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शुक्रवार, अप्रैल 26, 2019

उदासी के रंग : कुँवर नारायण Udaasi ke Rang

रंगों की दुनिया मुझे बेहद पसंद है। हर रंग का हमारे दिलो दिमाग पर एक अलग असर होता है। कुछ रंग हमारी कमज़ोरी होते हैं और उनसे रँगे साजो समान हमें तुरत फुरत में पसंद आ जाते हैं जबकि कुछ को देख कर ही हम अपनी नाक भौं सिकोड़ने लगते हैं। 

रंगों से हमारी मुलाकात बचपन में प्रतीकों के तौर पर करायी गयी थी। सफेद रंग शांति का तो काला शोक का। लाल को गुस्से से तो नीले को सौम्यता से जोड़ कर देखा गया। कभी कभी मन में सवाल उठता है कि रंगों की दुनिया क्या इतनी सहज और एकरूपी है? सच पूछिए तो हर रंग एक आईने की तरह है। देखनेवाला उसे जिस भावना से देखे वही अक़्स उस रंग में नज़र आने लगता है।



आधुनिक हिंदी कविता के जाने माने हस्ताक्षर कुँवर नारायण ने एक कविता लिखी थी उदासी के रंग। अब शायद ही जीवन का कोई हिस्सा हो जहाँ उल्लास के साथ उदासी का रंग ना फैला हो। ऐसे ही उदास मन से कुँवर नारायण ने जब अपने आसपास की प्रकृति को देखा तो उन्हें क्या नज़र आया पढ़िए व सुनिए मेरी आवाज़ में.. 

उदासी भी
एक पक्का रंग है जीवन का
उदासी के भी तमाम रंग होते हैं
जैसे
फ़क्कड़ जोगिया
पतझरी भूरा
फीका मटमैला
आसमानी नीला
वीरान हरा
बर्फ़ीला सफ़ेद
बुझता लाल
बीमार पीला
कभी-कभी धोखा होता है
उल्लास के इंद्रधनुषी रंगों से खेलते वक्त
कि कहीं वे
किन्हीं उदासियों से ही
छीने हुए रंग तो नहीं हैं ?


यानी रंगों की दुनिया कुछ नहीं बस हमारे मन की दुनिया है जिसे पर हम अपमी भावनाओं की कूचियाँ चलाते हैं।

रविवार, मार्च 24, 2019

जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है Jane kyun tumse milne ki...

होली की पर्व तो बीत गया है। आशा है आपने रंगों का ये त्योहार सोल्लास मनाया होगा। अब देखिए ना होली बीतने के बाद भी मैं आपसे रंग की ही बात करने वाला हूँ। नहीं नहीं ये वो वाला रंग नहीं बल्कि तीस के दशक के लोकप्रिय कवि बलबीर सिंह 'रंग' की लेखनी का रंग है। 

यूँ तो बलबीर जी, गोपाल सिंह नेपाली और हरिवंश राय बच्चन जैसे कवियों के समकालीन थे पर उनके या उनकी कविताओं के बारे में वैसी चर्चा मैंने कम से कम स्कूल और कॉलेज के दिनों में होती नहीं सुनी। हिंदी की पाट्य पुस्तकों में भी उनका जिक्र नहीं आया था। नेट के इस युग में उनकी कुछ कविताओं को अनायास पढ़ने का मौका मिला तो ऐसा लगा कि बच्चन जी की ही कोई कविता पढ़ रहा हूँ क्यूँकि उनकी कविता में भी उसी किस्म की गेयता महसूस हुई। बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि बलबीर सिंह रंग अपने ज़माने के गीत लिखने वाले कवियों में अग्रणी स्थान रखते थे।  


