । अपनी लगन से वो कॉलेज टीम में भी आ गए । कॉलेज के जमाने में ही दोस्तों के सामने ये राज खुला कि उनकी आवाज भी उनकी गेंदबाजी की तरह धारदार है । सो फिर क्या था दोस्तों ने उनका नाम एक संगीत प्रतियोगिता में डलवा दिया । फिर तो जो हुआ वो अब इतिहास है। उसके बाद काँलेज की हर संगीत प्रतियोगिता वो जीतते रहे ।
फिर जल , आदत आदि एलबमों की सफलता के बाद वो संगीत से पूरी तरह जुड़ गए । फिर जहर के लोकप्रिय ट्रैक ने उन्हें भारत में भी प्रसिद्धि दिला दी । आतिफ की गायिकी में सबसे खास बात ये है कि ये ऊपर के सुर सहजता से लगा लेते हैं । सईद कादरी ने प्रेम और फिर विरह की भावना को केन्द्र बिन्दु रख कर ये गीत लिखा है और आतिफ ने अपनी आवाज द्वारा उस विरह वेदना को बखूबी उभारा है ।

तेरे बिन मैं यूँ कैसे जिया
कैसे जिया तेरे बिन
लेकर याद तेरी, रातें मेरी कटीं
मुझसे बातें तेरी करती है चाँदनी
तनहा है तुझ बिन रातें मेरी
दिन मेरे दिन के जैसे नहीं
तनहा बदन, तनहा है रुह, नम मेरी आँखें रहें
आजा मेरे अब रूबरू
जीना नहीं बिन तेरे
तेरे बिन ....

कबसे आँखें मेरी, राह में तेरे बिछीं
भूले से ही कहीं, तू मिल जाए कहीं
भूले ना.., मुझसे बातें तेरी
भींगी है हर पल आखें मेरी
क्यूँ साँस लूँ, क्यूँ मैं जियूँ
जीना बुरा सा लगे
क्यूँ हो गया तू बेवफा, मुझको बता दे वजह
तेरे बिन....

मिथुन द्वारा संगीतबद्ध इस गीत को आप यहाँ और यहाँ सुन सकते हैं ।

रविवार, फ़रवरी 11, 2007

वार्षिक संगीतमाला गीत # 6 : जब जलती है 'बीड़ी' गाँव की नौटंकी में !

शहर की चमक दमक से दूर गाँव की दुपहरी और शामें अपनी एकरूपता लिये होती हैं। अँधेरे का आगमन हुआ नहीं कि घर के बाहर की सारी गतिविधियाँ ठप्प । यानि महानगरीय माहौल से एकदम उलट जहाँ अँधेरे के साथ रात जवाँ होती है। पर मनोरंजन की जरूरत तो सब को है। और इसी आवश्यकता को पूरा करने के लिए सामाजिक उत्सवों पर नौटंकी और नाच का आयोजन गाँवों की परम्परा रही है ।

ऐसा ही माहौल दिया विशाल भारद्वाज ने गुलजार को अपनी फिल्म ओंकारा में और फिर गंवई मिट्टी की सुगंध ले कर जो गीत निकला उसका जाएका भारत के आम जनमानस की जिह्वा पर बहुत दिनों तक चढ़ा रहा ।

विशाल भारद्वाज ने ओंकारा के इस गीत को अपने जबरदस्त संगीत से जो उर्जा दी है, उसे सुखविंदर सिंह और सुनिधि चौहान की मस्त गायिकी ने और उभारा है। हालांकि इस गीत के लिए स्क्रीन संगीत अवार्ड में श्रेष्ठ गीतकार चुने जाने से गुलजार बहुत खुश नहीं थे। कारण ये नहीं कि उन्हें अपना ये गीत पसंद नहीं बल्कि ये कि इस गीत को रचने से ज्यादा संतोष उन्हें इस फिल्म के अन्य गीतों को लिखने में हुआ है । गुलजार की राय से मैं पूरी तरह सहमत हूँ । इसी फिल्म का एक और गीत इसी कारण से मैंने भी ऊपर की एक सीढ़ी के लिए सुरक्षित रखा है ।

पर जब मूड धमाल और मौज मस्ती करने का हो तो ये गीत एक जबरदस्त उत्प्रेरक का काम करता हे और इसी वजह से ये यहाँ विराजमान है । तो दोस्तों चलें ६ ठी पायदान के इस गीत के साथ थिरकने ।

ना गिलाफ, ना लिहाफ
ठंडी हवा भी खिलाफ ससुरी
इतनी सर्दी है किसी का लिहाफ लइ ले
ओ जा पड़ोसी के चूल्हे से आग लइ ले
बीड़ी जलइ ले, जिगर से पिया
जिगर मा बड़ी आग है...

धुआँ ना निकारी ओ लब से पिया, अह्हा
धुआँ ना निकारी ओ लब से पिया
ये दुनिया बड़ी घाघ है
बीड़ी जलइ ले, जिगर से पिया
जिगर मा बड़ी आग है...

ना कसूर, ना फतूर
बिना जुलुम के हुजूर
मर गई, हो मर गई,
ऐसे इक दिन दुपहरी बुलाई लियो रे
बाँध घुंघरू कचहरी लगाइ लियो रे
बुलाई लियो रे बुलाई लियो रे
लगाई लियो रे कचहरी
अंगीठी जरई ले, जिगर से पिया
जिगर मा बड़ी आग है....

