जिन्दगी यादों का कारवाँ है.खट्टी मीठी भूली बिसरी यादें...क्यूँ ना उन्हें जिन्दा करें अपने प्रिय गीतों, गजलों और कविताओं के माध्यम से!
अगर साहित्य और संगीत की धारा में बहने को तैयार हैं आप तो कीजिए अपनी एक शाम मेरे नाम..
वार्षिक संगीतमाला की अगली पेशकश है फिल्म पंगा से। कंगना रणौत की ये फिल्म लगभग एक साल पहले पिछली जनवरी में प्रदर्शित हुई थी। शंकर अहसान लॉए द्वारा संगीत निर्देशित इस फिल्म के गीत जावेद अख्तर ने लिखे थे। जावेद साहब जैसे मँजे हुए गीतकार आजकल फिल्मों के लिए कम ही लिखते हैं और इसीलिए जब उनकी उपस्थिति किसी फिल्म में देखता हूँ तो उनके लिखे बोलों पर मेरी खास नज़र रहती है।
पंगा एक ऐसी महिला कबड्डी खिलाड़ी की कहानी थी जो शादी और उसके बाद मातृत्व की जिम्मेदारियाँ सँभालने के लिए खेल से जुड़ा अपना सफल कैरियर छोड़ देती है पर ये बात उसे दिल में कहीं ना कहीं कचोटती रहती है कि वो इस खेल के माध्यम से जिस मुकाम पर जाना चाहती थी, वहाँ नहीं पहुँच पाई।
जावेद साहब को नायिका के इन्हीं दबे हुए अरमानों को ध्यान में रखते हुए एक गीत लिखना था और उन्होंने एक बड़ा ही प्यारा गीत रचा जिसका नाम था जुगनू। मुखड़े में देखिए किस तरह नायिका के मन में चल रही उधेड़बुन का वो खाका खींचते हैं..दो रंगो में रँगी है, दो रूप में ढली...ऐसी हैं ज़िंदगी सबकी...मायूसी भी है थोड़ी, अरमान भी कई....ऐसी है ज़िंदगी सबकी...गहरे अँधेरों… में भी..पल पल चमकते हैं जुगनू से जो....अरमान हैं वो तेरे..
जीवन का यथार्थ समेट लिया जावेद जी ने इन पंक्तियों में। जीवन में परिस्थितियाँ कैसी भी हों हमारे मन में कुछ अरमान हर पल मचलते ही रहते हैं। बिना किसी सपने के ज़िदगी के रंग फीके नहीं हो जाएँगे?
अगले अंतरे में जो कि फिल्म में शामिल नहीं हुआ जावेद साहब की पंक्तियाँ फिर वाह वाह करने को मजबूर करती हैं। गीत के शानदार बोलों को शंकर महादेवन के साथ साथ इंडियन आइडल में हर किसी के चहेते रहे सनी हिंदुस्तानी की आवाज़ का भी साथ मिला है। शंकर महादेवन जिस गीत को भी गाते हैं उसमें शास्त्रीयता का पुट जरूर भरते हैं। गीत सरगम के बाद एक छोटे आलाप से शुरु होता है और फिर शंकर की आवाज़ में गीत के शब्दों का जादू मन में उतरने लगता है।
दो रंगो में रँगी है, दो रूप में ढली ऐसी हैं ज़िंदगी सबकी मायूसी भी है थोड़ी, अरमान भी कई ऐसी है ज़िंदगी सबकी गहरे अँधेरों… में भी पल पल चमकते हैं जुगनू से जो अरमान हैं वो तेरे.. जुगनू जुगनू जुगनू जैसे हैं जुगनू जैसे हैं अरमान अरमान.. जुगनू जुगनू जुगनू जैसे हैं जुगनू जैसे हैं अरमान अरमान हो.. अरमाां… नींदों के देश में है सपनो का इक नगर जहाँ हैं डगर डगर जुगनू सौ आँधियाँ हैं चलती साँसों में रात भर बुझते नही मगर जुगनू गहरे अँधेरों… में भी पल पल चमकते हैं जुगनू से जो अरमान हैं वो तेरे..
जुगनू जुगनू जुगनू ...हो.. अरमाां…
लम्हा बा लम्हा, लम्हा बा लम्हा कुछ ख़्वाब तो होते हैं रफ़्ता बा रफ़्ता हम, रफ़्ता बा रफ़्ता बेताब तो होते हैं…
ओ.. तू माने चाहे ना माने तू दिल है अगर तो है आरज़ू आँखों के प्याले खाली नहीं कोई तमन्ना होगी कहीं गहरे अँधेरों… में भी पल पल चमकते हैं जुगनू से जो अरमान हैं वो तेरे.. जुगनू जुगनू जुगनू ...हो.. अरमाां…
भटिंडा के रेलवे स्टेशन पर बूट पालिश करने वाले सनी मलिक उर्फ सनी हिंदुस्तानी की कहानी तो इंडियन आइडल के माध्यम से पिछले साल पूरा भारत जान ही गया है इसलिए उसे मुझे दोहराने की जरूरत नहीं। इस गीत में शंकर महादेवन जैसे कमाल के गायक के सामने उनकी आवाज़ की चमक थोड़ी फीकी जरूर लगी पर उन्होंने अपनी झोली में आए गीत के हिस्से बखूबी निभाए। गीत में कोरस व ताली, ढोलक, तबले के साथ हारमोनियम का बेहतरीन इस्तेमाल हुआ है। हारमोनियम की मधुर धुन आप तक पहुँचाई है वादक आदित्य ने।
तो आइए सुनते हैं पहले इस गीत का आडियो वर्जन जिसमें इसके दोनों अंतरे हैं।
शंकर एहसान लॉय की तिकड़ी पिछले दो दशकों से भी ज्यादा समय से फिल्म संगीत में सक्रिय है और बीच के कुछ सालों को छोड़ दें तो इनके द्वारा रचे संगीत की चमक फीकी नहीं पड़ी है। 2018 में राजी के गीत ऐ वतन और दिलबरो ने खासी लोकप्रियता अर्जित की थी तो इस साल मणिकर्णिका साल के बेहतरीन एलबमों में से एक रहा। इस संगीतमाला में बोलो कब प्रतिकार करोगे, राजा जी के बाद सातवीं पायदान पर दाखिल हो रहा है इसी फिल्म का गीत मैं रहूँ या ना रहूँ भारत ये रहना चाहिए।
