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रविवार, फ़रवरी 24, 2013

वार्षिक संगीतमाला 2012 पॉयदान # 5 : इक बगल में चाँद होगा, इक बगल में रोटियाँ..

वार्षिक संगीतमाला का सफ़र आ पहुँचा है अपनी आखिरी पाँच पॉयदानों के मुकाम तक। संगीतमाला के इन अंतिम पाँच गीतों की शुरुआत गैंग्स आफ वासेपुर में पीयूष मिश्रा के गाए इस गीत के साथ। इस साल जो दो एकल गीत पीयूष ने गाए हैं वे दोनों ही इस संगीतमाला का हिस्सा बने हैं। पीयूष मिश्रा के बारे में मैं पहले भी लिख चुका हूँ कि वो एक ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने शायद ही फिल्म और रंगमंच जगत से जुड़ी किसी विधा पर हाथ ना आज़माया हो। पर रंगमंच, फिल्म संगीत, पटकथा लेखन, गीतकार, गायक, अभिनेता के विविध किरदारों को निभाने के बाद उनकी ज़िदगी में कुछ और नया करने की चाहत मरी नहीं है और शायद इसीलिए उनकी नई पुरानी कृतिया जब भी श्रोताओं के सामने आती हैं उनकी प्रतिभा का लोहा मानने के आलावा उनके पास दूसरा कोई चारा नहीं बचता। 


पीयूष का मानना है कि एक इंसान के पास इतने गुण छिपे होते हैं जिनका उसे खुद भी भान नहीं होता। पीयूष के अनुसार एक कलाकार की यात्रा अपने अंदर के इन छिपे गुणों के प्रति संशय से लड़ने और उससे सफलतापूर्वक बाहर निकलने की ज़द्दोज़हद है। अपनी इस लड़ाई के पीछे उनका ये दृष्टिकोण माएने रखता है। वे कहते हैं

"मैं कोई भी काम लगातार करते करते बहुत जल्दी ऊब भी जाता हूँ। मैं मानता हूँ कि हर काम बेहतर तरीके से करने की जरूरत होती है पर व्यक्ति को काम कर चुकने के बाद उसे सलाहियत से भूलने की भी आदत होनी चाहिए। अभी गैंग्स आफ वासेपुर की है मैंने पर मैं उसे भूल चुका हूँ इसके आगे भी बहुत सारा काम करना है..."

पर हमारे यहाँ दिक्कत यही है कि फिल्म जगत की इस मायावी दुनिया में गीतकारों को अपनी हुनर लायक काम मिल नहीं पाता है। पीयूष ने हाल ही में NDTV को दिए साक्षात्कार में कहा था गुलाल की सफलता के बाद उन्हें लगा था कि उसके बाद उनका कैरियर बन जाएगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ क्यूँकि जो मौके आए उनमें पीयूष के मन लायक कुछ करने का था नहीं। वैसे ये समस्या सभी प्रतिभाशाली गीतकारों के साथ है राजशेखर ने पिछले साल तनु वेड्स मनु के लिए ऐ रंगरेज़ मेरे, ऐ रंगरेज़ मेरे ये कौन से पानी में तूने कौन सा रंग घोला है जैसा शानदार गीत लिखा पर अपनी नई रिलीज़ के लिए उनके प्रशंसकों को एक साल से ज्यादा इंतज़ार करना पड़ रहा है। अमिताभ भट्टाचार्य को 'आमिर' के बाद अपने ऊपर लगे गंभीर गीतकार के टैग को निकालने के लिए आइटम सांग से  लेकर हर तरह के गीत लिखने पड़े। पीयूष इस बारे में कहते हैं
"किसी को जरूरत नहीं है ऐसे गानों की। अनुराग जैसा लफंगा मुझे मिलता रहे ना ज़िंदगी भर तो मैं बड़ा अनुगृहित रहूँगा उसका कि ऐसे लोग मिलते रहेंगे तो करवाते रहेंगे ऐसा कुछ। इक बगल में चाँद होगा ..जाने कहाँ से खोज लिया इसने मेरी किताब से। 1996 दिसंबर में मैंने एक नाटक किया था लेडी श्री राम कॉलेज के सामने, जिसका नाम था एक थी सीपी..एक थी सीपी। उसी नाटक के लिए ये गीत लिखा गया था। अनुराग ने कहा ये गीत करना है। मैंने कहा क्यूँ करना है? फिल्म पूरी हो चुकी थी और मेरा काम सिर्फ अभिनय था और मैं सोच रहा था कि सिर्फ एक्टिंग कर के निकल जाऊँगा  आराम से। पर अनुराग के कहने पर मैंने इसे किया और फिल्म के लिए मुझे इसकी धुन भी बदलनी पड़ी।"

पीयूष का मानना है कि अनुराग, दिवाकर , इम्तियाज़ और विशाल भारद्बाज जैसे निर्देशकों की वज़ह से उनके जैसे गीतकारों के लिए कुछ करने लायक हो पा रहा है।

ख़ैर ये तो थी इस गीत के पीछे की कहानी। तो लौटते हैं पाँचवी पॉयदान के इस संवेदनशील नग्मे की तरफ। गीत के परिदृश्य में पीयूष के अनुसार उस वक़्त का बिहार है जब वहाँ बहुत मुफ़लिसी थी और उस वक़्त धीरे धीरे पलायन हो रहा था लोग बाग शहर जाना शुरु कर रहे थे। गरीबी और बेरोजगारी से उत्पन्न पलायन की इन विषम परिस्थितियों के बावज़ूद भी इन लोगों में जो जीने की ललक है, जो हिम्मत ना हारने का जज़्बा है उसको ही पीयूष मिश्रा ने इस गीत की पंक्तियों में बड़ी खूबसूरती से उभारा है। पीयूष ने गीत के मुखड़े में सितार और इंटरल्यूड्स में बाँसुरी का प्रयोग किया है। पर इस गीत की जान हैं इसके शब्द।

