पिछली पोस्ट में आपने परवीन शाकिर की कुछ रचनाएं पढ़ी और उन्हें मुशायरे में अपना क़लाम पढ़ते देखा। अब उनकी शायरी के सफ़र पर आगे चलें। एक छद्म नाम 'बीना' से लिखना शुरु करने वाली परवीन शाकिर उर्दू के मशहूर शायर अहमद नदीम क़ासमी को आपना गुरु मानती थीं। 'ख़ुशबू' के आलावा अपने जीवनकाल में उनके चार अन्य काव्य संग्रह 'सद बर्ग' (१९८०), 'खुद कलामी' और 'इंकार' (१९९०) और 'माह-ए-तमाम' (१९९४) प्रकाशित हुए। ख़ुशबू के बारे में तो पिछली पोस्ट में चर्चा हुई थी, पर इसके बाद परवीन शाकिर ने जो कुछ लिखा वो कुछ कुछ उन टूटे ख़्वाबों की कहानी जैसा ही लगता है। इन संग्रहों में प्रियतम की संवेदनहीनता और बेवफ़ाई को उन्होंने अपने काव्य का मुख्य विषय बनाया है। शायद इसका कारण उनके निजी जीवन की परेशानियाँ रही थीं। अस्सी के दशक में डा. नसीर अहमद से परवीन का निकाह हुआ था। पर ये रिश्ता ज्यादा दिन चल नहीं पाया और अंततः इनके बीच तालाक हो गया। इस रिश्ते से उनके बेटे मुराद का जन्म हुआ जिसने उनकी काव्यात्मकता को एक नई दिशा दी। उनके संग्रह ख़ुद क़लामी में मातृत्व से जुड़ी कुछ नज़्में भी पढ़ने को मिलती हैं।
पर ख़ुशबू के बाद उनकी लेखनी में मायूसी और उदासी का पुट बढ़ता चला गया। ये ग़ज़ल, बहुत हद तक जीवन की शाम में टूटे सपनों की चोट से आहत परवीन की आवाज़ लगती है
अक़्स-ए-खुशबू हूँ बिखरने से ना रोके कोई
और बिखर जाऊँ तो, मुझ को ना समेटे कोई
काँप उठती हूँ मैं सोच कर तनहाई में
मेरे चेहरे पर तेरा नाम ना पढ़ ले कोई
जिस तरह ख़्वाब हो गए मेरे रेज़ा रेज़ा
इस तरह से, कभी टूट कर, बिखरे कोई
अब तो इस राह से वो शख़्स गुजरता भी नहीं
अब किस उम्मीद पर दरवाजे से झांके कोई
कोई आहट, कोई आवाज, कोई छाप नहीं
दिल की गलियाँ बड़ी सुनसान है आए कोई
परवीन शाकिर के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपनी किताबों को एक आत्मकथ्य का रूप दिया। उनकी किताबों में कविताओं का क्रम उनके रचे जाने के हिसाब से है। इसलिए एक आम पाठक भी सहजता से उसे एक किशोरी (खुशबू) , पत्नी (सद बर्ग), माँ (खुदक़लामी) और एक परिपक्व स्त्री के रूप में गढ़ी रचनाओं में बाँट सकता है। पर ये भी सही था कि उनका आत्मकथ्य का लहजा इतना खुला भी नहीं था कि सीधे-सीधे उनकी निजी जिंदगी का हाल समझा दे। अपने महबूब से उन्हें शिकायतें रहीं जो रह-रह के उनके लेखन में दिखती रहीं।
अजीब तर्ज-ए-मुलाकात अब के बार रही
तुम्हीं थे बदले हुए या मेरी निगाहें थीं
तुम्हारी नजरों से लगता था जैसे मेरे बजाए
तुम्हारे ओहदे की देनें तुम्हें मुबारक थीं
सो तुमने मेरा स्वागत उसी तरह से किया
जो अफ्सरान-ए-हुकूमत के ऐतक़ाद में है
तकल्लुफ़ान मेरे नजदीक आ के बैठ गए
फिर *एहतराम से मौसम का जिक्र छेड़ दिया
*आदर
कुछ उस के बाद सियासत की बात भी निकली
अदब पर भी दो चार तबसरे फ़रमाए
मगर तुमने ना हमेशा कि तरह ये पूछा
कि वक्त कैसा गुजरता है तेरा जान-ए-हयात ?
पहर दिन की *अज़ीयत में कितनी शिद्दत है
उजाड़ रात की तन्हाई क्या क़यामत है
शबों की सुस्त रावी का तुझे भी शिकवा है
गम-ए-फिराक के किस्से **निशात-ए-वस्ल का जिक्र
रवायतें ही सही कोई बात तो करते.....
