जिन्दगी यादों का कारवाँ है.खट्टी मीठी भूली बिसरी यादें...क्यूँ ना उन्हें जिन्दा करें अपने प्रिय गीतों, गजलों और कविताओं के माध्यम से!
अगर साहित्य और संगीत की धारा में बहने को तैयार हैं आप तो कीजिए अपनी एक शाम मेरे नाम..
आधुनिक हिंदी कविता के प्रशंसकों में शायद ही कोई ऐसा हो जो गोपाल दास नीरज के गीतों, मुक्तक, दोहों और कविताओं से दो चार नहीं हुआ होगा। नीरज हिंदी फिल्मों में भी साठ और सत्तर के दशक में सक्रिय रहे और करीब पाँच दशकों बाद भी उनके गीत आज भी बड़े चाव से गाए व गुनगुनाए जाते हैं। नीरज जी के लिखे सबसे शानदार गीत सचिन देव बर्मन और शंकर जयकिशन जैसे संगीतकारों की झोली में गए। पर हिंदी फिल्म जगत में नीरज की पारी ज्यादा दिन नहीं चल सकी।सचिन दा और जयकिशन की मृत्यु और संगीत के बदलते परिवेश ने फिल्मी गीत लेखन से उनका मन विमुख कर दिया।
उनके सफल दर्जन भर गीतों की बानगी लें तो उसमें हर रस के गीत मौज़ूद थे। प्रेम, (लिखे जो खत तुझे... रँगीला रे..., जीवन की बगिया महकेगी....) शोखी, (ओ मेरी ओ मेरी शर्मीली...., रेशमी उजाला है मखमली अँधेरा....) उदासी, (दिल आज शायर है, कैसे कहें हम..., खिलते हैं गुल यहाँ खिल के बिखरने को...., मेघा छाए आधी रात....) भक्ति, (राधा ने माला जपी श्याम की....) और हास्य (धीरे से जाना खटियन में खटमल...., ऐ भाई ज़रा देख के चलो...) जैसे सारे रंग मौज़ूद तो थे उनकी लेखनी में।
कवियों ने जब जब गीतकार की कमान सँभाली है तो अपनी कविताओं को गीतों में पिरोया है। धर्मवीर भारती की लिखी कविता ये शामें सब की सब शामें क्या इनका कोई अर्थ नहीं.... याद आती है जिसका आांशिक प्रयोग सूरज का सातवाँ घोड़ा में हुआ था। नीरज ने कई बार अपनी कविताओं को गीत में ढाला। उनकी अमर रचना कारवाँ गुजर गया गुबार देखते रहे को फिल्म "नए उमर की नई फ़सल " में हूबह लिया गया। नीरज की एक और कविता थी जिसका कुछ हिस्सा इस्तेमाल हुआ शंकर जयकिशन की फिल्म लाल पत्थर के एक गीत सूनी सूनी साँस के सितार .. में । गीत के अंतरे तो फिल्म के लिहाज से सहज बना दिए गए पर आज उनके उस गीत को सुनवाने से पहले वो कविता सुन लीजिए जो प्रेरणा थी उस गीत की।
नीरज की इस कविता में एक आध्यात्मिक सोच है जिस पर उदासी का मुलम्मा चढ़ा है। वे कहते हैं कि जीवन में कभी भी आपके चारों ओर सब कुछ धनात्मक उर्जा से भरा नहीं होता। जब एक ओर कुछ रिश्ते प्रगाढ़ होते रहते हैं तो वहीं किसी दूसरे संबंध में दरारें पड़ने लगती हैं। कहीं सृजन हो रहा होता है तो साथ ही कई विनाश गाथा रची जा रही होती है। कहीं प्रेम का ज्वार फूट रहा होता है तो कहीं उसी प्रेम को घृणा की दीवार तहस नहस करने को आतुर रहती है।
वैसे भी इस संसार में कुछ भी शाश्वत नहीं है। सुख दुख के इन झोंकों के बीच हम जीवन की नैया खेते रहना ही शायद अमिट सत्य है जिसे जितनी जल्दी हम स्वीकार कर लें उतना ही बेहतर..।
सूनी-सूनी साँस के सितार पर
गीले-गीले आँसुओं के तार पर
एक गीत सुन रही है ज़िन्दगी
एक गीत गा रही है ज़िन्दगी।
चढ़ रहा है सूर्य उधर, चाँद इधर ढल रहा झर रही है रात यहाँ, प्रात वहाँ खिल रहा जी रही है एक साँस, एक साँस मर रही इसलिए मिलन-विरह-विहान में
इक दिया जला रही है ज़िन्दगी इक दिया बुझा रही है ज़िन्दगी।
रोज फ़ूल कर रहा है धूल के लिए श्रंगार और डालती है रोज धूल फ़ूल पर अंगार कूल के लिए लहर-लहर विकल मचल रही किन्तु कर रहा है कूल बूंद-बूंद पर प्रहार इसलिए घृणा-विदग्ध-प्रीति को
एक क्षण हँसा रही है ज़िन्दगी एक क्षण रूला रही है ज़िन्दगी।
एक दीप के लिए पतंग कोटि मिट रहे एक मीत के लिए असंख्य मीत छुट रहे एक बूंद के लिए गले-ढले हजार मेघ एक अश्रु से सजीव सौ सपन लिपट रहे इसलिए सृजन-विनाश-सन्धि पर
एक घर बसा रही है ज़िन्दगी एक घर मिटा रही है ज़िन्दगी।
सो रहा है आसमान, रात हो रही खड़ी जल रही बहार, कली नींद में जड़ी पड़ी धर रही है उम्र की उमंग कामना शरीर टूट कर बिखर रही है साँस की लड़ी-लड़ी इसलिए चिता की धूप-छाँह में
एक पल सुला रही है ज़िन्दगी एक पल जगा रही है ज़िन्दगी।
जा रही बहार, आ रही खिजां लिए हुए जल रही सुबह बुझी हुई शमा लिए रो रहा है अश्क, आ रही है आँख को हँसी राह चल रही है गर्दे-कारवां लिए हुए इसलिए मज़ार की पुकार पर
एक बार आ रही है ज़िन्दगी
एक बार जा रही है ज़िन्दगी।
उनकी कविता में कहीं आशा का चढ़ता सूरज है कहीं निराशा की ढलती साँझ है। कहीं फूल धूल पर बिछने को तैयार बैठा है और वही धूल उस फूल की सुंदरता नष्ट करने पर तुली है। लहरें किनारों से मिलने के लिए उतावली हैं और किनारा पास आती लहरों पर प्रहार करने से भी नहीं सकुचा रहा। करोड़ों पतंगे एक दीप की चाह में अपने जीवन की कुर्बानियाँ दे रहे हैं। इष्ट मीत के प्रेम को पाने के लिए हम कितनों के प्रणय निवेदन को अनदेखा कर रहे हैं। इन सोते जागते पलों और बदलते जीवन में कहीं हँसी की खिलखिलाहट है तो कहीं रुदन का विलाप।
नीरज ने फिल्म में अपनी कविता का मूल भाव और मुखड़ा वही रखते हुए अंतरों का सरलीकरण कर दिया। शंकर जयकिशन के साझा सांगीतिक सफ़र का वो आखिरी साल था। दिसंबर 1971 में इस फिल्म के प्रदर्शित होने के तीन महीने पहले जयकिशन लिवर की बीमारी की वजह से दुनिया छोड़ चुके थे। शास्त्रीय रचनाओं में प्रवीण ये संगीत रचना भी संभवतः शंकर की ही होगी। उन्होंने इस गीत को राग जयजयवंती पर आधारित किया था।
शुरुआत और अंत में आशा जी के आलाप गीत को चार चाँद लगाते हैं। उनकी शानदार गायिकी की वज़ह से उस साल के फिल्मफेयर में ये गीत नामित हुआ था। गीत के इंटरल्यूड्स में सितार का बेहतरीन प्रयोग मन को सोहता है।
इस गीत को फिल्माया गया था राखी पर। दृश्य था कि राखी मंच पर अपना गायन प्रस्तुत कर रही हैं और उनके पीछे विभिन्न वाद्य यंत्र लिए वादक मंच पर बैठे हैं। मजे की बात ये कि गीत में पीछे दिखते वाद्यों में शायद ही किसी का प्रयोग हुआ है। बज तबला और सितार रहा है पर वो दिखता नहीं है। अपने पुराने प्रेम को भूलते हुए ज़िदगी में नायिका का नए सिरे से रमना कितना कठिन है। इसलिए नीरज गीत में कहते हैं कि एक सुर मिला रही है ज़िंदगी...एक सुर भुला रही है ज़िंदगी
सूनी सूनी साँस के सितार पर
भीगे भीगे आँसुओं के तार पर
एक गीत सुन रही है ज़िंदगी
एक गीत गा रही है ज़िंदगी
सूनी सूनी साँस के सितार पर ...
