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मंगलवार, नवंबर 11, 2014

सारा आकाश : राजेंद्र यादव Sara Aakash by Rajendra Yadav

राजेंद्र यादव मेरे प्रिय लेखक कभी नहीं रहे। कॉलेज के दिनों में कई बार उनकी कहानियों से साबका पड़ा और वो मुझ पर कोई खास असर नहीं छोड़ पायीं। पिछली बार उन्हें मैंने तब पढ़ा, जब उन्होंने मन्नू भंडारी के साथ उपन्यास एक इंच मुस्कान संयुक्त रूप से लिखा था। उस उपन्यास को पढ़ते हुए भी मन्नू जे के हिस्से तो तेजी से निकल जाते थे पर राजेंद्र जी के अध्यायों पर पढ़ाई की गाड़ी किसी पैसैंजर ट्रेन की माफ़िक घिसटती चलती थी। पर इतना सब होते हुए भी मुझे उनकी लिखी मशहूर किताब सारा आकाश को पढ़ने की इच्छा थी़। हाल भी में अपने मित्रों की पसंदीदा सूची में इसका नाम देखकर ये इच्छा फिर जोर पकड़ने लगी। बाकी  काम आनलाइन बाजार ने कर दिया।



राजेंद्र जी ने ये किताब 1952 में लिखी थी यानि आज से करीब साठ साल पहले। वैसे उसके करीब 8 साल पहले वे इसी पुस्तक को प्रेत बोलते हैं के नाम से लिख चुके थे। सारा आकाश में प्रेत बोलते हैं कि भूमिका और अंत दोनों को बदल दिया गया। राधाकृष्ण प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में पाठकों की जिज्ञासा को देखते हुए प्रेत बोलते हैं के वे अंश भी दिए गए हैं जिन्हें सारा आकाश में बदला गया। अगर दोनों अंतों की तुलना करूँ तो सारा आकाश का अंत मुझे ज्यादा बेहतर लगा। निम्नमध्यम वर्गीय समाज को जिसने करीब से देखा हो या उसके अंग रहे हो वे बड़ी सहजता से इस कथा से अपने को जोड़ पाएँगे।  

बकौल राजेंद्र यादव सारा आकाश एक निम्नमध्यवर्गीय युवक के अस्तित्व के संघर्ष की, आशाओं, महत्त्वाकांक्षाओं और आर्थिक सामाजिक, सांस्कारिक सीमाओं के बीच चलते द्वन्द्व, हारने थकने और कोई रास्ता निकालने की बेचैनी की कहानी है। पुस्तक की भूमिका में लेखक बताते हैं कि किशोर मन में गूँजती रामधारी सिंह 'दिनकर' की ये पंक्तियाँ उपन्यास के नामाकरण का स्रोत बनीं

सेनानी, करो प्रयाण अभय, भावी इतिहास तुम्हारा है
ये नखत अमा के बुझते हैं, सारा आकाश तुम्हारा है

इन्हीं पंक्तियों के संदर्भ में ये उपन्यास अपनी सार्थकता खोजता है और इसलिए राजेंद्र जी कहते हैं कि इस कहानी के ब्याज, इन पंक्तियों को पुनः विद्रोही कवि को लौटा रहा हूँ कि आज हमें इनका अर्थ भी चाहिए। राष्ट्रकवि दिनकर ने राजेंद्र जी की इस बात का क्या जवाब दिया वो भी इस पुस्तक में है। सारा आकाश पर बाद में बासु चटर्जी द्वारा एक फिल्म भी बनाई गई जो आशा के विपरीत सफल रही। इस पुस्तक के भी कई संस्करण छपे। आठ लाख से ऊपर प्रतियाँ बिकीं।

