बादल की डोली में लो बैठी रे बुँदनिया
धरती से मिलने को निकली सावनिया
सागर में घुलने को चली देखो नदिया, धीमे-धीमे चले पुरवैया...
नई आशा का दीपक जला, चला सपनों का नया क़ाफ़िला
देखो उड़ी एक धानी चुनरिया, हो, धीमे-धीमे चले पुरवैया...

जिन्दगी यादों का कारवाँ है.खट्टी मीठी भूली बिसरी यादें...क्यूँ ना उन्हें जिन्दा करें अपने प्रिय गीतों, गजलों और कविताओं के माध्यम से! अगर साहित्य और संगीत की धारा में बहने को तैयार हैं आप तो कीजिए अपनी एक शाम मेरे नाम..
आज जिस गीत को आपके सामने ले के आ रहा हूँ वो ज्यादातर लोगों के लिए अनजाना ही होगा। दरअसल ये एक ऐसा गीत है जो उस दौर के गीत संगीत की याद दिला आता है जिसे फिल्म संगीत का स्वर्णिम काल कहा जाता है। श्री वल्लभ व्यास के लिखे इस गीत के बोल थोड़े अटपटे से हैं पर उसे स्वानंद किरकिरे अपनी खुशमिजाज़ आवाज़ से यूँ सँवारते हैं कि उन्हें सुनते सुनते इस गीत को गुनगुनाने का दिल करने लगता है। वही ठहराव और वही मधुरता जो आजकल के गीतों में बहुत ढूँढने से मिलती है।
ये गीत है फिल्म सीरियस मेन का जो नेटफ्लिक्स पर पिछले अक्टूबर में रिलीज़ हुई थी। वैज्ञानिकों के बीच छोटे पद पर काम करते हुए अपने को कमतर माने जाने की कसक नायक के दिलो दिमाग में इस कदर घर कर जाती है कि वो प्रण करता है कि अपने बच्चे को ऐसा बनाएगा कि सारी दुनिया उसकी प्रतिभा को नमन करे। पर इस काली रात से सुबह के उजाले तक पहुँचने के लिए वो अपने तेजाबी झूठ का ऐसा जाल रचता जाता है कि गीतकार को कहना पड़ता है...रात है काला छाता जिस पर इतने सारे छेद.... तेजाब उड़ेला किसने इस पर जान ना पाए भेद
![]() |
स्वानंद किरकिरे व शांतनु मोइत्रा |
![]() |
सुनिधि चौहान |
"मैं जब बड़ा हो रहा था तो आल इंडिया रेडियो पर लता मंगेशकर, पंडित रविशंकर के साथ पश्चिमी शास्त्रीय संगीत सुना करता था। एक रेडियो स्टेशन पर तब हर तरह का संगीत बजा करता था। उस वक़्त हमारे पास चैनल बदलने का विकल्प नहीं था। मुझे हमेशा लगा है कि संगीत में ऍसी ही विभिन्नता होनी चाहिए और ये श्रोता को निर्णय लेना है कि उसे क्या सुनना है, क्या नहीं सुनना है? जो संगीत की विविधता इस देश में है वो अगर आप बच्चों और युवाओं को परोसेंगे नहीं तो वो उन अलग अलग शैलियों में रुचि लेना कैसे शुरु करेंगे?"युवा निर्माता निर्देशक व संगीतकार शांतनु के उठाए इस प्रश्न की गंभीरता समझेंगे ऐसे मुझे विश्वास है।
‘दास देव’ की रिलीज से पहले सुधीर जी इसे अपने दोस्तों, फिल्मों से जुड़े लोगों को दिखा रहे थे, उनका फीडबैक ले रहे थे. उनका कहना था कि मैं बहुत वक़्त से जुड़ा हूँ इस फिल्म से तो मेरी ऑब्जेक्टिविटी चली गई है, तुम बाहरी की नजर से देखो और कुछ जोड़ना हो तो बताओ। तो हमने बैठकर उसमें कुछ चीजें जोड़ीं, कुछ घटाईं। इसी दौरान वे जब सभी से पूछ रहे थे कि तुम्हारी क्या राय है तो मैंने कहा कि अगर अंत में कोई गाना हो तो फिल्म का क्लोजर बेहतर हो जाएगा। फिल्म देखकर उस गाने का एब्सट्रेक्ट-सा थॉट मेरे दिमाग में था भी. मैंने कहा कि आपके पास पहले से जो गाने रिकॉर्डेड हैं उनमें से कोई इस्तेमाल कर लीजिए अगर सिचुएशन पर फिट हो तो, नहीं तो मैं लिखने की कोशिश करता हूँ . इस तरह ‘आजाद हूँ ’ ईजाद हुआ!
![]() |
स्वानंद किरकिरे |
![]() |
अनुपमा राग व गौरव सोलंकी |
![]() |
तापस रॉय |
जब मैं लखनऊ में दसवीं में पढ़ रहा था तो मेरे सपनों का भारत पर निबंध लिखते समय मैंने पहली बार दुष्यन्त कुमार के मशहूर शेर कौन कहता है कि आसमान में सुराख नहीं हो सकता....एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों का इस्तेमाल किया था। उन स्कूली दिनों में दुष्यन्त कुमार के शेर वाद विवाद प्रतियोगिता का अहम हिस्सा हुआ करते थे। आगे के सालों में दुष्यन्त जी की कविताओं से साथ छूट गया। पर लखनऊ में ही एक दोस्त की शादी ने उनकी कविता से फिर मुलाकात करा दी। मेरे दोस्त के पिता ने वहाँ उनकी ग़ज़ल सुनाई मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ.....जिसमें ये तू किसी रेल सी गुजरती है वाला शेर भी है। तभी से ये ग़ज़ल और खासकर ये शेर मेरे ज़ेहन में बस गया।
अजीब रूपक था ये एक लड़की का रेल की तरह गुजरना और उसके प्रेमी का उसे देख पुल की तरह थरथराना। देखने से कितना सूखा सा बिंब लगता है। यंत्रवत चलती ट्रेन और लोहे का पुल। पर मेरे ये लिए हिन्दी कविताओं में प्रायः इस्तेमाल किये जाने वाले बिंबों से एक दम अलग था। जरा दूसरे नज़रिए से सोचिए, इंजन और रेल का ये रोज का क्षणिक पर दैहिक मिलन कितना नर्म, मादक अहसास जगाता है मन में उस चित्र के साथ जिसमें हम सभी पल बढ़ के बड़े हुए हैं।
एक शाम मेरे नाम Copyright © 2009 Designed by Bie