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सोमवार, मई 06, 2024

वार्षिक संगीतमाला 2023 : पल ये सुलझे सुलझे उलझे हैं क्यूँ ?

जावेद अख़्तर साहब की इस बात से हमेशा से इत्तेफाक़ रखता हूँ कि किसी भी गीत की धुन उसका बाहरी रूप होता है जो हमें पहले अपनी ओर आकर्षित करता है। पर गीत के बोल गीत की आत्मा होते हैं। मेरी समझ से अगर गीत की धुन अच्छी नहीं होगी तो उसकी तरफ आप उन्मुख ही नहीं होंगे पर अगर आप उससे आकर्षित हो गए हैं तो ये साथ तभी हमेशा हमेशा के लिए बना रहेगा अगर गीत के बोल आपके दिल को छू लें। अब जब 2023 के बेहतरीन गीतों को इस शृंखला में बस चार गीत ही बचे हैं तो मैं ये कह सकता हूँ कि इन गीतों की धुन तो आकर्षक है ही पर इनके बोल भी पिछले साल से अभी तक मेरे दिल में घर बना चुके हैं।
 

वार्षिक संगीतमाला में शामिल होने वाले इस गीत को आपमें से ज्यादातर लोगों ने नहीं सुना होगा। ये गीत है फिल्म तरला का जो कि मशहूर पाककला विशेषज्ञ तरला दलाल के जीवन से प्रेरित है। 

संसार में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसमें कोई ना कोई प्रतिभा ना हो। हाँ ये अलग बात है कि हममें से बहुत कम उस प्रतिभा को लगातार माँजते हुए समाज के सामने ले जाने का साहस कर पाते हों। घर व बच्चों की जिम्मेदारी में फँसी बहुत सारी गृहणियों के लिए तो ये आज  भी मुश्किल है कि वे घर के बाहर अपनी पहचान बना पाएँ। तरला दलाल ने ये किया और क्या खूब किया लेकिन अपना मुकाम बनाने के इस संघर्ष में वो कितनी बार अपनी प्रतिभा और परिवार को एक साथ ना ले चल पाने की ग्लानि से त्रस्त रहीं।

छोटे बच्चों की देखभाल, पति और सगे संबंधियों की अपेक्षाएँ और अपना एक अलग मुकाम बनाने की ललक इन सबके बीच क्या करें क्या छोड़ें की उधेड़बुन के बीच फँसी तरला के मनोभावों को गीतकार मनोज यादव ने बेहतरीन अंदाज़ में उभारा है। मिसाल के लिए गीत का ये मुखड़ा देखिए

पल ये सुलझे सुलझे उलझे हैं क्यूँ ?
ऐसे रूठे रूठे सिरे हैं क्यूँ ?
जो बनाने चले तो बिगड़ क्यूँ गया ?
आँख खोली ही थी आँसू गड़ क्यूँ गया ?
है जो खोया खोया मिले ना क्यूँ ?
हम थे जैसे वैसे रहे ना क्यूँ ?

मनोज ने स्कूल में कविता लिखना ही गुलज़ार से प्रभावित हो कर किया था और इसीलिए तो वो ऐसी पंक्तियाँ लिख पाए हैं कि नींद को देखकर ख़्वाब डर क्यूँ गया ?.... रात होने को थी चाँद झर क्यूँ गया ? ..पल जो आया नहीं वो गुजर क्यूँ गया ?... फेर करके नज़र घर किधर को गया ?


सुहित अभ्यंकर

मैं थी पन्ना तुम कहानी, एक माँगी ज़िंदगानी
एक छींटा लिपटा ऐसे, शब्द भींगे नम है किस्से
नींद को देखकर ख़्वाब डर क्यूँ गया ?
रात होने को थी चाँद झर क्यूँ गया ?
हम तो हम थे क्यूँ हैं मैं और तुम ?
रुहदारी दर्मियाँ क्यूँ है गुम ?
है जो खोया खोया मिले ना क्यूँ ?
हम थे जैसे वैसे रहे ना क्यूँ ?

इस गीत के संगीतकार हैं सुहित अभ्यंकर। पुणे से ताल्लुक रखने वाले 33 वर्षीय सुहित मराठी फिल्मों में नवोदित संगीतकार और गायक के रूप में जाने जाते हैं। इस गीत के धीर गंभीर मूड को बारीकी से पकड़ने के लिए उन्होंने गिटार के साथ इसराज का प्रयोग किया है। क्या खूब बजाया है इसराज अरशद खान ने। अरशद बंगाल से आए इस वाद्य यंत्र के अग्रणी वादकों में अपना स्थान रखते हैं। दिलरुबा के नाम से भी जाना जाने वाला ये वाद्य यंत्र ऊपर से सितार और नीचे से सारंगी जैसा दिखता है। इस गीत के दो वर्जन हैं जिसमें एक तो रेखा भारद्वाज ने गाया है और दूसरा सुहित ने।

रेखा जी की गायिकी के तो हम सभी कायल हैं। उनकी आवाज़ में एक ठसक के साथ ठहराव भी है जिसकी इस गीत को जरूरत थी। 

 

सुहित की आवाज़ में इस गीत का एक और अंतरा जिसका प्रयोग फिल्म में तो नहीं हुआ पर वो इस एल्बम का हिस्सा है।

सारी समझें नासमझ थीं, गलतियों ने गलती कर दी
फिक्रें मेरी बेवज़ह थीं, मैं ही मैं था तुम कहाँ थी ?
पल जो आया नहीं वो गुजर क्यूँ गया ?
फेर करके नज़र घर किधर को गया ?
जख्म ढूँढे मरहम मिले ना क्यूँ ?
है जो खोया खोया मिले ना क्यूँ ?
हम थे जैसे वैसे रहे ना क्यूँ ?


वार्षिक संगीतमाला 2023 में मेरी पसंद के पच्चीस गीत
  1. वो तेरे मेरे इश्क़ का
  2. तुम क्या मिले
  3. पल ये सुलझे सुलझे उलझें हैं क्यूँ
  4. कि देखो ना बादल..नहीं जी नहीं
  5. आ जा रे आ बरखा रे
  6. बोलो भी बोलो ना
  7. रुआँ रुआँ खिलने लगी है ज़मीं
  8. नौका डूबी रे
  9. मुक्ति दो मुक्ति दो माटी से माटी को
  10. कल रात आया मेरे घर एक चोर
  11. वे कमलेया
  12. उड़े उड़नखटोले नयनों के तेरे
  13. पहले भी मैं तुमसे मिला हूँ
  14. कुछ देर के लिए रह जाओ ना
  15. आधा तेरा इश्क़ आधा मेरा..सतरंगा
  16. बाबूजी भोले भाले
  17. तू है तो मुझे और क्या चाहिए
  18. कैसी कहानी ज़िंदगी?
  19. तेरे वास्ते फ़लक से मैं चाँद लाऊँगा
  20. ओ माही ओ माही
  21. ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
  22. मैं परवाना तेरा नाम बताना
  23. चल उड़ चल सुगना गउवाँ के ओर
  24. दिल झूम झूम जाए
  25. कि रब्बा जाणदा

    बुधवार, जनवरी 31, 2024

    वार्षिक संगीतमाला 2023 : ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते

    वार्षिक संगीतमाला में अब तक आपने कुछ रूमानी और कुछ थिरकते गीतों का आनंद उठाया पर आज जिस गीत का चुनाव मैंने किया है उसका मिज़ाज मन को धीर गंभीर करने वाला है और मेरा विश्वास है कि उसमें निहित संदेश आपको अपने समाज का आईना जरूर दिखाएगा। 

    हिंदी फिल्मों में फ़ैज़ की नज़्मों और ग़ज़लों का बारहा इस्तेमाल किया गया है। कभी किरदारों द्वारा उनकी कविता पढ़ी गयी तो कभी उनके शब्द गीतों की शक़्ल में रुपहले पर्दे पर आए। फ़ैज़ की शायरी की एक खासियत थी कि उन्होने रूमानी शायरी के साथ साथ तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक हालातों पर भी लगातार अपनी लेखनी चलाई और इसीलिए जनमानस ने उन्हें बतौर शायर एक ऊँचे ओहदे से नवाज़ा। लोगों ने जितने प्रेम से मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग को पसंद किया उतने ही जोश से सत्ता के प्रति प्रतिकार को व्यक्त करती उनकी नज़्म हम देखेंगे को भी हाथों हाथ लिया।



    फ़ैज़ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक थे। सर्वहारा वर्ग के शासन के लिए वो हमेशा अपनी नज़्मों से आवाज उठाते रहे। बोल की लब आजाद हैं तेरे....उनकी एक ऐसी नज़्म है जो आज भी जुल्म से लड़ने के लिए आम जनमानस को प्रेरित करने की ताकत रखती है। पिछले कुछ वर्षों में उनकी नज़्म के इस रंग को हिंदी फिल्मों में लगातार जगह मिली हो। कुछ साल पहले पल्लवी जोशी ने Buddha In A Traffic Jam'.फ़क़त चंद रोज़ मेरी जान को आवाज़ दी थी। नसीरुद्दीन शाह एक फिल्म में ये दाग दाग उजाला को अपनी आवाज़ दे चुके हैं। हैदर में उनकी ग़ज़ल का इस्तेमाल करने वाले विशाल भारद्वाज ने इस बार पिछले साल की शुरुआत में कुत्ते फिल्म के शीर्षक गीत के तौर पर फ़ैज़ की इसी नाम की नज़्म का इस्तेमाल किया।