गीत में पीयूष ने कहना चाहा है कि कहीं तो कोई चाँद से खेल रहा है तो कहीं रोटियों के लिए मारामारी है। एक ओर मुद्राओं की खनक है तो दूसरी ओर रुदन के स्वर हैं । पर सामाजिक असमानता के इस माहौल में क्या गरीबों की कोई  सुध लेने वाला है?  पर इन्हें अब इस बात का आसरा भी नहीं कि कोई इनका उद्धार करने बाहर से आएगा। अपने भाग्य से इन्हें ख़ुद ही लड़ना है। इतनी हिम्मत पैदा करनी है अपने आप में कि आती मौत भी इनके जज़्बे को देख दूर भाग जाए।

तो उन्हीं की आवाज़ में सुनते हैं ये नग्मा


इक बगल में चाँद होगा, इक बगल में रोटियाँ
इक बगल में नींद होगी, इक बगल में लोरियाँ
हम चाँद पे रोटी की चादर डालकर सो जाएँगे
और नींद से कह देंगे लोरी कल सुनाने आएँगे

इक बगल में खनखनाती सीपियाँ हो जाएँगी
इक बगल में कुछ रुलाती सिसकियाँ हो जाएँगी
हम सीपियों में भरके सारे तारे छूके आएँगे
और सिसकियों को गुदगुदी कर कर के यूँ बहलाएँगे

अब न तेरी सिसकियों पे कोई रोने आएगा
गम न कर जो आएगा वो फिर कभी ना जाएगा
याद रख पर कोई अनहोनी नहीं तू लाएगी
लाएगी तो फिर कहानी और कुछ हो जाएगी

होनी और अनहोनी की परवाह किसे है मेरी जाँ
हद से ज्यादा ये ही होगा कि यहीं मर जाएँगे
हम मौत को सपना बता कर उठ खड़े होंगे यहीं
और होनी को ठेंगा दिखाकर खिलखिलाते जाएँगे

 

एक शाम मेरे नाम पर पीयूष मिश्रा

रविवार, जनवरी 13, 2013

वार्षिक संगीतमाला 2012 पॉयदान # 19 : बरगद के पेड़ों पे शाखें पुरानी पत्ते नये थे हाँ...

वार्षिक संगीतमालाओं में पीयूष मिश्रा की अद्भुत सांगीतिक प्रतिभा से मेरा सबसे पहले परिचय हुआ था गुलाल में उनके लिखे और संगीतबद्ध गीतों से। पर चुनिंदा फिल्मों में काम करने वाले पीयूष की झोली से पिछले साल संगीतप्रेमियों को कुछ हाथ नहीं लगा था। पर इस साल सबसे पहले GOW में दिखने वाले पीयूष ने बाल फिल्म जलपरी में भी एक गीत लिखा, गाया और संगीतबद्ध किया था। अब इस फिल्म का नाम आपने सुना होगा इसकी उम्मीद कम ही है क्यूँकि साल में बहुत सी फिल्में बिना किसी मार्केटिंग के कब आती और कब चली जाती हैं ये पता ही नहीं लगता। I am Kalam से चर्चा में आए इस फिल्म के निर्देशक नील माधव पंडा की भ्रूण हत्या पर आधारित ये फिल्म  पिछले साल अगस्त में प्रदर्शित हुई थी। 


पीयूष मिश्रा के लिखे गीतों की विशेषता है कि वो अपनी ठहरी हुई गंभीर आवाज़ और अर्थपूर्ण शब्दों से आपको एक अलग मूड में ले जाते हैं।  गीत ख़त्म होने के बाद भी गीत में व्यक्त भावनाएँ जल्दी से आपका पीछा नहीं छोड़तीं।  इस गीत में पीयूष हमें अपने बचपन में ले जाते हैं। बचपन की बातों से ख़ुद को जोड़ते गीतों के बारे में जब सोचता हूँ तो एक गीत और एक नज़्म तुरंत दिमाग में आती है। याद है ना आशा जी का गाया वो गीत बचपन के दिन भी क्या दिन थे उड़ते फिरते तितली बन के और फिर जगजीत व चित्रा सिंह की गाई उस कालजयी नज़्म  को कौन भूल सकता है...

ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन
वो काग़ज़ की कश्ती वो बारिश का पानी


पीयूष जी का ये गीत भी जगजीत की उस नज़्म और बहुत कुछ उन्हीं भावनाओं को पुनर्जीवित करता है। आपको याद होगा कि कितनी खूबसूरती से उस नज़्म में कहानी सुनाने वाली बूढ़ी नानी और बचपन में खेले जाने वाले खेलों चिड़िया, तितली पकड़ना, झूले झूलना, गुड़िया की शादी आदि का जिक्र हुआ है। इस गीत में भी पीयूष बीते समय की छोटी सुनहरी यादों को हमसे बाँटते हुए उसी अंदाज़ में युवावस्था से वापस अपने बचपन में लौट जाने की बात करते हैं

बरगद के पेड़ों पे शाखें पुरानी पत्ते नये थे हाँ
वो दिन तो चलते हुए थे मगर फिर थम से गए थे हाँ
लाओ बचपन दोबारा, नदिया का बहता किनारा
मक्के की रोटी, गुड़ की सेवैयाँ,
अम्मा का चूल्हा, पीपल की छैयाँ
दे दूँ कसम से पूरी जवानी, पूरी जवानी हाँ

पनघट पे कैसे इशारे, खेतों की मड़िया किनारे
ताऊ की उठती गिरती चिलम को, हैरत से देखे थे सारे
हाए..गुल्ली के डंडे की बाते, गाँव में धंधे की बातें
बस यूँ गुटर गूँ इक मैं कि इक तू
यूँ ही गुजरती थी रातें
...