बलबीर सिंह रंग पेशे से एक किसान थे पर खेतिहर परिवार के इस सपूत को कविताई करने का चस्का बचपन से लग गया था। 'रंग' जी का जन्म उत्तर प्रदेश के एटा जिले के गाँव नगला कटीला में 14 नवंबर 1911 को हुआ था। उन्होंने ने गीतों के आलावा ग़ज़लों को भी लिखा। अपने काव्य संकलन सिंहासन में अपने किसानी परिवेश के बारे में उन्होंने लिखा है
"मैं परंपरागत किसान हूँ, धरती के प्रति असीम मोह और पूज्य-भावना किसान का जन्मजात गुण है, यही उसकी शक्ति है और यही उसकी निर्बलता। मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझमें भी यही संस्कार सबसे प्रबलतम रूप में रहा है, आज भी है । ग्रामीण जीवन की वेदनाएँ, विषमताएँ और हास-विलास दोनों ही मेरी कविता की प्रेरणा और पूँजी है।'
रंग जी के बारे में मशहूर है कि किस तरह मथुरा में आयोजित एक कवि सम्मेलन में मंच संचालक ने अपनी कविता पाठ को आतुर एक नवोदित कवि को नहीं बुलाया तो उस युवा की बेचैनी देखकर रंग जी ने संचालक को उसे मंच पर न्योता देने को कहा। उस नवयुवक की कविताओं को श्रोताओं से भरपूर सराहना मिली और आगे जाकर वो कवि गीतकार शैलेंद्र के नाम से मशहूर हुआ जिसके बारे में हम सब जानते हैं। शैलेंद्र जी भी इस बात को नहीं भूले और वे जब भी मुंबई आए उनका उचित सत्कार किया।

रंग जी का एक लोकप्रिय गीत है जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है। जब भी मैं इस कविता को सुनता था मुझे आशा कम, विश्वास बहुत होने की बात थोड़ी विचित्र लगती थी। ये जो जुमला है उसे  क्रिकेट कमेंट्री करने वाले बारहा इस्तेमाल करते हैं पर उलट कर। गेंदबाज ने अपील जरूर की पर उसमें आशा और उत्साह ज्यादा था पर विश्वास कम। उत्साह तो ख़ैर अपील के साथ होता ही है पर आशा इसलिए कि कहीं अंपायर उँगली उठा ही दे। अब रंग जी की बात करूँ तो अगर किसी से मिलने का विश्वास हो तो आशा तो जगेगी ही कम क्यूँ होगी? 

इन पंक्तियों की दुविधा तो मैं आज तक सुलझा नहीं पाया हूँ अगर आपकी कोई अलग सोच हो तो जरूर बाँटिएगा। इस संशय के बावज़ूद भी ये कविता जब भी मैं पढ़ता हूँ तो इसकी लय और इसके हर छंद में अपने प्रिय से कवि के मिलने की प्रबल होती इच्छा मन को छू जाती है। अपने एकतरफा प्रेम का प्रदर्शन कितने प्यारे और सहज बिंबों से किया है रंग जी ने..वहीं कविता के अंत में वे अतीत को बिसार कर नए भविष्य की रचना करने का भाव जगा ही जाते हैं।



जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है 

सहसा भूली याद तुम्हारी उर में आग लगा जाती है
विरह-ताप भी मधुर मिलन के सोये मेघ जगा जाती है,
मुझको आग और पानी में रहने का अभ्यास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है 

धन्य-धन्य मेरी लघुता को, जिसने तुम्हें महान बनाया,
धन्य तुम्हारी स्नेह-कृपणता, जिसने मुझे उदार बनाया,
मेरी अन्धभक्ति को केवल इतना मन्द प्रकाश बहुत है 
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है 

अगणित शलभों के दल  एक ज्योति पर जल-जल मरते
एक बूँद की अभिलाषा में कोटि-कोटि चातक तप करते,
शशि के पास सुधा थोड़ी है पर चकोर की प्यास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है 

(चातक, Pied Cuckoo के बारे में ऐसा माना जाता है कि यह वर्षा की पहली बूंदों को ही पीता है वहीं चकोर French Partridge के बारे में ये काल्पनिक मान्यता रही है कि ये पक्षी रात भर चाँद की ओर देखा करता है और चंद्रकिरणों का रस पीकर ही जीवित रहता है। )
 
मैंने आँखें खोल देख ली हैं नादानी उन्मादों की 
मैंने सुनी और समझी हैं कठिन कहानी अवसादों की,
फिर भी जीवन के पृष्ठों में पढ़ने को इतिहास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है 