    अपने समाज के दबे कुचले, बेघर, बेरोजगार, आवारा फिरती आवाम में जागृति जलाने के उद्देश्य से फैज ने प्रतीकात्मक लहजे में उनकी तुलना गलियों में विचरते आवारा कुत्तों से की। किस तरह आम जनता नेताओं, रसूखदारों, नौकरशाहों के खुद के फायदे के लिए उनकी चालों में मुहरा बन कर भी अपना दर्द चुपचाप सहती रहती है, ये नज़्म उसी ओर इशारा करती है।

    ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
    कि बख्शा गया जिनको ज़ौक़ ए गदाई*
    ज़माने की फटकार सरमाया** इनका
    जहां भर की दुत्कार इनकी कमाई

    ना आराम शब को ना राहत सवेरे
    ग़लाज़त*** में घर , नालियों में बसेरे
    जो बिगड़ें तो एक दूसरे से लड़ा दो
    जरा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो
    ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
    ये फ़ाक़ों से उकता के मर जाने वाले
    ये मज़लूम मख़्लूक़^ गर सर उठाये
    तो इंसान सब सरकशीं^^ भूल जाए
    ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें
    ये आकाओं की हड्डियाँ तक चबा लें
    कोई इनको एहसासे ज़िल्लत^^^ दिला ले
    कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे

    *भीख मांगने की रुचि **संचित धन ***गंदगी ^ आम जनता ^^घमंड ^^^ अपमान की अनुभुति

    फैज को विश्वास था कि गर आम जनता को अपनी ताकत का गुमान हो जाए तो वो बहुत कुछ कर सकती है।रेखा भारद्वाज की आवाज़ में ये नज़्म हमारे हालातों पर करारी चोट करती हुई दिल तक पहुँचती है। विशाल कोरस में भौं भौं का अनूठा प्रयोग करते हैं। इस भूल जाने वाले एल्बम में ये नज़्म एकमात्र ऐसा नगीना है जिसे लोग कई दशकों बाद तक याद रखेंगे।
      
     

    वार्षिक संगीतमाला 2023 में मेरी पसंद के पच्चीस गीत
    1. वो तेरे मेरे इश्क़ का
    2. तुम क्या मिले
    3. पल ये सुलझे सुलझे उलझें हैं क्यूँ
    4. कि देखो ना बादल..नहीं जी नहीं
    5. आ जा रे आ बरखा रे
    6. बोलो भी बोलो ना
    7. रुआँ रुआँ खिलने लगी है ज़मीं
    8. नौका डूबी रे
    9. मुक्ति दो मुक्ति दो माटी से माटी को
    10. कल रात आया मेरे घर एक चोर
    11. वे कमलेया
    12. उड़े उड़नखटोले नयनों के तेरे
    13. पहले भी मैं तुमसे मिला हूँ
    14. कुछ देर के लिए रह जाओ ना
    15. आधा तेरा इश्क़ आधा मेरा..सतरंगा
    16. बाबूजी भोले भाले
    17. तू है तो मुझे और क्या चाहिए
    18. कैसी कहानी ज़िंदगी?
    19. तेरे वास्ते फ़लक से मैं चाँद लाऊँगा
    20. ओ माही ओ माही
    21. ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
    22. मैं परवाना तेरा नाम बताना
    23. चल उड़ चल सुगना गउवाँ के ओर
    24. दिल झूम झूम जाए
    25. कि रब्बा जाणदा

      शनिवार, जनवरी 23, 2016

      वार्षिक संगीतमाला 2015 पायदान # 15 : घुटता हैं दम दम.. दम दम घुटता है Dum Ghutta hai

      वार्षिक संगीतमाला के तीन हफ्तों से सफ़र में अब बारी है पिछले साल के मेरे सबसे प्रिय पन्द्रह गीतों की और पन्द्रहवीं पायदान पर जो गीत है ना जनाब उसमें प्रेम, विरह, खुशी जैसे भाव नहीं बल्कि एक तरह की पीड़ा और  दबी  सी घुटन है जो सीने से बाहर आने के लिए छटपटा रही है पर कुछ लोगों का डर ने उसे बाहर आने से रोक रखा है। पर इससे पहले कि मैं आपको इस गीत के बारे में बताऊँ आपसे एक रोचक तथ्य को बाँट लेता हूँ। जानते हैं काम मिलने के बाद संगीतकार व गीतकार ने सोचा हुआ था कि इस फिल्म के लिए वो कोई मस्त सा आइटम नंबर लिखेंगे। पर उनके मंसूबों पर पानी तब फिरा जब फिल्म के निर्देशक निशिकांत कामत ने उनसे आकर ये कहा कि मैं आपसे फिल्म सदमा के गीत ऐ ज़िंदगी गले लगा ले.. जैसा गीत बनवाना चाहता हूँ। 


      ये फिल्म थी दृश्यम और संगीतकार गीतकार की जोड़ी थी विशाल भारद्वाज और गुलज़ार की। विशाल इस फर्माइश को सुनकर चौंक जरूर गए पर मन ही मन खुश भी हुए ये सोचकर कि आज के दौर में ऐसे गीतों की माँग कौन करता है? विशाल फिल्म के निर्माता कुमार मंगत पाठक के बारे में कहते हैं कि ओंकारा के समय से ही मैंने जान लिया था कि अगर कुमार जी से पीछा छुड़ाना हो तो उन्हें एक अच्छा गीत बना के देना ही होगा। यानि निर्माता निर्देशक चाहें तो गीत की प्रकृति व गुणवत्ता पर अच्छा नियंत्रण रख सकते हैं।

      बकौल विशाल भारद्वाज ये गीत बहुत चक्करों के बाद अपने अंतिम स्वरूप में आया। दम घुटता है का मुखड़ा भी बाद में जोड़ा गया। पहले सोचा गया था कि ये गीत राहत फतेह अली खाँ की आवाज़ में रिकार्ड किया जाएगा। फिर विशाल को लगा कि गीत एक स्त्री स्वर से और प्रभावी बन पाएगा। तो रिकार्डिंग से रात तीन बजे लौटकर उन्होंने अपनी पत्नी व गायिका रेखा भारद्वाज जी से कहा कि क्या कल कुछ नई कोशिश कर सकती हो? रिकार्डिंग के लिए तुम्हें भी साढ़े दस बजे जाना पड़ेगा। अक्सर विशाल को रेखा उठाया करती हें पर उस दिन विशाल ने रेखा जी को साढ़े नौ बजे उठाते हुए कहा कि आधे घंटे थोड़ा रियाज़ कर लो फिर चलते हैं। ग्यारह बजे तक बाद रेखा विशाल के साथ स्टूडियो में थीं। पहले की गीत रचना को बदलते हुए विशाल ने रेखा जी के हिस्से उसी वक़्त रचे और फिर दोपहर तक राहत की आवाज़ के साथ मिक्सिंग कर गीत अपना अंतिम आकार ले पाया।

      एक व्यक्ति की अचानक हुए हादसे में हत्या का बोझ लिए एक परिवार के मासूम सदस्यों की आंतरिक बेचैनी को व्यक्त करने का जिम्मा दिया गया था गुलज़ार को और शब्दों के जादूगर गुलज़ार ने मुखड़े में लिखा

      पल पल का मरना
      पल पल का जीना
      जीना हैं कम कम
      घुटता हैं दम दम दम दम दम दम दम दम दम दम घुटता है


      उजड़े होठों , सहमी जुबां, उखड़ती सांसें, रगों में दौड़ती गर्मी जो जलकर राख और धुएँ में तब्दील हो जाना चाहती हो और अंदर से डर इतना कि इंसान अपनी ही परछाई से भी घबराने लगे। कितना सटीक चित्रण है ऐसे हालात में फँसे किसी इंसान का। गुलज़ार ने इन बिंबों से ये जतला दिया कि एक अच्छे गीतकार को व्यक्ति के अंदर चल रही कशमकश का, उसके मनोविज्ञान का पारखी होना कितना जरूरी है नहीं तो व्यक्ति के अंदर की घुटन की आँच को शब्दों में वो कैसे उतार पाएगा? 

      तो आइए एक बार फिर से सुनें ये बेहतरीन नग्मा..


      दुखता हैं दिल दुखता हैं
      घुटता हैं दम दम घुटता हैं
      डर हैं अन्दर छुपता हैं
      घुटता हैं दम दम दम दम दम दम दम दम दम दम घुटता है

      पल पल का मरना
      पल पल का जीना
      जीना हैं कम कम
      घुटता हैं दम दम घुटता हैं
      घुटता हैं दम दम ....

      मेरे उजड़े उजड़े से होंठो में
      बड़ी सहमी सहमी रहती हैं ज़बान
      मेरे हाथों पैरों मे खून नहीं
      मेरे तन बदन में बहता हैं धुआँ
      सीने के अन्दर आँसू जमा हैं
      पलके हैं नम नम
      घुटता हैं दम दम...