*अत्याचार **मिलन की खुशी
और एक शेर में तो उन्होंने यहाँ तक कह दिया
कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने
बात तो सच है मगर बात है रुसवाई की
कुछ जुमले परवीन शाकिर की शायरी में हर जगह पाए जाते हैं। खासकर ख़ुशबू जिसके बारे में वो अपनी किताब में कहती हैं कि जब उस प्यारी हवा ने फूल को चूमा......एक ख़ुशबू सी सारी फ़िज़ा में फ़ैल गई। काव्य समालोचक सी. एम. नईम साहब कहते हैं कि प्रतीकात्मक लहजे में परवीन की कविताओं में वो फ़ूल और कोई नहीं बल्कि वो खुद हैं और वो अल्हड़ हवा उनकी ओर खिंचे वे लोग, जिनके संसर्ग से उनके ख़्याल शायरी के रुप में उभरे। अब इसी ग़ज़ल को लें.. क्या खूबसूरत मतला है !
तेरी ख़ुशबू का पता करती है
मुझ पे एहसान हवा करती है
वैसे बाकी के शेर भी कुछ कम नहीं
दुख हुआ करता है कुछ और बयाँ
बात कुछ और हुआ करती है
*अब्र बरसे तो इनायत उस की
शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है
*बादल
मसला जब भी उठा चिराग़ों का
फ़ैसला सिर्फ़ हवा करती है
और ये अशआर भी कमाल के हैं
चेहरा मेरा था निगाहें उस की
ख़ामोशी में भी वो बातें उस की
मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं
शेर कहती हुई आँखें उस की
बाकी रूमानी शायरों की तरह परवीन को भी चाँद, चाँदनी और बारिश आकर्षित करते रहे। पर यहाँ देखिए कितने दिलकश अंदाज में उन्होंने यहाँ चाँदनी, नींद और ख़्वाब की बातें की है।
चाँदनी ...
उस रोशन झरोखे को छू कर आए, न आए
मगर ...
मेरी पलक़ों की तकदीर से नीदें चुनती रहे
और उस आँख के ख़्वाब बुनती रहे ...
और चाँद में अपनी तनहाई का अक्स ढ़ूंढ़ते हुए उन्होंने कहा
एक से मुसा़फिर हैं
एक सा मुक़द्दर है
मैं जमीं पर तनहा
और वो आसमां में ...
बारिश से मुक्तलिफ़ कुछ नज्में तो
यूनुस की प्रतिक्रिया के जवाब में
यहाँ लिखी हैं। यहाँ बारिश से जुड़ी एक ग़ज़ल जो मुझे बेहद प्रिय है के चंद शेर पेश कर रहा हूँ
बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गये
मौसम के हाथ भीग के *सफ़्फ़ाक हो गये
*खूनी
बादल को क्या ख़बर कि बारिश की चाह में
कितने बुलन्द-ओ-बाला *शज़र ख़ाक हो गये
*पेड़
जुगनू को दिन के वक़्त पकड़ने की ज़िद करें
बच्चे हमारे *अहद के चालाक हो गये
*समय
लहरा रही है बर्फ़ की चादर हटा के घास
सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक हो गये
परवीन शाकिर की ग़ज़लियात को महदी हसन, ताहिरा सईद, रूना लैला जैसे फ़नकारों ने अपनी आवाज दी है। पर मुझे इन सबमें ताहिरा सईद की गाई बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना... बेहद पसंद है।
*बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना
मैं समन्दर देखती हूँ तुम किनारा देखना
*जहाज का पाल
यूँ बिछड़ना भी बहुत आसाँ न था उस से मगर
जाते जाते उस का वो मुड़ कर दुबारा देखना
किस *शबाहत को लिये आया है दरवाज़े पे चाँद
ऐ **शब-ए-हिज्राँ ज़रा अपना सितारा देखना
*सूरत **वियोग की रात
आईने की आँख ही कुछ कम न थी मेरे लिये
जाने अब क्या क्या दिखायेगा तुम्हारा देखना
परवीन शाकिर ने अपनी जिंदगी उस तेज चलती हवा सी जी, जिसे अपनी मंजिल पर जल्द से जल्द पहुँचना हो। उनके पूरे जीवन को देखें तो युवावस्था में मिली ख्याति, सिविल सर्विसेज में सफलता, शादी फिर बेटे मुराद का जन्म, तालाक, कस्टम के कमिश्नर पद तक उनकी तरक्की, अपने जीवन काल में ही उनकी सारी रचनाओं का प्रकाशन सब कुछ इतना जल्दी होता चला गया मानो उन्हें पहले से मालूम हो कि उनके पास समय ज्यादा नहीं है। २६ दिसम्बर १९९४ में की सुबह उनकी कार की बस से टक्कर हो जाने की वजह से उन्होंने ४२ वर्ष की उम्र में अचानक ही इस दुनिया से कूच कर दिया। पर उर्दू शायरी के प्रेमी ना उनको भूले हैं ना उनकी रचनाओं को। आखिर खुद उन्होंने ही तो लिखा था
मर भी जाऊँ तो कहाँ लोग भुला देंगे
लफ़्ज मेरे होने की गवाही देंगे..........