ओ ! जीवन के थके पखेरू, बढ़े चलो हिम्मत मत हारो,
पंखों में भविष्य बंदी है मत अतीत की ओर निहारो,
क्या चिंता धरती यदि छूटी उड़ने को आकाश बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है

(शब्दार्थ : शशि - चंद्रमा, सुधा - अमृत, उर - हृदय, मेघ - बादल, स्नेह कृपणता - प्रेम का उचित प्रतिकार ना देना, उसमें भी कंजूसी करना, शलभ - कीट पतंगा, पखेरू - पक्षी, अतीत - बीता हुआ)

रविवार, सितंबर 02, 2018

अटल बिहारी बाजपेयी : क्या खोया, क्या पाया जग में... Kya Khoya Kya Paya Jag Mein

स्कूल के ज़माने से जब भी मुझसे पूछा जाता कि तुम्हारे सबसे प्रिय राजनेता कौन हैं तो हमेशा मेरा उत्तर अटल बिहारी बाजपेयी होता था। शायद उस वक़्त मेरी जितनी भी समझ थी वो मुझे यही कहती थी कि एक नेता को दूरदर्शी, मेहनती, कुशल वक्ता और लोगों से सहजता से घुलने वाला हँसमुख इंसान होना चाहिए। मोरारजी, इंदिरा, चरण सिंह, आडवाणी, नरसिम्हा राव, चंद्रशेखर जैसों की भीड़ में मुझे ये गुण सिर्फ अटल जी में ही नज़र आते थे।

मुझे लगता है कि अगर नब्बे के दशक की शुरुआत से बहुमत के साथ प्रधानमंत्री पद की जिम्मेवारी मिली होती तो उनके नेतृत्व में देश एक सही दिशा और दशा में अग्रसर होता। ख़ैर वो हो न सका और अपनी पहली पारी में कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में काम करने के बाद भी वो अपनी दूसरी पारी में पराजित हो गए। फिर तो ढलते स्वास्थ ने उन्हें राजनीतिक परिदृश्य से बाहर ही कर दिया और पिछले महीने वो इस लोक से ही विदा ले गए।

अटल जी एक राजनीतिज्ञ तो थे ही, विश्वनाथ प्रताप सिंह की तरह ही उनके मन में एक कवि हृदय बसता था। प्रकृति से उनके प्रेम का आलम ये था कि प्रधानमंत्री के कार्य का दायित्व निर्वाह करते हुए भी वो साल में एक बार मनाली की यात्रा करना नहीं भूलते थे।
1977 की बात है जब इमंरजेसी के बाद हुए चुनाव में मोरारजी भाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी थी। अटल जी उस ज़माने में देश के विदेश मंत्री थे। उन्हीं दिनों का एक रोचक प्रसंग है जो मैंने और शायद आपने भी कई बार पढ़ा हो। जब जब मैं ये किस्सा पढ़ता हूँ तो चेहरे पर मुस्कान के साथ बतौर इंसान अटल जी के प्रति मेरी श्रद्धा बढ़ जाती है इसलिए इस पत्राचार को आज अपने ब्लॉग पर सँजो लिया है।