      क्यूँ बार बार लगता हैं मुझे
      कोई दूर छुप के तकता हैं मुझे
      कोई आस पास आया तो नहीं
      मेरे साथ मेरा साया तो नहीं
      चलती हैं लेकिन नब्ज़ भी थोड़ी
      साँस भी कम कम
      घुटता हैं दम दम घुटता हैं
      घुटता हैं दम दम घुटता हैं


      साँस भी कुछ कुछ रुकता हैं
      घुटता हैं दम दम घुटता हैं
      पल पल क्यूँ दम घुटता हैं
      घुटता हैं दम दम ...

      रेखा जी की आवाज़ के साथ राहत की आवाज़ का मिश्रण तो काबिलेतारीफ़ है ही गीत के इंटरल्यूड्स में ढाई मिनट बाद गिटार के साथ घटम का संगीत संयोजन मन को सोह लेता है। वैसे अंत में राहत का साँस भी कुछ कुछ रुकती की जगह रुकता है कहना कुछ खलता है।

      फिल्म के किरदारों की मनोस्थिति को बयाँ करता ये गीत फिल्म का एक अहम हिस्सा रहा और इसी वज़ह से फिल्म के प्रोमो में इसका खूब इस्तेमाल किया गया। 

      वार्षिक संगीतमाला 2015 में अब तक

      वार्षिक संगीतमाला 2015

      सोमवार, फ़रवरी 23, 2015

      वार्षिक संगीतमाला 2014 पायदान # 4 : शीशे का समंदर, पानी की दीवारें. Sheeshe ka Samundar !

      वार्षिक संगीतमाला की चौथी पायदान पर एक ऐसा गीत है जिसे शायद ही आपमें से ज्यादातर लोगों ने पहले सुना हो। बड़े बजट की फिल्मों के आने के पहले शोर भी ज़रा ज्यादा होता है। प्रोमो भी इतनी चतुराई से किये जाते हैं कि पहले उसके संगीत और बाद में फिल्मों के प्रति उत्सुकता बढ़ जाती है। पर छोटे बजट की फिल्मों को ये सुविधा उपलब्ध नहीं होती। फिल्म रिलीज़ होने एक दो हफ्ते पहले एक दो गीत दिखने को मिलते हैं। फिल्म अगर पहले हफ्ते से दूसरे हफ्ते में गई तो बाकी गीतों का नंबर आता हैं नहीं तो बेचारे बिना बजे और सुने निकल जाते हैं।  पर इतना सब होते हुए भी हीमेश रेशमिया की अभिनीत और संगीतबद्ध फिल्म Xpose पहले हफ्ते में इतना जरूर चल गई कि अपना खर्च निकाल सके। फिल्म की इस आंशिक सफलता में इसके कर्णप्रिय संगीत का भी बड़ा हाथ था।


      हीमेश रेशमिया की गणना मैं एक अच्छे संगीतकार के रूप में करता हूँ जो  गायिकी के लिहाज़ से एक औसत गायक हैं और आजकल धीरे धीरे अभिनय के क्षेत्र में अपनी पैठ बनाने में जुटे हैं। एक वो भी दौर था कि लोग उनकी गायिकी की Nasal tone के इस क़दर दीवाने थे कि उनका हर एलबम और यहाँ तक की पहली फिल्म आप का सुरूर खूब चली थी। पर वक़्त ने करवट ली। अगली फिल्मों में उन्हें विफलता का मुख देखना पड़ा। दो साल उन्होंने फिर इंडस्ट्री को अपनी शक़्ल नहीं दिखाई। पर इस अज्ञातवास में भी वो अपनी धुनों पर काम करते हुए हर दिन लगभग एक रचना वो संगीतबद्ध करते रहे। Xpose के इस गीत में उनकी मेहनत रंग लाई दिखती है।

      हीमेश ने फिल्म के एलबम में इस गीत के दो वर्सन डाले हैं। एक जिसे अंकित तिवारी ने गाया है और दूसरा जिसे रेखा भारद्वाज जी ने आपनी आवाज़ दी है। हीमेश के साथ रेखा जी का ये पहला गीत नहीं हैं। आपको अगर याद हो तो पाँच साल पहले भी हीमेश ने उनसे अपनी फिल्म रेडियो का गीत पिया जैसे लड्डू मोतीचूर वाले भी गवाया था। रेखा जी की गायिकी का तो मैं पहले से ही मुरीद हूँ और इस गीत में तो मानो उन्होंने बोलों से निकलता सारा दर्द ही अपनी आवाज़ में उड़ेल दिया है।

      बुजुर्ग ऐसे नहीं कह गए हैं कि प्रेम आदमी को निकम्मा कर के छोड़ देता है। सोते जागते उठते बैठते दिलो दिमाग पर बस एक ही फितूर सवार रहता है। उसकी यादें, उसकी बातें इनके आलावा कुछ सूझता ही नहीं। जरा सोचिए तो अगर इतनी भावनात्मक उर्जा लगाने के बाद उस रिश्ते की दीवार ही दरक जाए तो कैसे ख्याल मन  में आएँगे..सारी दुनिया ही उलटी घूमती नज़र आएगी। किसी पर विश्वास करने का जी नहीं चाहेगा। कितने भी सुंदर हों, नज़ारे सुकून नहीं दे पाएँगे। संगीतमाला की चौथी सीढ़ी पर का गीत कुछ ऐसे ही भावों को अपने में समेटे हुए है..।

      Xpose के इस गीत को लिखा है समीर ने। यूँ तो समीर साहब का लिखा हुआ मुझे कुछ खास पसंद नहीं आता पर इस गीत में उनकी सोच ने लीक से थोड़ा हटकर काम जरूर किया है़। समीर अपने लफ्ज़ों में इन असहाय परिस्थितियों में व्यक्ति के हृदय में उठते इस झंझावात को अपनी अनूठी उपमाओं के ज़रिए टटोलते हैं। जब व्यक्ति का अपनों से भरोसा उठ जाए तो फिर जगत का कौन सा सत्य उसे प्रामाणिक लगेगा ? ऐसे में बादल सोने के और बारिशें पत्थर सरीखी लगें तो क्या आश्चर्य? ये छलावा पानी की दीवारों और शीशे के समंदर का ही तो रूप लेगा ना ।

      हीमेश का गिटार पर आधारित संगीत संयोजन दुख की इस बहती धारा को और प्रगाढ़ कर देता है। रेखा जब माया है भरम है...इस दुनिया में जो भी गया वो तो गया  गाती हैं दिल अपने आपको एक गहरी नदी में डूबता पाता है... यकीं नहीं तो इस गीत को सुन के देखिए जनाब


      शीशे का समंदर, पानी की दीवारें
      माया है, भरम है मोहब्बत की दुनिया
      इस दुनिया में जो भी गया वो तो गया

      बर्फ की रेतों पे, शरारों का ठिकाना
      गर्म सेहराओं में नर्मियों का फ़साना
      यादों का आईना टूटता है जहाँ
      सच की परछाइयाँ हर जगह आती हैं नज़र


      सोने के हैं बादल, पत्थरों की बारिश
      माया है, भरम है मोहब्बत की दुनिया
      इस दुनिया में जो भी गया वो तो गया

      दिल की इस दुनिया में सरहदें होती नहीं
      दर्द भरी आँखों में राहतें सोती नहीं

      जितने अहसास हैं अनबुझी प्यास हैं
      ज़िंदगी का फलसफ़ा प्यार की पनाहों में छुपा

      धूप की हवाएँ, काँटों के बगीचे
      माया है, भरम है मोहब्बत की दुनिया
      इस दुनिया में जो भी गया वो तो गया


      वार्षिक संगीतमाला 2014

      बुधवार, फ़रवरी 26, 2014

      वार्षिक संगीतमाला 2013 पायदान संख्या 5 : कैसी तेरी खुदगर्जी तू धूप चुने या छाँव.. (Kabira...)

      वार्षिक संगीतमाला की अगली पायदान का गीत जब भी सुनता हूँ तो कुछ सोचने के लिए मजबूर हो जाता हूँ। व्यक्ति आख़िर किसके लिये ये जीवन जीता है ? अपने सपनों को पूरा करने के लिए या परिवार तथा समाज द्वारा दिए गए दायित्वों का निर्वाह करने के लिए? 

      आप कहेंगे कि इसमें मुश्किल क्या है? इन दोनों को साथ ले कर क्यूँ नहीं चला जा सकता ? मुश्किल है जनाब ! अपनी निजी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने की राह में कई बार प्रेम आड़े आ जाता है तो कई बार पारिवारिक जिम्मेदारियों मुँह उठाए आगे चली आती हैं। फिर आपके मन को ये प्रश्न भी सालता है कि अगर अपने संगी साथियों को छोड़कर वो सब कुछ पा भी लिया तो क्या मन का सूखापन मिट पाएगा? क्या मुझे दुनिया एक सफल इंसान के रूप में आकेंगी या मैं एक खुदगर्ज इंसान माना जाऊँगा?
       

      ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिसका कोई सीधा जवाब नहीं। फिल्म ये जवानी है दीवानी में सिनेमाई अंदाज़ में ही सही पर कुछ ऐसी ही उधेड़बुन की गिरफ्त में नायक भी अपने आप को पाता है। सारी दुनिया देखने का ख़्वाब और उन सपनों को पूरा करने का हुनर एक तरफ और दोस्तों, परिवार और माशूका का साथ दूसरी तरफ़। कोई भी रास्ता ऐसा नहीं जिसे आसानी से चुना या छोड़ा जा सके। अमिताभ भट्टाचार्य का लिखा ये गीत एक घुमक्कड़ मन के अंदर की इस बेचैनी को कुछ हद तक टटोलता जरूर है। हालांकि अमिताभ फिल्म की कहानी के अनुरूप अपनों का साथ नहीं छोड़ने की बात करते हैं पर अगर आपको The Alchemist  की कथा याद हो तो वहाँ अपने ख़्वाबों को पूरा करना ही आपकी नियति बताया जाता है।

      बहरहाल अमिताभ सूफ़ियत की चादर ओढ़े इस गीत में टूटी चारपाई, ठंडी पुरवाई जैसे कुछ नए पर बेहतरीन रूपकों का प्रयोग करते हैं। तोची रैना और रेखा भारद्वाज की आवाज़ ऐसे गीतों के लिए ही जानी जाती है और उनकी गायिकी एक सुकून देने के साथ साथ गीत की भावनाओं में डूबने पर मज़बूर करती है। संगीतकार प्रीतम का संगीत मुख्यतः गिटार और ड्रम्स के ज़रिए पार्श्व से सहयोग देता नज़र आता है। 
       
       तो आइए सुनें इस गीत को

      कैसी तेरी खुदगर्जी ना धूप चुने या छाँव
      कैसी तेरी खुदगर्जी  किसी ठौर टिके ना पाँव
      बन लिया अपना पैगंबर,तर लिया तू सात समंदर
      फिर भी सूखा मन के अंदर क्यूँ रह गया

      रे कबीरा मान जा रे फकीरा मान जा
      आजा तुझको पुकारे तेरी परछाइयाँ
      रे कबीरा मान जा रे फकीरा मान जा
      कैसा तू है निर्मोही कैसा हरजाइया
       टूटी चारपाई वही,ठंडी पुरवाई रस्ता देखे
      दूधों की मलाई वही, मिट्टी की सुराही रस्ता देखे

      कैसी तेरी खुदगर्जी लब नमक रमे ना मिसरी
      कैसी तेरी खुदगर्जी तुझे प्रीत पुरानी बिसरी
      मस्त मौला मस्त कलंदर तू हवा का एक बवंडर
      बुझ के यूँ अंदर ही अंदर क्यूँ रह गया..


      रविवार, फ़रवरी 03, 2013

      वार्षिक संगीतमाला 2012 पॉयदान # 13 : फिर ले आया दिल मजबूर क्या कीजे..

      वार्षिक संगीतमाला की तेरहवीं पॉयदान पर है एक बार फिर बर्फी फिल्म का एक और रूमानी नग्मा जिसे लिखा है सईद क़ादरी साहब ने। बतौर गीतकार पिछले छः सालों में सईद कादरी के लिखे गीत चार बार वार्षिक संगीतमालाओं की शोभा बढ़ा चुके हैं। तेरे बिन मैं कैसे जिया (2006), तो फिर आओ मुझको सताओ (2007), ज़िदगी ने ज़िदगी भर गम दिए जितने भी मौसम दिए सब नम दिए (2007) और पिछले साल दिल सँभल जा ज़रा फिर मोहब्बत करने चला है तू (2011)।  पर क्या आप जानते हैं कि रोमांटिक गीतों में अपनी अलग पहचान बनाने वाला ये गीतकार पेशे से एक बीमा एजेंट है?

      अस्सी के दशक में पहली बार काम की तलाश में सईद क़ादरी जोधपुर से मुंबई आए तो वो महेश भट्ट से मिले। महेश भट्ट को उनका काम तो पसंद आया पर तब तक उन्होंने अपने पारिवारिक बैनर तले फिल्में बनानी शुरु नहीं की थीं सो क़ादरी खाली हाथ ही वापस लौट आए। पर 'जिस्म' के गीतों के लिए महेश भट्ट ने सईद क़ादरी को जो मौका दिया उसके बाद उन्हें काम के लिए फिर दौड़ना नहीं पड़ा।

      क़ादरी अपना ज्यादातर समय अभी भी अपने पेशे को देते हैं। उनके बारे में मशहूर है कि वो अपने गीत संगीतकारों को जोधपुर में रहते हुए ही फोन पर ही लिखा देते हैं। उनके लिए गीत लिखना एक शौक़ है। साहिर जैसे शायर उनके आदर्श रहे हैं और उनका मानना है कि ऐसे महान शायरों को पढ़कर उन्हें जो आनंद मिला है उसे वो अपने गीतों में ढाल सकें तो उससे बेहतर उनके लिए कुछ भी नहीं है। प्रीतम की फिल्मों के लिए सईद क़ादरी पहले भी लिखते रहे हैं और इस फिल्म में लिखा उनका इकलौता नग्मा उसमें व्यक्त भावनाओं के लिए बेहद सराहा गया।

      शायद ही कोई शख़्स होगा जो प्रेम जैसी भावना से दो चार ना हुआ हो। पर प्रेम होना एक बात है और अपने दिल की बात को हिम्मत करके अपने प्रेमी तक पहुँचाना दूसरी। एकतरफा प्रेम के किस्से किसने नहीं सुने। कहीं दिल में एक आँच जल चुकी होती है पर दूसरा शख़्स उसकी तपन का अंदाज़ ही नहीं लगा पाता। सईद कादरी साहब अपने इस गीत में यही कहना चाहते हैं कि प्रेम की जो आस तुमने अपने मन में जगाई है उसे अधूरा मत छोड़ो। वैसे भी प्यार में डूबा मन तुम्हें कहाँ इसकी इज़ाजत देने वाला है?

      मुखड़े के पहले का प्रीतम द्वारा दिया संगीत मन में एक शीतलता सा भरता है। गीत के मिज़ाज को ध्यान में रखते हुए प्रीतम ने संगीत को अर्थपूर्ण बोलों पर चढ़ने नहीं दिया है। वैसे तो इस गीत को रेखा भारद्वाज, अरिजित सिंह और शफक़त अमानत अली खाँ तीनों से गवाया गया है पर मुझे रेखा जी का वर्जन ज्यादा पसंद आता है तो आइए सुनते हैं उनकी आवाज़ में ये नग्मा...


      फिर ले आया दिल मजबूर
      क्या कीजे
      रास न आया रहना दूर
      क्या कीजे
      दिल कह रहा उसे मुकम्मल कर भी आओ
      वो जो अधूरी सी बात बाकी है
      वो जो अधूरी सी याद बाकी है
      (मुकम्मल - पूरा करना)

      करते हैं हम आज कुबूल
      क्या कीजे
      हो गयी थी जो हमसे भूल
      क्या कीजे
      दिल कह रहा उसे मयस्सर कर भी आओ
      वो जो दबी सी आस बाकी है
      वो जो दबी सी आँच बाकी है
      (मयस्सर - उपलब्ध, प्राप्त)

      किस्मत को है ये मंज़ूर
      क्या कीजे आए
      मिलते रहे हम बादस्तूर
      क्या कीजे
      दिल कह रहा है उसे मुसलसल कर भी आओ
      वो जो रुकी सी राह बाकी है
      वो जो रुकी सी चाह बाकी है
      (मुसलसल - सिलसिलेवार )

      बुधवार, फ़रवरी 16, 2011

      वार्षिक संगीतमाला 2010 - पॉयदान संख्या 12 : कान्हा . बैरन हुयी बाँसुरी... दिन तो कटा, साँझ कटे, कैसे कटे रतियाँ ?

      बारहवी पॉयदान पर पहली बार इस साल की संगीतमाला में प्रवेश कर रहे हैं संगीतकार साज़िद वाज़िद। पर फिल्म दबंग के लिए नहीं बल्कि साल के शुरु में आई फिल्म 'वीर' के लिए। गीत के बोल लिखे हैं गुलज़ार साहब ने और इसे अपनी आवाज़ दी है रेखा भारद्वाज ने। जब भी किसी गीत के क्रेडिट में रेखा जी का नाम आता है गीत की प्रकृति के बारे में बहुत कुछ अंदाज मिल जाता है। सूफ़ी संगीत से अपने कैरियर की शुरुआत और पहचान बनाने वाली रेखा जी ने जहाँ पिछले कुछ वर्षों में लोकगीत के रंग में समाए ठेठ गीत गाए हैं वहीं उप शास्त्रीय गीतों में भी उनकी आवाज़ और लयकारी कमाल की रही है।

      अपने उसी अंदाज़ को रेखा जी ने वीर फिल्म की इस 'ठुमरी' में बरक़रार रखा है। वैसे शास्त्रीय संगीत से ज्यादा नहीं जुड़े लोगों के लिए उप शास्त्रीय संगीत की इस विधा के बारे मे् कुछ बातें जानना रोचक रहेगा। शास्त्रीय संगीत के जानकार उन्नीसवी शताब्दी को ठुमरी का उद्भव काल बताते हैं। ठुमरी से जुड़े गीत रूमानी भावों से ओतप्रोत होते हुए भी सात्विक प्रेम पर आधारित होते हैं और अक्सर इन गीतों में नायक के रूप में भगवान कृष्ण यानि हमारे कान्हा ही नज़र आते हैं। ठुमरी की लोकप्रियता लखनऊ में नवाब वाज़िद अली शाह के शासनकाल में बढ़ी।