ना तो चक्कुओं की धार
ना दराती ना कटार
ऐसा काटे कि दाँत का निशान छोड़ दे
जे कटाई तो कोई भी किसान छोड़ दे
ओ ऐसे जालिम का छोड़ दे मकान छोड़ दे
रे बिल्लो, जालिम का छोड़ दे मकान छोड़ दे

ना बुलाया, ना बताया
मारे नींद से जगाया हाए रे
ऐसा चौंकी की हाथ में नसीब आ गया
वो इलयची खिलई के करीब आ गया

कोयला जलइ ले, जिगर से पिया
जिगर मा बड़ी आग है





पिछले साल इसी जगह पर था बंटी और बबली का प्यारा सा नग्मा
छुप चुप के..चोरी पे चोरी।

बुधवार, फ़रवरी 07, 2007

7 वीं पायदान : अजनबी शहर है, अजनबी शाम है...

सातवीं पायदान पर का गीत मुझे क्यूँ प्रिय है मुझे पता नहीं ! पर इतना जानता हूँ कि जैसे ही इसका मुखड़ा कानों में गूंजता है मन डूब सा जाता है एक अलग अहसास से... जिसे शब्दों में बाँधना मेरे लिए इस वक्त कठिन हो रहा है ।

सोनू निगम ने बड़ी खूबसूरती से गाया है इस गीत को खासकर शुरु की पंक्तियाँ में जब वो ऊपर की ओर अपनी सुरीली तान को खींचते हैं । और इसे अपनी मधुर धुन से संवारा है पहली बार इस गीतमाला में दाखिला ले रहे अनु मलिक ने । गीत के बीच में उन्होंने एक यूरोपीय नृत्य धुन का इस्तेमाल भी किया है ।

और इस तरह की पंक्तियाँ तो इस गीतमाला पर छाये गीतकार की तो खासियत ही हैं

बात है ये इक रात की, आप बादलों पे लेटे थे..
...सर्दी लग रही थी आपको,पतली चाँदनी लपेटे थे
और शाल में ख्वाब के सुलाया था

तो इस गुल को गुलशन करते गुलजार का फिल्म जानेमन के लिए लिखा गीत कुछ यूँ है ।
अजनबी शहर है, अजनबी शाम है
जिंदगीऽऽ अजनबीऽऽऽऽ, क्या तेराऽऽऽ नाम है ?
अजीब है ये जिंदगी ये जिंदगी अजीब है
ये मिलती है बिछड़ती है, बिछड़ के फिर से मिलती है
अजनबी शहर है, अजनबी शाम है

आप के बगैर भी हमें, मीठी लगें उदासियाँ
क्या, ये आपका, आपका कमाल है
शायद आपको खबर नहीं ,
हिल रही है पाँव की जमीं
क्या, ये आपका, आपका ख्याल है
अजनबीऽऽऽऽ शहर मेंऽऽ जिंदगी मिल गई
अजीब है ये जिंदगी, ये जिंदगी अजीब है
मैं समझा था करीब है, ये औरों का नसीब है

अजनबी शहर है, अजनबी शाम है
बात है ये इक रात की, आप बादलों पे लेटे थे
हुं वो याद है आपने बुलाया था
सर्दी लग रही थी आपको,पतली चाँदनी लपेटे थे
और शाल में ख्वाब के सुलाया था
अजनबी ही सही, सांस में सिल गई
अजीब है ये जिंदगी ये जिंदगी अजीब है
मेरी नहीं ये जिंदगी रकीब का नसीब है ।


सोमवार, फ़रवरी 05, 2007

पायदान # 8: गुरु गुलजार की बेसुवादी रतिया में रहमान चिन्मयी की बतिया !

बीते ना बिताई रैना, बिरहा की जाई रैना
भीगी हुई अखियों ने लाख बुझाई रैना....
....चाँद की बिन्दी वाली, बिन्दी वाली रतियाँ
जागी हुई अखियों में रात ना आई रैना


रात का ये तनहा सफर गुलजार के लिए नया नहीं । परिचय के इस गीत की तरह कई बार इन मनोभावों को उभारा है उन्होंने ।
अब वैसे भी मन का मीत ही साथ ना हो तो शीतल, सलोनी , चाँदनी रात में इश्क का तड़का लगाएगा कौन ! फिर तो वो रात भी फीकी-फीकी बेस्वादी ही होगी ना !
इसी मुखड़े को सजाया है अपनी धुन से संगीतकार ए. आर. रहमान ने । और इसे गाया है रहमान के साथ युवा नवोदित गायिका चिन्मयी श्रीपदा ने । चिन्मयी बहुभाषाविद हैं, मनोविज्ञान की छात्रा हैं, बचपन से शास्त्रीय संगीत सीख रही हैं और खुशी की बात ये कि वो हमारी और आपकी तरह एक ब्लॉगर भी हैं । देखिये तो खुद क्या कहती हैं अपने चिट्ठे पर गुरु के गीतों की उनकी अदायगी के बारे में ।

"मुझे बस इतना याद है कि रहमान सर ने कहा कि अपनी आवाज को पूरी तरह बहने दो और गाओ । चाहे ऐसा करने पर तुम्हें ये क्यूँ ना लगे कि तुम अव्वल दर्जे की मूर्ख हो । वैसे तो मन का संकोच ना जाना था ना गया, पर ये जरूर हुआ कि दिमाग में कोई दीपक उस वक्त जरूर जल उठा और उसकी वजह से अपनी कम काबिलियत का अहसास जाता रहा । पर रिकार्डिंग के बाद अपनी गायिकी पर सवाल रह रह कर मन में फिर से उठने लगे । यहाँ तक की गीत सुनकर मुझे आपनी आवाज ही पहचान में नहीं आई । "

ये तो हुई गायिका की बात पर इस गीत का सबसे सशक्त पहलू इसकी धुन है जो धीरे धीरे दिलो दिमाग में चढ़ती है और फिर उसके बाद उतरने का नाम नहीं लेती ।गीत के बीच की बंदिश और भारतीय वाद्य यंत्रों का प्रयोग मन को खुश कर देने वाला है । रहमान ने इस गीत को नुसरत फतेह अली खाँ को अपनी ओर से श्रृद्धांजलि बताया है । तो चलिए आप सब भी ८ वीं पायदान की इस मधुर तान का आनंद उठायें ।

दम दारा दम दारा मस्त मस्त
दारा दम दारा दम दारा मस्त मस्त
दारा दम दारा दम दम
ओ हमदम बिन तेरे क्या जीना!
तेरे बिना बेसुवादी बेसुवादी रतिया, ओ सजना !
हो, रूखी रे ओ रूखी रे
काटू रे काटे कटे ना
तेरे बिना बेसुवादी बेसुवादी रतिया, ओ सजना !