ग्रामीण पृष्ठभूमि में लिखा ये गीत गाँव की उन छोटी छोटी खुशियाँ को क़ैद करता है जिनसे आज का शहरी बचपन महरूम है। बरगद का पेड़ हो या पीपल की छैयाँ, अम्मा का चूल्हा हो या खेतों की मड़िया, बेमकसद की गुटरगूँ में गुजरते वो इफ़रात फुर्सत के लमहे हों या फिरताऊ की चिलम से उठता धुआँ,  इन सारे बिम्बों से पीयूष एक माहौल रचते चले जाते हैं। जिन श्रोताओं का बचपन गाँव - कस्बों में गुजरा हो उन्हें इस गीत से जुड़ने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगता। गीत के आखिरी अंतरे में बचपन के अनायास ही खो जाने का दर्द फूट पड़ता है। पीयूष अपने इस गीत के बारे में कहते हैं "बरगद के बोल मेरे दिल की आवाज़ हैं जो मुझे अपनी पुरानी यादों तक खींच ले जाते हैं।"

देखो इन्ही गलियों में वो खोया था हमने
यादों के सीने में थोड़े पिघल के जम से गए थे हाँ
वो दिन तो चलते हुए थे मगर फिर थम से गए थे हाँ

यादों में है कैसा कभी आया था बचपन
कैसे कहूँ मेरा कभी साया था बचपन
इनके कदम खिल खिल हँसी लाया था बचपन
जाने को था फिर भी मुझे भाया था बचपन
भोली जुबाँ के नग्मे, भोले से मन के सपने 
लोरी बने थे...
रुकने की ख़्वाहिश बड़ी थी लेकिन गुजर से गए थे हाँ
वो दिन तो चलते हुए थे मगर फिर थम से गए थे हाँ
लाओ बचपन दोबारा, नदिया का बहता किनारा...

बरगद के पेड़ों पे...

ये एक ऐसा गीत है जो धीरे धीरे आपके दिल में जगह बनाता है तो आइए सुनते हैं इस संवेदनशील नग्मे को..


गीत का वीडिओ देखना चाहें तो ये रहा... 

शुक्रवार, अगस्त 17, 2012

विभाजन की विरह गाथा कहता जावेद का ख़त हुस्ना के नाम : पीयूष मिश्रा

याद है आपको 2009 की वार्षिक संगीतमाला जब इस ब्लॉग पर पीयूष मिश्रा की चर्चा गुलाल के लिखे गीतो के लिए बार बार  हुई थी। गुलाल के बाद फिल्मों में उनके लिखे और गाए गीतों को सुनने के लिए दिल तरस गया था। वैसे बतौर अभिनेता वो लाहौर, लफंगे परिंदे,तेरे बिन लादेन,भिंडी बाजार व रॉकस्टार जैसी फिल्मों में दिखते रहे। पर एक संगीतप्रेमी के लिए असली आनंद तो तब है जब उनके खुद के लिखे नग्मे को उनकी आवाज़ में सुन सकें। और लगभग ढाई साल के इस लंबे इंतज़ार के बाद जब उनकी आवाज़ कान के पर्दों से छनती दिल की दरो दीवार से टकराई तो यकीन मानिए उन्होंने जरा भी निराश नहीं किया। 


जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ 'हुस्ना' की जिसे हाल ही में कोक स्टूडिओ के सीज़न दो में प्रस्तुत किया गया था। पीयूष ने हुस्ना को 1995 में लिखा था। कोक स्टूडिओ में इस गीत के संगीत संयोजक हीतेश सोनिक ने ये गीत यार दोस्तों की एक महफिल में 1997 में सुना और तभी से ये गीत उनके ख़्यालों में रच बस गया। हीतेश कहते हैं कि जब पीयूष कोई गीत गाते हैं तो उनके गाए हर एक शब्द के माएने यूँ सामने निकल कर आते हैं। उनकी आवाज़ में एक ग़ज़ब का सम्मोहन है।

सच ये सम्मोहन ही तो हमें उनकी आवाज़ को बार बार सुनने को मजबूर करता है। गीतों के जरिए किसी कहानी को कहना अब तक बहुत कम हुआ है और इस कला में पीयूष जैसी प्रवीणता शायद ही संगीत जगत में अन्यत्र कहीं दिखाई देती है। इससे पहले कि ये गीत सुना जाए ये जानना जरूरी होगा कि आख़िर हुस्ना की पृष्ठभूमि क्या है? कौन थी हुस्ना और इस गीत में कौन उसकी याद में  इतना विकल हो रहा है? पीयूष का इस बारे में कहना है
हुस्ना एक अविवाहित लड़की का नाम है जो वैसी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती है जिनकी जिंदगियाँ देश के विभाजन की वज़ह से तबाह हो गई थीं। बात 1947 की है। जावेद और हुस्ना लाहौर में शादी के बंधन में बँधने वाले थे। पर विभाजन ने उनका सपना तोड़ दिया। विभाजन के बाद जावेद लखनऊ आ गया जबकि हुस्ना लाहौर में ही रह गई। 1960 में जावेद की शादी हो गई और फिर वो दो बच्चों का पिता भी बन गया।  ऐसे ही हालातों में जावेद, हुस्ना को एक ख़त लिखता है और जानना चाहता है कि क्या परिवर्तन हुआ नए पाकिस्तान में? क्या मिला हमें हिंदुस्तान और पाकिस्तान बनाकर? देश को दो सरहदों में बाँटकर क्या हम कुछ नया मुकाम हासिल कर सके?
पीयूष जी ने कभी हुस्ना को नहीं देखा। ना वो लाहौर के गली कूचों से वाकिफ़ हैं। पर उनका पाकिस्तान उनके दिमाग में बसता है और उसी को उन्होंने शब्दों का ये जामा पहनाया है। गीत की शुरुआत में  पीयूष द्वारा 'पहुँचे' शब्द का इस्तेमाल तुरंत उस ज़माने की याद दिला देता है जब चिट्ठियाँ इसी तरह आरंभ की जाती थीं। पुरानी यादों को पीयूष, दर्द में डूबी अपनी गहरी आवाज़ में जिस तरह हमारे साझे रिवाज़ों, त्योहारों, नग्मों के माध्यम से व्यक्त करते हैं मन अंदर से भींगता चला जाता है। जावेद की पीड़ा सिर्फ उसकी नहीं रह जाती हम सबकी हो जाती है।