      ठुमरी में रागों के सम्मिश्रण और अदाकारी का बड़ा महत्त्व है। वैसे तो अक्सर ठुमरियाँ राग खमाज़,पीलू व काफ़ी पर आधारित होती हैं पर संगीतकार साज़िद वाज़िद ने इस ठुमरी के लिए एक अलग राग चुना। अपने इस गीत के बारे में वो कहते हैं
      हमने इस ठुमरी में किसी एक थाट का प्रयोग नहीं किया जैसा कि प्रायः होता है। जिस तरह हमने इस गीत में मिश्रित राग से विशुद्ध राग नंद में प्रवेश किया वो रेखा जी ने खूब पसंद किया। गीत में तबला उसी तरह बजाया गया है जैसा आज से डेढ सौ वर्षों पहले बजाया जाता था। हमने ऐसा इसलिए किया ताकि जिस काल परिवेश में ये फिल्म रची गई वो उसके संगीत में झलके।

      ठुमरी उत्तरप्रदेश मे पली बढ़ी इस लिए इस रूप में रचे गीत बृजभाषा में ही लिखे गए। गुलज़ार साहब ने ठुमरी का व्याकरण तो वही रखा पर गीत के बोलों से (खासकर अंतरों में) किसी को भी गुलज़ारिश भावनाओं की झलक मिल जाएगी। कान्हा की याद में विकल नायिका की विरह वेदना को जब दिन के उजियारे, साँझ की आभा और अँधियारी रात की कालिमा जैसे प्राकृतिक बिंबों का साथ मिलता है तो वो और प्रगाढ़ हो जाती है।


      गीत एक कोरस से शुरु होता हैं जिसमें आवाज़े हैं शरीब तोशी और शबाब साबरी की। फिर रेखा जी की कान्हा को ढूँढती आवाज़ दिलो दिमाग को शांत और गीत में ध्यानमग्न सा कर देती है। मुखड़े और कोरस के बाद गीत का टेम्पो एकदम से बदल जाता है और मन गीत की लय के साथ झूम उठता है। वैसे भी गुलज़ार की लेखनी मे..साँझ समय जब साँझ लिपटावे, लज्जा करे बावरी. जैसे बोलों को रेखा जी का स्वर मिलता है तो फिर कहने को और रह भी क्या जाता है..


      पवन उडावे बतियाँ हो बतियाँ, पवन उडावे बतियाँ
      टीपो पे न लिखो चिठिया हो चिठिया, टीपो पे न लिखो चिठिया
      चिट्ठियों के संदेसे विदेसे जावेंगे जलेंगी छतियाँ

      रेत के टीले पर क्या लिखने बैठ गई? जानती नहीं कि पवन का एक झोंका इन इबारतों को ना जाने कहाँ उड़ा कर ले जाएगा और एक बार तुम्हारे दिल की बात उन तक पहुँच गई तो सोचो उनका हृदय भी तो प्रेम की इस अग्नि से धधक उठेगा ना..

      कान्हा आ.. बैरन हुयी बाँसुरी

      हो कान्हा आ आ.. तेरे अधर क्यूँ लगी
      अंग से लगे तो बोल सुनावे, भाये न मुँहलगी कान्हा
      दिन तो कटा, साँझ कटे, कैसे कटे रतियाँ

      कान्हा अब ये बाँसुरी भी तो मुझे अपनी सौत सी लगने लगी है। जब जब सोचती हूँ कि इसने तेरे अधरों का रसपान किया है तो मेरा जी जल उठता है। और तो और इसे प्यार से स्पर्श करूँ तो उल्टे ये बोल उठती है। तुम्हीं बताओ मुझे ये कैसे भा सकती है? तुम्हारे बिना दिन और शाम तो कट जाती है पर ये रात काटने को दौड़ती है

      पवन उडावे बतियाँ हो बतियाँ, पवन उडावे बतियाँ..
      रोको कोई रोको दिन का डोला रोको, कोई डूबे, कोई तो बचावे रे
      माथे लिखे म्हारे, कारे अंधियारे, कोई आवे, कोई तो मिटावे रे
      सारे बंद है किवाड़े, कोई आरे है न पारे
      मेरे पैरों में पड़ी रसियाँ

      चाहती हूँ के इस दिन की डोली को कभी अपनी आँखो से ओझल ना होने दूँ। जानती हूँ इसके जाते ही मन डूबने लगेगा। मेरे भाग्य में तो रात के काले अँधियारे लिखे हैं।  समाज की बनाई इस चारदीवारी से बाहर निकल पाने की शक्ति मुझमें नहीं और कोई दूसरा भी तो नहीं जो मुझे इस कालिमा से तुम्हारी दुनिया तक पहुँचने में सहायता कर सके।

      कान्हा आ.. तेरे ही रंग में रँगी
      हो कान्हा आ आ... हाए साँझ की छब साँवरी
      साँझ समय जब साँझ लिपटावे, लज्जा करे बावरी
      कुछ ना कहे अपने आप से आपी करें बतियाँ

      जानते हो जब ये सलोनी साँझ आती है तो मुझे अपने बाहुपाश में जकड़ लेती है। तेरे ख्यालों में डूबी अपने आप से बात करती हुई तुम्हारी ये बावरी उस मदहोशी से बाहर आते हुए कितना लजाती है ये क्या तुम्हें पता है?

      दिन तेरा ले गया सूरज, छोड़ गया आकाश रे
      कान्हा कान्हा कान्हा.....



      अब 'एक शाम मेरे नाम' फेसबुक के पन्नों पर भी...

      बुधवार, मार्च 24, 2010

      वार्षिक संगीतमाला 2009 रनर्स अप : बीड़ा दूजी थाली का लगे बड़ा मसालेदार... रेखा भारद्वाज

      लगभग तीन महिनों का सफ़र तय कर वार्षिक संगीतमाला 2009 जा पहुँची है दूसरी पायदान पर। और वार्षिक संगीतमाला 2009 के रनर्स अप गीत का सेहरा बँधा है उस गीत के सर जो बड़ी ठेठ जुबान में हम सबमें पाई जाने वाली मनोवृति को अपने खूबसूरत बोलों के माध्यम से उभारता है। कौन सी मनोवृति ! अरे वही

      बीड़ा दूजी थाली का लगे बड़ा मसालेदार
      मन बोले चकमक हाए चकमक ...

      अब पड़ोसी की कार हो या अर्धांगिनी, कितनी बार उनको देखकर आपने अपने मन को चकमकाते पाया है? खैर छोड़िए आप भी कहेंगे सब जान बूझ कर क्यूँ खुले आम ये सवाल किया जा रहा है ? मुख्य बात ये है कि आजकल के गीत सिर्फ प्रेम, विरह त्याग, दोस्ती, सौंदर्य जैसे विषयों पर नहीं लिखे जा रहे हैं पर हमारे समाज की उस पक्ष पर चुटकी ले रहे हैं जो स्याह है, धुँधला है जिसे जानते बूझते हुए भी हम उन पर बात करने में असहज हैं।

      पर इस गीत की खासियत बस इतनी नहीं हैं। पीयूष मिश्रा के इस गीत के संगीत संयोजन और बोलों में लोकगीत वाली मिठास है वहीं रेखा भारद्वाज ने इस अंदाज़ में इस गीत को गाया है कि लगता है सचमुच किसी मुज़रेवाली के सामने बैठ कर ये गीत सुन रहे हों। आंचलिकता के हिसाब से भिन्न भिन्न शब्दों को उनके द्वारा दिया लोच, मूड को गीत के रंग में रँग डालता है। यूँ तो साइडबार की वोटिंग में आप लोगों में से ज्यादातर ने शंकर महादेवन और श्रेया घोषाल को साल का श्रेष्ठ गवैया चुना है पर मेरी नज़र में एक गवैये के तौर पर ये साल रेखा भारद्वाज का रहेगा। गुलाल, फिराक़ और दिल्ली 6 में उनके गाए गीत काफी दिनों तक याद किए जाएँगे।

      मेरी एक संगीत मित्र हैं सुपर्णा। अक्सर वो मुझे अपने पसंदीदा गीतों के बारे में बताती रहती हैं। साल के शुरु में जब ये फिल्म रिलीज़ भी नहीं हुई थी, मुझे उनके द्वारा इस गीत की दो पंक्तियों से रूबरू होने का मौका मिला था और मै उन्हें पढ़कर ठगा सा रह गया था। वो पंक्तियाँ थीं

      संकट ऐसा सिलवट से कोई हाल भाँप ले जी
      करवट ऐसी दूरी से कोई हाथ ताप ले जी

      पीयूष मिश्रा के इन शब्दों का जादू कुछ ऐसा था जो मुझे फिल्म के आते ही थियेटर तक ले गया। कितने सहज बिंबों का प्रयोग किया है पीयूष ने। ऐसे बिंब जो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से लिए गए हैं। पर इनसे जो बात उन्होंने कहनी चाही है वो लोग तरह तरह के शब्दजाल जोड़ कर भी नहीं कह पाते। तो सुनें और ठुमके लगाएँ गुलाल के इस चकमकाते गीत के साथ..