प्यार जिसे कहते हैं
खेल है खिलौना है
आज इसे पाना है कल इसे खोना है
सूनी सूनी ...... तार पर
एक सुर मिला रही है ज़िंदगी
एक सुर भुला रही है ज़िंदगी
सूनी सूनी साँस के सितार पर ...
कोई कली गाती है
कोई कली रोती है
कोई आँसू पानी है
कोई आँसू मोती है
सूनी सूनी ....... तार पर
किसी को हँसा रही है ज़िंदगी
किसी को रुला रही है ज़िंदगी
सूनी सूनी साँस के सितार पर .
राखी के आलावा इस फिल्म में थे राज कुमार और विनोद मेहरा और साथ ही थीं हेमा मालिनी एक विलेन के किरदार में
पुराने हिंदी फिल्मी गीतों में अगर आर्केस्ट्रा का किसी संगीतकार ने सबसे बढ़िया इस्तेमाल किया तो वो थे शंकर जयकिशन। हालांकि उनके समकालीनों में सलिल चौधरी और बाद के वर्षों में पंचम ने भी इस दृष्टि से अपने संगीत में एक अलग छाप छोड़ी। पर जिस वृहद स्तर पर शंकर जयकिशन की जोड़ी वादकों की फौज को अपने गानों के लिए इक्ठठा करती थी और जो मधुर स्वरलहरी उससे उत्पन्न होती थी उसकी मिसाल किसी अन्य हिंदी फिल्म संगीतकार के साथ मिल पाना मुश्किल है। शंकर जयकिशन का आर्केस्ट्रा ना केवल गीतों में रंग भरता था पर साथ ही इस तरह फिल्म के कथानक के साथ रच बस जाता था कि आप फिल्माए गए दृश्य से संगीत को अलग ही नहीं कर सकते थे।
मिसाल के तौर पर फिल्म "जिस देश में गंगा बहती है" के इस सदाबहार गीत आ अब अब लौट चलें को याद कीजिए। 1960 में बनी इस फिल्म का विषय चंबल के बीहड़ों में उत्पात मचा रहे डाकुओं को समाज की मुख्यधारा में वापस लौटाने का था। इस फिल्म के निर्माता थे राज कपूर साहब। राजकपूर की फिल्म थी तो शंकर जयकिशन की जोड़ी के साथ शैलेंद्र, हसरत जयपुरी, मुकेश और लता जैसे कलाकारों का जुड़ना स्वाभाविक था। कुछ ही दिनों पहले सोशल मीडिया पर शैलेंद्र के पुत्र दिनेश शंकर शैलेंद्र ने इस फिल्म से जुड़ी एक रोचक घटना सब के साथ बाँटी थी। दिनेश शंकर शैलेंद्र के अनुसार
"राजकपूर ने फिल्म की पटकथा बताने के लिए शंकर, जयकिशन, हसरत और मुकेश को आर के स्टूडियो के अपने काटेज में बुलाया था। राजकपूर ने फिल्म की कहानी जब सुनानी खत्म की तो कमरे में सन्नाटा छा गया। अचानक शंकर ने चाय का कप टेबल पर दे मारा और गाली देते हुए उस ठंडे, धुँए भरे कमरे से बाहर निकल गए। सारे लोग उनके इस व्यवहार पर चकित थे। फिर राजकपूर ने शैलेंद्र से कहा कि जरा देखो जा के आख़िर पहलवान* को क्या हो गया? कहानी पसंद नहीं आई? शैलेन्द्र शंकर के पास गए और उनसे पूछा कि मामला क्या है? शंकर ने गालियों की एक और बौछार निकाली और फिर कहा कि डाकुओं की फिल्म में भला संगीत का क्या काम है? बना लें बिन गानों की फिल्म, हमें यहाँ क्यूँ बुलाया है? शैलेंद्र ने उन्हें समझाया कि इस फिल्म में भी गाने होंगे। सब लोग वापस आए और कहानी के हिसाब से गीतों के सही स्थान पर विचार विमर्श हुआ और अंततः फिल्म के लिए नौ गाने बने।"
(*संगीतकार बनने से पहले शंकर तबला बजाने के साथ साथ पहलवानी का हुनर भी रखते थे 😊।)
तो बात शुरु हुई थी शंकर जयकिशन की आर्केस्ट्रा पर माहिरी से। आ अब लौट चलें के लिए शंकर जयकिशन ने सौ के करीब वायलिन वादकों को जमा किया था। साथ में कोरस अलग से। हालत ये थी कि तारादेव स्टूडियो जहाँ इस गीत की रिकार्डिंग होनी थी में इतनी जगह नहीं बची थी कि सारे वादकों को अंदर बैठाया जा सके। लिहाजा कुछ को बाहर फुटपाथ पर बैठाना पड़ा था। कहा जाता है कि इस गीत कि रिहर्सल डेढ़ दिन लगातार चली और इसीलिए परिणाम भी जबरदस्त आया।
आर्केस्ट्रा में बजते संगीत को ध्यान में रखते हुए निर्देशक राधू कर्माकर ने गीत की रचना की थी। ये गीत फिल्म को अपने अंत पर ले जाता है जब फिल्म का मुख्य किरदार डाकुओं को आत्मसमर्पण करवाने के लिए तैयार करवा लेता है। गीत में एक ओर तो डाकुओं का गिरोह अपने आश्रितों के साथ लौटता दिख रहा है तो दूसरी ओर पुलिस की सशंकित टुकड़ी हथियार से लैस होकर डाकुओं के समूह को घेरने के लिए कदमताल कर रही है। निर्देशक ने पुलिस की इस कदमताल को वायलिन और ब्रास सेक्शन के संगीत में ऐसा पिरोया है कि दर्शक संगीत के साथ उस दृश्य से बँध जाते हैं। संगीत का उतर चढाव भी ऐसा जो दिल की धड़कनों के साथ दृश्य की नाटकीयता को बढ़ा दे। वायलिन आधारित द्रुत गति की धुन और साथ में लहर की तरह उभरते कोरस को अंतरे के पहले तब विराम मिलता है जब हाथों से तारों को एक साथ छेड़ने से प्रक्रिया से शंकर जयकिशन हल्की मधुर ध्वनि निकालते हैं। इस प्रक्रिया को संगीत की भाषा में Pizzicato कहते हैं। इस गीत में Pizzicato का प्रभाव आप वीडियो के 39 से 45 सेकेंड के बीच में सुन सकते हैं।
गिटार की धुन के साथ गीत गीत आगे बढ़ता है। मुकेश तो खैर राजकपूर की शानदार आवाज़ थे ही, अंतरों के बीच कोरस के साथ लता का ऊँचे सुरों तक जाता लंबा आलाप गीत का मास्टर स्ट्रोक था। इस गीत में लता जी की कोई और पंक्ति नहीं है पर ये आलाप इतनी खूबसूरती से निभाया गया है कि पूरे गीत के फिल्मांकन में जान फूँक देता है। गीतकार शैलेंद्र की खासियत थी कि वो बड़ी सहजता के साथ ऐसे बोल लिख जाते थे जो सीधे श्रोताओं के दिल को छू लेते थी। गलत राह पे चलने से नुकसान की बात हो या समाज द्वारा इन भटके मुसाफ़िरों को पुनः स्वीकार करने की बात, अपने सीधे सच्चे शब्दों से शैलेंद्र ने गीत में एक आत्मीयता सी भर दी है। उनका दूसरे अंतरे में बस इतना कहना कि अपना घर तो अपना घर है आज भी घर से दूर पड़े लोगों की आँखों की कोरें गीला कर देगा।
आ अब लौट चलें, आ अब लौट चलें नैन बिछाए बाँहें पसारे तुझको पुकारे देश तेरा आ जा रे – आ आ आ सहज है सीधी राह पे चलना देख के उलझन बच के निकलना कोई ये चाहे माने न माने बहुत है मुश्किल गिर के संभलना आ अब लौट चलें … आँख हमारी मंज़िल पर है दिल में ख़ुशी की मस्त लहर है लाख लुभाएँ महल पराए अपना घर फिर अपना घर है आ अब लौट चलें …