 
लाहौर के उस, पहले जिले के
दो परगना में पहुँचे
रेशम गली की, दूजे कूचे के
चौथे मकाँ में पहुँचे
और कहते हैं जिसको
दूजा मुलुक उस, पाकिस्तां में पहुँचे...
लिखता हूँ ख़त मैं
हिंदुस्तान से, पहलू ए हुस्ना में पहुँचे
ओ हुस्ना...

मैं तो हूँ बैठा ओ हुस्ना मेरी
यादों पुरानी में खोया..
पल पल को गिनता, पल पल को चुनता
बीती कहानी में खोया..
पत्ते जब झड़ते हिंदोस्तान में, यादें तुम्हारी ये बोलें
होता उजाला, हिंदोस्तान में बातें तुम्हारी ये बोलें
ओ हुस्ना मेरी ये तो बता दो
होता है ऐसा क्या उस गुलिस्ताँ में
रहती हो नन्ही कबूतर सी गुम तुम जहाँ
ओ हुस्ना....

पत्ते क्या झड़ते हैं पाकिस्तान में
वैसे ही जैसे झड़ते यहाँ
ओ हुस्ना....
होता उजाला क्या वैसा ही है
जैसा होता हिंदोस्तान में हाँ..
ओ हुस्ना....

वो हीरों के राँझे के नग्मे मुझको
अब तक आ आके सताएँ
वो बुल्ले शाह की तकरीरों में
झीने झीने साए
वो ईद की ईदी, लंबी नमाज़ें
सेवइयों की ये झालर
वो दीवाली के दीये संग में
बैसाखी के बादल
होली की वो लकड़ी जिनमें
संग संग आँच लगाई
लोहड़ी का वो धुआँ
जिसमें धड़कन है सुलगाई
ओ हुस्ना मेरी ये तो बता दो
लोहड़ी का धुआँ क्या अब भी निकलता है
जैसा निकलता था उस दौर में वहाँ
ओ हुस्ना....
 

हीतेश सोनिक ने गीत के आरंभिक भाग में नाममात्र का संगीत दिया है। वैस भी पीयूष की आवाज़ के सामने जितना कम संगीत रहे गाना उतना ही ज्यादा कर्णप्रिय लगता है। संगीत की पहली स्वर लहरी तीन मिनट और दस सेकेंड के बाद उभरती है जो पुरानी यादों में डूबे मन को सहलाती हुई निकल जाती है। 

जैसे जैसे गीत आगे बढ़ता है जावेद के दिल के अंदर बढ़ती बैचैनी और हताशा के साथ साथ संगीत और मुखर हो उठता है। गीत के आखिरे हिस्से में इस हताशा को अपनी पराकाष्ठा तक पहुँचाने के लिए संगीत का टेंपो एकदम से बदल जाता है और उसके बीच निकलता है एक कोरस जो जीवन में बढ़ते अंधकार की ओर इशारा भर करता है।

धुएँ में गुलिस्ताँ ये बर्बाद हो रहा है
इक रंग स्याह काला ईजाद हो रहा है
धुएँ में गुलिस्ताँ ये बर्बाद हो रहा है
इक रंग स्याह काला ईजाद हो रहा है


और आखिर की पंक्तियाँ मानो सब कुछ कह जाती हैं..

कि हीरों के राँझों के
के नग्मे क्या अब भी
सुने जाते हैं वहाँ
ओ हुस्ना
और रोता है रातों में
पाकिस्तान क्या वैसे ही
जैसे हिंदोस्तां ओ हुस्ना


 एक शाम मेरे नाम पर पीयूष मिश्रा

बुधवार, मार्च 24, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 रनर्स अप : बीड़ा दूजी थाली का लगे बड़ा मसालेदार... रेखा भारद्वाज

लगभग तीन महिनों का सफ़र तय कर वार्षिक संगीतमाला 2009 जा पहुँची है दूसरी पायदान पर। और वार्षिक संगीतमाला 2009 के रनर्स अप गीत का सेहरा बँधा है उस गीत के सर जो बड़ी ठेठ जुबान में हम सबमें पाई जाने वाली मनोवृति को अपने खूबसूरत बोलों के माध्यम से उभारता है। कौन सी मनोवृति ! अरे वही

बीड़ा दूजी थाली का लगे बड़ा मसालेदार
मन बोले चकमक हाए चकमक ...