      बीड़ा दूजी थाली का लगे बड़ा मसालेदार

      मन बोले चकमक हाए चकमक ...
      हाए चकमक चकमक चकमक
      बीड़ा दूजी थाली का लगे बड़ा मसालेदार
      मन बोले चकमक हाए चकमक हाए चकमक चकमक चकमक

      खाए..खाए तो मचल गई रे हो कजरारी नार
      मन बोले चकमक हाए चकमक हाए चकमक चकमक चकमक
      बीड़ा दूजी थाली का लगे बड़ा मसालेदार
      मन बोले चकमक हाए चकमक हाए चकमक चकमक चकमक

      हमको दुनिया की लाज सरम का डर लगे है हो जी
      हमको दुनिया के लोक धरम का डर लगे है हो जी
      पर इस जलते करेजवा पे कोई फूँक मार दो जी
      पर इस मनवा की अगिया पे कोई छींट मार दो जी
      हो हो हो ओ ...हो हो हो ओ
      मीठी.. मीठी सी कसक छोड़ कर चला गया भर्तार
      मन बोले चकमक हाए चकमक हाए चकमक चकमक चकमक
      बीड़ा दूजी थाली का लगे बड़ा मसालेदार
      मन बोले चकमक हाए चकमक हाए चकमक चकमक चकमक

      जुगनी जान गयो रे मान गयो रे बीड़ो की तासीर
      अरे कुर्बान गयो हलकान के मसला सब्र पट गंभीर
      कैसे देवे रे इलजाम कि तू भी संकट में आखिर
      मैं तो पूरा राजस्थान गयो ना तेरे जैसी बीड़

      संकट ऐसा सिलवट से कोई हाल भाँप ले जी
      करवट ऐसी दूरी से कोई हाथ ताप ले जी
      निकले सिसकी जैसे बोतल का काग जो उड़ा हो
      धड़कन ऍसी जैसे चंबल में घोड़ा भाग जो पड़ा हो


      हो हो हो ओ ...हो हो हो ओ
      अंगिया.... अंगिया भी लगे है जैसे सौ सौ मन का भार
      मन बोले चकमक हाए चकमक हाए चकमक चकमक चकमक

      बुधवार, मार्च 03, 2010

      वार्षिक संगीतमाला 2009 : पायदान संख्या 8 - जरा बताइए ना ये ससुराल 'गेंदा फूल' सा क्यूँ है ?

      होली की वज़ह से वार्षिक संगीतमाला 2009 ने लिया था एक विश्राम! तो एक बार फिर बाकी की सीढ़ियों का सफ़र शुरु करते हैं पॉयदान संख्या 8 से, जहाँ पर है एक छत्तिसगढ़ी लोकगीत जिसके बोलों को प्रसून जोशी द्वारा थोड़ा बहुत परिवर्तित करके फिल्म दिल्ली ६ में इस्तेमाल किया गया। संगीतकार ए आर रहमान और सहायक संगीत निर्देशक रजत ढोलकिया ने इस लोकगीत का पाश्चत्य संगीत के साथ इतना बेहतरीन सम्मिश्रण किया कि पिछले साल फिल्म रिलीज़ होने के साथ ही ये गीत सबकी जुबाँ पर चढ़ गया। इस गीत में लोकगीत की मिठास को कायम रखने के लिए रेखा भारद्वाज की गायिकी की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। वैसे रेखा के साथ पीछे आने वाले कोरस में आवाज़ें थीं श्रृद्धा पंडित, सुजाता मजूमदार और वी न महथी की।

      गीत चल गया तो साथ में ये मसला भी उठ गया कि प्रसून जोशी की जगह इस लोकगीत के लेखक को क्रेडिट देना चाहिए। क्रेडिट देने के मामले में फिल्म उद्योग का रिकार्ड जगज़ाहिर है। प्रसून का कहना है कि ये गीत उन्हें अभिनेता रघुवीर यादव ने दिया। वैसे इस संबंध में प्रसून का पक्ष जानने के लिए राजेश अग्रवाल जी की लिखी ये पोस्ट पढ़ें। पर आप ये जरूर जानना चाहेंगे कि इतन सहज और अपने से लगने वाले लोकगीत को लिखा किसने?

      खोजबीन के बाद मुझे ये जानकारी मिली कि इसे स्व. गंगाराम शिवारे ने लिखा था और स्व. भुलवाराम यादव ने उसे स्वर दिया। भुलवाराम जी ने ही तीनों जोशी बहनों डा. रेखा, रमादत्त और प्रभादत्त को ये गीत सिखाया। जोशी बहनों का कहना है कि सत्तर के दशक में उन्होंने ये गीत पहली बार रायपुर में गाया।

      ससुराल में सास की गालियाँ, ननद के ताने और देवर से सहानुभूति मिलना शायद ही संयुक्त परिवार में रही किसी दुल्हन के लिए नई बात होगी। हालाँकि धीरे धीरे शिक्षा के प्रसार और एकल परिवार की ओर अग्रसर होता भारतीय समाज इस मिथक को तोड़ने में प्रयासरत है। पर गीत में ससुराल को गेंदा फूल कहा जाना कुछ नया और उत्सुकता जगाने वाला है। अब गंगाराम शिवारे जी तो रहे नहीं कि ये प्रश्न उनसे पूछा जाए पर इस बारे में जब भी चर्चा चली लोगों ने कई तर्क दिये। वैसे यहाँ ससुराल को गुलाब फूल कहा जाता तो फूल के साथ काँटे की बात कह कर आसानी से ये रूपक सब की समझ में आ जाता। पर सवाल तो यहाँ ये है कि इस गेंदे में बनावट के लिहाज़ से ऐसी क्या खासियत है?

      गेंदे के फूल की खासियत है इसमें बहुत सारे फूल एक ही तने से उगते और पलते बढ़ते हैं ठीक वैसे ही जैसे ससुराल रूपी तने से सास,ससुर,देवर, ननद जैसे रिश्ते पनपते हैं और साथ साथ फलते फूलते हैं। हो सकता है आप इस व्याख्या से सहमत ना हों पर इस बारे में आपका मत जानने की उत्सुकता रहेगी।

      तो जब तक आप सोचे विचारें सुनते जाएँ ये प्यारा सा नग्मा..



      सैंया छेड़ देवें, ननद चुटकी लेवे ससुराल गेंदा फूल
      सास गारी देवे, देवरजी समझा लेवे, ससुराल गेंदा फूल
      छोड़ा बाबुल का अँगना, भावे डेरा पिया का हो
      सास गारी देवे, देवरजी समझा लेवे ससुराल गेंदा फूल...


      सैंया है व्यापारी, चले है परदेश
      सूरतिया निहारूँ जियरा भारी होवे, ससुराल गेंदा फूल....
      सास गारी देवे देवरजी समझा लेवे, ससुराल गेंदा फूल
      सैंया छेड़ देवे, ननद चुटकी लेवे, ससुराल गेंदा फूल...

      छोड़ा बाबुल का अंगना भावे डेरा पिया का हो !
      बुशर्ट पहिने खाईके बीड़ा पान, पूरे रायपुर से अलग है
      सैंया...जी की शान ससुराल गेंदा फूल ....


      सैंया छेड़ देवे, ननद चुटकी लेवे ससुराल गेंदा फूल ...
      सास गारी देवे, देवरजी समझा लेवे ससुराल गेंदा फूल
      छोड़ा बाबुल का अंगना ,भावे डेरा पिया का हो ....
      ओय होय ओय होय-
      होय होय होय होय होय होय .....

      बुधवार, फ़रवरी 03, 2010

      वार्षिक संगीतमाला 2009 :पॉयदान संख्या 16 - उम्मीद अब कहीं कोई दर खोलती नहीं..जलने के बाद शमा और बोलती नहीं !

      वार्षिक संगीतमाला 2009 की 16 वीं पॉयदान स्वागत कर रही है पिछले साल की एकमात्र फिल्मी ग़ज़ल का जो इस साल के मेरे पच्चीस मनपसंद गीतों में अपनी जगह बना सकी है। नंदिता दास द्वारा निर्देशित फिल्म फिराक़ की इस ग़ज़ल की रचना की है एक बार फिर गुलज़ार साहब ने। गुजरात के दंगों पर बनी इस गंभीर फिल्म के गीतों में जिस संवेदनशीलता की जरूरत थी उसे गुलज़ार ने बखूबी निभाया है।


      अब आप ही बताइए दंगों से हैरान परेशान आदमी अपना कष्ट लिए प्रशासन के पास जाए और अगर उसे दुत्कार और प्रताड़ना के आलावा कुछ ना मिले तो वो क्या करेगा ? नाउम्मीद हो कर अपना दर्द मन में छुपाए मौन ही तो रह जाएगा ना। गुलज़ार ने इन भावनाओं को ग़ज़ल के मतले में शब्द देते हुए लिखा और क्या लाजवाब लिखा....

      उम्मीद अब कहीं कोई दर खोलती नहीं
      जलने के बाद शमा और बोलती नहीं


      चारों ओर हिंसा और आगजनी से पसरे सन्नाटे को गुलज़ार ने अगले दो अशआरों में समेटने की कोशिश की है

      जो साँस ले रही है हर तरफ़ वो मौत है
      जो चल रही है सीने में वो जिंदगी नहीं

      हर एक चीज जल रही है शहर में मगर
      अँधेरा बढ़ रहा है कहीं रौशनी नहीं

      जलने के बाद शमा और बोलती नहीं
      उम्मीद अब कहीं कोई दर खोलती नहीं...

