राही मासूम रज़ा एक ऐसे उपन्यासकार थे जिनकी किताबों से गुज़रकर हिंदुस्तानियत को और करीब से पढ़ा, समझा और महसूस किया जा सकता है। असंतोष के दिन और आधा गाँव तो कुछ वर्षों पहले पढ़ चुका था। कुछ महिने पहले मैंने उनकी किताब टोपी शुक्ला पढ़कर खत्म की। दरअसल रज़ा साहब ने किताब का नाम ही कुछ ऐसा रखा था कि पिछले साल के पुस्तक मेले में इसे खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर पाया था। मन में पहला सवाल यही आया था कि आख़िर क्या बला है ये टोपी शुक्ला?
किताब के पहले कुछ पन्ने उलटने के बाद ही लेखक से मुझे अपने प्रश्न का उत्तर मिल चुका था। पुस्तक के नायक बलभद्र नारायण शु्क्ला के अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में टोपी शुक्ला कहलाए जाने का किस्सा रज़ा साहब कुछ यूँ बयाँ करते हैं.."यूनिवर्सिटी यूनियन में नंगे सर बोलने की परंपरा नहीं थी। टोपी की ज़िद कि मैं तो टोपी नहीं पहनूँगा। इसलिए होता यह कि यह जैसे ही बोलने खड़े होते सारा यूनियन हाल एक साथ टोपी टोपी का नारा लगाने लगता। धीरे धीरे टोपी और बलभद्र नारायण का रिश्ता गहरा होने लगा। नतीजा यह हुआ कि बलभद्र को छोड़ दिया गया और इन्हें टोपी शुक्ला कहा जाने लगा।"
लेखक का टोपी की कथा कहने का तरीका मज़ेदार है। टोपी की कथा ना उसके शुरुआती जीवन से शुरु होती है और ना ही उसकी मृत्यु के फ्लैशबैक से। उपन्यास का आरंभ टोपी के जीवन के मध्यांतर से होता है यानि जब कॉलेज की पढ़ाई के लिए टोपी बनारस से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पहुँचता है। रज़ा 115 पृष्ठों के इस उपन्यास में टोपी के जीवन को अपनी मर्जी से फॉस्ट फारवर्ड और रिवर्स करते रहे हैं। पर कमाल इस बात का है कि कथन की रोचकता बनाए हुए भी अपने मूल प्रश्न से वो भटके नहीं है जो उनके दिल को हमेशा से कचोटता रहा है। इस सवाल से हम सभी वाकिफ़ हैं। आख़िर इस देश के लोगों की पहचान उनकी जाति या धर्म से होकर ही क्यूँ है? टोपी शुक्ला जैसे लोग जिन्होंने हिंदुस्तानियत का अक़्स लेकर अपने जीवन मूल्य निश्चित किए उनको ये देश कब उनकी वाज़िब पहचान देगा?
पर टोपी अपने जीवन में सदा से गंगा जमुनी तहज़ीब को मानते रहे ऐसा भी नहीं था। ये होता भी तो कैसे ? अपने बाल जीवन में अपने आस पास इतने विरोधाभासों को देखने वाला इन मामलों में कोई पुख्ता और तार्किक राय बना भी कैसे सकता था? घर वाले मियाँ का छूआ भले ना खाते हों पर पिता वा दादी उनकी बोली धड़ल्ले से बोलते थे। टोपी के पिता के बारे में लेखक की ये टिप्पणी इस दोहरेपन को बड़ी बखूबी सामने लाती है
"डा पंडित भृगु नारायण नीले तेल वाले धुली हुई उर्दू बोलते थे और उर्दू के कट्टर विरोधी थे। इंशा अल्लाह, माशा अल्लाह और सुभान अल्लाह के नीचे बात नहीं करते थे। मुसलमानों से नफ़रत करते थे। पर इसलिए नहीं कि उन्होंने भारत की प्राचीन सभ्यता को नष्ट किया है और पाकिस्तान बना लिया है। बल्कि इसलिए कि उनका मुकाबला डा. शेख शरफ़ुद्दीन लाल तेल वाले से था। यह डा.शरफ़ुद्दीन उनके कम्पाउण्डर हुआ करते थे। शेख शरफ़ुद्दीन की हरक़त ये रही कि उन्होंने नीले तेल का रंग बदल दिया और डाक्टर बनकर पब्लिक को दोनों हाथों से लूटने लगे।"
टोपी कुरूप थे तो इसमें उनका क्या कसूर ? माता पिता, भाइयों और दादी से जिस स्नेह की उम्मीद की वो उन्हें मिली भी तो अपने मुस्लिम दोस्त इफ़्फन व उसकी दादी से। कलक्टर का बेटा होने के बावज़ूद इफ़्फन ने टोपी के साथ कभी भेद भाव नहीं किया। यहाँ तक की अपनी नई चमचमाती साइकिल भी खेलने को दी। साइकिल के सपनों को सँजोए जब टोपी घर पहुँचा तो वहाँ रामदुलारी के यहाँ तीसरा बच्चा हो रहा था।