ना जा, चाकरी के मारे
ना जा, सौतन पुकारे
सावन आएगा तो पूछेगा, ना जा रे
फीकी फीकी बेसुवादी ये रतिया
काटू रे कटे ना कटे ना
अब तेरे बिन सजना सजना, काटे कटे ना..
काटे ना.. काटे ना..तेरे बिना
तेरे बिना बेसुवादी बेसुवादी रतिया, ओ सजना !


तेरे बिनाऽऽऽ चाँद का सोना खोटा रे
पीली पीली धूल उड़ावे, झूठा रेऽऽऽ
तेरे बिन सोना पीतल, तेरे संग कीकर पीपल
आ जा कटे ना रतियाऽऽ
तेरे बिना बेसुवादी बेसुवादी रतिया, ओ सजना....




शनिवार, फ़रवरी 03, 2007

9 वीं पायदान : एक बार फिर अभिजीत की 'आवाज' के नाम...

जिंदगी में नाम की क्या अहमियत है..
शायद कुछ भी नहीं...
बस पुकारने का इक जरिया..
नाम बदल जाते हैं ...
चेहरे भी वक्त के साथ बदल जाते हैं..
पर दिल से निकली आवाज क्या बदल सकती है
नहीं कभी नहीं..क्योंकि वो तो दिल का आईना है..
और आईने कभी धोखा नहीं देते...



सत्तर के दशक की फिल्म 'किनारा' में यही बात गुलजार कह गए हैं
नाम गुम जाएगा , चेहरा ये बदल जाएगा
मेरी आवाज ही पहचान है, गर याद रहे



और इतने सालों बाद उसी सरसता से यही बात कही है गीतकार शाहीन इकबाल ने अभिजीत के इस एलबम लमहे में । कानपुर के इस गायक की इस गीतमाला में तीसरी और आखिरी पेशकश है । मैं नहीं जानता कि ये गीत आपको कितना पसंद आएगा पर मुझे इस गीत के बोल और अभिजीत की गायिकी दोनों पसंद हैं । तो पेश है नवीं पायदान का ये नग्मा




मैं रहूँ ना रहूँ मेरी आवाज...मैं रहूँ ना रहूँ मेरी आवाज..
तुम गूंजती हर जगह हर कदम पाओगे
मैं मिलूँ ना मिलूँ मेरे गीतों को तुम
जिंदगी की तरह हर कदम पाओगे...



मैं था जहाँ, हूँ मैं वहीं
बीता हुआ कल मैं नहीं
हर मोड़ पर, हर राह में
हर दर्द में , हर आह में
गुनगुनाऊँगा मैं, मुस्कुराऊँगा मैं
दिल की आबो हवा में याद आऊँगा मैं
याद आऊँगा मैं...
कुछ कहूँ, ना कहूँ मेरे गीतों को तुम
रोशनी की तरह , हर तरफ पाओगे
.
मैं आज हूँ, मैं कल भी हूँ
सदियाँ हूँ मैं, मैं पल भी हूँ
हर रंग में, हर रूप में
हर छांव में , हर धूप में
झिलमिलाऊँगा मैं, जगमगाऊँगा मैं
मौसमों की अदा में , याद आऊँगा मैं
मैं दिखूँ ना दिखूँ
मेरे अंदाज तुम, वक्त ही की तरह
हर तरफ पाओगे
मैं रहूँ ना रहूँ मेरी आवाज...मैं रहूँ ना रहूँ मेरी आवाज..
तुम गूंजती हर जगह हर कदम पाओगे


पिछले साल इसी जगह पर था यू बोमसी एंड मी के लिए नीरज श्रीधर का ये गीत कहाँ हो तुम मुझे बताओ ?

गुरुवार, फ़रवरी 01, 2007

वार्षिक संगीतमाला गीत # 10 : लमहा - लमहा दूरी यूँ पिघलती है ...

तो दोस्तों पिछले महिने में आखिरी की १५ सीढ़ियाँ चढ़कर हम आ पहुँचे हैं पायदान संख्या १० पर । इस सीढ़ी पर गीत वो जिसके बारे में पहले भी इस चिट्ठे पर यहाँ लिख चुका हूँ गीत के बोल के साथ । दुख की बात ये कि ये इस गीतमाला का दूसरा ऍसा गीत है जिसकी धुन चुराने का इलजाम संगीतकार प्रीतम के सिर है । अंतरजाल पर खोज करने से पता चला कि इसकी धुन पाकिस्तानी गायक वारिस बेग के गीत 'कल शब देखा मैंने...' से ली गई है । बेग साहब का गीत यहाँ उपलब्ध है। वैसे जब मैंने आरिजिनल गीत सुना तो प्रीतम का प्रस्तुतिकरण काफी बेहतर लगा। बस उन्हें खुद इस गीत के कॉपीराइट खरीदने चाहिए थे ।


खैर चोरी की ही सही, पर मुझे इस धुन से खासा लगाव है । और फिर अभिजीत की आवाज में ये गीत सुनकर जी हल्का सा हो जाता है और बरबस ही गीत को गुनगुनाने लगता हूँ। नीलेश मिश्र ने गीत को एक काव्यात्मक जामा पहनाने की कोशिश की है ।

गैंगस्टर के इस गीत को आप
यहाँ भी सुन सकते हैं ।

अब चूंकि अंतिम दस का सिलसिला शुरु हो चुका है तो ये भी जानते चलें कि पिछले साल इस सीढ़ी पर कौन सा नग्मा पदस्थापित था ?