संगीत के मामले में मणिकर्णिका अगर इतनी सफल रही तो उसके पीछे एक बड़ा योगदान इसके गीतकार प्रसून जोशी को जाता है। इन सारे गीतों में उनकी शब्द रचना कमाल की है। देशप्रेम से ओतप्रोत उनके गीतों को सिर्फ पढ़ने से ही पूरे बदन में झुरझुरी हो उठती है। कुछ वैसे ही जैसी स्कूल के दिनों में रामधारी सिंह 'दिनकर' की कविताओं को सुन कर होती थी। प्रसून ने इस फिल्म की पटकथा भी लिखी है। अपनी अन्य जिम्मेदारियों की वजह से बतौर गीतकार 2016 में आई नीरजा के बाद उन्होंने किसी फिल्म में काम नहीं किया था। झाँसी की रानी का शौर्य उन्हें हमेशा आकर्षित करता रहा इसलिए मणिकर्णिका लिए पटकथा और गीत लिखने का काम उन्हें मिला तो उसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया ।
मणिकर्णिका के इस गीत के मुखड़े के बारे में प्रसून का कहना है कि
देश को आज़ादी सिर्फ नारे लगाने वालों से नहीं मिली। बहुत लोगों ने अपना सर्वस्व त्यागा तब ये मुकाम हासिल हुआ। सिर्फ नारों से नहीं खून की धाराओं से भी मिली है ये आज़ादी। आज लेकिन बहुत से युवा इस बात को नहीं समझते। रानी लक्ष्मी बाई की कहानी हमें प्रेरित करती हैं। ये हमसे पूछती है कि क्या आप अपना जीवन यूँ ही व्यर्थ करना चाहते हैं या देश के लिए न्योछावर करना चाहते हैं ? आख़िर अपने पराक्रम की वज़ह से रानी को क्या मिला? वो चाहती तो पेंशन ले कर ज़िंदगी अच्छे से गुजार सकती थीं। उनकी व्यक्तित्व की यही बात मेरे दिल को लग गयी और इसीलिए मैंने लिखा कि देश से है प्यार तो हर पल यह कहना चाहिए..मैं रहूँ या ना रहूँ भारत ये रहना चाहिए
मुखड़ा तो मुखड़ा गीत का अंतरा भी प्रसून ने गजब का लिखा है। अब आप ही बताइए ये तो केवल एक गीत है, ऐसी पंक्तियाँ तो किसी कविता को एक अलग स्तर पर ले जाएँगी
मेरी नस नस तार कर दो और बना दो एक सितार, ......राग भारत मुझपे छेड़ो झनझनाओ बार बार ......देश से ये प्रेम आँखों से छलकना चाहिए, .....मैं रहूँ या ना रहूँ भारत ये रहना चाहिए
इतने अच्छे शब्दों को चाहिए थी एक शानदार आवाज़ और शंकर महादेवन के रहते हुए गायक की और जगह कौन ले सकता था? इस गीत को रिलीज़ करते समय उन्होंने कहा था कि मुझे गर्व है अपने भारतीय होने पर।
गीत में तार वाद्यों से जुड़ा आर्केस्टा बांबे स्ट्रिंग का है और अंतरों के बीच की बाँसुरी बजाई है नवीन कुमार ने। तो आइए एक बार फिर सुनते हैं भारत और भारत को प्रेम करने वाले लोगों को समर्पित ये गीत।
देश से है प्यार तो हर पल यह कहना चाहिए मैं रहूँ या ना रहूँ भारत ये रहना चाहिए सिलसिला ये बाद मेरे यूँ ही चलना चाहिए मैं रहूँ या ना रहूँ भारत ये रहना चाहिए मेरी नस नस तार कर दो और बना दो एक सितार राग भारत मुझपे छेड़ो झनझनाओ बार बार देश से ये प्रेम आँखों से छलकना चाहिए मैं रहूँ या ना रहूँ भारत ये रहना चाहिए शत्रु से कह दो ज़रा सीमा में रहना सीख ले ये मेरा भारत अमर है सत्य कहना सीख ले भक्ति की इस शक्ति को बढ़कर दिखना चाहिए मैं रहूँ या ना रहूँ भारत ये रहना चाहिए है मुझे सौगंध भारत सौगंध भारत है मुझे भूलूँ ना एक क्षण तुझे हम्म.. रक्त की हर बूँद तेरी है तेरा अर्पण तुझे युद्ध ये सम्मान का है मान रहना चाहिए
वार्षिक संगीतमाला 2010 में बचे हैं अब बीस और नग्मे और बीसवीं पॉयदान पर है सूफ़ियत की रंग में रँगा वो गीत जिससे ख़ुदा का नूर टपक रहा है। हिंदी फिल्म संगीत में दक्षिण भारत के संगीतकार तो रह रह कर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते रहे हैं पर दक्षिण भारतीय गीतकारों की उपस्थिति ना के बराबर ही रही है। इसलिए जब मैंने इस सूफ़ी गीत के गीतकार के रूप में एक तमिल का नाम देखा तो मन आश्चर्य मिश्रित हर्ष से भर उठा। जिस तरह 21 वीं पॉयदान पर आप मिले थे एक नए संगीतकार आर अनध से उसी तरह बीसवीं पॉयदान पर स्वागत कीजिए इस नए गीतकार 'निरंजन अयंगार' का।
