जिन्दगी यादों का कारवाँ है.खट्टी मीठी भूली बिसरी यादें...क्यूँ ना उन्हें जिन्दा करें अपने प्रिय गीतों, गजलों और कविताओं के माध्यम से!
अगर साहित्य और संगीत की धारा में बहने को तैयार हैं आप तो कीजिए अपनी एक शाम मेरे नाम..
वार्षिक संगीतमाला की 23 वीं पायदान पर एक बार फिर विराजमान है फिल्म मेरी क्रिसमस का एक दूसरा गीत। इससे पहले इसी फिल्म में अंतरा मित्रा और अरिजीत का गया गीत मैने आपको सुनवाया था।
प्रीतम के संगीत निर्देशन में बनी इस फिल्म के सारे गीत औसत से तो बेहतर ही थे। पर इस गीतमाला में आज इस फिल्म का वो गीत है जिसे गाया है सुनिधि चौहान ने और इस गीत के बोल लिखे हैं वरुण ग्रोवर ने।
वरुण ग्रोवर एक बेहतरीन गीतकार हैं हालाँकि मुझे लगता है की अभी भी उनको उतने गीत लिखने को नहीं मिले हैं जितनी प्रतिभा उनमें है।जोर लगा के हइशा में उनका लिखा मोह मोह के धागे या मसान में दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल से प्रेरित तू किसी रेल से गुजरती है आज भी लोगों द्वारा बड़े मन से गुनगुनाए जाते हैं। फिल्म गैंग्स आफ वासेपुर और सुई धागा में भी उमका काम बेहतरीन था।
प्रीतम के साथ काम करने का वरुण के लिए ये पहला मौका था। इस फिल्म के लिए गीत लिखने के अनुभव के बारे में वरूण का कहना था
श्रीराम राघवन की फिल्मों का अनूठा पहलू यह है कि उनकी फिल्मों के गाने पटकथा से सीधे तौर पर जुड़े होते हैं। यह मेरे लिए कहानी और मूड के सार को पकड़ने का मौका तो देता ही है, साथ ही फिल्म के संदर्भ से इतर भी कुछ मनोरंजक रचने का अवसर प्रदान करता है। बिना इसकी पटकथा जाने हुए भी लोगों ने इस फिल्म के गीतों को पसंद किया है।
सच तो ये है कि मैंने भी मेरी क्रिसमस नहीं देखी पर इसके बावज़ूद भी इसके गीत मेरी गीतमाला का हिस्सा बने हैं।
ये फिल्म क्रिसमस के आस पास रिलीज़ हुयी थी। इसका जो ये शीर्षक गीत है वो इसी त्योहार की मौज मस्ती की तरंग को अपने अंदर समाता हुआ सा बहता है। वरुण के शब्द और सुनिधि की प्यारी गायिकी इस खुशनुमा माहौल को धनात्मक उर्जा और प्रेम के रंगों से भर देते हैं। सुनिधि की गायिकी कितनी शानदार है वो आप इस गीत के ऐश किंग वाले वर्सन को सुन कर समझ सकते हैं। प्रीतम ने अपने इस गीत में ट्रम्पेट का बेहतरीन इस्तेमाल किया है जिसे आप गीत के बोलों के आगे पीछे इस गीत में बारहा सुनेंगे।
मन में फूटा Rum Cake सा
हर कोई लगता नेक सा दिन बड़ा ये ख़ास है, प्यार आस-पास है छाया है जादू एक सा
Cherry और Sherry का समाँ नेमत बरसाता आसमाँ सात रंग शाम के, नाचें हाथ थाम के बातें भी बन जाएँ दुआ
बस, ये ख़ुमार मुझपे थोड़ा-सा, थोड़ा-सा, थोड़ा-सा आने दे बस, एक बार मुझे गहरे समंदर में गुम हो जाने दे ओ, बस, ये ख़ुमार मुझपे थोड़ा-सा, थोड़ा-सा, थोड़ा-सा आने दे बस, एक बार मुझे गहरे समंदर में गुम हो जाने दे,
रोशन तारों की रात है हम दिल-हारों की रात है प्यार है, जुनून है, और इक सुकून है सब रस्ते आते हैं यहाँ
पिछले महीने परिस्थतियाँ ऐसी रही कि वार्षिक संगीतमाला की आख़िरी पेशकश को आप तक पहुँचाने का समय टलता रहा।चलिए थोड़ी देर से ही सही पर अब वक़्त आ गया इस संगीतमाला का सरताजी बिगुल बजाने का और इस साल ये सेहरा बँधा है जुबली के गीत वो तेरे मेरे इश्क़ का इक, शायराना दौर सा था....पर। क्या शब्द , क्या धुन और क्या ही गायिकी इन तीनों मामलों में ये गीत अपने करीबी गीतों से कोसों आगे रहा और इसलिए इस वर्ष २०२३ का सर्वश्रेष्ठ गीत चुनने में मुझे कोई दुविधा नहीं हुई। यूँ तो इस सफलता के पीछे संगीतकार अमित त्रिवेदी, गीतकार कौसर मुनीर और गायिका सुनिधि चौहान बराबर की हक़दार हैं पर मैं कौसर मुनीर का विशेष रूप से नाम लेना चाहूँगा जिनके लिखे बोलों ने तमाम संगीतप्रेमियों के सीधे दिल पर असर किया।