पिछले साल इस पायदान पर थे रब्बी शेरगिल बुल्ला कि जाणा मैं कौन ? के साथ !

मंगलवार, जनवरी 30, 2007

गीत # 11: जगते जादू फूंकेंगे रे, नींदें बंजर कर देंगे, नैणा ठग लेंगे...

ग्यारहवीं पायदान पर गीतकार हैं एक बार फिर गुलजार अपनी एक सलाह के साथ !
और सलाह भी कैसी ?...उन मदहोश करने वाली आँखों से बच कर रहने की...
अब ये कोई आसान बात है क्या ?
तमाम शायर तो इनके तीखे बाणों से खुद को बचा नहीं पाए । (उसकी कहानी तो आपको
यहाँ पहले ही सुना चुके हैं ) अब ये हमें सिखा रहे हैं । आपको तो याद ही होगा कि स्वयं गुलजार ने पिछले साल कजरारी आँखों पर एक गीत क्या लिख दिया, जनता उन आँखों के जलवे देखने के लिए पूरी फिल्म ही देख आई । :p

खैर गंभीरता से देखें तो इस बात से इनकार भी तो नहीं किया जा सकता कि आँखें ठगती भी हैं । इनके इस रूप को गुलजार ने इन जुमलों में कितनी बारीकी से उभारा है..

जगते जादू फूकेंगी रे नीदें बंजर कर देंगी...नैणा ठग लेंगे..
या फिर
नैणों की जुबां पे भरोसा नहीं आता, लिखत पढ़त ना रसीद ना खाता !
इस गीत की धुन बनाई है विशाल भारद्वाज ने और इसे गाया है मशहूर सूफी गायक नुसरत फतेह अली खाँ के भतीजे राहत फतेह अली खाँ ने । राहत मेरी वार्षिक गीतमाला के लिए नये नहीं है । चाहे वो २००४ में पाप के लिए इनका गाया गीत लगन लागी तुम से मन की लगन हो या फिर २००५ में कलयुग का बेहद लोकप्रिय जिया धड़क धड़क जाए, ये हमेशा अपनी बेमिसाल गायकी से मेरे पसंदीदा गीतों में अपनी जगह बनाते रहे हैं ।

नैणों की मत मानियो रे, नैणों की मत सुनियो
नैणो की मत सुनियो रे ,नैणा ठग लेंगे
नैणा ठग लेंगे, ठग लेंगे, नैणा ठग लेंगे,
जगते जादू फूंकेंगे रे, जगते-जगते जादू
जगते जादू फूंकेंगे रे, नींदें बंजर कर देंगे, नैणा ठग लेंगे
नैणा ठग लेंगे, ठग लेंगे, नैणा ठग लेंगे
नैणों की मत मानियो रे.......

भला मन्दा देखे ना पराया ना सगा रे, नैणों को तो डसने का चस्का लगा रे
भला मन्दा देखे ना पराया ना सगा रे, नैणो को तो डसने का चस्का लगा रे
नैणो का जहर नशीला रे, नैणों का जहर नशीला.....
बादलों मे सतरंगियाँ बोवें, भोर तलक बरसावें
बादलों मे सतरंगियाँ बोवे, नैणा बावरा कर देंगे,नैणा ठग लेंगे
नैणा ठग लेंगे, ठग लेंगे, नैणा ठग लेंगे

नैणा रात को चलते-चलते, स्वर्गा मे ले जावें
मेघ मल्हार के सपने दीजे, हरियाली दिखलावें
नैणों की जुबान पे भरोसा नही आता, लिखत पढत ना रसीद ना खाता
सारी बात हवाई रे , सारी बात हवाई
बिन बादल बरसावें सावण, सावण बिण बरसाता
बिण बादल बरसाए सावन, नैणा बावरे कर देंगे, नैणा ठग लेंगे

नैणा ठग लेंगे, नैणा ठग लेंगे नैणा ठग लेंगे, नैणा ठग लेंगे
नैणों की मत मानियो रे.......
जगते जादू फूंकेंगे रे, जगते जगते जादू
नैणा ठग लेंगे, नैणा ठग लेंगे नैणा ठग लेंगे, नैणा ठग लेंगे




शुक्रवार, जनवरी 26, 2007

वार्षिक संगीतमाला गीत # १२ : कैसे ना हो कोई कैलाश का दीवाना !

मेरठ में जन्में बड़े हुए...फिर निकल पड़े दिल्ली अपने गुरू की तालाश में...!
खोज चलती रही, गुरू बदलते रहे...
१५ गुरूओं से शिक्षा ले चुके तो लगा कि क्यूँ ना अपने भाग्य को मायानगरी मुंबई में आजमाऊँ ।
मुंबई में जैसे-तैसे गुजारा चलने लगा ।
शुरू-शुरू में फकीरी का ये आलम था कि इनकी रातें अँधेरी स्टेशन के प्लेटफार्म पर कटा करती थीं।
और फिर इन्हें मौका मिला ऊपरवाले की खिदमत का एक सूफीनुमा गीत अल्लाह के बंदे के जरिये ..
और तबसे इनकी किस्मत ने ऍसा पलटा खाया कि पीछे मुड़ कर देखने की जरूरत इन्हें नहीं पड़ी ।

पुराने दिनों को याद कर आज भी फक्र से बताते है की स्टेशन का वो चायवाला इनका करीबी मित्र हुआ करता था।
आज जब अपनी काली होंडा सिटी से स्टेशन के बगल से गुजरते हें ऊपरवाले को धन्यवाद अवश्य करते हैं।