      ये एक ऐसी ग़ज़ल है जो फिल्म की ही भांति हमें ये सोचने पर मजबूर करती है कि इंसान जब हैवानियत की चादर ओढ़ लेता है तो एक जीवंत शहर को लाशों और राख का ढेर बनते देर नहीं लगती।

      इस ग़ज़ल का संगीत दिया है एक नवोदित संगीतकार जोड़ी पीयूष कनौजिया और रजत ढोलकिया ने । ये वही रज़त ढोलकिया हैं जिन्होंने पंचम के इंतकाल के बाद १९४२ ए लव स्टोरी का संगीत पूर्ण किया था। वे धारावी, होली और मिर्च मसाला जैसी लीक से हटकर बनाई गई फिल्म का संगीत भी दे चुके हैं। हाल फिलहाल में दिल्ली ६ में रहमान के साथ उनका नाम भी सह संगीत निर्देशक की हैसियत से था। चाहे मुखड़े के पहले की बात करे या अशआरों के बीच का फिलर हर जगह ग़ज़ल का संगीत मन में गहरी उदासी का रंग भरता नज़र आता है। रेखा भारद्वाज एक बार फिर अपनी उत्कृष्ट गायिकी द्वारा ग़ज़ल के मिज़ाज को हूबहू पकड़ने में सफल रही हैं।

      तो अगर आपके पास कुछ फुर्सत के लमहे हों तो कोशिश कीजिए इस ग़ज़ल की भावनाओं में डूबने की...



      <bgsound src="Ummeed-RekhaBharadwaj1.wma">

      शुक्रवार, जनवरी 29, 2010

      वार्षिक संगीतमाला 2009 :पॉयदान संख्या 18 - पीयूष मिश्रा के व्यंग्यों की मार झेलते 'अंकल सैम'

      वाराणसी यात्रा और घर में शादी की व्यस्तताओं की वज़ह से संगीतमाला में लगे इस ब्रेक के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। तो चलिए फिर शुरु करते हैं संगीतमाला की पॉयदानों पर क्रमवार ऊपर बढ़ने का सिलसिला।

      वार्षिक संगीतमाला की 18 वीं पॉयदान पर का गीत थोड़ा अलग हट कर है। आज जिस तरह युवा निर्देशक नई-नई थीमों पर फिल्में बना रहे हैं उसी तरह कुछ संगीतकार भी लीक से अलग हटकर चलने को तैयार हैं। वैसे जब फिल्म का गीत और संगीतकार एक ही शख़्स हो और निर्देशक को उसकी काबिलियत पर पूरा विश्वास हो तो नए प्रयोग करने का साहस और बढ़ जाता है। इस लिए तो पीयूष मिश्रा को जब निर्देशक अनुराग कश्यप ने 'गुलाल' फिल्म का गीत संगीत रचने की कमान सौंपी तो इश्क और हुस्न से लबरेज़ फिल्मी मुज़रों की जगह एक पॉलटिकल मुज़रा (Poltical Mujra) ही लिख दिया।


      पीयूष ने अपने लिखे इस गीत में देश और विश्व से जुड़े कुछ मसलों पर अपने शब्द बाणों से करारे व्यंग्य कसे हैं।

      चाहे वो आतंकवाद के नाम पर अमेरिका की इराक और अफगानिस्तान में घुसपैठ हो..

      या फिर देश में शीतल पेय के बाज़ार में अधिक सेंध लगाने वाले लोक लुभावन विज्ञापन हों..

      या सबको अपने विचार रखने की आज़ादी देने के लोकतंत्र की बुनियादी उसूल पर आए दिन लगने वाले प्रतिबंधों द्वारा की जा रही आधारभूत चोट हो..

      या फिर उच्च वर्ग में अंग्रेजीदाँ संस्कृति का अंधानुकरण करने की होड़ हो..

      इस गीत में पीयूष सब पर सफलता पूर्वक निशाना साधते नज़र आए हैं। तो क्या फितर चढ़ा रंगमंच से सालों साल जुड़े इस गीतकार के मन में। अंतरजाल पर सलीमा पूनावाला को दिए गए साक्षात्कार में इस गीत के बारे में बात करते हुए पीयूष कहते हैं...

      फिल्म जगत में कोई जल्दी कुछ नया करना नहीं चाहता। सभी इस्तेमाल किए हुए सफल फार्मूलों का दोहराव करने को आतुर हैं। मैंने 'राणाजी' इसलिए लिखा क्योंकि मैं एक 'Political Mujra' लिखना चाहता था। फिर अन्य गीतों की अपेक्षा फिल्म की परिस्थिति के हिसाब से इस गीत में कुछ नया करने का अवसर ज्यादा था। वैसे भी जो कुछ हमारे अगल बगल हो रहा है, जो भी घटनाएँ घट रही हैं क्या ये जरूरी नहीं कि उन्हें सुनने वालों तक गीत के माध्यम से पहुँचाया जाए। मैं चाहता था कि जब आने वाली पीढ़ियाँ इस गीत को सुने तो उन्हें आज की वास्तविकता को जानने का मौका मिले।
      ये तो हुई इस गीत के पीछे उपजे विचारों की बात। पीयूष ने इस मुज़रे में राजस्थानी लोक संगीत का जो रंग भरा है वो रेखा भारद्वाज की आवाज़ में और निखर के सामने आया है। ताल वाद्यों की अद्भुत जुगलबंदी के साथ जब रेखा जी का आलाप उभरता है जो सहज ही श्रोता को गीत के मूड से एकाकार कर देता है। गायिकी के लिहाज़ से ये साल रेखा जी के लिए बेहतरीन सालों में से एक रहा है। उनकी गायिकी के बारे में बाते आगे भी होंगी फिलहाल तो इस गीत का आनंद लीजिए





      राणाजी म्हारे, गुस्से में आए, ऐसो बल खाए, अगिया बरसाए, घबराए म्हारो चैन
      जैसे दूर देस के,
      जैसे दूर देस के, टावर में घुस जाए रे एरोप्लेन
      राणाजी म्हारे ...

      राणाजी म्हारे, एसो गुर्राए, एसो थर्राए, भर आये म्हारे नैन
      जैसे सरे आम ही,
      जैसे सरे आम इराक में जाके जम गए अंकल सैम
      राणाजी म्हारे...

      राणाजी म्हारी सास ननद के ताने, राणाजी म्हारे जेठ ससुर की बानी
      राणाजी थापे भूत परेत की छाया, राणाजी थापे इल बिल जिन का साया
      सजनी को डियर बोले, ठर्रे को बीयर बोले, माँगे है इंग्लिस बोली, माँगे है इंग्लिस चोली
      माँगे है इंग्लिस जयपुर, इंग्लिस बीकानेर
      जैसे बिसलेरी की ,
      जैसे बिसलेरी की बोतल पी के बन गए इंग्लिस मैन
      राणाजी म्हारे...

      राणाजी म्हारी सौतन को घर ले आये
      पूछे तो बोले फ्रेंड हमारी है हाए
      राणाजी ने ठंडा चक्कू यूँ खोला
      बोले कि हाए ठंडा माने कोका कोला
      राणाजी बोले मोरों की बस्ती में है शोर राणी
      क्यों की ये दिल मांगे मोर, मोर रानी, मोर राणी, मोर राणी ..
      म्हारी तो बीच बजरिया, हाए बदनामी हो गयी
      म्हारी तो लाल चुनरिया, सरम से धानि हो गयी
      म्हारो तो धक् धक् होवे, जो जो बीते रैन
      जैसे हर इक बात पे ...
      जैसे हर इक बात पे डिमोक्रिसी में लगने लग गयो बैन ...

      जैसे दूर देस के, टावर में घूस जाए रे एरोप्लेन
      जैसे सरे आम इराक में जाके जम गए अंकल सैम
      जैसे बिना बात अफगानिस्ताँ का
      जैसे बिना बात अफगानिस्ताँ का बज गया भैया बैंड

      जैसे दूर देस के, टावर में घुस जाए रे एरोप्लेन
      राणाजी म्हारे ...