आप सबके मन में एक प्रश्न उठता होगा कि क्या जीवन में प्रेम का स्वरूप हर समय एक जैसा हो सकता है? मुझे तो कम से कम ऐसा नहीं लगता। जिस सच्चे प्यार कि हम बात करते हैं मन की वो पवित्र अवस्था हमेशा तो नहीं रह पाती, पर उस अवस्था में हम अपने प्रेमी के लिए निस्वार्थ भावना से अपनी ज़िंदगी तक दाँव पर लगा देते हैं। कुछ ही दिनों पहले महान विचारक ओशो का सच्चे प्यार पर कही गयी ये उक्ति सुनी थी
प्रेम कोई स्थायी, शाश्वत चीज़ नहीं है। याद रखें, कवि जो कहते हैं वह सच नहीं है। उनकी कसौटी मत लो, कि सच्चा प्रेम शाश्वत है, और झूठा प्रेम क्षणिक है - नहीं! मामला ठीक इसके विपरीत है. सच्चा प्यार बहुत क्षणिक होता है - लेकिन क्या क्षण!... ऐसा कि कोई इसके लिए पूरी अनंतता खो सकता है, इसके लिए पूरी अनंतता जोखिम में डाल सकता है। कौन चाहता है कि वह क्षण स्थायी रहे? और स्थायित्व को इतना महत्व क्यों दिया जाना चाहिए?... क्योंकि जीवन परिवर्तन है, प्रवाह है; केवल मृत्यु ही स्थायी है.
संगीतकार अमित त्रिवेदी, गीतकार कौसर मुनीर के साथ
भले ही प्रेम में पड़े होने के वे अद्भुत क्षण बीत जाते हैं पर हम जब भी उन लम्हों को याद करते हैं मन निर्मल हो जाता है और अतीत की यादों से प्रेम की इसी निर्मलता को कौसर मुनीर ने इस गीत में ढूँढने की कोशिश की है वो भी पूरी आत्मीयता एवम् काव्यात्मकता के साथ। फिर वो रात में अपने चाँद से आलिंगन की बात हो या फिर किसी की एक नज़र उठने या गिरने से दिल में आते भूचाल की कसक कौसर मुनीर प्रेम करने वाले हर इंसान को अपने उस वक़्त की याद दिला देती हैं जब इन कोमल भावनाओं के चक्रवात से वो गुजरा था। गीत में उन प्यारे लम्हों के गुजर जाने को लेकर कोई कड़वाहट नहीं है। बस उन हसीन पलों को फिर से मन में उतार लेने की ख़्वाहिश भर है।
संगीतकार अमित त्रिवेदी ने भी सारंगी, सितार, हारमोनियम के साथ तबले की संगत कर इस गीत का शानदार माहौल रचा है। इस गीत में सितार वादन किया है भागीरथ भट्ट ने, सारंगी सँभाली है दिलशाद खान ने हारमोनियम पर उँगलियाँ थिरकी हैं अख़लक वारसी की और तबले पर संगत है सत्यजीतकी।
गीत स्वरमंडल की झंकार से बीच सुनिधि के आलाप से आरंभ होता है। आरंभिक शेर के पार्श्व में स्वरमंडल, सितार और सारंगी की मधुर तान चलती रहती है.। गीत का मुखड़ा आते ही मुजरे के माहौल को तबले और हारमोनियम की संगत जीवंत कर देती है। पहले अंतरे के बाद सितार का बजता टुकड़ा सुन कर मन से वाह वाह निकलती है। गीत में नायिका के हाव भाव उमराव जान के फिल्मांकन की याद दिला देते हैं।सुनिधि की आवाज़ बीते कल की यादों के साथ यूँ डूबती उतराती हैं कि आँखें नम हुए बिना नहीं रह पातीं।
सुनिधि चौहान
बतौर गायिका सुनिधि चौहान के लिए पिछला साल शानदार रहा। अपने तीन दशक से भी लंबे कैरियर में बीते कुछ सालों से उन्हैं अपने हुनर के लायक काम नहीं मिल रहा था पर जुबली में बाबूजी भोले भाले, नहीं जी नहीं और वो तेरे मेरे इश्क़ का... जैसे अलग अलग प्रकृति के गीतों को जिस खूबसूरती से उन्होंने अपनी आवाज़ में ढाला उसकी जितनी तारीफ़ की जाए कम होगी।
क्या इश्क़ की दलील दूँ, क्या वक़्त से करूँ गिला
कि वो भी कोई और ही थी, कि वो भी कोई और ही था
वो तेरे मेरे इश्क़ का इक, शायराना दौर सा था....