जी हाँ मैं भारत में सूफी गायिकी के मशहूर सितारे कैलाश खेर की ही बात कर रहा हूँ । ए. आर. रहमान उनके बारे में कहते हैं कि कैलाश के संगीत में गांव की मिट्टी की सोंधी खुशबू है ।

गीतमाला की इस १२ वीं सीढ़ी पर मौजूद है उनके एलबम कैलासा से लिया उनका स्वरचित गीत। इसकी धुन बनाई नरेश परेश की जोड़ी ने।ये गीत सुनें..सीधे सादे शब्दों से लिपटा हर रंग आपको प्रेम रस से रंगा मिलेगा ।


प्रीत की लत मोहे ऐसी लागी
हो गई मैं मतवारी
बलि बलि जाऊँ अपने पिया को
कि मैं जाऊँ वारी वारी
मोहे सुध बुध ना रही तन मन की
ये तो जाने दुनिया सारी
बेबस और लाचार फिरूँ मैं
हारी मैं दिल हारी..हारी मैं दिल हारी..

तेरे नाम से जी लूँ, तेरे नाम से मर जाऊँ..
तेरे जान के सदके में कुछ ऐसा कर जाऊँ
तूने क्या कर डाला ,मर गई मैं, मिट गई मैं
हो री...हाँ री..हो गई मैं दीवानी दीवानी

इश्क जुनूं जब हद से बढ़ जाए
हँसते-हँसते आशिक सूली चढ़ जाए
इश्क का जादू सर चढ़कर बोले
खूब लगा दो पहरे, रस्ते रब खोले
यही इश्क दी मर्जी है, यही रब दी मर्जी है,
तूने क्या कर डाला ,मर गई मैं, मिट गई मैं
हो री...हाँ री..हो गई मैं दीवानी दीवानी

कि मैं रंग-रंगीली दीवानी
कि मैं अलबेली मैं मस्तानी
गाऊँ बजाऊँ सबको रिझाऊँ
कि मैं दीन धरम से बेगानी
की मैं दीवानी, मैं दीवानी

तेरे नाम से जी लूँ, तेरे नाम से मर जाऊँ..
तेरे जान के सदके में कुछ ऐसा कर जाऊँ
तूने क्या कर डाला ,मर गई मैं, मिट गई मैं
हो री...हाँ री..हो गई मैं दीवानी दीवानी




बुधवार, जनवरी 24, 2007

गीत # 13 :प्रसून जोशी और नरेश अय्यर हो जाएँ जब ' रूबरू '

सीढ़ी बदली तो मूड भी बदलते हैं एक उमंग और मस्ती भरे गीत से जिसे लिखा विज्ञापन गुरु प्रसून जोशी ने और गाया नरेश अय्यर ने ।

ये इस गीतमाला में प्रसून जोशी की आखिरी इन्ट्री है । प्रसून की सबसे बड़ी उपलब्धि, मैं फिर मिलेंगे के उनके लिखे हुए गीतों को मानता हूँ। बड़ा बहुआयामी व्यक्तित्व है प्रसून का ! कहने को MBA हैं पर जा पहुँचे विज्ञापनों की दुनिया में । कोका कोला के विज्ञापन अभियान में विज्ञापन की अभिकल्पना उन्हीं की थी । अपने विज्ञापनों के जिंगल वे खुद गाते हैं और उससे भी जी नहीं भरता तो कविता करने बैठ जाते हैं । ऐसे सृजक से सालों साल कुछ नया , कुछ अनूठा सुनने को मिलता रहेगा, ऍसी उम्मीदे है ।

१३ वीं पायदान के इस गीत को एक निराले अंदाज में गाने वाले नरेश अय्यर की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं। मुम्बई के नरेश भाग लेने आए थे चैनल 'V' के सुपर सिंगर कार्यक्रम में । अब सुपर सिंगर प्रतियोगिता से तो पहले ही बाहर हो गए। ए.आर.रहमान ने जाते जाते उन्हें एक मौका देने का वायदा किया। और ये मौका नरेश को मिला रंग दे वसंती में। बाकी इस गीत ने युवा मन पर कितनी अमिट छाप छोड़ी ये तो सर्वविदित ही है ।

तो आइए सुनें इस ताजगी से भरे गीत को जो शुरू होता है गिटार की एक मधुर धुन से ! इसे सुन कर शायद महसूस करें आपके अंदर भी कहीं ना कहीं जल रही है। एक बार ये आग
बाहर नकल जाए तो अपने आस पास की कितनी ही जिंदगी को रौशन कर देगी ।

ऐ साला ! अभी अभी हुआ यकीं
कि आग है मुझमें कहीं
हुई सुबह मैं जल गया
सूरज को मैं निगल गया
रूबरू रोशनी...रूबरू रोशनी है

जो गुमशुदा, सा ख्वाब था, वो मिल गया
वो खिल गया..
वो लोहा था, पिघल गया
खिंचा खिंचा मचल गया
सितार में बदल गया
रूबरू रोशनी...रूबरू रोशनी है

धुआँ, छटा खुला गगन मेरा
नई डगर, नया सफर मेरा
जो बन सके तू हमसफर मेरा, नजर मिला जरा...

आँधियों से झगड़ रही है लौ मेरी
अब मशालों सी बढ़ रही है लौ मेरी
नामो निशान रहे ना रहे
ये कारवां रहे ना रहे
उजाला मैं पी गया
रोशन हुआ, जी गया
क्यूँ सहते रहे....
रूबरू रोशनी...रूबरू रोशनी है
धुआँ, छटा खुला गगन मेरा
रूबरू रोशनी...रूबरू रोशनी है


रविवार, जनवरी 21, 2007

गीत #14 : गुलजार, जगजीत और मैं.....क्या बतायें कि जां गई कैसे ?

