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रविवार, मई 17, 2009

ये शामें, सब की सब शामें क्या इनका कोई अर्थ नहीं धर्मवीर भारती / उदित नारायण

मनुष्य का मन बड़ा विचित्र है। कभी उत्साह से लबरेज़ तो कभी निराशा के भँवरों में अंदर तक धँसा हुआ। पर गनीमत यही की कोई भी मूड, कैफ़ियत हमेशा हमेशा के लिए नहीं रहती। इसलिए व्यक्ति कभी अपने चारों ओर हो रही अच्छी बुरी घटनाओं को निराशा और अवसाद के क्षणों में बिल्कुल ही बेमानी मान लेता है तो कभी जब उसका मन धनात्मक भावनाओं से ओत प्रोत रहता है तो अपने दुख अपनी पीड़ा भी उसे किसी बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भगवान द्वारा ली जा रही परीक्षा मान कर खुशी-खुशी वहन करता जाता है।

अपनी जिंदगी के अब तक के अनुभवों को देखता हूँ तो यही पाता हूँ कि जिन अंतरालों में वक़्त के थपेड़ों ने मुझे हताश किया है, असफलता और अस्वीकृति से सामना हुआ है, उस समय की पीड़ा और दुख भविष्य की चुनौतियों का सामना करने में मेरे लिए सहायक रहे हैं। धर्मवीर भारती की ये कविता मुझे कुछ ऐसी ही शामों के बारे में सोचने को मज़बूर करती है। और जब उन बीती शामों की पीड़ा और अकेलेपन का जिक्र करने के बाद भारती जी ये कहते हैं

ये शामें, सब की सब शामें ...
जाने क्यों कोई मुझसे कहता
मन में कुछ ऐसा भी रहता
जिसको छू लेने वाली हर पीड़ा
जीवन में फिर जाती व्यर्थ नहीं


तो लगता है उनकी लेखनी से मेरे दिल की बात निकल रही है। तो आइए भारती जी के साथ ढूँढते हैं उन बोझिल उदास शामों के मायने..


ये शामें, सब की शामें ...
जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया
जिनमें प्यासी सीपी-सा भटका विकल हिया
जाने किस आने वाले की प्रत्याशा में
ये शामें
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?

वे लमहे
वे सूनेपन के लमहे
जब मैनें अपनी परछाई से बातें की
दुख से वे सारी वीणाएँ फेकीं
जिनमें अब कोई भी स्वर न रहे
वे लमहे
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?

वे घड़ियाँ, वे बेहद भारी-भारी घड़ियाँ
जब मुझको फिर एहसास हुआ
अर्पित होने के अतिरिक्त कोई राह नहीं
जब मैंने झुककर फिर माथे से पंथ छुआ
फिर बीनी गत-पाग-नूपुर की मणियाँ
वे घड़ियाँ
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?

ये घड़ियां, ये शामें, ये लमहे
जो मन पर कोहरे से जमे रहे
निर्मित होने के क्रम में
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?

ये शामें, सब की सब शामें ...
जाने क्यों कोई मुझसे कहता
मन में कुछ ऐसा भी रहता
जिसको छू लेने वाली हर पीड़ा
जीवन में फिर जाती व्यर्थ नहीं
अर्पित है पूजा के फूलों-सा जिसका मन
अनजाने दुख कर जाता उसका परिमार्जन
अपने से बाहर की व्यापक सच्चाई को
नत-मस्तक होकर वह कर लेता सहज ग्रहण
वे सब बन जाते पूजा गीतों की कड़ियाँ
यह पीड़ा, यह कुण्ठा, ये शामें, ये घड़ियाँ

इनमें से क्या है
जिनका कोई अर्थ नहीं !
कुछ भी तो व्यर्थ नहीं !


धर्मवीर भारती जी की कविताओं को मैंने ज्यादा नहीं पढ़ा और इस कविता पर मेरी नज़र तब गई जब पिछली पोस्ट की पुस्तक चर्चा में सूरज का सातवाँ घोड़ा के बारे में लिख रहा था। जैसा कि आप सब को पता है इस किताब पर श्याम बेनेगल साहब ने एक फिल्म बनाई है। और नेट पर फिल्म की जानकारी ढूँढते हुए मुझे इस फिल्म के एक गीत की तारीफ सुनने को मिली और इस गीत की खोज में ये कविता पहले नज़र आई. बाद में जब गीत सुनने को मिला तो देखा कि ये गीत तो इस कविता से ही प्रेरित है।