वो मैं भी कोई और ही थी वो तू भी कोई और ही था
वो तेरे मेरे इश्क़ का इक, शायराना दौर सा था
वो आसमां छलांग के जो, छत पे यूँ गले से लगे
वो आसमां छलांग के जो, छत पे यूँ गले से लगे
वो रात कोई और ही थी…वो चाँद कोई और ही था
इक निगाह पे जल गए…इक निगाह पे बुझ गए
इक निगाह पे जल गए…इक निगाह पे बुझ गए
वो आग कोई और ही थी…चराग कोई और ही था
वो तेरे मेरे इश्क़ का इक शायराना दौर सा था..
जिस पे बिछ गई थी मैं…जिस पे लुट गया था तू
बहार कोई और ही थी…वो बाग कोई और ही था
जिसपे मैं बिगड़ सी गई…जिससे तू मुकर सा गया
जिसपे मैं बिगड़ सी गई…जिससे तू मुकर सा गया
वो बात कोई और ही थी…वो साथ कोई और ही था।
वो तेरे मेरे इश्क़ का इक शायराना दौर सा था..
वैसे मुझे जुबली देखते वक़्त ये जरूर लगा कि जितनी सशक्त भावनाएँ इस गीत में निहित थीं उस हिसाब से निर्देशक विक्रमादित्य उसे अपनी कहानी में इस्तेमाल नहीं कर पाए।
वार्षिक संगीतमाला 2023 में मेरी पसंद के पच्चीस गीत
तो ये थे मेरी पसंद के साल के पच्चीस बेहतरीन गीत। पहले नंबर के गीत का तो आज मैंने ऍलान कर दिया। बाकी गीतों की अपनी रैंकिंग मैं अपनी अगली पोस्ट में बताऊँगा। आप जरूर बताएँ कि इन गीतों में या इनके आलावा भी इस साल के पसंदीदा गीतों की सूची अगर आपको बनानी होती तो आप किन गीतों को रखते?
जुबली के गीत संगीत के बारे में इस गीतमाला में पहले भी चर्चा हो चुकी है और आगे और भी होगी क्यूँकि 2023 के पच्चीस बेहतरीन गीतों की इस शृंखला में बचे तीन गीतों में दो इसी वेब सीरीज के हैं। जहाँ उड़े उड़नखटोले ने आपको चालीस के दशक की याद दिला दी थी वहीं बाबूजी भोले भाले देखकर गीता दत्त और आशा जी के पचास के दशक गाए क्लब नंबर्स का चेहरा आँखों के सामने घूम गया था।
"नहीं जी नहीं" इसी कड़ी में साठ के दशक के संगीत की यादें ताज़ा कर देता है जब फिल्म संगीत में संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन की तूती बोलती थी। शंकर जयकिशन के संगीत की पहचान थी उनका आर्केस्ट्रा। उनके संगीत रिकार्डिंग के समय वादकों का एक बड़ा समूह साथ होता था। अमित त्रिवेदी ने अरेंजर परीक्षित शर्मा की मदद से बला की खूबसूरती से इस गीत में वही माहौल फिर रच दिया है। इस गीत में वॉयलिन की झंकार भी है तो साथ में मेंडोलिन की टुनटुनाहट भी। कहीं ड्रम्स के साथ मेंडोलिन की संगत है तो कहीं वॉयलिन के साथ बाँसुरी की जुगलबंदी। एकार्डियन जैसे वाद्य भी अपनी छोटी सी झलक दिखला कर उस दौर को जीवंत करते हैं।
वाद्य यंत्रों के छोटे छोटे टुकड़ों को अमित ने जिस तरह शब्दों के बीच पिरोया है उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाए कम होगी।
इस मधुर संगीत रचना के बीच चलती है नायक नायिका की आपसी रूमानी नोंक झोंक, जिसे बेहद प्यारे बोलों से सजाया है गीतकार कौसर मुनीर ने। हिंदी फिल्मों में आपसी बातचीत या सवाल जवाब के ज़रिए गीत रचने की पुरानी परंपरा रही है। कौसर ने श्रोताओं को इसी कड़ी में एक नई सौगात दी है। अभी ये लिखते वक्त मुझे ख्याल आ रहा है "हम आपकी आँखों में इस दिल को बसा लें का" जिसमें ये शैली अपनाई गयी थी। मिसाल के तौर पर कौसर का लिखा इस गीत का मुखड़ा देखिए
कि देखो ना, बादल तेरे आँचल से बँध के आवारा ना हो जाए, जी नहीं, जी, नहीं, कि बादल की आदत में तेरी शरारत नहीं
कि देखो ना, चंदा तेरी बिंदिया से मिल के कुँवारा ना रह जाए, जी नहीं, जी, नहीं, कि चंदा की फ़ितरत में तेरी हिमाक़त नहीं
कि हमको भी भर लो नैनों में अपने, हो सुरमे की जैसे लड़ी कि हमको भी भर लो नैनों में अपने, हो सुरमे की जैसे लड़ी नज़र-भर के पहले तुझे देख तो लें कि जल्दी है तुझको बड़ी