इस गीतमाला की 14 वीं कड़ी संगम है उन दो शख्सियतों की जिन्होंने मेरी गीत-संगीत की रुचियों पर खासा असर डाला है । हाईस्कूल से लेकर आज तक मैंने इन्हें बड़े चाव से सुना है । पहले बात जगजीत सिंह की । मेरे ख्याल में उर्दू शायरी को मेरी पीढ़ी में लोकप्रिय बनाने में सबसे बड़ा हाथ उन्हीं का है। भले ही अब उनकी गायिकी पुराने दिनों की तरह वो असर नहीं छोड़ती फिर भी जगजीत ,जग जीत ही हैं। उनके जैसा गजल गायक कम से कम भारत में कोई दूसरा नहीं हुआ । 

और गुलजार..... उनकी तो बात ही क्या है। उनके गीत देखकर ही पले-बढ़े हैं। आज भी उनके हर एक नए एलबम का बेसब्री से इंतजार रहता है । और यही वजह है कि यहाँ से पहली सीढ़ी तक इस गीतमाला में सात बार वो आपके साथ होंगे ।



गुलजार के गीत/गजल अपनी तरह के होते हैं । शब्द तो वो मामूली इस्तेमाल करते हैं पर उनके मायने इतने सीधे नहीं होते । उसके लिए आपको धीरे -धीरे उनकी तह तक पहुँचना पड़ता है । गुलजार से आप अगर सीधे पूछ लें कि इन पंक्तियों से वो क्या मायने निकालते हैं तो अक्सर उनका जवाब यही रहता है कि वे इसकी व्याख्या कर श्रोताओं की सोच का दायरा संकुचित नहीं करना चाहते ।

तो चलें गुलजार जगजीत के साथ इस गजल के सफर पर...

उड़ कर जाते हुये पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलाती रही वो शाख फिजा में

अलविदा कहती थी या पास बुलाती थी उसे ?



कभी उन पुराने पलों में झांकिए। क्या उनमें से कुछ ऐसे नहीं जिन्हें आप हरगिज जीना नहीं चाहते । शायद वो पल कुछ ऐसे सवालों की याद दिला दें जिनके बारे में सोचना ही बेहद तकलीफ देह हो ।
क्या बतायें कि जां गई कैसे ?
फिर से दोहरायें वो घड़ी कैसे ?


कभी यूँ हुआ हो कि जिंदगी के रास्तों में कोई चाँद सा मिल गया हो... अरे मिला तो था तभी तो सीने की वो कसक रह रह कर उभरती है...
किसने रस्ते में चाँद रखा था
मुझको ठोकर वहाँ लगी कैसे ?


समय से आगे दौड़ने की कोशिश करना कभी कभी बहुत भारी पड़ता है...वो कहते हैं ना सब काम अपने नियत वक्त पर होते हैं फिर ये आपाधापी क्यों?
वक्त पे पाँव कब रखा हमने
जिंदगी मुँह के बल गिरी कैसे ?


प्यार में रुसवाई हुई पर दिल की ये जलन चुप चाप इन आँसुओं ने आत्मसात कर ली। पर नैनों की ये तपिश क्या किसी से छुप सकती है...जिधर भी पड़ेंगी कुछ तो जलायेंगी ही ।
आँख तो भर गई थी पानी से
तेरी तसवीर जल गई कैसे ?


इतने दिनों का साथ क्या कोई यूँ ही भूल सकता है भला। तुमने तो बस कह दिया कि मेरे जेहन में तुम नहीं आते तो क्या मैं मान लूँ ?  यहाँ ये हिचकियाँ तो कुछ और कहानी कह रहीं हैं ।
हम तो अब याद भी नहीं करते
आपको हिचकी लग गई कैसे ?




शनिवार, जनवरी 20, 2007

गीत # 15 : ये हौसला कैसे झुके, ये आरजू कैसे रुके..

इंसान की इच्छाओं की कोई सीमा नहीं...
अपने जीवन में हम कितने सपने बुनते हैं...
आने वाले कल से कितनी आशाएँ रखते हैं...
और उन्हें पाने की कोशिश भी करते हैं...
पर क्या हमारे सारे प्रयास क्या सफल हो पाते हैं ? नहीं..
और फिर आता है असफलता से उत्पन्न निराशा और हताशा का दौर
इतिहास गवाह है कि जो लोग इस मुश्किल वक्त में अपनी नाकामियों को जेहन से दूर रख अपने प्रयास उसी जोश ओ खरोश के साथ जारी रखते हैं सफलता उनका कदम चूमती है ।


१५ वीं पायदान का ये गीत इंसान की इसी Never Say Die वाली भावना को पुख्ता करता है। इसे बेहद खूबसूरती से गाया है पाकिस्तान के उदीयमान गायक शफकत अमानत अली खाँ ने। वैसे तो इनकी चर्चा इस गीतमाला में आगे भी होनी है पर जो लोग इन्हें नहीं जानते उनके लिए इतना बताना मुनासिब होगा कि वे उस्ताद अमानत अली खाँ के सुपुत्र हें और शास्त्रीय संगीत के पटियाला घराने से ताल्लुक रखते हैं।
डोर के इस गीत की धुन बनाई है, सलीम सुलेमान मर्चेंट की युगल जोड़ी ने और गीत के बेहतरीन बोलों का श्रेय जाता है जनाब मीर अली हुसैन को !
तो मेरी सलाह यही है दोस्तों कि जब भी दिल में मायूसियाँ अपना डेरा डालने लगें ये गीत आप अवश्य सुनें । आपके दिल की आवाज आपको उत्साहित करेगी उस लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए जिसे हासिल करने का स्वप्न आपने दिल में संजोया हुआ है ।

ये हौसला कैसे झुके, ये आरजू कैसे रुके ?
मंजिल मुश्किल तो क्या,
धुंधला साहिल तो क्या
तनहा ये दिल तो क्या होऽऽ

राह पे काँटे बिखरे अगर
उसपे तो फिर भी चलना ही है
शाम छुपा ले, सूरज मगर
रात को इक दिन ढलना ही है
रुत ये टल जाएगी, हिम्मत रंग लाएगी
सुबह फिर आएगी होऽऽ
ये हौसला कैसे झुके, ये आरजू कैसे रुके ?