इतना मधुर संगीत संयोजन करने के बाद भी ये गीत उस साल के फिल्मफेयर अवॉर्ड के लिए नामांकित नहीं हुआ। इसके संगीत संयोजन के बारे में शंकर जयकिशन पर आरोप लगा कि उनकी धुन उस समय रिलीज़ हुए इटालवी गीत Ciao Ciao Bambina से मिलती है। अगर आप वो गीत इटालवी में सुनें तो शायद ही आप इस साम्यता को पकड़ पाएँ। पर अलग से उस धुन सुनने के बाद तुझको पुकारे देश मेरा वाली पंक्ति गीत की धुन से मिलती दिखती है। पर इस हल्की सी प्रेरणा को नज़रअंदाज करें तो जिस तरह गीत को शंकर जयकिशन ने कोरस और लता के आलाप के साथ आगे बढ़ाया है वो उनके हुनर और रचनात्मकता को दर्शाता है।
सितंबर का महीना हसरत जयपुरी साहब की रुखसती का महीना है। करीब दो दशक गुजर गए उन्हें हमारा साथ छोड़े हुए। फिर भी रेडियो पर आज भी उनके गीतों की फ़रमाइशें ख़त्म होने का नाम नहीं लेतीं। उनके गीतों को जब देखता हूँ तो मुझे लगता है कि वो आम आदमी के शायर थे जो दिल की बात बड़ी सीधी सी जुबान में कह देते थे। अब बरसात का मौसम है। नायिका को उनके आने का तकाज़ा है और हसरत की कलम चल उठती है कि जिया बेकरार है, आई बहार है आ जा मोरे साजना तेरा इंतजार है।
इकबाल हुसैन के नाम से जन्मे हसरत, जयपुर के बाशिंदे थे। किशोरावस्था में अपने पहले प्रेम का शिकार हुए और यहीं से शायरी का कीड़ा उनके मन में कुलबुलाने लगा। उनकी पहली प्रेयसी राधा थीं जो बाजू वाले मकान के झरोखों से ताक झाँक करते हुए उनका दिल चुरा ले गयीं। उसी राधा की शान में हसरत साहब ने अपना पहला शेर कहा..
तू झरोखे से जो झांके तो मैं इतना पूछूँ
मेरे महबूब कि तुझे प्यार करूँ या ना करूँ
सन चालीस में जब वे मुंबई आए तो नौकरी की तलाश में बस कंडक्टर बन गए। पर इस उबाऊ सी नौकरी में भी उन्होंने रस ढूँढ ही लिया। ग्यारह रुपये माहवार की नौकरी में भी जब खूबसूरत नाज़नीनें उनकी बस में चढ़तीं तो वे उनके हुस्न से इतने प्रभावित हो जाते कि उनसे टिकट के पैसे माँगना भी उन्हें गवारा ना होता था। वो कहा करते कि वे सारी कन्याएँ उनके लिए प्रेरणा का काम करती थीं जिनकी शान में वो मुशायरों में अपने अशआर गढ़ते थे। ऐसी ही किसी मुशायरे में पृथ्वीराज कपूर ने उन्हें देखा और फिर उनकी सिफारिश राज कपूर तक पहुँच गई। एक बार जब वो शंकर, जयकिशन, शैलेंद्र की चौकड़ी का हिस्सा बने तो उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा।
अब प्यार तो हसरत ने किया पर उसके मुकम्मल होने की 'हसरत' रह ही गयी। पर राधा को वो कभी भूले नहीं। उनका सदाबहार गीत ये मेरा प्रेमपत्र पढ़ कर के कि तुम नाराज ना होना कि तुम मेरी ज़िंदगी हो.. भी राधा को ही समर्पित था। उनका इस गीत के अंतरे में चाँद में दाग और सूरज में आग का हवाला देते हुए अपने महबूब को उनसे भी खूबसूरत बताने का अंदाज़ निराला था।
रोज़मर्रा के जीवन से गीत का मुखड़ा बना लेने का हुनर भगवान ने उन्हें खूब बख्शा था। कहते हैं कि एक बार शंकर जयकिशन के साथ विदेश में उन्होंने एक महिला को बेहद चमकीली सी ड्रेस में देखा और उनके मुख से बेसाख़्ता ये जुमला निकला कि बदन पे सितारे लपेटे हुए ओ जाने तमन्ना किधर जा रही हो.. और फिर तो वो गीत बना और इतना लोकप्रिय भी हुआ। ऐसे ही उनके बेटे के जन्म पर खुशी खुशी वो कह पड़े कि तेरी प्यारी प्यारी सूरत को किसी की नज़र ना लगे चश्मेबद्दूर..। बाद में ये पंक्तियाँ भी एक मशहूर गीत का मुखड़ा बनीं।
आज उन्हीं हसरत जयपुरी साहब का एक गाना मुझे याद आ रहा है फिल्म जब प्यार किसी से होता है से जो 1961 में रिलीज़ हुई थी। निर्माता निर्देशक नासिर हुसैन ने अपनी इस पहली फिल्म के सारे गाने रफ़ी और लता से गवाए थे। फिल्म तो हिट हुई ही थी पर साथ ही इसके गाने जिया हो जिया हो जिया कुछ बोल दो, सौ साल पहले मुझसे तुमसे प्यार था और तेरी जुल्फों से ....... खासे लोकप्रिय हुए थे।
इन गीतों में मुझे जो सबसे पसंद रहा वो था तेरी ज़ुल्फ़ों से जुदाई तो नहीं माँगी थी क़ैद माँगी थी, रिहाई तो नहीं माँगी थी..। बड़ा प्यारा लगता था इसे गुनगुनाना। क़ैद के साथ रिहाई का जिक्र होते ही दिल में दर्द वाला तार ख़ुद ब खुद झंकृत हो जाता था और आँखो की छलकती मय वाले शेर के तो क्या कहने! वैसे तो आपने इस गीत के तीन अशआर सुने होंगे पर एक चौथा भी शेर लिखा था हसरत साहब ने जो फिल्माया नहीं गया।
उन दिनों देव आनंद साहब काफी सजीले नौजवान हुआ करते थे। आशा पारिख जी के साथ उन पर ये गीत फिल्माया गया था। गीत की परिस्थिति कुछ यूँ थी कि एक महफिल सजी है जिसमें अपने साथ हुए धोखे को आशा पारिख एक छोटी सी नज़्म के सहारे नायक के दोहरे चरित्र पर तंज़ कसती हैं और फिर जवाब में देव साहब ये गीत गा उठते हैं।
तो आइए शंकर जयकिशन की धुन और हसरत साहब की लेखनी के इस गठजोड़ को रफ़ी की आवाज़ में फिर याद कर लेते हैं आज की इस शाम को...
इस हिरसो-हवस की दुनिया में अरमान बदलते देखे हैं धोख़ा है यहाँ, लालच है यहाँ ईमान बदलते देखे हैं दौलत के सुनहरे जादू से ऐ दिल ये तड़पना अच्छा है चाँदी के खनकते सिक्कों पर इंसान बदलते देखे हैं ....
तेरी ज़ुल्फ़ों से जुदाई तो नहीं माँगी थी क़ैद माँगी थी, रिहाई तो नहीं माँगी थी
मैंने क्या ज़ुल्म किया, आप खफ़ा हो बैठे प्यार माँगा था, खुदाई तो नहीं माँगी थी क़ैद माँगी थी...
मेरा हक़ था तेरी आँखों की छलकती मय पर चीज़ अपनी थी, पराई तो नहीं माँगी थी क़ैद माँगी थी...
अपने बीमार पे, इतना भी सितम ठीक नहीं तेरी उल्फ़त में, बुराई तो नहीं माँगी थी क़ैद माँगी थी...