कि देखो ना, तारे बेचारे हमारे मिलन को तरसते हैं, जी नहीं, जी, नहीं, कि तारों की आँखों में तेरी सिफ़ारिश नहीं
कि अच्छा, चलो जी तुझे आज़माएँ, कहीं ना हो कोई कमी कि अच्छा, चलो जी तुझे आज़माएँ, कहीं ना हो कोई कमी कि जी-भर के अपनी कर लो तसल्ली, हूँ मैं भी, है तू भी यहीं
तो बैठो सिरहाने कि दरिया किनारे हमारी ही मौजें हैं, जी नहीं, जी, नहीं, कि दरिया की मौजों में तेरी नज़ाकत नहीं कि देखो ना, बादल .....नहीं, जी, नहीं
वैसे क्या आपको पता है कि जुबली का संगीत गोवा में बना था। आपको जान कर आश्चर्य होगा कि 2022 में आई कला और जुबली की संगीत रचना एक साथ हुई थी। अमित त्रिवेदी इन फिल्मों के गीतकारों स्वानंद, अन्विता और कौसर को ले कर गोवा गए। उस दौर के गीतों के मूल तत्व को पकड़ने के लिए अमित त्रिवेदी ने कई दिनों तक लगातार चालीस, पचास और साठ के दशक के गाने सुने। उस दौर के अरेंजर से संपर्क साधा और फिर एक के बाद एक गानों की रिकार्डिंग करते गए। कमाल ये कि जुबली के गीतों में एक साथ आपको उस दौर के कई गीतों की झलक मिलेगी पर हर गीत बिना किसी गीत की कॉपी लगे अपनी अलग ही पहचान लिए नज़र आएगा।
वॉयलिन और ताल वाद्यों की मधुर संगत से इस गीत का आगाज़ होता है। पापोन की सुकून देती आवाज़ के साथ सुनिधि की गायिकी का नटखटपन खूब फबता है। पापोन जहाँ हेमंत दा की आवाज़ का प्रतिबिंब बन कर उभरते हैं वहीं सुनिधि की आवाज़ की चंचलता आशा जी और गीता दत्त की याद दिला देती है। वॉयलिन और ड्रम्स से जुड़े इंटरल्यूड में वॉयलिन पर सधे हाथ चंदन सिंह और उनके सहयोगियों के हैं। अगले इंटरल्यूड में वॉयलिन के साथ बाँसुरी आ जाती है। गीत के बोलों के साथ बजती मेंडोलिन के वादक हैं लक्ष्मीकांत शर्मा। तो आइए सुनिए इस गीत को और पहचानिए कि कौन सा वाद्य यंत्र कब बज रहा है?
इस गीत में आपको जोड़ी दिखेगी वामिका गब्बी और सिद्धार्थ गुप्ता की जिन्होंने पर्दे पर अपना अभिनय बखूबी किया है।
वार्षिक संगीतमाला 2023 में मेरी पसंद के पच्चीस गीत
एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमाला के 25 शानदार गीतों की इस शृंखला में अब आपको दस गीत ही सुनवाने बचे हैं। इन गीतों में ज्यादातर मेरे बेहद प्रिय रहे हैं। आज जो गीत मैं आपको सुनवाने जा रहा हूँ वो एक गैर फिल्मी गीत है जिसमें अरिजीत सिंह ने बतौर संगीतकार की भूमिका निभाई है। एक समय प्रीतम के सहायक रहे अरिजीत ने तीन साल पहले पगलेट के संगीत के लिए भी खासी वाहवाही लूटी थी। यहाँ भी वो अपने संगीत से श्रोताओं का दिल जीतने में सफल रहे हैं।
मानसून के मौसम में पिछले साल जुलाई में रिलीज़ हुए इस गीत को लिखा था इरशाद कामिल साहब ने। इरशाद कामिल के लिए बरखा के बोलों को लिखना अतीत की यादों में भींगने जैसा था। बारिश बहुत लोगों के लिए एक मौसम से बढ़कर है। ये अपने साथ हममें से कितनों के मन में भावनाओं का ज्वार लेकर आती है। इरशाद ने कोशिश की इस गीत के द्वारा वे इन जज़्बातों को शब्द दे सकें।
बड़ी कोमल शब्द रचना है इरशाद की इस गीत में। कुछ पंक्तियाँ तो बस मन को यूँ ही सहलाती हुई निकल जाती हैं जैसे कि झोंका हवा का पुकारे, ग़म को बहा ले जा रे.. या फिर आजा रे, आ, बरखा रे, मीठे तू कर दिन खारे। सच में बरखा सिर्फ एक गीत नहीं है बल्कि एक कैफ़ियत है जिसमें प्रेम, विरह और आख़िरकार मिलन के भाव बारिश की बूँदो में बहते चले आते हैं।
इस फिल्म का वडियो शूट बंगाल में हुआ। इस गीत का वीडियो देखते हुए मुझे परवीन शाकिर की वो नज़म याद आ गयी..