गीतकार की हैसियत से निरंजन का मुंबई की फिल्मी दुनिया में सफ़र जयदीप साहनी से मिलता जुलता रहा है। गीतकार से ज्यादा आज भी वे संवाद लेखक के रूप में जाने जाते हैं। करण ज़ौहर की फिल्मों 'कभी अलविदा ना कहना' और 'कल हो ना हो' के संवाद लेखन से जुड़े रहने की वज़ह से उन्हें फिल्म के लिए किए जाने वाले संगीत सत्रों का हिस्सा बनना पड़ा। इन संगीत सत्रों के दौरान निरंजन की उपस्थिति का फ़ायदा उनके मौके पर लिखे गए कच्चे गीतों (जिसे बॉलीवुड की चालू जबान में डमी लिरिक्स कहा जाता है) से लिया जाता रहा। अंततः तो इन फिल्मों में गीतों को पक्का करने का काम जावेद साहब को ही दिया गया।
पर जबमाई नेम इज खान (My Name is Khan)में यही प्रक्रिया दोहराई गई तो निरंजन के लिखे ये कच्चे गीत करण जौहर को इतने अच्छे लगे कि वे बिना किसी ज्यादा बदलाव के फिल्म का हिस्सा बन गए।
लगभग ऐसा ही वाक़या फिल्म कुर्बान की संगीत रचना के समय भी हुआ और ये संवाद लेखक एक गीतकार भी बन गया। पर अपना पहला गीत उन्होंने माई नेम इज खान के लिए ही लिखा। वो गीत तो इस गीतमाला के प्रथम दस गीतों के साथ बजेगा और उस गीत की चर्चा के समय निरंजन के बारे में कुछ और बातें आपसी बाँटी जाएँगी।
आज इस पॉयदान पर उसी फिल्म का एक दूसरा गीत है 'नूर ए ख़ुदा...'. जिसे गाया है शंकर महादेवन,अदनान सामी और श्रेया घोषाल की तिकड़ी ने। निरंजन जब इस दुनिया के लाचार और बेबस लोगों की तरफ से भगवान से फ़रियाद करते हैं तो बात सीधे दिल पर लगती है।
उजड़े से लमहों को आस तेरी, ज़ख़्मी दिलों को है प्यास तेरी
हर धड़कन को तलाश तेरी, तेरा मिलता नहीं है पता
खाली आँखें खुद से सवाल करें, अमन की चीख बेहाल करें,
बहता लहू फ़रियाद करें, तेरा मिटता चला है निशाँ,
शंकर महादेवन की गायिकी की बुलंदियाँ से तो सभी संगीत प्रेमी भली भांति परिचित हैं ही पर अदनान और श्रेया ने भी अपना हिस्सा ठीक ठाक ही निभाया है। पर मुझे इस गीत का सबसे मजबूत पहलू लगता है गीत के अंतरों के बीच आता नूर ए ख़ुदा का कोरस जिसे दोहराकर आप अपने आप को ऊपरवाले से कुछ और करीब पाते हैं। पूरे गीत में शंकर अहसान लॉय का संगीत लफ़्जों के पीछे ही रहता है ताकि उनसे निकलती भावनाएँ की वज़ह से संगीत से श्रोताओं तक पहुंचने के पहले भटक ना जाएँ।
तो आइए इस गीत के माध्यम से याद करें उस ख़ुदा को जो पास रहकर भी जीवन के कठिन क्षणों में दूर जाता सा प्रतीत हो रहा है...
पहले लखनऊ और फिर पटना में शादियों में शिरकत करने और कुछ ब्लॉगर दोस्तों से दिलचस्प मुलाकातों के सिलसिले को निबटाते हुए वापस आ गया हूँ अपनी इस वार्षिक संगीतमाला की ऊपर की 12 सीढ़ियों को चढ़ने। इस क्रम में पहला यानि 12वीं पॉयदान का गीत एक ऐसा गीत है जो कि राग भैरवी पर आधारित है। इस गीत को लिखा जावेद अख्तर साहब ने, इसकी धुन बनाई संगीतकार तिकड़ी शंकर एहसान लॉयने और इसे अपनी आवाज़ से सँवारा शंकर महादेवन ने। फिल्म का नाम तो आप पहचान ही गए होंगे। जी हाँ ये फिल्म थी जोया अख्तर द्वारा निर्देशित 'लक बाई चांस'। इसी फिल्म का शेखर की आवाज़ में गाया गीत संगीतमाला की 22 वीं पॉयदान पर पहले ही बज चुका है।
वैसे निर्देशिका जोया अख्तर का कहना था कि गर उनका बस चलता तो इस फिल्म के सारे गीत शंकर महादेवन से ही गवा लेती। वहीं गायक शंकर महादेवन कहते हैं कि कुछ गीत ऐसे होते हैं जिन्हें मन में बैठने में वक़्त लगता है। पश्चिमी वाद्य यंत्रों ड्रम्स, बेस के बैकग्राउंड और राग भैरवी में ठुमरी स्टाइल गायिकी के स्ममिश्रण से बना गीत इसी श्रेणी में आता है। इस गीत के जिन हिस्सों में शास्त्रीयता का पुट अधिक है वो मन को गहरा सुकून देते हैं। जावेद साहब ने ऐसे रूपको का इस्तेमाल किया जो गीत की शास्त्रीयता से मेल खाए।
फिल्म उद्योग में जब भी कोई कलाकार कदम रखता है तो सबसे पहले उसे काम पाने के लिए विभिन्न स्टूडिओ में आडिशन देना पड़ता है। पहली बार कैमरे के सामने की घबराहट, ठुकराए जाने के डर से लेकर सफल होने की आशा इन सभी मिश्रित भावनाओं से हर अभिनेता को गुजरना पड़ता है।
पर जावेद अख्तर सफल होने की इस सर्वव्यापी चाह और उसे पाने के लिए अपने सभी मूल्यों को दाँव पर लगाने की प्रवृति पर चोट करते हुए बेहद वाज़िब परंतु कठिन प्रश्न करते हैं। जावेद साहब हम सब के समाने ये सवाल करते हैं कि सिर्फ अपना लक्ष्य पूरा करने से सुख की अनुभूति तो आती है पर क्या दिल में चैन आ जाता है? सुख हमारे से बाहर हैं या इसकी तलाश दिल के अंदर करनी चाहिए ? हमने अपने जीवन में सुख के मापदंड बना रखे हैं वो क्या मन को सुकून देने वाले होते हैं?