चाहने वालों को कभी, तूने सितम भी ना दिया तेरी महफ़िल से, रुसवाई तो नहीं माँगी थी क़ैद माँगी थी...
कभी कभी बेहद पुरानी यादें अचानक ही मस्तिष्क की बंद पड़ी काल कोठरियों से बाहर आ जाती हैं। टीवी पर एक कार्यक्रम देख रहा था जिससे पता चला कि आज मुकेश 36 वीं पुण्य तिथि है और एकदम से वो काला दिन मेरी आँखों के सामने घूम गया।
शायद मैं स्कूल से लौट कर आया था। पता नहीं किस वज़ह से छुट्टी कुछ जल्दी हो गई थी। कपड़े बदलकर पहला काम तब रेडिओ आन करना ही होता था। विविध भारती पर फिल्म धर्म कर्म से लिया और मुकेश का गाया नग्मा इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएँगे प्यारे तेरे बोल आ रहा था। वो उस वक़्त का मेरा पसंदीदा गीत हुआ करता था। गाने के बाद उद्घोषिका द्वारा ये बताना कि हम मुकेश के गाए गीत इसलिए सुना रहे हैं क्यूँकि आज ही अमेरिका में उनका निधन हो गया है मुझे विस्मित कर गया था। बचपन के उन दिनों में बस इतना समझ आता था कि ये खबर, बड़ी खबर है और जल्द ही इसका प्रसारण दौड़कर घर के कोने कोने में कर देना चाहिए। मैंने भी यही किया था और सब के चेहरे पर विषाद की रेखाओं को उभरता देख मन कुछ दुखी अवश्य हो गया था। इस बात को तीन दशक से ऊपर हो गए हैं पर इन गुजरते वर्षों में मुकेश के गाए गीतों की स्मृतियाँ दिन पर दिन प्रगाढ़ ही होती गयी हैं।
मुकेश को तकनीकी दृष्टि से बतौर गायक भले ही संगीतकारों ने अव्वल दर्जे पर नहीं रखा पर उनकी आवाज़ की तासीर कुछ ऍसी थी जो सीधे आम लोगों के दिल में जगह बना लेती थी। दर्द भरे नग्मों को गाने का उनका अंदाज़ अलहदा था। शायद ही उस ज़माने में कोई घर ऐसा रहा होगा जहाँ मुकेश के उदास करने वाले गीतों का कैसेट ना हो। आज मुझे ऐसे ही एक गीत की याद आ रही है जिसे संगीतकार शंकर जयकिशन ने 1967 में फिल्म रात और दिन के लिए रचा था। गीत के बोल लिखे थे हसरत जयपुरी ने।
मुकेश, हसरत जयपुरी, शंकर व जयकिशन की चौकड़ी ने ना जाने कितने ही मधुर गीतों को रचा होगा। पर ये जान कर आश्चर्य होता है कि ये सारे कलाकार कितनी मामूली ज़िंदगियों से निकलकर संगीत के क्षेत्र में उन ऊँचाइयों तक पहुँचे जिसकी कल्पना उन्होंने अपने आरंभिक जीवन में कभी नहीं की होगी।
अब हसरत साहब को ही लें। स्कूल से आगे कभी नहीं पढ़ पाए। क्या आप सोच सकते हैं कि मुंबई आकर उन्होंने अपनी जीविका चलाने के लिए क्या किया होगा? सच तो ये है कि जयपुर का ये शायर मुंबई के शुरुआती दिनों में बस कंडक्टरी कर अपना गुजारा चलाता था। ये जरूर था कि मुफ़लिसी के उस दौर में भी उन्होंने मुशायरों में शिरक़त करना नहीं छोड़ा और यहीं पृथ्वी राज कपूर ने उन्हें सुना और राजकपूर से उनके नाम की सिफारिश की।
हसरत जयपुरी की तरह ही शंकर जयकिशन का मुंबई का सफ़र संघर्षमय रहा। शंकर हैदराबाद में छोटे मोटे कार्यक्रमों में तबला बजाते थे तो गुजरात के जयकिशन हारमोनियम में प्रवीण थे। इनकी मुलाकात और फिर पृथ्वी थियेटर में काम पाने के किस्से कोतो मैं पहले ही आपसे साझा कर चुका हूँ।दस बच्चों के परिवार में पले बढ़े मुकेश ने भी दसवीं के बाद पढ़ना छोड़ दिया था। छोटी मोटी सरकारी नौकरी मिली तो साथ में शौकिया गायन भी करते रहे। बहन की शादी में यूँ ही गा रहे थे कि अभिनेता मोतीलाल (जो उनके रिश्तेदार भी थे) की नज़र उन पर पड़ी और वो उन्हें मुंबई ले आए। इससे ये बात तो साफ हो जाती है कि अगर आपमें हुनर और इच्छा शक्ति है तो परवरदिगार आपको आगे का रास्ता दिखाने के लिए मौका जरूर देते हैं और इन कलाकारों ने उन मौकों का पूरा फ़ायदा उठाते हुए फिल्म संगीत जगत में अपनी अमिट पहचान बना ली।
तो लौटते हैं रात और दिन के इस गीत पर। गीत का मुखड़ा हो या कोई भी अंतरा , हसरत कितने सहज शब्दों में नायक की व्यथा को व्यक्त कर देते हैं और फिर मुकेश की आवाज़ ऐसे गीतों के लिए ही बनी जान पड़ती है। आप इस गीत को सुनकर क्या महसूस करते हैं ये तो मैं नहीं जानता पर रात और दिन के इस गीत को मैं जब भी सुनता हूँ पता नहीं क्यूँ बिना बात के आँखे नम हो जाती हैं। गीत का नैराश्य मुझे भी शायद अपने मूड में जकड़ लेता है। मन अनमना सा हो जाता है।
कुछ गीतों का कैनवास फिल्मों की परिधियों से कहीं दूर फैला होता है। वे कहीं भी सुने जाएँ, कभी भी गुने जाएँ वे अपने इर्द गिर्द ख़ुद वही माहौल बना देते हैं। इसीलिए परिस्थितिजन्य गीतों की तुलना में ये गीत कभी बूढ़े नहीं होते। गुलज़ार का फिल्म सीमा के लिए लिखा ये नग्मा एक ऐसा ही गीत है। ना जाने कितने करोड़ एकाकी हृदयों को इस गीत की भावनाएँ उन उदास लमहों में सुकून पहुँचा चुकी होंगी। कम से कम अगर अपनी बात करूँ तो सिर्फ और सिर्फ इस गीत का मुखड़ा लगातार गुनगुनाते हुए कितने दिन कितनी शामें यूँ ही बीती हैं उसका हिसाब नहीं।
कहते हैं प्रेम के रासायन को पूरी तरह शब्दों में बाँध पाना असंभव है। पर शब्दों के जादूगर गुलज़ार गीत के पहले अंतरे में लगभग यही करते दिखते हैं। होठ का चुपचाप बोलना, आँखों की आवाज़ और दिल से निकलती आहों में साँसों की तपन को महसूस करते हुए भी शायद हम कभी उन्हें शब्दों का जामा पहनाने की सोच भी नहीं पाते, अगर गुलज़ार ने इसे ना लिखा होता।
गुलज़ार के लिखे गीतों में से बहुत कम को मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ मिली है। पर मौसम, स्वयंवर, बीवी और मकान, देवता , कशिश और कोशिश जैसी फिल्मों में गुलज़ार के लिखे गिने चुने जो गीत रफ़ी साहब को गाने को मिले उन सारे गीतों पर अकेला ये गीत भारी पड़ता है। सीमा 1971 में प्रदर्शित हुई पर कुछ खास चली नहीं पर ये गीत खूब चला। मुझे हमेशा ये लगता रहा है कि रफ़ी की आवाज़ और गुलज़ार के लाजवाब बोलों की तुलना में शंकर जयकिशन का संगीत फीका रहा। संगीतकार शंकर की बदौलत गायिका शारदा भी इस गीत का हिस्सा बन सकीं। आप अंतरों के बीच उनके आलाप और कहीं कहीं मुखड़े में उनकी आवाज़ सुन सकते हैं।
जब भी ये दिल उदास होता है जाने कौन आस-पास होता है
होठ चुपचाप बोलते हों जब
साँस कुछ तेज़-तेज़ चलती हो
आँखें जब दे रही हों आवाज़ें
ठंडी आहों में साँस जलती हो,
ठंडी आहों में साँस जलती हो
जब भी ये दिल ...