बारिश में क्या तन्हा भीगना लड़की
उसे बुला जिसकी चाहत में
तेरा तन-मन भीगा है
प्यार की बारिश से बढ़कर क्या बारिश होगी
और जब उस बारिश के बाद
हिज्र की पहली धूप खुलेगी
तुझ पर रंग के इस्म खुलेंगे
अरिजीत सिंह ने बरखा से जुड़े इस गीत में कुछ बेहद मधुर स्वरलहरियाँ सृजित की हैं। गिटार पर आदित्य शंकर का बजाया टुकड़ा जो मुखड़े के बाद और अंतरों के बीच बजता है मुझे बेहद मधुर लगा। गिटार के अलावा निर्मल्य डे की बजाई बाँसुरी भी कानों में रस घोलती है। साथ में कहीं कहीं पियानो की टुनटुनाहट भी सुनाई दे जाती है और फिर सोने पर सुहागा के तौर पर अरिजीत का एक प्यारा आलाप तो है ही।
आजा रे, आ, बरखा रे, कब से नहीं देखा रे
झोंका हवा का पुकारे, ग़म को बहा ले जा रे पानी की छाँव में, बूँदों के पाँव में बाँधे तू झाँझरें हो, आजा रे, आ, बरखा रे, कब से नहीं देखा रे झोंका हवा का पुकारे, ग़म को बहा ले जा रे
बहा के ले जाना दुख बीते कल के गहरे-हल्के, पुराना धो जाना आजा रे, आ, बरखा रे, मीठे तू कर दिन खारे तेरी नज़र को उतारे, कब से नहीं देखा रे
आजा, बरखा बोलो, क्या बोलूँ, मैं ना तो क्या तू? तू ना हो तो, मैं क्या बोलूँ? तू है तो मैं हूँ
आजा रे, आ, बरखा रे, कब से नहीं देखा रे कब से नहीं देखा रे, आजा रे, आ, बरखा रे पानी की छाँव में, बूँदों के पाँव में हो, आजा रे, आ, बरखा रे झोंका हवा का पुकारे, ग़म को बहा ले जा रे
गायिकी की दृष्टि से सुनिधि के लिए पिछला साल बेहतरीन रहा। हालांकि इस गाने के एक हिस्से को मैंने श्रेया और जैन की आवाज़ में सुना तो वो मुझे बारिश की सोंधी बूँदों की तरह ही मन को और शीतल कर गया।
सुनिधि के अपने इस गीत के बारे में कहना था कि हमने कोशिश की है बारिश को समर्पित एक गीत रचने की जो उस मौसम के साथ मन में उमड़ती घुमड़ती भावनाओं को भी व्यक्त कर जाता है। तो आइए सुनते हैं इस गीत को उनकी आवाज़ में।
वार्षिक संगीतमाला 2023 में मेरी पसंद के पच्चीस गीत
वार्षिक संगीतमाला में आज जो गीत बजने जा रहा है वो किसी फिल्म का नहीं है बल्कि एक वेब सीरीज का है। ये वेब सीरीज है जुबली। जुबली की कहानी चालीस पचास के दशक के बंबइया फिल्म जगत के इर्द गिर्द घूमती है। अमित त्रिवेदी को जब इस ग्यारह गीतों वाले एल्बम की बागडोर सौंपी गई तो उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती ये थी कि किस तरह चालीस और पचास के दौर के संगीत को पेश करें कि उसे आज की पीढ़ी भी स्वीकार ले और उस दौर के संगीत का जो मिज़ाज था वो भी अपनी जगह बना रहे।
अमित हमेशा ऐसी चुनौतियों का सामना करते रहे हैं। आमिर, देव डी, लुटेरा और हाल फिल हाल में उनकी फिल्म कला के संगीत ने खासी वाहवाहियाँ बटोरी हैं। अमित अपने इस प्रयास में कितने सफ़ल हुए हैं वो इसी बात से समझ आ जाता है कि जब भी आप इस एल्बम का कोई नग्मा सुनते हैं तो एक साथ आपके ज़ेहन में उस दौर के तीन चार गीत सामने आ जाते हैं जिसकी संगीत रचना और गायिकी का कोई ना कोई अक्स जुबली के नग्मे में नज़र आ जाता है।
अब आज जुबली के गीत बाबूजी भोले भाले की जाए तो सुनिधि चौहान की गायिकी का अंदाज़ आशा जी और गीता दत्त के अंदाज़ से मेल खाता दिखेगा वहीं गीत की संगीत रचना और फिल्मांकन आपको एक साथ शोला जो भड़के, मेरा नाम चिन चिन चू और बाबूजी धीरे चलना जैसे गीतों की याद दिला दे जाएगा।
कौसर मुनीर के मज़ाहिया बोल मन को गुदगुदाते हैं और उन बोलों के बीच में आइ डी राव का बजाया वुडविंड और वादक गिरीश विश्व के ढोलक की जुगलबंदी थिरकने पर मजबूर कर देती है। पुराने गीतों की तरह ताली का इस्तेमाल भी है। इसके अलावा आपको इस गीत में वायलिन और मेंडोलिन जैसे तार वाद्यों की झंकार भी सुनाई देगी।