तो आइए सुनें इस गीत में शंकर महादेवन की लाजवाब गायिकी को..
बगिया-बगिया बालक भागे,तितली फिर भी हाथ ना लागे!
इस पगले को कौन बताये,
ढूँढ रहा है जो तू जग मैं,कोई जो पाये तो मन में ही पाए!
सपनों से भरे नैना, तो नींद है न चैना!
ऐसी डगर कोई अगर जो अपनाए,
हर राह के वो अंत पे रस्ता ही पाए!
धूप का रस्ता जो पैर जलाए,
मोड़ तो आए छाँव ना आए,
राही जो चलता है चलता ही जाए,
कोई नही है जो कहीं उसे समझाए!
सपनों से भरे नैना,
तो नींद है ना चैना!
नैना रे नैना रे......
दूर ही से सागर जिसे हर कोई माने,
पानी है वो या रेत है ये कौन जाने,
जैसे के दिन से रैन अलग है,
सुख है अलग और चैन अलग है,
पर जो ये देखे वो नैन अलग है,
चैन तो है अपना सुख हैं पराए!
सपनों से भरे नैना,
तो नींद है न चैना.....
पर ना तो आदमी सफल होने की इच्छा छोड़ सकता है ना इसे पाने के लिए होने वाली जद्दोज़हद से दूर रह सकता है। सफल होने की चाह ही तो शायद जिंदगी का टॉनिक है जो हमें विषम परिस्थियों में भी जूझने के लिए प्रेरित करता रहता है। इस गीत की शूटिंग के दौरान अपनी किस्मत आज़माने आए एक कलाकार द्वारा कहा गया ये शेर सब कुछ कह जाता है...
कि दिल मे चुभ जाएँगे जब अपनी जुबाँ खोलेंगे
हम भी शहर में काँटों की दुकाँ खोलेंगे
और शोर करते रहे गलियों में हजारों सूरज
धूप निकलेगी तो हम भी अपना मकाँ खोलेंगे
तो हो जाइए थिरकने को तैयार क्यूँकि आ रहा है वार्षिक संगीतमाला की 19 वीं पॉयदान पर एक ऐसा गीत जो ना केवल आपको झूमने पर विवश करेगा बल्कि साथ ही हिंदी के उस रूप की भी आपको याद दिला दे जाएगा जिसे आज के हिंग्लिश माहौल में लगभग आप भूल चुके हैं।
लंदन ड्रीम्स के इस रोमांटिक गीत में परस्थिति ये है कि नायक मस्ती में भावविहृल हो उठे हैं और अपने प्रेम के इस जुनून को शब्दों में व्यक्त करना चाहते हैं। जब फिल्म के निर्देशक गीतकार प्रसून जोशी के पास इस परिस्थिति को ले कर गए तो प्रसून को गीत के स्वरूप को ढालने में तीन चार दिनों का वक़्त लगा। प्रसून को लगा कि हिंदी के आलावा बृज भाषा के लहज़े को भी गीत में आत्मसात किया जाए। ज़ाहिर सी बात है कि प्रसून यह दिखाना चाहते थे कि जब भी हम भावातिरेक में होते हैं तो कुछ वैसे शब्दों का इस्तेमाल जरूर करते हैं जो कि हमारी आंचलिक भाषा से जुड़े हों.
पर आंचलिक शब्दों का सहारा प्रसून ने मुख्यतः मुखड़े में लिया है। गीत के पहले अंतरे से ही वो विशुद्ध हिंदी शब्दों का प्रयोग करते हैं। दरअसल ये गीत इस बात को सामने लाता है कि आज के हिंदी गीतकारों ने किस तरह अपने आप को उन्हीं रटे रटाये चंद जुमलों में संकुचित कर लिया है। आज की खिचड़ी भाषाई संस्कृति से जुड़ते युवा वर्ग के लिए प्रसून का ये प्रयोग वाकई काबिल-ए-तारीफ़ है। युवा वर्ग में इस गीत की लोकप्रियता इस बात को साबित करती है कि अगर सलीके से तत्सम शब्दों का प्रयोग किया जाए तो उसका भी एक अलग आनंद होता है। अपने इस गीत के बारे में बनाए गए वीडिओ में प्रसून कहते हैं...
इस गीत को रचते समय मेरे मन में सलमान खाँ का वो रूप आया जिसे मैं पसंद करता हूँ। गीत की भावनाओं में प्रेम का जुनून उन्हीं को ध्यान में रख कर आया है। इस गीत में हिंदी के ऍसे शब्दों का हुज़ूम है जो कि आपको आनंदित कर देगा। मैंने कोशिश की है कि इस गीत में वैसे शब्दों का प्रयोग करूँ जो खड़ी बोली या संस्कृत से आए हैं। ये वैसे शब्द हैं जिन्हें लोगों ने सालों साल नहीं सुना होगा या उन्हें अपनी स्कूल की हिंदी पुस्तकों में पढ़ा होगा।
शंकर अहसान लॉए की तिकड़ी द्वारा संगीतबद्ध लंदन ड्रीम्स के इस गीत की प्रकृति इस एलबम के अन्य गीत जो कि कॉनसर्ट के माहौल में गाए से सर्वथा भिन्न है। इस गीत को गाने में जिस मस्ती और जिस पागलपन की जरूरत थी उसे शंकर महादेवन ने बखूबी पूरा किया है। तो गीत का प्ले बटन दबाने के पहले ज़रा खड़े हो जाइए और गीत के अनुरूप शरीर में ऐसी लोच पैदा कीजिए कि धरती कंपित हो उठे..