बहरहाल लौटते हैं इस उपन्यास पर। इंटर की परीक्षा के ठीक पहले कथा के नायक समर के अनिच्छा से किए गए विवाह से उपन्यास की शुरुआत होती है। परीक्षा के तनाव के बीच आई इस नई मुसीबत को मानसिक रूप से झेलने में समर अपने आप को असमर्थ पाता है। माता पिता द्वारा लादे गए इस निर्णय का विरोध वो अपनी पलायनवादी रणनीति से करता है। ना वो अपनी पत्नी से कोई संबंध रखता है ना घर के अंदर घट रहे मसलों से। ज़ाहिर है ये परिस्थिति घर में आई नई बहू के लिए बेहद कठिन होती है पर प्रभा ना अपना धैर्य खोती है ना आत्मसंयम। पति पत्नी में बोलचाल ना होने का ये सिलसिला एक दिन टूटता है। 

दो सौ से ऊपर पृष्ठों की ये किताब पारिवारिक समस्याओं के चक्रव्यूह में उलझे समर और प्रभा की संघर्ष गाथा है। लेखक पुस्तक में संयुक्त परिवार की अवधारणा पर प्रश्न चिन्ह उठाते हैं। साथ ही शादी विवाह के आज के तौर तरीकों को पति पत्नी के बीच की मानसिक संवादहीनता का कारण मानते हैं।

निम्न मध्यम वर्गीय परिवार का खाका खींचते वक़्त लेखक ने उपन्यास में पुरुष और स्त्री पात्रों की मनोवृतियों को जिस तरह उभारा है उसका आकलन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। आख़िर समर का प्रभा से साल भर ना बोलने का फैसला क्या इंगित करता है? समर जैसे पुरुष अपने दबंग पिता के सामने कितने निरीह क्यूँ ना हो पर स्त्री के सामने उनका अहंकार जागृत हो जाता है। ये घमंड उस परम्परागत  परिवेश से पनपता है जहाँ स्त्री को पुरुष से हमेशा नीचे समझा जाता है। इस निर्मूल अहंकार को स्त्रियों के खिलाफ़ हिंसा में तब्दील होने में देर नहीं लगती। पर ये प्रवृति पुरुषों तक सीमित है  ऐसा भी नहीं है। 

सत्ता हाथ में आते ही स्त्रियाँ भी नृशंसता की हदें पार कर जाती हैं और वो भी तब जब उन्होंने ख़ुद इसका दंश झेला हो। समर की माँ इसी तरह के चरित्र का एक रूप हैं। बहुओं के उत्प्रीड़न, बच्चों पर अपनी इच्छा को जबरदस्ती थोपने की प्रवृति से आज भी हमारा समाज मुक्त नहीं हो पाया है। 

आख़िर ऐसा क्यूँ है? पुराने ज़माने में लोग उतने पढ़े लिखे नहीं होते थे। पर शिक्षा का स्तर बढ़ने के बावज़ूद भी हमारी सोच का स्तर नहीं बढ़ा है। या यूँ कहें कि हम स्तर बढ़ाना नहीं चाहते। क्यूँकि वैसा करने से हमारी सहूलियत आड़े आती हैं। हमारी बरसों की जमाई पारिवारिक सत्ता छिन्न भिन्न होती नज़र आती है। सो हम रीति रिवाज़ो का सहारा लेने लगते हैं ताकि तार्किक प्रश्नों के जवाब में उनका आवरण ले सकें। 

पर आज के इस युग में नई पीढ़ी के लोग इतना तो कर सकते हैं कि दुनिया, समाज व परिवार के विचारों को आँख मूँद कर अनुसरण करने के बजाए इंसानियत के जज़्बे को ध्यान में रखकर अपना आचार व्यवहार विकसित कर सकें। अगर ऐसा वे नहीं करेंगे तो समर और प्रभा जैसी परिणति के वे भी शिकार होंगे। 

एक शाम मेरे नाम पर मेरी पढ़ी हुई पुस्तकों की सूची, मूल्यांकन और पुस्तक चर्चा सम्बंधित प्रविष्टियाँ आप यहाँ देख सकते हैं।
 

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