"भाई होई की बहिन ? एक नौकरानी ने पूछासाइकिल ना हो सकती का ! टोपी ने सवाल कियाबूढ़ी नौकरानी हँसते हँसते लोटपोट हो गई। माँ रामदुलारी मुस्कुरा दी। दादी सुभ्रदादेवी ने नफ़ीस उर्दू में टोपी की मूर्खता का रोना रो लिया। परंतु किसी ने नहीं सोचा कि टोपी को एक अदद साइकिल की जरूरत है।"
टोपी के दिल को कोई समझता था तो वो थी इफ़्फन और उसकी दादी। दादी अचानक परलोक सिधार गयीं और इफ़्फन के पिता का तबादला हो गया। टोपी फिर अकेला हो गया। कोई अचरज़ नहीं कि ऐसे हालातों में जब टोपी जनसंघियों के संपर्क में आया तो जनसंघी हो गया। अपने पिता की ही तरह उसका जनसंघ प्रेम विचारधारा से ना होकर उसके जीवन की तत्कालीन परिस्थितियों से था। लाल तेल वाले का बेटा कक्षा में अव्वल आए और नीले तेल वाले असली डाक्टर का बेटा फेल हो जाए तो टोपी की रही सही इज़्जत का दीवाला तो पिटना ही था। सो उसने इस घटना से ये निष्कर्ष निकाला कि जब तक इस देश में मुसलमान हैं तब तक हिंदू चैन की साँस नहीं ले सकता।
पर लेखक इस मानसिकता से मुसलमानों को भी अछूता नहीं पाते। अब इफ़्फन के दादा परदादाओं के बारे में बात करते हुए कहते हैं
इफ़्फ़न के दादा और परदादा मौलवी थे। काफ़िरों के देश में पैदा हुए। काफ़िरों के देश में मरे। परंतु वसीयत करके मरे कि लाश करबला ले जाई जाए। उनकी आत्मा में इस देश में एक साँस तक ना ली।
राही मासूम रज़ा इस किताब में जिस बेबाकी से हमारी सोच और मान्यताओं पर व्यंग्यात्मक चोट करते हैं वो देखते ही बनता है। मिसाल के तौर पर कुछ बानगियाँ देखें..
"सेठ साहब की बेटी लाजवंती बड़ी अच्छी लड़की थी। बस एक आँख ज़रा खराब थी। बाएँ पैर को घसीटकर चलती थीं। रंग ज़रा ढँका हुआ था। और मुँह पर माता के निशान थे। परंतु इन बातों से क्या होता है? शरीफ़ लोगों में कहीं बहुओं की सूरत देखी जाती है। सूरत तो होती है रंडी की। बीवी की तो तबियत देखी जाती है।""रंग बदलने से आदमी का क्या क्या हो जाता है। टोपी एक ही है। सफ़ेद हो तो आदमी कांग्रेसी दिखाई देता है , लाल हो तो समाजवादी और केसरी हो तो जनसंघी।""इश्क का तअल्लुक दिलों से होता है और शादी का तनख़्वाहों से। जैसी तनख्वाह होगी वैसी ही बीवी मिलेगी। ""अगर किसी टीचर की बीवी किसी स्टूडेंट से फँसी हुई होतो उसका पढ़ा लिखा या ज़हीन होना बेकार है। वह रीडर बन ही नहीं सकता।"
अलीगढ़ जाकर टोपी अपने पुराने दोस्त इफ़्फन और उसकी बीवी सकीना से मिल पाता है और उसकी जनसंघी विचारधारा कम्युनिस्टों की सोहबत में एक नए रंग में रँग जाती है। आगे की कहानी विश्वविद्यालय की राजनीति, सक़ीना से टोपी के संबंधों की अफ़वाहों और उससे टोपी के मन में उपजे मानसिक क्षोभ का चित्रण करती है। रज़ा इस पुस्तक में हिंदू और मुसलमानों क बीच के आपसी अविश्वास और उनके पीछे के कारणों को अपने मुख्य किरदार टोपी और उसके परम मित्र इफ़्फन और सकीना के माध्यम से बाहर लाते हैं। उपन्यास का अंत टोपी की आत्महत्या से होता है। टोपी को ये कदम क्यूँ उठाना पड़ा ये तो आप राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस उपन्यास में पढ़ ही लेंगे पर ख़ुद लेखक इस बारे में क्या कहते हैं चलते चलते ये बताना शायद मेरे या हम सब के लिए बेहद जरूरी होगा..
"मुझे यह उपन्यास लिख कर कोई ख़ास खुशी नहीं हुई। क्योंकि आत्महत्या सभ्यता की हार है। परन्तु टोपी के सामने कोई और रास्ता नहीं था। यह टोपी मैं भी हूं और मेरे ही जैसे और बहुत से लोग भी हैं। हम लोग कहीं न कहीं किसी न किसी अवसर पर "कम्प्रोमाइज़" कर लेते हैं। और इसीलिए हम लोग जी रहे हैं। टोपी कोई देवता या पैग़म्बर नहीं था। किंतु उसने "कम्प्रोमाइज़" नहीं किया और इसीलिए आत्महत्या कर ली।"