मन को अति भावे सैयाँ करे ताता थैया,
मन गाए रे हाए रे हाए रे हाए रे हाए रे
हम प्रियतम हृदय बसैयाँ पागल हो गइयाँ
मन गाए रे हाए रे हाए रे हाए रे हाए रे
जो मारी नैन कंकरिया तो छलकी प्रेम गगरिया
और भीगी सारी नगरिया, सब नृत्य करे संग संग
तोरे बान लगे नस नस में, नहीं प्राण मोरे अब बस में
मन डूबा प्रेम के रस में, हुआ प्रेम मगन कण कण
हो बेबे बेबे सौंपा तुझको तन मन
मन को अति भावे सैयाँ करे ताता थैया,
मन गाए रे हाए रे
क्या उथल पुथल बावरा सा पल, साँसों पे सरगम का त्योहार है
बनके मैं पवन चूम लूँ गगन, हो ॠतुओं पे अब मेरा अधिकार है
संकेत किया प्रियतम ने आदेश दिया धड़कन ने
सब वार दिया फिर हमने, हुआ सफल सफल जीवन
अधरों से वो मुस्काई काया से वो सकुचाई
फिर थोड़ा निकट वो आई था कैसा अद्भुत क्षण
ओ बेबे बेबे मैं हूँ संपूर्ण मगन
मन को अति भावे.... हाए रे...
हो पुष्प आ गए, खिलखिला गए उत्सव मनाता है सारा चमन
चंद्रमा झुका सूर्य भी रुका, दिशाएँ मुझे कर रही हैं नमन
तूने जो थामी बैयाँ सबने ली मेरी बलैयाँ
सुध बुध मेरी खो गइयाँ हुआ रोम रोम उपवन
जब बीच फसल लहराई, धरती ने ली अँगड़ाई
और मिलन बदरिया छाई, कसके बरसा सावन
ओ बेबे बेबे सब हुआ तेरे कारण
मन को अति भावे.... हाए रे...
लंदन ड्रीम्स का ये गीत फिल्म में सलमान और असिन पर फिल्माया गया है।
और हाँ आपकी पसंद जानने के लिए साइड बार में एक वोटिंग भी चालू कर दी गई है। उसमें हिस्सा लें ताकि आप सब की पसंद का पता लग सके।
कहते हैं प्यार की शुरुआत आँखों की देखा देखी से शुरु होती है। वो गीत याद है ना आपको नैन लड़ जहिएँ तो मनवा मा कसक होइबे करी....। अब इन आँखों पर शायरों ने एक से एक उम्दा शेर कहे हैं तो भला गीतकार कैसे पीछे रहें। हर साल किसी ना किसी की प्यारी आँखों का जिक्र फिल्मी गीतों में आ ही जाता है । अब 2006 की बात करें गुलज़ार साहब ने नैनों के बारे में ओंकारा में लिखे अपने गीत में बड़ा ही खूबसूरत जुमला रचा था...
नैणों की जुबाँ पे भरोसा नहीं आता, लिखत पढ़त ना रसीद ना खाता !
पिछले साल के गीतों ने भी ये परंपरा बनाए रखी है और उनमें से दो गीत इस संगीतमाला का हिस्सा बन पाए हैं। नैनों के बरसने की बात अगर की जाए तो एकदम से लता दी का गाया नैना बरसे.... याद आ जाता है। पर नवोदित गीतकार रजत अरोड़ा20 वीं पॉयदान के इस गीत में नैनों के 'बरसने' की जगह उनके 'हँसने' की बात कर रहे हैं।
ये गीत है फिल्म चाँदनी चौक तो चाइना का जो ठीक एक साल पहले पिछली जनवरी में प्रदर्शित हुई थी। वैसे तो इस फिल्म के बाकी गीत कुछ खास प्रभाव नहीं छोड़ पाए थे पर फिल्म का ये रोमांटिक नग्मा जरूर एक अलग तरह की खुशबू से सराबोर कर गया था।
यह गीत अगर इस संगीतमाला में अपना स्थान बना पाया है तो वह अपने बोलों की वजह से नहीं बल्कि अपनी बेहद प्यारी मेलोडी और खूबसूरत गायिकी के लिए।हल्की बीट्स से शुरु होते इस गीत में जैसे शंकर महादेवन गीत का मुखड़ा गुनगुनाते है मन इस गीत से बँध सा जाता है। शंकर की गायिकी के बारे में बाते करने के लिए तो आगे भी काफी मौके मिलेंगे। शंकर का इस गीत में साथ दिया है श्रेया घोषाल ने। श्रेया ने अपनी सामान्य शैली से हटकर गीत में रूमानियत का एक पुट देने की कोशिश की है।
शंकर एहसान लॉए द्वारा संगीतबद्ध इस गीत की लय आपके दिल में काफी सुकून पहुँचाएगी ऐसा मुझे यकीं है... तो सुन कर देखिए ये नग्मा और बताइए ये कैसा लगा आपको ?
तेरे नैना....हँस दिए बस गए...मेरे दिल में, तेरे नैना....
मेरे दिल में जो अरमाँ हैं, पास आके ज़रा देखो न दिल के तार में है सरगम ,छेड़े है अब कोई अनजाना
यह प्यार की है बातें, कुछ अनकही मुलाकातें हो...ऐसे ही मिलते है, मिलके मचलते है दो दिल जवाँ
तेरे नैना.....नैना
हो...अब देखो मिल गए हो तो फिर से ना कहीं खो जाना आँखों में ही रहना बाहों में तुम मेरी सो जाना
हो..मेरे पास तू जो आए तो ख़ुदा मुझे मिल जाए हो..होंठो को होंठो से मिलने दे सिलने दे दूर न जा...