अब पड़ोसी की कार हो या अर्धांगिनी, कितनी बार उनको देखकर आपने अपने मन को चकमकाते पाया है? खैर छोड़िए आप भी कहेंगे सब जान बूझ कर क्यूँ खुले आम ये सवाल किया जा रहा है ? मुख्य बात ये है कि आजकल के गीत सिर्फ प्रेम, विरह त्याग, दोस्ती, सौंदर्य जैसे विषयों पर नहीं लिखे जा रहे हैं पर हमारे समाज की उस पक्ष पर चुटकी ले रहे हैं जो स्याह है, धुँधला है जिसे जानते बूझते हुए भी हम उन पर बात करने में असहज हैं।

पर इस गीत की खासियत बस इतनी नहीं हैं। पीयूष मिश्रा के इस गीत के संगीत संयोजन और बोलों में लोकगीत वाली मिठास है वहीं रेखा भारद्वाज ने इस अंदाज़ में इस गीत को गाया है कि लगता है सचमुच किसी मुज़रेवाली के सामने बैठ कर ये गीत सुन रहे हों। आंचलिकता के हिसाब से भिन्न भिन्न शब्दों को उनके द्वारा दिया लोच, मूड को गीत के रंग में रँग डालता है। यूँ तो साइडबार की वोटिंग में आप लोगों में से ज्यादातर ने शंकर महादेवन और श्रेया घोषाल को साल का श्रेष्ठ गवैया चुना है पर मेरी नज़र में एक गवैये के तौर पर ये साल रेखा भारद्वाज का रहेगा। गुलाल, फिराक़ और दिल्ली 6 में उनके गाए गीत काफी दिनों तक याद किए जाएँगे।

मेरी एक संगीत मित्र हैं सुपर्णा। अक्सर वो मुझे अपने पसंदीदा गीतों के बारे में बताती रहती हैं। साल के शुरु में जब ये फिल्म रिलीज़ भी नहीं हुई थी, मुझे उनके द्वारा इस गीत की दो पंक्तियों से रूबरू होने का मौका मिला था और मै उन्हें पढ़कर ठगा सा रह गया था। वो पंक्तियाँ थीं

संकट ऐसा सिलवट से कोई हाल भाँप ले जी
करवट ऐसी दूरी से कोई हाथ ताप ले जी

पीयूष मिश्रा के इन शब्दों का जादू कुछ ऐसा था जो मुझे फिल्म के आते ही थियेटर तक ले गया। कितने सहज बिंबों का प्रयोग किया है पीयूष ने। ऐसे बिंब जो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से लिए गए हैं। पर इनसे जो बात उन्होंने कहनी चाही है वो लोग तरह तरह के शब्दजाल जोड़ कर भी नहीं कह पाते। तो सुनें और ठुमके लगाएँ गुलाल के इस चकमकाते गीत के साथ..


बीड़ा दूजी थाली का लगे बड़ा मसालेदार

मन बोले चकमक हाए चकमक ...
हाए चकमक चकमक चकमक
बीड़ा दूजी थाली का लगे बड़ा मसालेदार
मन बोले चकमक हाए चकमक हाए चकमक चकमक चकमक

खाए..खाए तो मचल गई रे हो कजरारी नार
मन बोले चकमक हाए चकमक हाए चकमक चकमक चकमक
बीड़ा दूजी थाली का लगे बड़ा मसालेदार
मन बोले चकमक हाए चकमक हाए चकमक चकमक चकमक

हमको दुनिया की लाज सरम का डर लगे है हो जी
हमको दुनिया के लोक धरम का डर लगे है हो जी
पर इस जलते करेजवा पे कोई फूँक मार दो जी
पर इस मनवा की अगिया पे कोई छींट मार दो जी
हो हो हो ओ ...हो हो हो ओ
मीठी.. मीठी सी कसक छोड़ कर चला गया भर्तार
मन बोले चकमक हाए चकमक हाए चकमक चकमक चकमक
बीड़ा दूजी थाली का लगे बड़ा मसालेदार
मन बोले चकमक हाए चकमक हाए चकमक चकमक चकमक

जुगनी जान गयो रे मान गयो रे बीड़ो की तासीर
अरे कुर्बान गयो हलकान के मसला सब्र पट गंभीर
कैसे देवे रे इलजाम कि तू भी संकट में आखिर
मैं तो पूरा राजस्थान गयो ना तेरे जैसी बीड़

संकट ऐसा सिलवट से कोई हाल भाँप ले जी
करवट ऐसी दूरी से कोई हाथ ताप ले जी
निकले सिसकी जैसे बोतल का काग जो उड़ा हो
धड़कन ऍसी जैसे चंबल में घोड़ा भाग जो पड़ा हो


हो हो हो ओ ...हो हो हो ओ
अंगिया.... अंगिया भी लगे है जैसे सौ सौ मन का भार
मन बोले चकमक हाए चकमक हाए चकमक चकमक चकमक

मंगलवार, मार्च 09, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 : पॉयदान संख्या 6 - ऐ सुरमयी आँखों के प्यालों की दुनिया ओ दुनिया...

वार्षिक संगीतमाला की छठी पॉयदान पर एक बार फिर है फिल्म गुलाल का एक और गीत। इस गीत के तीनो पक्षों यानि बोल, संगीत और गायिकी में जान डालने वाला एक ही शख़्स हैं और वो हैं पीयूष मिश्रा!