आँख में तैरती हैं तसवीरें तेरा चेहरा तेरा ख़याल लिए आईना देखता है जब मुझको एक मासूम सा सवाल लिए
एक मासूम सा सवाल लिए
जब भी ये दिल ...
कोई वादा नहीं किया लेकिन
क्यों तेरा इंतजार रहता है
बेवजह जब क़रार मिल जाए
दिल बड़ा बेकरार रहता है
दिल बड़ा बेकरार रहता है
जब भी ये दिल ...
इस गीत को फिल्माया गया था कबीर बेदी और सिमी ग्रेवाल की जोड़ी पर। देखिए तो कितने बदले बदले से लग रहे हैं इस गीत में ये कलाकार।
पर अगर आप ये सोच रहे हों कि मुझे गुलज़ार के इस गीत की अचानक क्यूँ याद आ गई तो आपका प्रश्न ज़ायज है। वैसे तो किसी गीत के ज़हन में अनायास उभरने का कई बार कोई कारण नहीं होता। पर कल जब मैं गुलजार की एक किताब के पन्ने उलट रहा था तो उनकी एक ग़ज़ल पर नज़रे अटक गयीं। ग़ज़ल का मतला वही था जो इस गीत का मुखड़ा है.। तो आप समझ सकते हैं ना कि जितना प्यार हम सबको इस मुखड़े से है उतना ही दिलअज़ीज ये गुलज़ार साहब को भी है तभी तो उन्होंने इसी पर एक ग़ज़ल भी कह डाली।
जब भी ये दिल उदास होता है जाने कौन आस-पास होता है
गो बरसती नहीं सदा आँखें अब्र तो बारह मास होता है
छाल पेड़ों की सख़्त है लेकिन नीचे नाख़ून के माँस होता है
जख्म कहते हैं दिल का गहना है दर्द दिल का लिबास होता है
डस ही लेता है सब को इश्क़ कभी साँप मौका-शनास होता है
सिर्फ उतना करम किया कीजै आपको जितना रास होता है
जिन अशआरों को bold किया है वो दिल के ज्यादा करीब हैं। वैसे इश्क़ की तुलना सर्प दंश से करने के ख़याल के बारे में आपका क्या ख़याल है ?
इस कड़ी के पिछले भाग में आपने जानाकि किस तरह रफ़ी साहब और शम्मी कपूर की सफल जोड़ी की शुरुआत हुई। दिन बीतते गए और इन दोनों कलाकारों के बीच की समझ बढ़ती चली गई।
1967 में शम्मी साहब की एक फिल्म आई 'An Evening in Paris'. फिल्म के संगीतकार थे एक बार फिर शम्मी के चहेते शंकर जयकिशन । पर संयोग कुछ ऐसा हुआ कि जब निर्माता निर्देशक शंकर सामंत इस फिल्म के गीत की रिकार्डिंग करवा रहे थे तब शम्मी कपूर को भारत से बाहर जाना पड़ गया। इधर शम्मी गए उधर फिल्म के एक गीत 'आसमान से आया फरिश्ता...' की रिकार्डिंग भी हो गई। शम्मी साहब जब वापस आए तो ये जानकर बिल्कुल आगबबूला हो उठे और शक्ति दा और जयकिशन से उलझ पड़े। बाद में समझाने पर वो गीत सुनने को तैयार हुए और सुनकर दंग रह गए कि रफ़ी ने बिना उनसे बात किए गीत में वो सब किया जिसकी वो उम्मीद रखते थे। शम्मी जी रफ़ी साहब के पास गए और पूछा ये सब कैसे हुआ? रफ़ी साहब का जवाब था...
"ओ पापा मैंने पूछ्या ये गाना कौन गा रहा है ये गाना जो आपने बताया आसमान से आया फरिश्ता... और ओ जानेमन... कौन गाएगा ऐसा गाना। मुझसे कहा गया कि शम्मी कपूर साहब गा रहे हैं ये गाना। ओए होए शम्मी कपूर गाना गा रहा है तो आसमान से आया फरिश्ता पर वो एक हाथ इधर फैलाएगा और जानेमन के लिए तो वो हाथ भी फैलाएगा और टाँगे भी। तो मैंने वैसा ही सोचकर गा दिया।"
वैसे An Evening in Paris के बाकी गानों में भी रफ़ी साहब ने शम्मी जी की अदाएगी को ध्यान में रखकर अपनी आवाज़ में उतार चढ़ाव किए। अकेले अकेले... की शुरुआत जिन ऊँचे सुरों से होती है और फिर रफ़ी शम्मी के मस्तमौला अंदाज़ में गीत को जिस तरह नीचे लाते हैं उसका आनंद हर सुननेवाला बयाँ कर सकता है।
अकेले अकेले कहाँ जा रहे हो हमें साथ ले लो जहाँ जा रहे हो कोई मिट रहा है तुम्हें कुछ पता है तुम्हारा हुआ हैं तुम्हें कुछ पता है ये क्या माज़रा है तुम्हें कुछ पता है, अकेले....
फिल्म के शीर्षक गीत आओ तुमको दिखलाता हुँ पेरिस की इक रंगीं शाम.. हो या शैलेंद्र के शब्दों की मधुरता से मन को सहलाता ये नग्मा... रात के हमसफ़र थक के घर को चले
झूमती आ रही है सुबह प्यार की
रफ़ी ने अपनी गायिकी से शम्मी कपूर की इस फिल्म को हिट करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।
रफ़ी ,शम्मी कपूर और शंकर जयकिशन की तिकड़ी ने साठ के दशक में इतने गुनगुनाने लायक नग्मे दिए कि उनमें कुछ को छाँटना बेहद मुश्किल है पर An Evening in Paris के आलावा फिल्म 'प्रिंस' का ये गीत जिसमें शम्मी का पर्दे पर साथ वैजयंतीमाला ने दिया था दिल को बहुत लुभाता है। जैसे ही आप रफ़ी को
बदन पे सितारे लपेटे हुए
ओ जाने तमन्ना किधर जा रही हो
जरा पास आओ तो चैन आ जाए गाते हुए सुनते हैं मन शम्मी की अदाओं के साथ थिरकने लगता है।
रफ़ी साहब को जिस गीत के लिए पुरस्कृत किया गया वो था अपनी प्रियतमा से बिछड़ने के दर्द को समाहित किए हुए शैलेंद्र का लिखा ये रूमानी नग्मा..