तेरे लिए...चारों ओर ढूँढा मैंने मिल गई..जो तू मुझे मिल गया सारा जहाँ सारा यहाँ, अब चाहूँ मैं क्या
मेरे लिए..सपना था
यह प्यार तेरा खोली आँखें सामने था मेरे लिए
यार मेरा प्यार तेरा ,अब चाहूँ मैं क्या
हो..ऐसे न मुझको सदा दे पास आ ना अब तू सजा दे हो..सबसे चुरा लूँ मैं जग से छुपा लूँ मैं इतने पास आ..
मेरे दिल के जो ... अनजाना यह प्यार ...... दिल जवाँ तेरे नैना.....
नैनों की बातें इस संगीतमाला में आगे भी चलती रहेंगी आखिर.. इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं इन आँखों के वाबस्ता अफसाने हजारों हैं
प्रतीक्षा के पल समाप्त हुए। वक्त आ पहुँचा है वार्षिक संगीतमाला के सरताजी बिगुल के बजने का..बात पिछले नवंबर की है। मैं अपनी इस संगीतमाला के लिए पसंदीदा गीतों की फेरहिस्त तैयार करने में जुटा था। पर 15-16 गीतों की सूची तैयार करने के बाद भी अपनी प्रथम दो स्थानों के लायक मुझे कोई गीत लग ही नहीं रहा था।
पर तब तक मैंने तारे जमीं परके गीतों को नहीं सुना था। टीवी पर भी शुरुआत में सिर्फ शीर्षक गीत की कुछ पंक्तियाँ दिखाई जा रही थीं। दिसंबर का अंतिम सप्ताह आने वाला था और पहली पॉयदान की जगह अभी तक खाली थी। और तभी एक दिन किसी एफ एम चैनल से इस गीत की पहली दो पंक्तियाँ उड़ती उड़ती सुनाई दीं.... मैं कभी बतलाता नहीं पर अँधेरे से डरता हूँ मैं माँ यूँ तो मैं दिखलाता नहीं, तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ...
हृदय जैसे थम सा गया। तुरंत इंटरनेट पर जाकर ये गीत सुना और गीत की भावनाएँ इस कदर दिल को छू गईं कि आँखें नम हुए बिना नहीं रह सकीं।
कुछ गीत झूमने पर विवश करते हैं...
कुछ की मेलोडी मन को बहा ले जाती है...
वहीं कुछ के शब्द हृदय को मथ डालते हैं, सोचने पर विवश करते हैं।
'एक शाम मेरे नाम' की वार्षिक संगीतमालाओं में मैंने ऍसे ही तीसरी कोटि के गीतों को हमेशा से साल के 'सरताज गीत' का तमगा पहनाया है और शायद इसलिए आप में से बहुतों ने मेरी पसंद के सरताज गीत की सही पहचान की है।
जिंदगी में अपने नाते रिश्तेदारों के स्नेह को बारहा हम 'Taken for Granted' ले लेते हैं। हम भी उनसे उतना ही प्रेम करते हैं पर व्यक्त करने में पीछे रह जाते हैं। ऍसे रिश्तों में ही सबसे प्रमुख होता है माँ का रिश्ता ...
ये गीत मुझे याद दिलाता है ...
माँ के हाथ से खाए उन कौरों के स्वाद का.....
बुखार में तपते शरीर में सब काम छोड़ चिंतित चेहरे के उस ममतामयी स्पर्श का... अपनी परवाह ना करते हुए भी अपने बच्चों की खुशियों को तरज़ीह देने वाली उस निस्वार्थ भावना का....
तारे जमीं पर मैंने अंततः फरवरी में जाकर देखी और प्रसून का गीत तो माँ के बिना अपने आप को मानसिक रूप से असुरक्षित महसूस करते बच्चे की कहानी कहता है, पर सुनने वाला बच्चे का दर्द महसूस करते करते अपने बचपन में लौट जाता है और इसी वज़ह से गीत से अपने आप को इतना ज्यादा जुड़ा महसूस करता है।
वार्षिक संगीतमाला 2006 के सरताज गीत अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजेको लिखने वाले जावेद अख्तर साहब इस गीत के बारे में कहते हैं
"........यूँ तो तारे जमीं के सारे गीत स्तरीय हैं पर वो गीत जो मुझे हृदय की तह को छूता है वो माँ...ही है। आलमआरा के बाद सैकड़ों गीत माँ को याद करते हुए लिखे गए हैं पर फिर भी ये गीत अपनी सादी सहज भावनाओं से हृदय के तारों को झंकृत सा करता चला जाता है। गीत के शब्द, इसकी धुन और बेहतरीन गायिकी इस गीत को इतना प्रभावशाली बनाने में मदद करती है। बस इतना ही कह सकता हू् कि गीत की अंतिम पंक्तियों को सुनते सुनते मेरी आँखें सूखी नहीं रह गईं थीं।...."