ग्वालियर में जन्मे और पले बढ़े पीयूष मिश्रा, बहुमुखी प्रतिभा के धनी एक कमाल के कलाकार हैं। नाटककार, चरित्र अभिनेता, संवाद लेखक, गीतकार, संगीतकार, गायक के रूप में तो सारे संगीतप्रेमी उन्हें जान ही गए हैं। पर क्या आप जानते हैं कि पीयूष को अपने अंदर के कलाकार को ढूँढने के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ी? पाँच साल तक सितार वादन में लगे रहे तो भी सुकून नहीं मिला। फिर ग्वालियर के शिल्प महाविद्यालय में दाखिला लिया पर वहाँ भी बात नहीं बनी। मन था कि रचनात्मकता के कुछ और आयाम तलाशने में लगा था। आखिरकार उनकी प्रतिभा को उचित मंच राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रवेश लेने के साथ मिल गया।

पीयूष फिल्मों में पहली बार 1998 में मणि रत्नम की फिल्म 'दिल से' में दिखे। मुंबई में अपने विद्यालय के पुराने साथियों विशाल भारद्वाज, आशीष विद्यार्थी, अनुराग कश्यप, मनोज वाजपेयी की वज़ह से नाटकों में काम मिलता रहा पर उन्हें मुंबई से प्यारी दिल्ली ही लगती रही। जब पारिवारिक जिम्मेदारियाँ उन्हें सताने लगीं तो वो मुंबई आ गए। ये नहीं कि रंगमंच से उन्होंने नाता तोड़ लिया है पर समय रहते उन्होंने ये महसूस कर लिया कि आर्थिक स्थायित्व उन्हें फिल्म उद्योग ही दे सकता है।

पिछले साल वार्षिक संगीतमाला में पीयूष, सुखविंदर सिंह के गाए मस्तमौला नग्मे दिल हारा रे... की वज़ह से चर्चा में आए थे। वैसे ब्लैक फ्राइडे के चर्चित गीत ओ रुक जा रे बंदे के रचयिता भी वही थे। पर इस बार उन्होंने गुलाल के गीत लिखकर ये दिखला दिया कि एक गीतकार को अगर निर्देशक द्वारा खुली छूट दी जाए तो वो लीक से अलग हटकर भी बहुत कुछ दे सकता है। पीयूष कहते हैं कि अनुराग कश्यप के निर्देशन में बनी इस फिल्म के गीतों को रचने में उन्हें मात्र एक हफ्ते का समय लगा।

पॉयदान संख्या 18 पर हम उनके लिखे पॉलटिकल मुज़रे की चर्चा कर चुका हूँ। छठी पॉयदान पर विराजमान आज का ये गीत पीयूष ने मशहूर गीतकार और शायर साहिर लुधियानवी के अज़र अमर गीत ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है से प्रेरित हो कर लिखा है और उन्हीं को ये गीत समर्पित भी किया है। मोहम्मद रफ़ी जैसे महान गायक ने साह़िर के शब्दों की संवेदनाओं को पकड़ते हुए इतने बेहतरीन तरीक़े से उस गीत को अपनी आवाज़ बख्शी थी कि शायद ही कोई उस गीत को भूल पाएगा।

पीयूष ने अपने इस गीत में साहिर की भावनाओं को आज के परिपेक्ष्य में देखने की कोशिश की है। वैसे तब और अब की दुनिया की समस्याओं में फर्क़ कुछ ज्यादा नहीं आया है। साहिर ने अपनी कालजयी रचना में गरीबी, सामाजिक और आर्थिक असमानता, व्यक्ति के भावनात्मक और नैतिक अवमूल्यन की बात की थी। पीयूष भी आज के समाज की भौतिकवादी मानसिकता का जिक्र अपने गीत में करते हैं जो इंसान को सत्ता, धन के मोह जाल में क़ैद किए हुए है। फिल्म गुलाल के अंत में पार्श्व में बजने वाला ये गीत दिल को झकझोरता सा निकल जाता है और हमें कुछ सोचने पर मज़बूर कर देता है।

तो आइए पढ़ें और सुनें पीयूष मिश्रा जी को


ओ री दुनिया, ओ री दुनिया…
ऐ ओ री दुनिया….
ऐ सुरमयी आँखों के प्यालों की दुनिया ओ दुनिया,
सुरमयी आँखों के प्यालों की दुनिया ओ दुनिया,
सतरंगी रंगों गुलालों की दुनिया ओ दुनिया,
सतरंगी रंगों गुलालों की दुनिया ओ दुनिया,
अलसाई सेजों के फूलों की दुनिया ओ दुनिया रे,
अंगड़ाई तोड़े कबूतर की दुनिया ओ दुनिया रे,
ऐ करवट ले सोई हकीक़त की दुनिया ओ दुनिया,
दीवानी होती तबियत की दुनिया ओ दुनिया,
ख्वाहिश में लिपटी ज़रुरत की दुनिया ओ दुनिया रे,
ऐ इंसान के सपनों की नीयत की दुनिया ओ दुनिया,
ओ री दुनिया, ओ री दुनिया,
ओ री दुनिया, ओ री दुनिया,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…

ममता की बिखरी कहानी की दुनिया ओ दुनिया,
बहनों की सिसकी जवानी की दुनिया ओ दुनिया,
आदम के हव्वा से रिश्ते की दुनिया ओ दुनिया रे,
ऐ शायर के फीके लफ्ज़ों की दुनिया ओ दुनिया ,
ओ...............ओ...............