अमित त्रिवेदी ने धुन तो झुमाने वाली बनाई ही है पर एक बड़ी सी शाबासी के हक़दार सनी सुब्रमण्यम भी हैं जिन्होने परीक्षित के साथ मिलकर इस गीत और एल्बम में अरेंजर की भूमिका निभाई है। इन दोनों के पिता फिल्म उद्योग ये काम करते थे और उनके अनुभव का फायदा इस जोड़ी ने सही वाद्य यंत्रों के चुनाव में बखूबी उठाया है।
बाबूजी भोले-भाले, दुनिया फ़रेबी है जी
तू भी ज़रा टेढ़ा हो ले, दुनिया जलेबी है जी बाबूजी भोले-भाले, दुनिया जलेबी है जी राजा, ज़रा गोल घूम जा, राजा, ज़रा गोल घूम जा
बाबूजी भोले-भाले, दुनिया ये गोला है जी तू भी ज़रा bat घुमा ले, बस ये ही मौक़ा है जी बाबूजी भोले-भाले, दुनिया ये गोला है जी आ जा, लगा ले चौका, आ जा
चमकीली खिड़कियों से तुझको बुलाते हैं जो shutter नीचे गिरा के ख़ुद भाग जाएँगे वो भड़कीली तितलियों से तुझको बहकाते हैं जो बत्ती तेरी बुझा के ख़ुद जाग जाएँगे वो
बाबूजी भोले-भाले, बम का धमाका बंबई
तू भी जला ले तीली, बन जा पलीता है, भाई
बाबूजी भोले-भाले, बम का धमाका बंबई
राजा, बंबइया तू बन जा
दिल को समझा ले ज़रा, धक-धक करना मना है प्यार का कलमा पढ़ना, प्यारे, सुन ले गुनाह है मन को मना ले ज़रा, गुमसुम रहना मना है ग़म में भी मार ठहाका, रोना-धोना मना है
बाबूजी-बाबूजी, दुनिया ये फ़ानी है जी तू भी ज़रा मौज मना ले, whiskey जापानी है जी बाबूजी-बाबूजी, दुनिया ये फ़ानी है जी ले-ले जवानी का मज़ा...
तो आइए मासूमियत को धता बताते हुए टेढा होने की वकालत करते इस गीत का आनंद लीजिए। इस गीत को फिल्माया गया है वामिका गब्बी पर जो इससे पहले ग्रहण में नज़र आयी थीं। साथ ही आपको दिखेंगे राम कपूर बिल्कुल अलग से गेट अप में
वार्षिक संगीतमाला 2023 में मेरी पसंद के पच्चीस गीत
राज़ी के संगीत के बारे में कुछ बातें संगीतमाला में इसी फिल्म के गीत दिलबरो की चर्चा करते हुए पहले भी हुई थी । राज़ी के प्रोमो के समय अरिजीत की आवाज़ में पहली बार ये गीत सुनाई दिया और कुछ दिनों में ही ये हम सब की जुबाँ पर था। फिल्म में देखते हुए भी इसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शंकर एहसान लॉय की मधुर धुन, गुलज़ार के सहज पर दिल को छूते शब्द और अरिजीत की जबरदस्त गायिकी, इन सबका सम्मिलित प्रभाव आम जनमानस पर ऐसा पड़ा कि ये गीत इतनी जल्दी मकबूलियत की सीढ़ियाँ चढ़ता गया।
इसके पक्ष में एक बात ये भी रही कि बहुत सालों से हिंदी फिल्म उद्योग ने देशभक्ति का ऐसा सुरीला गान नहीं रचा था इसलिए लोगों ने इसे हाथों हाथ लिया।
संगीतकार तिकड़ी शंकर एहसान लॉय ने फिल्म के लिए इस गीत के दो वर्सन बनाए। अरिजीत की आवाज़ वाला गीत फिल्म के प्रचार के लिए इस्तेमाल हुआ जबकि सुनिधि चौहान की आवाज़ का प्रयोग फिल्म की कहानी में किया गया। यूँ तो अरिजीत और सुनिधि दोनों ने ही इस गीत को बखूबी निभाया है पर इस गीत को गाते हुए अरिजीत इसलिए बेहतर लगे क्यूँकि उन्होंने इस नग्मे के ऊँचे सुरों को सुनिधि की अपेक्षा बड़ी सहजता से साधा।
संगीतकार तिकड़ी ने गीत के दोनों रूपों में संगीत भी बदल दिया। जहाँ अरिजीत सिंह वाला वर्सन पश्चिमी आर्केस्ट्रा, ड्रम्स और पुरुष कोरस के साथ आगे बढ़ता है वहीं फिल्म में इस्तेमाल गीत में लोकसंगीत वाला तड़का है और इसी वज़ह से इंटरल्यूड्स में तापस दा एक बार फिर रबाब और मेंडोलिन की मधुर तान के साथ सुनाई पड़ते हैं।
शंकर एहसान लॉय
इस गीत के बारे में गुलज़ार कहते हैं कि जब वे बचपन मे् स्कूल में पढ़ते थे तो उन्हें प्रार्थना के रूप में इकबाल की ये कविता सुनाई जाती थी। बरसों बाद जब उन्हें देशप्रेम से जुड़ा गीत लिखने का मौका मिला तो उन्होंने इसकी शुरुआत इकबाल की इन पंक्तियों से शुरु करने का सुझाव दिया।
लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी
ज़िन्दगी शम्मा की सूरत हो ख़ुदाया मेरी
सुझाव अच्छा था क्यूँकि गीत पाकिस्तान के स्कूल में प्रार्थना की तरह आता है। रही इकबाल साहब की बात तो ये वही मशहूर कवि इकबाल हैं जिन्होंने एक ज़माने में सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा लिखा था। ये बात अलग है कि वो बाद में अलग देश बनाने के हिमायती हो गए।
एक व्यक्ति के लिए देशप्रेम क्या है गुलज़ार ने यही दिमाग में रखते हुए गीत के बोल लिखे हैं इसलिए हम सभी इस गीत से अपने आप को बड़ी आसानी से जोड़ लेते हैं। उनका एक ही पंक्ति में जहाँ के साथ जहां (विश्व) का इस्तेमाल अच्छा लगता है। गीत की धुन बोल लिखने के बाद बनाई गयी और आपको जानकर अचरज होगा कि इसे बनाने में संगीतकार तिकड़ी ने सिर्फ पाँच मिनट का वक़्त लिया। शंकर एहसान लॉय कहते हैं कि ये एक ऐसा गीत है जो आपको अपने मुल्क की याद विश्व के किसी भी कोने में दिलाता रहेगा।
इस गीत के दोनों ही रूपों में कोरस की भी अच्छी भूमिका रही है। शंकर महादेवन संगीत की एकाडमी चलाते हैं और वहीं के बच्चों ने सुनिधि के साथ कोरस में साथ निभाया। तो चलिए बारी बारी से सुनते हैं इन गीतों के दोनों रूप.. पहले अरिजीत और फिर सुनिधि व साथियों की आवाज़ों में
ऐ वतन.मेरे वतन. आबाद रहे तू आबाद रहे तू.. आबाद रहे तू ऐ वतन, वतन मेरे, आबाद रहे तू मैं जहाँ रहूँ जहां में याद रहे तू ऐ वतन.. मेरे वतन ऐ वतन.. मेरे वतन तू ही मेरी मंजिल है, पहचान तुझी से तू ही मेरी मंजिल है, पहचान तुझी से पहुँचूँ मैं जहाँ भी मेरी बुनियाद रहे तू पहुँचूँ मैं जहाँ भी मेरी बुनियाद रहे तू ऐ वतन.. मेरे वतन.. आबाद रहे तू.. तुझपे कोई गम की आँच आने नहीं दूँ तुझपे कोई गम की आँच आने नहीं दूँ कुर्बान मेरी जान तुझपे शाद रहे तू .. ऐ वतन.. मेरे वतन.. आबाद रहे तू..
साल के पच्चीस शानदार गीतों के सफ़र का अंतिम पड़ाव अब नजदीक आ रहा है। बचे पाँच गीतों में तीन तो आपने अवश्य सुने होंगे पर जो दो नहीं सुने उनमें से एक से आपको आज मिलवाने का इरादा है। ये गीत है फिल्म अक्टूबर का और इसे बनाने वाली जो गीतकार संगीतकार की जोड़ी है वो मुझे बेहद प्रिय रही है। आप समझ ही गए होंगे कि मैं स्वानंद किरकिरे और शांतनु मोइत्रा की बात कर रहा हूँ। संगीतमाला के पन्द्रह वर्षों के सफ़र में इस जोड़ी ने कमाल के गीत दिए हैं। इनके द्वारा सृजित बावरा मन, चंदा रे, रात हमारी तो, बहती हवा सा था वो, क्यूँ नए नए से दर्द.., अर्जियाँ दे रहा है दिल आओ जैसे तमाम गीत हैं जो मेरी संगीतमालाओं में अलग अलग सालों में बज चुके हैं। विगत कुछ सालों से इन मित्रों ने दूसरे संगीतकारों और गीतकारों के साथ काम किया है। शांतनु अंतिम बार दो साल पहले पिंक के अपने गीत के साथ संगीतमाला में दाखिल हुए थे।
शांतनु तो कहते हैं कि उनके लिए फिल्मों में संगीत देना एक शौकिया काम है। असली मजा तो उन्हें घूमने फिरने में आता है। घूमने फिरने के बीच वक़्त मिलता है तो वो संगीत भी दे देते हैं। एक समय किसी एक फिल्म पर काम करने वाले शांतनु फिल्म संगीत में कैसे दाखिल हुए इसकी कहानी भी बड़ी रोचक है। नब्बे के दशक में वे एक विज्ञापन कंपनी के ग्राहक सेवा विभाग में काम कर रहे थे जब अचानक कंपनी के एक निर्देशक प्रदीप सरकार को एक जिंगल संगीतबद्ध करने की जरूरत पड़ी। जब वक़्त पर कोई नहीं मिला तो शांतनु ने जिम्मेदारी ली। जानते हैं क्या था वो जिंगल बोले मेरे लिप्स आइ लव अंकल चिप्स। उन्हीं प्रदीप सरकार ने बाद में उन्हें परिणिता का संगीत देने का मौका दिया।
स्वानंद किरकिरे व शांतनु मोइत्रा