शंकर एहसान लॉए की सबसे बड़ी काबिलयित इस बात में है कि वो बखूबी समझते हैं कि गीत के साथ संगीत का पुट उतना ही होना चाहिए जिस से उसकी प्रभावोत्पादकता कम ना हो। बातें बहुत हो गईं अब स्वयं महसूस कीजिए इस गीत को
मैं कभी बतलाता नहीं पर अँधेरे से डरता हूँ मैं माँ
यूँ तो मैं दिखलाता नहीं, तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ
तुझे सब है पता, है ना माँ......मेरी माँ
भीड़ में यूँ ना छोड़ो मुझे, घर लौट के भी आ ना पाऊँ माँ
भेज ना इतना दूर मुझको तू, याद भी तुझको आ ना पाऊँ माँ
क्या इतना बुरा हूँ मैं माँ, क्या इतना बुरा.............मेरी माँ
जब भी कभी पापा मुझे जोर ज़ोर से झूला झुलाते हैं माँ
मेरी नज़र ढूँढे तुझे, सोचूँ यही तू आके थामेगी माँ
तुमसे मैं ये कहता नहीं, पर मैं सहम जाता हूँ माँ
चेहरे पे आने देता नहीं, दिल ही दिल में घबराता हूँ माँ
तुझे सब है पता, है ना माँ......मेरी माँ
मैं कभी बतलाता नहीं, पर अंधेरे से डरता हूँ मैं माँ
यूं तो मैं दिखलाता नहीं, तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ
तुझे सब है पता, है ना माँ......मेरी माँ
इसी गीत का एक टुकड़ा गीत के थोड़ी देर बाद आता है, (जो सामान्यतः इंटरनेट या चिट्ठों पर नहीं दिखाई देता) बच्चे की संवेदनहीन त्रासद स्थिति तक पहुँचने की कथा कहता है
आँखें भी अब तो गुमसुम हुईं
खामोश हो गई है ये जुबां
दर्द भी अब तो होता नहीं
एहसास कोई बाकी हैं कहाँ
तुझे सब है पता, है ना माँ
मेरे लिए ये अपार हर्ष की बात है कि ये गीत इस साल के फिल्मफेयर और अपने RMIM पुरस्कारों के लिए भी सर्वश्रेष्ठ गीत के रूप में चुना गया है।
दोस्तों दो महिने से चलती आ रही इस वार्षिक संगीतमाला के सफ़र पर आप सब मेरे साथ रहे इसका मैं शुक्रगुजार हूँ। ये समय कार्यालय के लगातार आते कामों की वज़ह से मेरे लिए अतिव्यस्तता वाला रहा इसलिए ये श्रृंखला फरवरी में खत्म होने के बजाए मार्च तक खिंच गई। आशा है गीतमाला में पेश किए गए गीतों में से ज्यादातर आपके भी पसंदीदा रहे होंगे। तो ये सफ़र समाप्त करने के पहले एक पुनरावलोकन हो जाए इस संगीतमाला के प्रथम बीस गीतों का
वार्षिक संगीतमाला 2007 के रनर्स अप यानि उपविजेता का खिताब गीतकार प्रसून जोशी संगीतकार शंकर-एहसान-लॉए और गायक शंकर महादेवन के सम्मिलित प्रयासों से फलीभूत 'तारे जमीं पर' के शीर्षक गीत को जाता है।
बच्चों की दुनिया कितनी उनमुक्त, कितनी सरल कितनी मोहक होती है ये हम सभी जानते हैं। फिर भी हमारा सारा प्यार अपने करीबियों तक ही सीमित रह जाता है। अपनी-अपनी जिंदगियों में फँसे हम उससे ज्यादा दूर तक देख ही नहीं पाते। पर बिना किसी पूर्वाग्रह के जब आप किसी भी बच्चे की हँसते खेलती जिंदगी में झांकते हैं तो मन पुलकित हुए बिना नहीं रह पाता।
पर सारे बच्चे इतने भाग्यशाली नहीं होते। जीवन की परिस्थितियाँ वक़्त के पहले उनसे उनका बचपन छीन लेती हैं। क्या हम बेवक़्त अपनी जिंदगियों से जूझते इन बच्चों से अपना कोई सरोकार ढूँढ पाते हैं। नहीं...क्यूँकि बहुत कुछ देखते हुए भी हमने अपने आप को भावशून्य बना लिया है। वो इस लिए भी कि इस भागती दौड़ती जिंदगी के तनावों के साथ साथ अगर जब ये सब सोचने लगें तो हमारी खीझ बढ़ जाती है। खुद से और इस समाज से भी। पर मन ही मन हम भी जानते हैं कि हमारा ये तौर तरीका सही नहीं। ये गीत हमें एक सामाजिक संवेदनशील प्राणी की हैसियत से अपनी जिम्मेदारी का अहसास दिलाता है।
प्रसून जोशी ने इस गीत में जो कमाल किया है उसके बारे में जावेद अख्तर साहब ने अपनी हाल ही में अंग्रेजी वेब साइट पर की गई संगीत समीक्षा में लिखा है...
".....खो न जाएँ ये..तारे ज़मीं पर.. एक बेहद भावनात्मक और प्रभावशाली गीत है। इस गीत की ईमानदारी और सहजता को जिस तरीके से शंकर महादेवन ने अपनी गायिकी में उतारा है वो आपको इसके हर शब्द पर विश्वास करने पर मजबूर करता है। प्रसून ने अपनी सृजनात्मक प्रतिभा का परिचय देते हुए बेमिसाल रूपकों का प्रयोग किया है। गीत के बोल आपको हर रूपक की अलग-अलग विवेचना करने को नहीं कहते पर वे आपके इर्द-गिर्द एक ऍसा माहौल तैयार करते हैं जिससे आप प्यार, कोमलता और दया की इंद्रधनुषी भावनाओं में बहे चले जाते हैं। ये गीत एक धमाके की तरह खत्म नहीं होता ..बस पार्श्व में धीरे धीरे डूबता हुआ विलीन हो जाता है..कुछ इस तरह कि आप इसे सुन तो नहीं रहे होते पर इसकी गूंज दिलो दिमाग में कंपन करती रहती है।...."
प्रसून जोशी के गीत को अपने संगीत से दिल तक पहुँचाया है शंकर-एहसान-लॉए की तिकड़ी ने। ये कहने में मुझे कोई संदेह नहीं कि मेरे लिए इस साल का सर्वश्रेष्ठ संगीतकार, यही तिकड़ी रही है। गीत के मूड को समझते हुए उसी तरीके का संगीत देना उनकी खासियत है। तो चलिए सुनते हैं ये प्यारा सा नग्मा...
देखो इन्हें ये हैं
ओस की बूँदें
पत्तों की गोद में ये
आस्मां से कूदें
अंगड़ाई लें फिर
करवट बदल कर
नाज़ुक से मोती
हँस दे फिसल कर
खो न जाएँ ये..तारे ज़मीं पर..
यह तो हैं सर्दी में
धूप की किरणें
उतरें जो आँगन को
सुनहरा सा करने
मॅन के अँधेरों को
रौशन सा कर दें
ठिठुरती हथेली की
रंगत बदल दें
खो न जाएँ ये..तारे ज़मीं पर..