दिल के झरोखे में तुझको बिठा कर
यादों को तेरी मैं दुल्हन बनाकर
रखूँगा मैं दिल के पास
मत हो मेरी जाँ उदास
द्रुत लय में बना क्या कमाल का गीत था ये, शैलेंद्र का लिखा हर अंतरा लाजवाब और शंकर जयकिशन का बेमिसाल आर्केस्ट्रा,बाकी कसर शम्मी रफ़ी की युगल जोड़ी ने पूरी कर दी थी।
शम्मी कपूर को लोग डान्सिंग स्टार की पदवी भी देते हैं। उनकी इस छवि को हमारे दिलो दिमाग में बसाने का श्रेय बहुत हद तक 1966 में आई उनकी फिल्म तीसरी मंजिल को दिया जाना चाहिए। ॠषि कपूर ने अपने एक साक्षात्कार में शम्मी कपूर की नृत्य प्रतिभा के बारे में बड़े पते की बात की थी। अगर आप शम्मी कपूर के गीतों को ध्यान से देखेंगे तो पाएँगे कि शायद ही कैमरे का फोकस उनके पैरों पर हो। यानि शम्मी नृत्य में पैरों का इस्तेमाल करते ही नहीं थे पर अपनी इस कमी को वो अपने चेहरे, आँखों और हाथों के हाव भावो और शरीर की लचक से पूरा कर लेते थे। उस ज़माने में उनकी ये स्टाइल इस कदर लोकप्रिय हो गई थी कि उनके सहकलाकारों ने हू-ब-हू वही करना सीख लिया था। आशा पारिख के साथ अभिनीत तीसरी मंजिल का उनका वो नग्मा कौन भूल सकता है जिसमें शम्मी जैसी अदाएँ आशा जी ने भी दिखलाई थीं।
तीसरी मंजिल भी रफ़ी साहब और शम्मी कपूर की संयुक्त सफलता का एक नया अध्याय जोड़ गई। तुमने मुझे देखा, दीवाना हुआ बादल जैसे रोमांटिक और ओ हसीना जुल्फोंवाली तथा आ जा आ जा मैं हूँ प्यार तेरा जैसे झूमते झुमाते गीत आम जनमानस के दिल में बस गए। पर इस सफलता के पीछे नाम था एक नए संगीतकार पंचम का। पंचम के अनुसार उनका नाम, इस फिल्म के लिए मजरूह ने सुझाया था पर शम्मी जयकिशन को ही रखना चाहते थे। बाद में जयकिशन के कहने पर उन्होंने पंचम द्वारा संगीतबद्ध सभी गीतों को सुना और फिर कहा तुम पास हो गए.. आगे से तुम्हीं मेरी फिल्मों के लिए संगीत निर्देशित करोगे।
दुर्भाग्यवश ऐसे मौके ज्यादा नहीं आए। तीसरी मंजिल के निर्माण के दौरान ही शम्मी कपूर की पत्नी गीता बाली का स्माल पॉक्स की वजह से असामयिक निधन हो गया। सत्तर के दशक में राजेश खन्ना के फिल्म जगत में पदार्पण के साथ ही इन दोनों कलाकारों का सबसे अच्छा समय बीत गया। शम्मी का वजन इतना बढ़ गया कि वे हीरो के किरदार के काबिल नहीं रहे। वहीं रफ़ी की चमक भी किशोर दा की बढ़ती लोकप्रियता की वज़ह से फीकी पड़ गई।
मोहम्मद रफ़ी ने यूँ तो हर किस्म के गाने गाए पर शम्मी कपूर की वज़ह से उन्हें अपनी गायिकी का वो पक्ष उभारने में मदद मिली जो उनके शर्मीले स्वाभाव के बिल्कुल विपरीत थी। जुलाई 1980 की उस सुबह को शम्मी वृंदावन में थे जब उन्हें किसी राहगीर ने बताया कि उनकी आवाज़ चली गई। पहले तो शम्मी कपूर को समझ नहीं आया कि ये बंदा क्या कह रहा है पर जब उन्हें पता चला कि उनकी आवाज़ से उसका इशारा रफ़ी साहब की ओर है तो वो ग़मज़दा हो गए। उन्हें इस बात का बेहद मलाल रहा कि वो रफ़ी साहब की अंतिम यात्रा में शामिल नहीं हो पाए। मुझे नहीं लगता कि आज कल के अभिनेता संगीतकार व गायक के साथ इतना वक़्त बिताते हों जितना शम्मी कपूर ने बिताया।
आज ये दोनों महान हस्तियाँ हमारे बीच नहीं है। पर गीत संगीत की जो अनुपम भेंट हमें शम्मी कपूर और मोहम्मद रफ़ी विरासत में दे गए हैं, को क्या हम उसे कभी भुला पाएँगे ? शायद कभी नहीं।
आज इस प्रविष्टि के साथ एक शाम मेरे नाम के छठवें साल के इस सफ़र में 500 पोस्ट्स का सफ़र पूरा हुआ । आशा है आपका साथ यूँ ही बना रहेगा।
क्या आपको पता है कि एक ज़माना वो भी था जब किसी संगीतकार को हिंदी फिल्मों में हीरो से भी ज्यादा पारिश्रमिक दिया जाता रहा हो? आज के हिंदी फिल्म उद्योग में तो ऐसा होना असंभव ही प्रतीत होगा। पर पचास और साठ के दशक में ऍसी ही एक संगीतकार जोड़ी थी जिसने अपने रचे गीतों की लोकप्रियता के आधार पर ये मुकाम हासिल किया था। ये संगीतकार थे शंकर जयकिशन यानि शंकर सिंह रघुवंशी और जयकिशन दयाभाई पंचाल।
जहाँ शंकर तबला बजाने में प्रवीण थे तो वहीं जयकिशन को हारमोनियम बजाने में महारत हासिल थी। काम के सिलसिले में एक गुजराती निर्देशक के कार्यालय में हुई पहली मुलाकात इनकी दोस्ती का सबब बन गई। तब शंकर पृथ्वी राज कपूर के थियेटर के पृथ्वी में काम किया करते थे। कहते हैं जयकिशन से उनकी ऐसी जमी कि उन्होंने उन्हें पृथ्वी थियेटर में बतौर हारमोनियम वादक काम दिला दिया। ये उन दिनों की बात है जब राज कपूर साहब आग की मिश्रित सफलता के बाद अपनी नई फिल्म बरसात के लिए संगीत निर्देशक की तलाश में थे। पर ये तालाश कैसे पूरी हुई ये वाक़या भी दिलचस्प है। शंकर ने दूरदर्शन में आने वाले कार्यक्रम फूल खिले हैं गुलशन गुलशन में तबस्सुम को दिए अपने एक साक्षात्कार के दौरान इस घटना का जिक्र करते हुए कहा था
राज साहब ने पिक्चर शुरू की ‘बरसात’। तो हरदम मिलते और कहते कि भाई गाने पसन्द आएँगे तो मैं लूँगा, तुम बनाते रहो। तो ऐसे कई गाने बनाए लेकिन उनको कभी पसन्द आए ही नहीं। हम उनको कहते कि भाई आप बनवाते हैं लेकिन लेते तो हैं नहीं। इत्तेफ़ाक़ से हम पूना गए एक वक़्त थिएटर के साथ। रात का वक़्त था , मैंने बाजा लिया। बाजा लेकर कहा – राज साहब! बैठिए, अब ये धुन सुनिए ज़रा – आपको कैसी लगती है! भले ही मत लीजिए लेकिन सुन लीजिए।. ‘अमुआ का पेड़ है, वही मुँडेर है, आजा मोरे बालमा, अब काहे की देर है’ ये गाना मैंने सुनाया। राज जी ने सुनते ही कहा कि भाई! अपन बम्बई चलते हैं और गाने को रिकॉर्ड करते हैं। तो बस फ़िर बम्बई आ गए और वाक़ई वो गंभीरतापूर्वक उस गाने के पीछे लग गए – भाई वो गाना ज़रा फिर सुनाओ! बाद में उस गाने के लिए हसरत मियाँ लिखने के लिए आएऔर हसरत जयपुरी जब आए तो जो गाना बनकर निकला वो था जिया बेक़रार है, छायी बहार है, आजा मोरे बालमा, तेरा इंतज़ार है।
ये गीत और बरसात का पूरा संगीत कितना सफल हुआ इससे आप सब वाक़िफ हैं। दरअसल यहीं से शंकर, जयकिशन, शैलेंद्र, हसरत जयपुरी , लता और मुकेश जैसे कलाकारों का एक ऐसा समूह बना जो जयकिशन के निधन के पहले तक राजकपूर की फिल्मों का एक ट्रेडमार्क बन गया। शंकर जयकिशन ने अपनी आपसी सहमति से यह निर्णय कर रखा था कि दोनों में से अगर कोई दुनिया से चल बसा तो जो बचेगा वो भी अपने गीतों के क्रेडिट में शंकर जयकिशन का नाम ही इस्तेमाल करेगा।
यूँ तो शंकर जयकिशन के तमाम यादगार गीत रहे हैं। पर आम्रपाली के लिए उनका संगीतबद्ध ये गीत मुझे लता जी के गाए हुए गीतों में बेमिसाल लगता है। पिछले महिने लता जी के जन्मदिन के अवसर पर इसे आपके सामने प्रस्तुत करने की तमन्ना थी जो समयाभाव के कारण पूरी नहीं हो पाई। एक ऐतिहासिक प्रेम कथा पर आधारित इस विरह गीत का प्रत्येक अंतरा मन को भिगा देता है। इसे गीत के बोल लिखे थे शैलेंद्र ने।
गीत तो मधुर था ही पर ये बात भी गौर करने की है कि कितनी प्यारी हिंदी का प्रयोग किया था शैलेंद्र ने इस गीत में। दरअसल "बिरहा की इस चिता से तुम ही मुझे निकालो....जो तुम ना आ सको तो, मुझे स्वप्न में बुला लो" और "मन है कि जा बसा है, अनजान इक नगर में,कुछ खोजता है पागल खोई हुई डगर में..".जैसी पंक्तियाँ बड़ी ही तबियत से नायिका के मनोभावों को उभारती हैं। उभारेगीं कैसे नहीं हमारी स्वर कोकिला ने कोई कसर रख छोड़ी है अपनी बेमिसाल गायिकी में?