होगी हमें जो रहमत अदा
धूप कटेगी साये तले
अपनी खुदा से है ये दुआ
मंजिल लगा ले हमको गले
जुर्रत सौ बार रहे,
ऊँचा इकरार रहे,
जिंदा हर प्यार रहे होऽऽ

ये हौसला कैसे झुके, ये आरजू कैसे रुके ?


बुधवार, जनवरी 17, 2007

गीत # 16 : ये साजिश है बूंदों की , देखो ना देखो ना....

तो थोड़ा सा रूमानी हुआ जाए :) ?

कम से कम इस गीत को सुनने के बाद कुछ असर तो होगा जरूर, अगर वो भी आस पास हो कहीं :p
पेश है १६ वीं पायदान पर एक बेहद ही रोमांटिक गीत जिसे अपनी आवाज से संवारा सोनू निगम और सुनिधि चौहान ने। इसकी मोहक धुन बनाई जतिन-ललित ने । फना के इस गीत को लिखा प्रसून जोशी ने और मुझे ये गीत बोल के लिहाज से सबसे प्यारा लगता है ।

बारिश की गिरती बूंदों के साथ गर बलखाती मस्त हवा हो तो दिल में पहले सी सुलगती आग को भड़कने से भला कौन रोक सकता है?

बाद में भले आप सारा इलजाम उस मुयी बेशर्म सी हवा पर लगायें .....
या आसमान से लगातार रिसती उस फुहार पर जिसकी संगत में आपके हमसफर का रूप कुछ यूँ निखर आया कि ख्वाहिशें बेलगाम हो उठीं ।

अब ऍसे ही कुछ हालातों को सोनू और सुनिधि मिल कर दिखा रहे हैं , आप भी देखिए ना ....

ये साजिश है बूंदों की , कोई ख्वाहिश है चुप-चुप सी
देखो ना, देखो ना....देखो ना, देखो ना....
हवा कुछ हौले-हौले, जुबां से क्या कुछ बोले
क्यूँ दूरी है अब दरमियांऽऽ, देखो ना देखो ना....

फिर ना हवायें होगीं इतनी बेशरम
फिर ना डगमग-डगमग होंगे ये कदम
हाऽऽ ! सावन ये सीधा नहीं खुफिया बड़ा
कुछ तो बरसते हुए कह रहा
समझो ना , समझो ना...समझो ना , समझो ना...
हवा कुछ हौले हौले.....

जुगनू जैसी चाहत देखो जले बुझे
मीठी सी मुश्किल है कोई क्या करे ?
हम्म..... होठों की अर्जी ठुकराओ ना
सासों की मर्जी को झुठलाओ ना
छू लो ना, छू लो ना....छू लो ना, छू लो
हवा कुछ हौले-हौले, जुबां से क्या कुछ बोले
ना दूरी है अब दरमियांऽऽ, देखो ना देखो ना....


मंगलवार, जनवरी 16, 2007

वार्षिक गीतमाला गीत # 17: सुबह-सुबह ये क्या हुआ....

कभी परेशान तो कभी हैरान करती जिंदगी ...
रोज रोज की वही चिर परिचित आपा - धापी ...
जी नहीं करता आपका कि निकल पड़ें कभी उस अनजान राह की ओर...
चिन्ताओं को दिलो दिमाग से दूर झटकते हुए..


क्या कहा ? कैसी बात करता हूँ !
पहले तो आफिस से छुट्टी नहीं मिलेगी...और अगर मिल भी गई तो कौन सी हवा और फिजा साथ होगी... लटक जाएगी घरवाली हमारे नमूनों के साथ ...हम्मम..आपकी बात तो गौर करने की है..कोई नहीं जी हम आपको दूसरा आसान सा नुस्खा बताए देते हैं। बस झटपट अच्छे मन से ये स्फूर्तिदायक गीत सुनिए, आप शर्तिया मन को तरो -ताजा और हल्का महसूस करेंगे ।
वार्षिक संगीतमाला की १७ वीं पायदान के इस गीत को गाया है एक नवोदित गायक ने । इनका ताल्लुक एक ऐसे राज्य से है जिस राज्य ने भूपेन हजारिका जैसे महारथी भारतीय फिल्म जगत को दिए हैं यानि असम से । जी, मैं बात कर रहा हूँ जुबीन गर्ग साहब की जो इस साल पहली बार चर्चा में आए गैंगस्टर के अपने हिट गीत या अली..... के साथ ! इनकी आवाज का जादू ये है कि इस गीत को आप तक पहुँचाते पहुँचाते मैं खुद इसे गुनगुना उठा हूँ..अरे तो फिर आप चुप क्यूँ हैं ? शुरू हो जाइए ना....


सुबह सुबह ये क्या हुआ
ना जाने क्यूँ अब मैं हवाओं में, चल रहा हूँ
नई सुबह, नई जगह,नई तरह से नयी दिशाओं में चल रहा हूँ
नई -नई हैं मेरी नजर, या हैं नजारे नए
या देखते ख्वाब मैं, चल रहा हूँ

सुबह-सुबह ये क्या हुआ
ना जाने क्यूँ अब मैं हवाओं में, चल रहा हूँ
नई सुबह, नई जगह, नई नजर से नजारे मैं देखता हूँ
ये गुनगुनाता हुआ समां, ये मुसकुराती फिजा
जहान के साथ मैं चल रहा हूँ
सुबह-सुबह ये क्या हुआ....