जैसे आँखों की डिबिया में निंदिया
और निंदिया में मीठा सा सपना
और सपने में मिल जाये फरिश्ता सा कोई
जैसे रंगों भरी पिचकारी
जैसे तितलियाँ फूलों की क्यारी
जैसे बिना मतलब का प्यारा रिश्ता हो कोई
यह तो आशा की लहर है
यह तो उम्मीद की सहर है
खुशियों की नहर है
खो न जाएँ ये..तारे ज़मीं पर..
देखो रातों के सीने पे ये तो
झिलमिल किसी लौ से उगे हैं
यह तो अम्बिया की खुशबू हैं बागों से बह चले
जैसे काँच में चूड़ी के टुकड़े
जैसे खिले खिले फूलों के मुखड़े
जैसे बंसी कोई बजाए पेड़ों के तले
यह तो झोंके हैं पवन के
हैं ये घुँघरू जीवन के
यह तो सुर हैं चमन के
खो न जाएँ ये..तारे ज़मीं पर..
मोहल्ले की रौनक
गलियाँ हैं जैसे
खिलने की जिद पर
कलियाँ हैं जैसे
मुट्ठी में मौसम की
जैसे हवाएँ
यह हैं बुजुर्गों के दिल की दुआएँ..
खो न जाएँ ये..तारे ज़मीं पर..
कभी बातें जैसे दादी नानी
कभी छलके जैसे मम्मम पानी
कभी बन जाएं भोले सवालों की झड़ी
सन्नाटे में हँसी के जैसे
सूने होठों पे ख़ुशी के जैसे
यह तो नूर हैं बरसे गर तेरी किस्मत हो बड़ी
जैसे झील में लहराए चन्दा
जैसे भीड़ में अपने का कन्धा
जैसे मन मौजी नदिया झाग उडाये कुछ कहीं
जैसे बैठे बैठे मीठी से झपकी
जैसे प्यार की धीमी सी थपकी
जैसे कानों में सरगम हरदम बजती ही रहे..
खो न जाएँ ये..तारे ज़मीं पर..
इस श्रृंखला की समापन किश्त में सुनना ना भूलिएगा वार्षिक संगीतमाला 2007 का सरताज गीत...
पिछले गीत ने अगर थिरकने को मजबूर ना किया हो तो अब भी देर नहीं हुई इस बार गुलज़ार के बोलों पर ही झूम लें। हाँ हुजूर सही पहचाना आपने इस संगीतमाला की २४ वीं पायदान पर गीत वो जिसे लिखने के पीछे प्रेरित किया गुलज़ार को सत्तर के दशक की इस कव्वाली ने। बचपन में मैंने भी इसका खूब आनंद उठाया था। अगर बोल ना याद आ रहे हों तो मैं आपकी मदद कर देता हूँ
काली घटा है, मस्त फ़जां है
काली घटा है, मस्त फ़जां है जाम उठा कर घूम घूम घूम
झूम बराबर झूम शराबी, झूम बराबर झूम....
नज़ा शोलापुरी की इस रचना को आवाज़ दी थी १९७४ में बनी फिल्म 5 Rifles में अजीज नजां ने और सुनने वाले झूम-झूम के मस्त हो गए थे। पर गुलज़ार ने फिल्म 'झूम बराबर झूम' में जो गीत रचा उसमें शराब का नशा तो नहीं रहा पर विशुद्ध पंजाबी तड़का जरूर लगा दिया। इस गीत के फिल्म में तीन रूप हैं। एक में शंकर महादेवन का सोलो है तो दूसरे में वो सुनिधि चौहान और जुबीन गर्ग के साथ हैं और तीसरे में सुखविंदर सिंह, महालक्ष्मी अय्यर और केके के साथ सुर मिला रहे हैं।
गीत के पहले रूप में गुलज़ार इश्क की पेचदियों से उलझ रहे हैं.. पूरे बोल के लिए ये लिंक देखें
ये इश्क पुराना पापी
हर बार खता करता है, रब्बा….
हर बार बचाता हूं मैं
हर बार ये जा मरता है, रब्बा….
हो पास कोई आ गया तो
रास कोई आ गया तो
बार बार कल्रेजे पे ना मार अखियाँ
उड़ती उड़ती अखियों के
लड़ गये पेचे लड़ गये वे
गीत लगा के झूम झूम झूम
झूम बराबर झूम बराबर झूम बराबर झूम बराबर झूम....
गुलज़ार वहीं तीसरे रूप में चाँद, रात और आसमान से खेलते हुए वे अपने स्वाभाविक रंग में दिखाई पड़ते हैं
हो चाँद की उतार ली है दोनों बालियाँ
आजा आजा हाथ मार दे तालियाँ
ओ बिल्लोनी बिल्लोनी हाथ मार दे तालियाँ आजा चाँदनी कूटेंगे, आसमान को लूटेंगे
चल धुआँ उड़ा के झूम झूम
झूम बराबर झूम बराबर झूम बराबर झूम बराबर झूम.... पर इस गीत में, बोल से ज्यादा मुझे शंकर-अहसान-लॉए की सांगीतिक व्यवस्था ज्यादा आकर्षित करती है। गीत की शुरुआत से ही की बोर्ड, गिटार, बैगपाइपर, ड्रम और ढोल सब मिलकर ऐसा अदभुत समा बनाते हैं जिसकी मस्ती में आप भी झूमने को विवश हो जाते हैं। तो आनंद लीजिए इस चौबिसवें नंबर के गीत का
उत्तरी कारो नदी में पदयात्रा Torpa , Jharkhand
-
कारो और कोयल ये दो प्यारी नदियां कभी सघन वनों तो कभी कृषि योग्य पठारी
इलाकों के बीच से बहती हुई दक्षिणी झारखंड को सींचती हैं। बरसात में उफनती ये
नदियां...
इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।