अधिकतर संगीत समीक्षक इसे शंकर की कम्पोसीशन मानते हैं। कहा तो यही जाता है कि फिल्म आम्रपाली के सारे गानों को शास्त्रीय रागों पर आधारित करने में शंकर का हाथ था। वैसे इस गीत के मुखड़े और अंतरे के पहले सितार की जो मधुर धुन शंकर ने रची है वो तो गीत में बस चार चाँद ही लगा देती है। तो आइए एक बार फिर सुनते हैं इस मीठे सम्मोहक गीत को जो फिल्माया गया था वैजयंतीमाला जी पर।
तुम्हें याद करते करते जाएगी रैन सारी तुम ले गये हो अपने संग नींद भी हमारी
मन है कि जा बसा है, अनजान इक नगर में कुछ खोजता है पागल खोई हुई डगर में इतने बड़े महल में, घबराऊँ मैं बेचारी तुम ले गये हो अपने संग नींद भी हमारी तुम्हें याद करते करते.....
बिरहा की इस चिता से तुम ही मुझे निकालो जो तुम ना आ सको तो, मुझे स्वप्न में बुला लो मुझे ऐसे मत जलाओ, मेरी प्रीत है कुँवारी तुम ले गये हो अपने संग नींद भी हमारी तुम्हें याद करते करते तुम्हें याद करते करते.....
तीसरी कसम के गीतों की इस श्रृंखला में मेरी पसंद का तीसरा गीत वो है जो अक्सर पिताजी के मुख से बचपन में सुना करता था। मुझे याद हे कि गीत के बोल इतने सरल थे कि बड़ी आसानी से पिताजी से सुन सुन कर ही मुखड़ा और पहला अंतरा याद हो गया था। उस वक्त तो इस गीत से पापा हमें झूठ ना बोलने की शिक्षा दिया करते थे। आज इतने सालों बाद जब यही गीत फिर से सुनाई देता है तो दो बातें सीधे हृदय में लगती हैं। पहली तो ये कि हिंदी फिल्मों में फिलॉसफिकल गीत आजकल नाममात्र ही सुनने को मिलते हैं और दूसरी ये कि गीतकार शैलेन्द्र ने जिस सहजता के साथ जीवन के सत्य को अपनी पंक्तियों में चित्रित किया है उसकी मिसाल मिल पाना मुश्किल है। अब इन पंक्तियों ही को देखें
लड़कपन खेल में खोया, जवानी नींद भर सोया बुढ़ापा देख कर रोया बुढ़ापा देख कर रोया, वही किस्सा पुराना है
बड़े बड़े ज्ञानी महात्मा जिस बात को भक्तों को प्रवचन, शिविरों में समझाते रहे हैं वो कितनी सरलता से शैलेंद्र ने अपने इस गीत की चंद पंक्तियों में समझा दी। चलिए ज़रा कोशिश करें ये जानने कि शैलेंद्र के मन में ऍसा बेहतरीन गीत कैसे पनपा होगा?
शैलेंद्र की उस वक़्त की मानसिक स्थिति के बारे में उनके मित्र फिल्म पत्रकार रामकृष्ण लिखते हैं
वो उन दिनों के किस्से सुनाता... जब परेल मजदूर बस्ती के धुएँ और सीलन से भरी गंदी कोठरी में अपने बाल बच्चों को लेकर वह आने वाली जिन्दगी के सपने देखा करता था और इन दिनों के किस्से जब रिमझिम जैसे शानदार मकान और आस्टिन-कैम्ब्रिज जैसी लंबी गाड़ी का स्वामी होने के बावजूद अपने रीते लमहों की आग उसे शराब की प्यालियों से बुझानी पड़ती। शैलेंद्र कहा करता...उन दिनों की याद, रामकृष्ण, सच ही भूल नहीं पाता हूं मैं। मानसिक शांति का संबंध, लगता है, धनदौलत और ऐशोआराम के साथ बिलकुल नहीं है, ऐसी बात न होती तो आज मुझे वह सुकून, वह चैन क्यों नहीं मिल पाता आखिर जो उस हालत में मुझे आसानी से नसीब था-आज, जब मेरे पास वह सब कुछ है जिसकी तमन्ना कोई कर सकता है-नाम, इज्जत पैसा... यह सब कहते कहते शैलेंद्र अचानक ही बड़ी गंभीरता के साथ चुप हो जाया करता था और देखने लगता था मेरी आँखों की ओर, जैसे उसके सवालों का जवाब शायद वहां से उसे मिल सकें।
वहीं सत्तर के दशक में विविध भारती से फौजी भाइयों के लिए प्रसारित जयमाला कार्यक्रम में इस गीत को सुनाने के पहले में संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन वाले शंकर ने शैलेन्द्र के बारे में कहा था
सच्ची और खरी बात कहना और सुनना शैलेन्द्र को अच्छा लगता था। कई बार गीत के बोलों को लेकर हम खूब झगड़ते थे, लेकिन गीत की बात जहाँ खत्म होती, फिर वोही घी-शक्कर.. शैलेन्द्र एक सीधा सच्चा आदमी था, झूठ से उसे नफ़रत थी क्यूँकि उसका विश्वास था, 'ख़ुदा के पास जाना है'
अब शैलेन्द्र के बारे में शंकर ने सही कहा ये गलत इस पर तो पर हम बाद में चर्चा
करेंगे पर पहले सुनिए ये गीत..
सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है न हाथी है ना घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है
तुम्हारे महल चौबारे, यहीं रह जाएँगे सारे अकड़ किस बात कि प्यारे अकड़ किस बात कि प्यारे, ये सर फिर भी झुकाना है सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है भला कीजै भला होगा, बुरा कीजै बुरा होगा बही लिख लिख के क्या होगा बही लिख लिख के क्या होगा, यहीं सब कुछ चुकाना है सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है...
लड़कपन खेल में खोया, जवानी नींद भर सोया बुढ़ापा देख कर रोया बुढ़ापा देख कर रोया, वही किस्सा पुराना है सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है न हाथी है ना घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है...