      गुरुवार, जुलाई 23, 2009

      जान वे जान ले , हाल ए दिल : सुनिए विशाल भारद्वाज, मुन्ना धीमन और राहत की इस अद्भुत रचना को

      हिंदी फिल्म संगीत की त्रासदी यही है कि अगर फिल्म नहीं चली तो कई बार फिल्म का संगीत अच्छा होने के बावजूद आम जनता से दूर रह जाया करता है। पिछले साल ऍसी ही एक फिल्म आई थी हाल-ए-दिल जिसमें कई नामी संगीतकार विशाल भारद्वाज, आनंद राज आनंद, प्रीतम आदि ने फिल्म के विभिन्न गीतों की धुनें तैयार की थीं। अजय देवगन के भाई अनिल देवगन की ये फिल्म बॉक्स आफिस पर बुरी तरह पिटी जिसका खामियाज़ा इसके गीतों को उठाना पड़ा था।


      इस फिल्म में विशाल भारद्वाज ने मुन्ना धीमन के लिखें शब्दों पर एक बेहतरीन कम्पोजीशन बनाई थी जो राहत फतेह अली खाँ की गायिकी से और निखर गई थी। विशाल भारद्वाज यूँ तो अक्सर गुलज़ार के बोलों पे अपना हुनर दिखलाते रहे हैं पर मुन्ना धीमन के साथ भी उनकी जुगलबंदी खूब बैठती है। याद है ना २००७ में निशब्द फिल्म के गीत जिसमें पहली बार मुन्ना धीमन की चर्चा इस चिट्ठे पर हुई थी। फिर पिछले साल 'यू मी और हम' में भी ये जोड़ी कुछ हद तक सफल हुई थी पर दिल का हाल कहते हुए इस नग्मे को अपने बोलों, सुंदर संगीत संयोजन और राहत फतेह अली खाँ की बेमिसाल गायिकी की वज़ह से मैं इस जोड़ी द्वारा रची गई अब तक की सबसे नायाब कम्पोसीशन मानता हूँ।



      दरअसल मुन्ना इस गीत की रूमानी पंक्तियों में एक ऍसी गहराई लाते हैं जो इस गीत का स्तर एक दूसरे धरातल पर ले जाता है। मिसाल के तौर पर इन पंक्तियों को देखें..

      आजा तेरी आँखों से ख्वाब ख्वाब गुजरूँ मैं..
      आजा तुझे हाथों पे किस्मतों सा लिख लूँ वे..
      आजा तेरे होठों से बात बात निकलूँ मैं..

      आजा तेरे कोहरे में धूप बन के खो जाऊँ..

      और फिर कितना अद्भुत है विशाल भारद्वाज का संगीत संयोजन ! मुखड़े के ठीक पहले ताल वाद्यों की थाप से मन झूम ही रहा होता है कि राहत फतेह अली खाँ का रुहानी स्वर उभरता है और मन गीत में रम सा जाता है। विशाल गीत के पीछे की बीट्स को बिना किसी ज्यादा छेड़ छाड़ के चलते रहने देते हैं। फिर इंटरल्यूड में गिटार का उनका प्रयोग ध्यान खींचता है। वैसे भी राहत का सूफ़ी अंदाज़ हमेशा से दिल को छूता रहा है। तो आइए पहले सुनें राहत को..



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      जान वे जान ले , हाल ए दिल
      जान वे बोल दे , हाल ए दिल
      आजा तेरे सीने में साँस साँस पिघलूँ मैं
      आजा तेरे होठों से बात बात निकलूँ मैं
      तू मेरी आग से रौशनी छाँट ले
      ये जमीं आसमां जो भी है बाँट ले
      जान वे जान ले , हाल ए दिल
      जान वे बोल दे , हाल ए दिल
      आजा माहिया आ जा...आजा माहिया आ जा...
      बेबसियाँ आ जा...आजा माहिया आ जा...
      दिन जोगी राताँ, सब डसियाँ आ जा
      तेरी झोलियाँ पाऊँ घर गलियाँ आ जा
      आजा माहिया आ जा...आजा माहिया आ जा...
      आजा तेरे माथे पे चाँद बन के उतरूँ मैं
      आजा तेरी आँखों से ख्वाब ख्वाब गुजरूँ मैं
      रग रग पे हैं तेरे साये वे, रग रग पे हैं तेरे साये
      रंग तेरा चढ़ चढ़ आए वे रंग तेरा चढ़ चढ़ आए
      जान वे जान ले , हाल ए दिल...

      आजा तुझे हाथों पे किस्मतों सा लिख लूँ मैं
      आजा तेरे कान्धे पे उम्र भर को टिक लूँ मैं
      तेरी अँखियों के दो गहने वे तेरी अँखियों के दो गहने
      फिरते हैं पहने पहने वे फिरते हैं पहने पहने
      जान वे जान ले , हाल ए दिल...
      आजा माहिया आ जा...आजा माहिया आ जा...
      आजा तेरे सीने में साँस साँस पिघलूँ मैं....


      रेखा भारद्वाज ने भी इस गीत का दूसरा वर्सन गाया है जिसमें अंतरे थोड़ी तब्दीली के साथ गाए गए हैं। मुन्ना धीमन एक बार फिर उसी फार्म में हैं। विशाल की पार्श्व बीट्स यहाँ अपेक्षाकृत तेज हैं। इंटरल्यूड में गिटार की जगह बाँसुरी बजती सुनाई देती है। रेखा जी की गायिकी का अनूठा अंदाज तो हमेशा से मन को सोहता है पर कुल मिलाकर राहत फतेह अली खाँ वाला वर्सन ज्यादा असर छोड़ता है। तो सुनिए रेखा जी को इसी गीत में..


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      आ जा रख ले
      उड़ तक ले आजा रख ले
      मन वे.. हाए.. कुछ कह दे
      कुछ सुन ले जान वे
      जान वे जान ले , हाल ए दिल...
      आजा तेरे कोहरे में धूप बन के खो जाऊँ
      तेरे भेष तेरे ही रूप जैसी हो जाऊँ
      रग रग पे हैं तेरे साये वे, रग रग पे हैं तेरे साये
      रंग तेरा चढ़ चढ़ आए वे रंग तेरा चढ़ चढ़ आए
      जान वे जान ले , हाल ए दिल...
      तू ही मेरी नींदों में जागता है सोता है
      तू ही मेरे आँखों के पानियों में होता है
      तेरी अँखियों के दो गहने वे तेरी अँखियों के दो गहने
      फिरते हैं पहने पहने वे फिरते हैं पहने पहने

      शुक्रवार, जनवरी 09, 2009

      वार्षिक संगीतमाला 2008 :पायदान संख्या 21 - आँखों से ख्वाब रूठ कर..

      वार्षिक संगीतमाला की 21 वीं पायदान पर इस बार फैला है उदासी का रंग ! इस गीत के गायक गायिका की जोड़ी को आप ने फिल्मी गीतों की बजाए गैर फिल्मी एलबमों में ज्यादा सुना होगा। पिया बसंती में चित्रा के साथी गायक और गुलज़ार के सूफी एलबम इश्का इश्का के पीछे की वो सुरीली आवाज़ याद है ना आपको।


      जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ प्रसिद्ध सारंगी वादक और गायक उस्ताद सुलतान खाँ और सब के तन मन में फिल्म ओंकारा में नमकीनियत घोलती रेखा भारद्वाज की। जब दो इतने प्रतिभावान कलाकार एक गीत को अपनी आवाज़ दें कुछ तो नई बात पैदा होगी ना। और ये मौका आया शामिर टंडन द्वारा संगीत निर्देशित फिल्म सुपरस्टार में

      मुझे रेखा भारद्वाज की आवाज़ में एक अलग तरह की कशिश नज़र आती है। पहली बार जब उनका सूफी गीत तेरे इश्क़ में सुना था तो उनकी आवाज़ का शैदाई हो गया। बाद में उनके संगीतकार पति विशाल, जो कॉलेज में उनके जूनियर थे के निर्देशन में ओंकारा के गीत 'नमक इस्क का ' ने उनकी प्रतिभा को व्यवसायिक सफलता भी मिली। पर दुर्भाग्यवश अभी भी विशाल के आलावा अन्य संगीतकार उनकी प्रतिभा का फायदा नहीं उठा पाए हैं।

      अब लौटें इस गीत पर तो ये वैसा नग्मा नहीं है एक ही बार में आपके दिलो दिमाग पर चढ़ जाए। शब्बीर अहमद का लिखा ये गीत, बीते हुए कल में बिखरे कुछ ख्वाबों और खुशनुमा एहसासों की बात करता है जो वक़्त के थपेड़ों से ऐसे चिटके की उनमें पड़ी दरारों को पाटने की आस, आस ही रह गई। और गीत के साथ ये भावनाएँ धीरे-धीरे मन में उतरती हैं। इस गीत को मेरे लिए विशिष्ट बनाने का सारा श्रेय मैं गीत के बोलों और उस्ताद साहब व रेखा जी की गायिकी को देना चाहूँगा। शामिर टंडन का संगीत मुझे कुछ हिस्सों में अच्छा लगा।

      तो आइए पहले गौर करें गीत के बोलो पर


      आँखों से ख्वाब रूठ कर
      पलकों से अश्क टूट कर
      जाने कहाँ बिखर गए
      साहिल से मौज़ें फूटकर
      अरमान दिल से छूट कर
      जाने कहाँ, जाने कहाँ, बिखर गए...

      रस्ते वही गलियाँ वही, लेकिन वो बात अब हैं कहाँ
      जिसमें कभी थी जिंदगी, सूना पड़ा है अब वो मकान
      सूना पड़ा है अब वो मकान
      कुछ लमहे जान बूझ कर
      खुशियाँ तमाम लूट कर
      जाने कहाँ बिखर गए

      यादों से रूठी थक के मैं, लौटी तो ये पता चला
      पैरों में थे छाले पड़े, मुश्किल था कितना फ़ासला
      जज्बात मेरे ऊबकर, गम के भँवर में डूबकर
      जाने कहाँ बिखर गए

      आँखों से ख्वाब रूठ कर...


      और हाँ फुर्सत के लमहों के बीच ही सुनिएगा इस गीत को..




      और इस गीत के वीडिओ को देखना चाहते हों तो ये रहा यू ट्यूब का लिंक


       

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