जो अभी है उसी को जी लें, जो जिया वो जी लिया
वो नशा पी लिया
कल नशा है इक नया जो, ना किया तो क्या जिया
हर पल को पी के अगर दिल ना भर दिया
सुबह-सुबह ये क्या हुआ....
ना जाने क्यूँ अब मैं हवाओं में, चल रहा हूँ


चलचित्र I See You ! के इस गीत की कर्णप्रिय धुन बनाई विशाल- शेखर की जोड़ी ने और बोल लिखे खुद विशाल ने ।

रविवार, जनवरी 14, 2007

गीत # 18 : मोहे मोहे तू रंग दे बसन्ती.....

बिन रंगों के जिंदगी कितनी सादी, कितनी मनहूसियत लिये होगी...
ऍसी जिंदगी की कल्पना करते हुए भी डर सा लगता है, एक उलझन सी होती है
मुझे तो लगता है कि रंग जिंदगी के उर्जा स्रोत हैं..
हमारे मनोभावों को उत्प्रेरित करने की अचूक शक्ति है इनमें..
बस इनमें को अपने आप को घोलते घुलाते रहिए जिंदगी का सफर सानन्द कट जाएगा..


और ऍसे ही एक रंग में रंग डाला है प्रसून जोशी साहब ने अपने आप को । सन २००४ में भी 'फिर मिलेंगे' के अपने काव्यमय गीतों से उन्होंने मेरा मन जीत लिया था । १८ वीं सीढ़ी पर
खड़े रंग दे बसन्ती के इस गीत में एक मस्ती है..एक उमंग है जो दिल को सहजता से छू लेती है। इस गीत की धुन बनाई है ए. आर. रहमान ने और अपनी जोशीले स्वर में इसे गाया है दलेर मेंहदी ने ।

थोड़ी सी धूल मेरी, धरती की मेरे वतन की
थोड़ी सी खुशबू बौराई सी, मस्त पवन की
थोड़ी सी धौंकने वाली धक-धक धक-धक धक-धक साँसें
जिन में हो जुनूं-जुनूं वो बूंदें लाल लहू की
ये सब तू मिल मिला ले फिर रंग तू खिला खिला ले
और मोहे तू रंग दे बसन्ती यारा मोहे तू रंग दे बसन्ती

सपने रंग दे, अपने रंग दे
खुशियाँ रंग दे, गम भी रंग दे
नस्लें रंग दे, फसलें रंग दे
रंग दे धड़कन, रंग दे सरगम
और मोहे तू रंग दे बसन्ती यारा मोहे तू रंग दे बसन्ती

धीमी आँच पे तू जरा इश्क चढ़ा
थोड़े झरने ला, थोड़ी नदी मिला
थोड़े सागर ला, थोड़ी गागर ला
थोड़ा छिड़क छिड़क, थोड़ा हिला हिला
फिर एक रंग तू खिला खिला
मोहे मोहे तू रंग दे बसन्ती यारा मोहे तू रंग दे बसन्ती

बस्ती रंग दे, हस्ती रंग दे
हँस-हँस रंग दे, नस -नस रंग दे
बचपन रंग दे जोबन रंग दे
रंगरेज मेरे सब कुछ रंग दे
मोहे मोहे तू रंग दे बसन्ती यारा मोहे तू रंग दे बसन्ती


शुक्रवार, जनवरी 12, 2007

गीत # 19 : चाँद सिफारिश जो करता हमारी, देता वो तुमको बता

कार्यालय के काम - काज से मुझे बैंगलूरू के पास भद्रावती में जाना पड़ा और इसी वजह से इस गीतमाला पर मुझे लेना पड़ गया चार दिनों का दीर्घ विराम ।

खैर, अब वापस आ गया हूँ एक बार फिर सीढ़ियाँ चढ़ने की कवायद जारी रखने !

१९ वीं पायदान पर के इस गीत में कई खास बाते हैं । पहली तो ये के इसके गीतकार, संगीतकार और यहाँ तक की गायक भी पहली बार इस गीतमाला में तशरीफ रख रहे हैं । इस गीत को लिखा प्रसून जोशी ने, धुन बनाई जतिन-ललित ने और गायक वो जिनके आज ही साक्षात दर्शन करने का सुअवसर मिला । जी हाँ मैं 'शान' की ही बात कर रहा हूँ । आज बैंगलूरू से कोलकाता की विमान यात्रा खत्म हुई तो पाया कि जनाब हमारे साथ ही सफर कर रहे हैं । खैर सामने ना सही पर टी वी स्क्रीन पर सा रे गा मा...कार्यक्रम में आप सब इन से रूबरू हो चुके होंगे । वैसे २००० में उनके एलबम 'तनहा दिल' की सफलता के बाद से शान यानि शान्तनु मुखर्जी ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा । इस गीत की लोकप्रियता में शान की सुरमयी आवाज का काफी हाथ है।

और गर ये गीत आपने ध्यान से सुना हो तो जतिन-ललित ने यहाँ ताली का इस्तेमाल एक निराले ढंग से किया जो निश्चय ही तारीफ योग्य है।

चाँद सिफारिश जो करता हमारी, देता वो तुमको बता
शर्म - ओ - हया के पर्दे गिरा के, करनी है हमको खता..
जिद है अब तो है खुद को मिटाना, होना है तुझमें फना


चलते चलते एक सवाल आप सब से..क्या आपको पता है कि इस गीत की शुरुआत में सुभान अल्लाह की मधुर तान किसने छेड़ी है ?



इस गीत के पूरे बोल
यहाँ पढ़ सकते हैं ।
 

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