स्वानंद की थियेटर से जुड़ी पृष्ठभूमि उनसे गीत भी लिखवाती है और साथ साथ अभिनय भी करवाती है। हाल ही अपनी मराठी फिल्म में अभिनय के लिए उन्हें पुरस्कार मिला है और पिछले साल उनकी कविताओं की किताब आपकमाई भी बाजार में आ चुकी है।
अक्टूबर तो एक गंभीर विषय पर बनाई गयी फिल्म है जहाँ नायिका एक हादसे के बाद कोमा में है। नायक उसका सहकर्मी है पर उसकी देख रेख करते हुए वो उससे भावनात्मक रूप से जुड़ जाता है। शायद उसके मन में एक आशा है कि नायिका के मन में भी शायद ऐसा कोई भाव उसके प्रति रहा हो। ये आशा भी इसलिए है कि हादसे के ठीक पहले उसने नायक के बारे में पूछा था। बता सकने की हालत में तो ख़ैर नायिका है नहीं पर इस नायक के मन का क्या किया जाए? वो तो उदासी की चादर लपेटे रुआँसा इस इंतजार में है कि कभी तो प्रिय जगेगी अपनी नींद से। स्वानंद मन के इस विकल अंतर्नाद को बेकल हवा, जलता जियरा और चुभती बिरहा जैसे बिंबों का रूप देते हैं।
कहना ना होगा कि ये नग्मा साल के कुछ चुनिंदा बेहतर लिखे गए गीतों में अपना स्थान रखता है। मुझे उनकी सबसे बेहतरीन पंक्ति वो लगती है जब वो कहते हैं सोयी सोयी एक कहानी..रूठी ख्वाब से, जागी जागी आस सयानी..लड़ी साँस से। फिल्म की पूरी कथा बस इस एक पंक्ति में सिमट के रह जाती है।
सुनिधि चौहान
इस गीत के संगीत में गिटार एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। प्रील्यूड की मधुर धुन का तो कहना ही क्या। गिटार के पीछे हैं एक बार फिर अंकुर मुखर्जी जिनकी बजाई मधुर धुन अपने चाव लगा में सुनी थी। मुखड़े के बाद गिटार और ताल वाद्य की मिश्रित रिदम गीत के अंत तक साथ चलती है। मेरा मानना है कि 2018 में सुनिधि चौहान के गाए बेहतरीन गीतों में मनवा सबसे ऊँचा स्थान रखता है। गीत का दर्द उनकी आवाज़ से रिसता सा महसूस होता है। गीत में पार्श्व से उभरता आलाप प्रणव विश्वास का है।
मनवा एक ऐसा गीत है जिसे आप फिल्म के इतर भी सुनें तो उसके प्रभाव से आप घंटों मुक्त नहीं होंगे। रिमिक्स और रैप के शोर में ऐसी धुनें आजकल कम ही सुनाई देती हैं। शांतनु चूँकि मेरी पीढ़ी के हैं इसलिए उनकी बात समझ आती है जब वो कहते हैं..
"मैं जब बड़ा हो रहा था तो आल इंडिया रेडियो पर लता मंगेशकर, पंडित रविशंकर के साथ पश्चिमी शास्त्रीय संगीत सुना करता था। एक रेडियो स्टेशन पर तब हर तरह का संगीत बजा करता था। उस वक़्त हमारे पास चैनल बदलने का विकल्प नहीं था। मुझे हमेशा लगा है कि संगीत में ऍसी ही विभिन्नता होनी चाहिए और ये श्रोता को निर्णय लेना है कि उसे क्या सुनना है, क्या नहीं सुनना है? जो संगीत की विविधता इस देश में है वो अगर आप बच्चों और युवाओं को परोसेंगे नहीं तो वो उन अलग अलग शैलियों में रुचि लेना कैसे शुरु करेंगे?"
युवा निर्माता निर्देशक व संगीतकार शांतनु के उठाए इस प्रश्न की गंभीरता समझेंगे ऐसे मुझे विश्वास है।
तो चलिए अब सुनते हैं सुनिधि का गाया ये नग्मा
मनवा रुआँसा, बेकल हवा सा मनवा रुआँसा, बेकल हवा सा जलता जियरा, चुभती बिरहा जलता जियरा, चुभती बिरहा सजनवा आजा, नैना रो रो थके सजनवा आजा, नैना रो रो थके मनवा रुआंसा... धीमे धीमे चले, कहो ना कोई रात से हौले हौले ढले, कहो ना मेरे चाँद से सोयी सोयी एक कहानी रूठी ख्वाब से जागी जागी आस सयानी लड़ी साँस से साँवरे साँवरे, याद में बावरे नैना. नैना रो रो थके मनवा रुआँसा...नैना रो रो थके
उत्तरी कारो नदी में पदयात्रा Torpa , Jharkhand
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कारो और कोयल ये दो प्यारी नदियां कभी सघन वनों तो कभी कृषि योग्य पठारी
इलाकों के बीच से बहती हुई दक्षिणी झारखंड को सींचती हैं। बरसात में उफनती ये
नदियां...
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