इस गीत का संगीत दिया है वनराज भाटिया ने जो कुछ दिन पहले तक श्याम बेनेगल की फिल्मों के स्थायी संगीतकार रहे हैं। गीत के भावों के आलावा इस गीत में सबसे ज्यादा असरदार मुझे उदित नारायण के आवाज़ की मधुरता और उनका स्पष्ट उच्चारण लगता है। इस गीत में उनका साथ दिया है कविता कृष्णामूर्ति ने। राग यमन पर आधारित ये गीत कुछ और लंबा होता तो इसका आनंद और बढ़ जाता। पिछली पोस्ट में किताब के बारे में चर्चा करते हुए मैंने आपको बताया था इस उपन्यास के किरदारों के बारे में । ये गीत फिल्माया गया है माणिक मुल्ला (रजत कपूर) और उनकी प्रेमिका लिली (पल्लवी जोशी) के ऊपर।


ये शामें, सब की सब शामें ...
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
घबरा के तुम्हें जब याद किया
क्या उन शामों का अर्थ नहीं
क्या उन शामों का अर्थ नहीं

सूनेपन के इन लमहों में
अपनी छाया से बातें की
जिनमें कोई भी स्वर न रहे
दुख से वे वीणाएं फेकीं
ये भीगे पंक्षी से लमहे
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
ये शामें, सब की सब शामें ...

मंगलवार, जनवरी 06, 2009

वार्षिक संगीतमाला 2008 :पायदान संख्या 22 - फ़लक तक चल साथ मेरे..

तो आज बारी है वार्षिक संगीतमाला की 22 वीं पायदान की। वैसे इस नग्मे और अगले आठ दस नग्मों में सब कमोबेश एक ही स्तर के हैं इसलिए इस गीत की रैंकिंग पर ज्यादा मत जाइएगा।




इस रोमांटिक नग्मे को इतना खूबसूरत बनाने में संगीतकार विशाल शेखर, गायक उदित नारायण और गीतकार क़ौसर मुनीर की बराबर की सहभागिता है। कौसर मुनीर पहली बार मेरी किसी गीतमाला का हिस्सा बनी हैं और मुझे उम्मीद है कि इनके लिखे कई और अच्छे नग्मे हमें आगे भी सुनने को मिलेंगे।

कौसर ने प्राकृतिक बिंबों का इस्तेमाल करते हुए इस गीत में प्यारी मुलायमियत भरी है जो दिल को छू जाती है। उदित भाई की आवाज इतनी स्पष्ट और सधी हुई है कि उसकी खनक देर तक गीत सुनने के बाद भी दिमाग में ताज़ी रहती है। महालक्ष्मी अय्यर ने उदित का बखूबी साथ दिया है।

पर टशन फिल्म के इस गीत में विशाल शेखर के संगीत को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। २४ वीं पायदान पर आपने देखा कि उन्होंने एक हिंगलिश गीत के लिए पाश्चात्य संगीत संयोजन का सहारा लिया जो कि गीत के मूड के साथ घुल मिल गया पर इस रूमानी नग्मे में भारतीय वाद्य यंत्रों का भी खूबसूरत इस्तेमाल किया है जो दिल को सुकून पहुँचाता है। गीत की काव्यात्मकता तो बेहतर है ही पर विशाल शेखर ने गीत में मस्ती का रंग भी संगीत के ज़रिए जोड़ दिया है

तो पहलें पढ़ें क़ौसर साहिबा का लिखा ये दिलकश गीत

फ़लक तक चल साथ मेरे, फ़लक तक चल साथ चल
ये बादल की चादर
ये तारों के आँचल
में छुप जाएँ हम, पल दो पल
फ़लक तक चल....

देखो कहाँ आ गए हम सनम साथ चलके
जहाँ दिन की बाहों में रातों के साये हैं ढलते
चल वो चौबारे ढूँढें जिन में चाहत की बूंदें
सच कर दे सपनों को सभी
आँखों को मीचे मीचे मैं तेरे पीछे पीछे
चल दूँ जो कह दे तू अभी
बहारों की छत हो, दुआओं के खत हो
पढ़ते रहें ये ग़ज़ल
फ़लक तक चल....

देखा नहीं मैंने पहले कभी ये नज़ारा
बदला हुआ सा लगे मुझको आलम ये सारा
सूरज को हुई है राहत रातों को करे शरारत
बैठा है खिड़की पर तेरी
हाँ..इस बात पर चाँद भी बिगड़ा, कतरा कतरा वो पिघला
भर आया आँखों में मेरी
तो सूरज बुझा दूँ , तुझे मैं सजा दूँ
सवेरा हो तुझ से ही कल
फ़लक तक चल साथ मेरे


और अब चलें उदित और महालक्ष्मी के साथ आसमान यानि फ़लक तक के सफ़र में



 

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