और इससे पहले की इस श्रृंखला का समापन करूँ कुछ और बातें गीतकार शैलेंद्र के बारे में। शैलेंद्र की फिल्म तीसरी कसम बुरी तरह फ्लॉप हुई और लोगों का मानना है कि वो इस फिल्म के असफल होने का आघात नहीं सह पाए थे। पर आपको ये भी बताना मुनासिब रहेगा कि शैलेंद्र मँहगी शराब के बेहद शौकीन थे और इस वज़ह से उनका स्वास्थ दिनों दिन वैसे भी गिरता जा रहा था।
नेट पर विचरण करते हुए मुझे उनके मित्र और फिल्म पत्रकार रहे रामकृष्ण का आलेख मिला जो शैलेंद्र के व्यक्तित्व की कई कमियों को उजागर करता है। मिसाल के तौर पर हर रात शराब के नशे में धुत रहना, अपनी आलोचना को बर्दाश्त ना कर पाना, अपने स्वार्थ के लिए मित्रों में फूट डालना और यहाँ तक कि अपने पक्ष में पत्र पत्रिकाओं में लेख छपवाने के लिए पैसे देना। अगर आप गीतकार शैलेंद्र के बारे में रुचि रखते हैं तो ये लेखमाला 'गुनाहे बेलात 'अवश्य पढ़ें।
ये कुछ ऍसी बाते हैं जो शायद प्रतिस्पर्धात्मक फिल्म इंडस्ट्री के बहुतेरे कलाकारों में पाई जाती हों। पर इससे यह स्पष्ट है कि बतौर कलाकार हम क्या सृजन करते हैं और वास्तविक जिंदगी में हम कैसा व्यवहार करते हैं इसमें जरूरी नहीं कि साम्य रहे।
जैसा कि मैंने इस श्रृंखला की पहली पोस्ट में कहा कि तीसरी कसम के अन्य सभी गीत भी अव्वल दर्जे के है। पिछली पोस्ट में आप में से कुछ ने तीसरी कसम के अन्य गीतों को भी पेश करने की इच्छा ज़ाहिर की थी। शीघ्र ही उन्हें आपके सामने संकलित रूप से पेश करता हूँ।
पिछली पोस्ट में मैंने जिक्र किया था कि तीसरी कसम के तीन गीत मुझे विशेष तौर पर प्रिय हैं। आशा जी के मस्ती से भरे गीत के बाद आज बात करते हैं इस फिल्म में मुकेश के गाए हुए मेरे दो प्रिय गीतों में से एक की। तीसरी कसम में बतौर नायक राज कपूर के अलग से रोल में थे। मैंने दूरदर्शन की बदौलत राज कपूर की अधिकांश फिल्में देखी हैं। बतौर अभिनेता वे मुझे औसत दर्जे के कलाकार ही लगते रहे पर तीसरी कसम में गाड़ीवान का उनका किरदार मुझे बेहद प्यारा लगा था और जीभ काटकर इस फिल्म में उनके द्वारा बोले जाने वाले उस इस्स........ को तो मैं आज तक भूल नहीं पाया।
राजकपूर ने जहाँ गाड़ीवान के किरदार हीरामन को बेहतरीन तरीके से निभाया वहीं उनकी आवाज़ कहे जाने वाले गायक मुकेश ने भी उन पर फिल्माए गीतों में अपनी बेहतरीन गायिकी की बदौलत जान फूँक दी। उनसे जुड़े एक लेख में मैंने पढ़ा था कि मुकेश ने अपने मित्रों को ख़ुद ही बताया था कि जब शैलेंद्र ‘तीसरी कसम’ बना रहे थे तब उन्होंने राजकपूर अभिनीत गीतों की आत्मा में उतरने के लिए फ़णीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम’ को कई बार पढ़ा था। ये बात स्पष्ट करती है कि उस ज़माने के गायक गीत में सही प्रभाव पैदा करने के लिए कितनी मेहनत करते थे।
अब सजनवा बैरी हो गए हमार की ही बात करें। शैलेंद्र ने इस गीत की परिपाटी लोकगीतों के ताने बाने में बुनी है। पिया के परदेश जाने और वहाँ जा कर अपने प्रेम को भूल जाने की बात बहुतुरे लोकगीतों की मूल भावना रही है। शैलेंद्र के बोल और मुकेश की आवाज़ विरहणी की पीड़ा को इस पुरज़ोर तरीके से हमारे सामने लाते हैं कि सुनने वाले की आँखें आद्र हुए बिना नहीं रह पातीं। और शंकर जयकिशन का संगीत देखिए सिर्फ उतना भर जितनी की जरूरत है। जब मुकेश गा रहे होते हैं तो सिर्फ और सिर्फ उनकी आवाज़ कानों से टकराती है और दो अंतरे के बीच दिया गया संगीत बोलों के प्रभाव को गहरा करते चलता है।
शायद इसीलिए ये गीत मुझे इस फिल्म का सर्वप्रिय गीत लगता है। तो पहले सुनिए इस गीत को गुनगुनाने का मेरा प्रयास..
सजनवा बैरी हो गए हमार चिठिया हो तो हर कोई बाँचे भाग ना बाँचे कोए करमवा बैरी हो गए हमार
जाए बसे परदेश सजनवा, सौतन के भरमाए ना संदेश ना कोई खबरिया, रुत आए, रुत जाए डूब गए हम बीच भँवर में कर के सोलह पार, सजनवा बैरी हो गए हमार
सूनी सेज गोद मेरी सूनी मर्म मा जाने कोए छटपट तड़पे प्रीत बेचारी, ममता आँसू रोए ना कोई इस पार हमारा ना कोई उस पार सजनवा बैरी हो गए हमार...
तो आइए सुनें और देखें मुकेश के गाए इस गीत को
और हाँ एक रोचक तथ्य ये भी है कि जिस गाड़ी में राज कपूर और वहीदा जी पर ये गीत फिल्माया गया वो गाड़ी रेणु जी की खुद की थी और वो आज भी उनके भांजे के पास यादगार स्वरूप सुरक्षित है।
अगली बार बात उस गीत की जिसे मैंने इस फिल्म देखने के बहुत पहले अपने पापा के मुँह से सुना था और जो आज भी वक़्त बेवक़्त जिंदगी की राहों में आते प्रश्नचिन्हों को सुलझाने में मेरी मदद करता आया है...
अगर आप से मैं ये पूछूँ कि गुज़रे ज़माने जब सिनेमा के पर्दे का रंग श्वेत श्याम हुआ करता था तो अभिनय और खूबसूरती दोनों के लिहाज़ से आपकी पसंदीदा अभिनेत्री कौन थी तो आप में से शायद ज्यादातर लोगों का जवाब मधुबाला ही हो। पर जब मैं अपनी आँखे बंद कर स्मृति पटल पर जोर देता हूँ तो इन दोनों कसौटियों पर मन में बस एक ही अदाकारा की छवि उभरती है..साहब बीवी और गुलाम, कागज़ के फूल, खामोशी और तीसरी कसम वाली प्यारी वहीदा जी। यूँ तो वहीदा जी ने रंगीन फिल्मों में भी काम किया पर श्वेत श्याम रंगों में भिन्न भिन्न फिल्मों में निभाए गए किरदारों और उन पर फिल्माए गए गीतों को मैं हमेशा अपने ज़ेहन के करीब पाता हूँ।
ऐसा ही एक गीत था १९६६ में गीतकार शैलेंद्र द्वारा बनाई गई फिल्म तीसरी कसम का। साठ के दशक में बनी ये फिल्म रेणु की दिल छूती पटकथा, नायक नायिका के जबरदस्त अभिनय और अपने स्वर्णिम गीतों की वज़ह से मेरी सबसे प्रिय फिल्मों में एक रही है। यूँ तो तीसरी कसम के तमाम गीत अव्वल दर्जे के हैं पर उनमें से तीन मुझे खास तौर पर पसंद हैं।
आज जिस गीत को आप के सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ उसे गाया था आशा भोसले ने...पता नहीं इस गीत के मुखड़े में क्या खास बात है कि बस उसे सुनते ही मन चुहल और मस्ती के मूड में आ जाता है। गीतकार शैलेंद्र ने ग्रामीण पृष्ठभूमि में बनी इस फिल्म के बोल भी नौटंकी के माहौल में ध्यान रख कर लिखे हैं।तो आइए सुनें संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन द्वारा संगीतबद्ध इस गीत को
हाए गज़ब कहीं तारा टूटा लूटा रे लूटा मेरे सैयाँ ने लूटा पहला तारा अटरिया पे टूटा दाँतो तले मैंने दाबा अगूँठा लूटा रे लूटा सावरियाँ ने लूटा हाए गज़ब कहीं तारा टूटा ...
हाए गज़ब कहीं तारा टूटा दूसरा तारा बजरिया में टूटा देखा है सबने मेरा दामन छूटा लूटा रे लूटा सिपहिया ने लूटा हाए गज़ब कहीं तारा टूटा ....
तीसरा तारा फुलबगिया में टूटा फूलों से पूछे कोई, है कौन झूठा लूटा रे लूटा दरोगवा ने लूटा
हाए गज़ब कहीं तारा टूटा ....
उस ज़माने में ग्रामीण संस्कृति में मनोरंजन के एकमात्र माध्यम के रूप में नौटंकी का क्या योगदान था ये बात इस गीत को देख कर ही आप महसूस कर सकते हैं। नाचवाली के ठुमके कहीं फूलों की खुशबू से भींगे भावनात्मक प्रेम को जागृत कर रहे हैं तो कहीं रुपये के दंभ में डूबी हवस को।
तीसरी कसम के अपने अन्य पसंदीदा गीतों को आप तक पहुँचाने का क्रम आगे भी ज़ारी रहेगा..
उत्तरी कारो नदी में पदयात्रा Torpa , Jharkhand
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कारो और कोयल ये दो प्यारी नदियां कभी सघन वनों तो कभी कृषि योग्य पठारी
इलाकों के बीच से बहती हुई दक्षिणी झारखंड को सींचती हैं। बरसात में उफनती ये
नदियां...
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