गा़लिब के मोमिन के ख़्वाबों की दुनिया,
मज़ाज़ों के उन इन्कलाबों की दुनिया,
फैज़, फिराको, साहिर व मखदूम,
मीर की, ज़ौक की, दाग़ों की दुनिया,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है…

पल छिन में बातें चली जाती हैं हैं,
पल छिन में रातें चली जाती हैं हैं,
रह जाता है जो सवेरा वो ढूँढे,
जलते मकान में बसेरा वो ढूँढे,
जैसी बची है वैसी की वैसी बचा लो ये दुनिया,
अपना समझ के अपनों के जैसी उठा लो ये दुनिया,
छिटपुट सी बातों में जलने लगेगी सँभालो ये दुनिया,
कटकुट के रातों में पलने लगेगी सँभालो ये दुनिया,

ओ री दुनिया, ओ री दुनिया,
वो कहे हैं की दुनिया ये इतनी नहीं है,
सितारों से आगे ज़हाँ और भी हैं,
ये हम ही नहीं हैं वहाँ और भी हैं,
हमारी हर एक बात होती वहीं हैं,
हमें ऐतराज़ नहीं हैं कहीं भी,
वो आलिम हैं फ़ाज़िल हैं होंगे सही ही,
मगर फलसफा ये बिगड़ जाता है जो वो कहते हैं,
आलिम ये कहता वहाँ ईश्वर है,
फ़ाज़िल ये कहता वहाँ अल्लाह है,
काबिल यह कहता वहाँ ईसा है,
मंजिल ये कहती तब इंसान से कि तुम्हारी है तुम ही सँभालो ये दुनिया,
ये बुझते हुए चंद बासी चरागों, तुम्हारे ये काले इरादों की दुनिया,
हे ओ.... री दुनिया…


शुक्रवार, जनवरी 29, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 :पॉयदान संख्या 18 - पीयूष मिश्रा के व्यंग्यों की मार झेलते 'अंकल सैम'

वाराणसी यात्रा और घर में शादी की व्यस्तताओं की वज़ह से संगीतमाला में लगे इस ब्रेक के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। तो चलिए फिर शुरु करते हैं संगीतमाला की पॉयदानों पर क्रमवार ऊपर बढ़ने का सिलसिला।

वार्षिक संगीतमाला की 18 वीं पॉयदान पर का गीत थोड़ा अलग हट कर है। आज जिस तरह युवा निर्देशक नई-नई थीमों पर फिल्में बना रहे हैं उसी तरह कुछ संगीतकार भी लीक से अलग हटकर चलने को तैयार हैं। वैसे जब फिल्म का गीत और संगीतकार एक ही शख़्स हो और निर्देशक को उसकी काबिलियत पर पूरा विश्वास हो तो नए प्रयोग करने का साहस और बढ़ जाता है। इस लिए तो पीयूष मिश्रा को जब निर्देशक अनुराग कश्यप ने 'गुलाल' फिल्म का गीत संगीत रचने की कमान सौंपी तो इश्क और हुस्न से लबरेज़ फिल्मी मुज़रों की जगह एक पॉलटिकल मुज़रा (Poltical Mujra) ही लिख दिया।


पीयूष ने अपने लिखे इस गीत में देश और विश्व से जुड़े कुछ मसलों पर अपने शब्द बाणों से करारे व्यंग्य कसे हैं।

चाहे वो आतंकवाद के नाम पर अमेरिका की इराक और अफगानिस्तान में घुसपैठ हो..

या फिर देश में शीतल पेय के बाज़ार में अधिक सेंध लगाने वाले लोक लुभावन विज्ञापन हों..

या सबको अपने विचार रखने की आज़ादी देने के लोकतंत्र की बुनियादी उसूल पर आए दिन लगने वाले प्रतिबंधों द्वारा की जा रही आधारभूत चोट हो..

या फिर उच्च वर्ग में अंग्रेजीदाँ संस्कृति का अंधानुकरण करने की होड़ हो..

इस गीत में पीयूष सब पर सफलता पूर्वक निशाना साधते नज़र आए हैं। तो क्या फितर चढ़ा रंगमंच से सालों साल जुड़े इस गीतकार के मन में। अंतरजाल पर सलीमा पूनावाला को दिए गए साक्षात्कार में इस गीत के बारे में बात करते हुए पीयूष कहते हैं...

फिल्म जगत में कोई जल्दी कुछ नया करना नहीं चाहता। सभी इस्तेमाल किए हुए सफल फार्मूलों का दोहराव करने को आतुर हैं। मैंने 'राणाजी' इसलिए लिखा क्योंकि मैं एक 'Political Mujra' लिखना चाहता था। फिर अन्य गीतों की अपेक्षा फिल्म की परिस्थिति के हिसाब से इस गीत में कुछ नया करने का अवसर ज्यादा था। वैसे भी जो कुछ हमारे अगल बगल हो रहा है, जो भी घटनाएँ घट रही हैं क्या ये जरूरी नहीं कि उन्हें सुनने वालों तक गीत के माध्यम से पहुँचाया जाए। मैं चाहता था कि जब आने वाली पीढ़ियाँ इस गीत को सुने तो उन्हें आज की वास्तविकता को जानने का मौका मिले।
ये तो हुई इस गीत के पीछे उपजे विचारों की बात। पीयूष ने इस मुज़रे में राजस्थानी लोक संगीत का जो रंग भरा है वो रेखा भारद्वाज की आवाज़ में और निखर के सामने आया है। ताल वाद्यों की अद्भुत जुगलबंदी के साथ जब रेखा जी का आलाप उभरता है जो सहज ही श्रोता को गीत के मूड से एकाकार कर देता है। गायिकी के लिहाज़ से ये साल रेखा जी के लिए बेहतरीन सालों में से एक रहा है। उनकी गायिकी के बारे में बाते आगे भी होंगी फिलहाल तो इस गीत का आनंद लीजिए





राणाजी म्हारे, गुस्से में आए, ऐसो बल खाए, अगिया बरसाए, घबराए म्हारो चैन
जैसे दूर देस के,
जैसे दूर देस के, टावर में घुस जाए रे एरोप्लेन
राणाजी म्हारे ...

राणाजी म्हारे, एसो गुर्राए, एसो थर्राए, भर आये म्हारे नैन
जैसे सरे आम ही,
जैसे सरे आम इराक में जाके जम गए अंकल सैम
राणाजी म्हारे...

राणाजी म्हारी सास ननद के ताने, राणाजी म्हारे जेठ ससुर की बानी
राणाजी थापे भूत परेत की छाया, राणाजी थापे इल बिल जिन का साया
सजनी को डियर बोले, ठर्रे को बीयर बोले, माँगे है इंग्लिस बोली, माँगे है इंग्लिस चोली
माँगे है इंग्लिस जयपुर, इंग्लिस बीकानेर
जैसे बिसलेरी की ,
जैसे बिसलेरी की बोतल पी के बन गए इंग्लिस मैन
राणाजी म्हारे...

राणाजी म्हारी सौतन को घर ले आये
पूछे तो बोले फ्रेंड हमारी है हाए
राणाजी ने ठंडा चक्कू यूँ खोला
बोले कि हाए ठंडा माने कोका कोला
राणाजी बोले मोरों की बस्ती में है शोर राणी
क्यों की ये दिल मांगे मोर, मोर रानी, मोर राणी, मोर राणी ..
म्हारी तो बीच बजरिया, हाए बदनामी हो गयी
म्हारी तो लाल चुनरिया, सरम से धानि हो गयी
म्हारो तो धक् धक् होवे, जो जो बीते रैन
जैसे हर इक बात पे ...
जैसे हर इक बात पे डिमोक्रिसी में लगने लग गयो बैन ...

जैसे दूर देस के, टावर में घूस जाए रे एरोप्लेन
जैसे सरे आम इराक में जाके जम गए अंकल सैम
जैसे बिना बात अफगानिस्ताँ का
जैसे बिना बात अफगानिस्ताँ का बज गया भैया बैंड

जैसे दूर देस के, टावर में घुस जाए रे एरोप्लेन
राणाजी म्हारे ...


मंगलवार, जनवरी 27, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 - पायदान संख्या 15 : दिल हारा रे..सुखविंदर सिंह की उर्जात्मक प्रस्तुति !

वार्षिक संगीतमाला २००८ में अब बचे हैं चोटी के पन्द्रह गीत। अब तक पेश निचली पायदानों के दस गीतों में पाँच ए. आर रहमान और तीन विशाल शेखर के द्वारा संगीत निर्देशित रहे हैं। १४ वीं पायदान का ये गीत एक बार फिर विशाल शेखर की झोली में है। टशन फिल्म के इस गीत को गाया आजकल के बहुचर्चित गायक सुखविंदर सिंह ने, गीत के बोल लिखे बहुमुखी प्रतिभा के धनी पीयूष मिश्रा ने।

वैसे तो ये गीत इस संगीतमाला के तीन झूमने झुमाने वाले गीतों में से एक है। इस कोटि का एक गीत आप २५ वीं पायदान पर सुन चुके हैं और इसी तरह की मस्ती और उर्जा से भरपूर एक गीत आपको पहली पाँच पायदानों के अंदर सुनने को मिलेगा। तो जब तक आप सोचे विचारें वो गीत कौन सा हो सकता है , तब तक इस गीत के बारे में कुछ बात कर ली जाए

१४ वीं पायदान का गीत उनके लिए है जो जीवन को बेफिक्री के साथ मस्तमौला अंदाज़ में जीते हैं। जिनके सिर पर ना तो बीते कल का बोझ है और ना ही आने वाले कल की चिंता। जो ना सामने आने वाले खतरों की परवाह करते हैं और ना ही याद रखते हैं अपने अतीत को। पर जिंदगी की इस दौड़ में अगर ये हारे हैं तो बस अपने दिल से...
भारतीय नाट्य संस्थान से स्नातक, अभिनेता और गीतकार पीयूष मिश्रा ने गीत में इन भावों को तो खूबसूरती से पिरोया है। विशाल शेखर का संगीत गीत के साथ थिरकने पर मजबूर करता है। सुखविंदर सिंह की आवाज़ इस तरह के उर्जात्मक गीतों के लिए बिल्कुल उपयुक्त है। इसलिए तो गीत सुनते ही श्रोताओं के मुँह से ये सहज निकलता है कि इन्होंने तो समा ही बाँध दिया..

तो आइए डालें इस गीत के बोलों पर इक नज़र


कैसे भागे रे, पागल मनवा
ताबड़ तोड़ नाच लूँ , नाच लूँ, नाच लूँ, नाच लूँ, रे
हो हो छप्पन तारे तोड़ नाच लूँ
सूरज चंदा मोड़ नाच लूँ
अब तो ताबड़ तोड़ नाच लूँ
मैं तो बंजारा रे

बन के आवारा मैं किस मेले में पहुँच गया हूँ
कोई तो रोको खो जाऊँ रे
मस्ती का मारा, ये क्या बोलूँ मैं, किसे कहूँ मैं
दिल का मैं हारा हो जाऊँ रे
दिल हारा रे.....
दिल हारा हारा, दिल हारा हारा, मैं हारा
ओ यारा रे...दिल हारा हारा, दिल हारा हारा, मैं हारा दिल हारा रे....

आज अकेले हर हालात से आगे
जुबानी बात से आगे चला आया
हर तारे की आँख में आँखें डाले
चाँदनी रात से आगे चला आया
किसको बोलूँ मैं, कैसे बोलूँ मैं
कोई मुझको बता के जाए, कोई तो बता जाए
दिल हारा रे.........

हो..रस्ता बोला, रे कि थक जाएगा
बीच में रुक जाएगा, अभी रुक जा
अरे आगे जा के, गरज के आँधी होगी
गरज के तूफाँ होगा, अभी रुक जा
मैं तो दीवाना, बोला आ जाना
दोनों संग में चलेंगे हाँ
आ भी जा तू आ जा रे
दिल हारा रे.........


 

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