अटल जी ने तब एक कविता लिखी थी और अपने मातहत के जरिये उन्होंने उसे साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपने के लिए उसके तात्कालिक संपादक मनोहर श्याम जोशी को भेजा। जब बहुत दिनों तक जोशी जी की ओर से कोई जवाब नहीं आया तो अटल जी से रहा नहीं गया और उन्होंने एक कुंडली के माध्यम से बड़े मोहक अंदाज़ में जोशी जी से अपनी शिकायत दर्ज करवाई।
"प्रिय संपादक जी, जयराम जी की…समाचार यह है कि कुछ दिन पहले मैंने एक अदद गीत आपकी सेवा में रवाना किया था। पता नहीं आपको मिला या नहीं...नीका लगे तो छाप लें नहीं तो रद्दी की टोकरी में फेंक दें। इस सम्बंध में एक कुंडली लिखी है..
कैदी कवि लटके हुए, संपादक की मौज,
कविता 'हिंदुस्तान' में, मन है कांजी हौज,
मन है कांजी हौज, सब्र की सीमा टूटी,
तीखी हुई छपास, करे क्या टूटी-फूटी,
कह क़ैदी कविराय, कठिन कविता कर पाना,
लेकिन उससे कठिन, कहीं कविता छपवाना!"
मनोहर श्याम जोशी भी एक जाने माने लेखक व पत्रकार थे। बाजपेयी जी ने कविता के माध्यम से शिकायत की थी तो वो भला क्यूँ पीछे रहते। उन्होंने भी जवाब में एक कविता लिख मारी जिसका मजमूँ कुछ यूँ था।
"आदरणीय अटलजी महाराज,
आपकी शिकायती चिट्ठी मिली, इससे पहले कोई एक सज्जन टाइप की हुई एक कविता दस्ती दे गए थे कि अटलजी की है। न कोई खत, न कहीं दस्तखत...आपके पत्र से स्थिति स्पष्ट हुई और संबद्ध कविता पृष्ठ 15 पर प्रकाशित हुई। आपने एक कुंडली कही तो हमारा भी कवित्व जागा -  
कह जोशी कविराय नो जी अटल बिहारी,
बिना पत्र के कविवर,कविता मिली तिहारी,
कविता मिली तिहारी साइन किंतु न पाया,
हमें लगा चमचा कोई,ख़ुद ही लिख लाया,
कविता छपे आपकी यह तो बड़ा सरल है,
टाले से कब टले, नाम जब स्वयं अटल है।"
अटल जी की कविताओं को सबसे पहले जगजीत सिंह ने अपने एलबम संवेदना में जगह दी थी। इस एलबम में अटल जी की कविताओं का प्राक्कथन अमिताभ बच्चन की आवाज़ में था। बाद में लता मंगेशकर जी ने भी अटल जी की कविताओं को अपना स्वर दिया। मुझे जगजीत जी से ज्यादा लता की आवाज़ में अटल जी की कविताओं को सुनना पसंद है। तो आइए आज आपको सुनाएँ लता जी की आवाज़ में उनकी कविता क्या खोया क्या पाया जग में..

क्या खोया, क्या पाया जग में
मिलते और बिछुड़ते मग में
मुझे किसी से नहीं शिकायत
यद्यपि छला गया पग-पग में
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!

पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी
जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएँ
यद्यपि सौ शरदों की वाणी
इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!

जन्म-मरण का अविरत फेरा
जीवन बंजारों का डेरा
आज यहाँ, कल कहाँ कूच है
कौन जानता किधर सवेरा
अंधियारा आकाश असीमित,प्राणों के पंखों को तौलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!


संवाद की जो गरिमा अटल जी की खासियत थी वो आज के माहौल में छिन्न भिन्न हो चुकी है। अटल जी को सच्ची श्रद्धांजलि तो यही होगी कि नेता उनकी तरह व्यक्तिगत आक्षेप लगाए बिना वाकपटुता और हास्य के पुट के साथ बहस करना सीख सकें।
सदन और उसके बाहर दिए गए उनके भाषण, उनके व्यक्तित्व का चुटीलापन और उनकी ओजपूर्ण वाणी में पढ़ी उनकी कविताएँ व्यक्तिगत रूप से हमेशा मेरी स्मृतियों का हिस्सा रहेंगी..शायद आपकी भी रहें। चलते चलते उनके इस जज्बे को सलाम..

मैं जी भर कर जिया, मैं मन से मरूँ
लौटकर आऊँगा कूच से क्यूँ डरूँ

गुरुवार, अक्टूबर 19, 2017

जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना..अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए Jalao Diye Par Rahe Dhyan Itna

दीपावली एक ऐसा पर्व है जिसे अकेले मनाने का मन नहीं होता। दीपावली के पहले की सफाई से लेकर उस दिन एक साथ पूजा करना, बड़ों से आशीर्वाद लेना ,बच्चों की खुशियों में साझेदार बनना मुझे हमेशा से बेहद पसंद रहा है।  खुशकिस्मत हूँ की मेरा कार्य मुझे ऐसे दीपावली मना पाने की सहूलियत देता है। पर सेना, पुलिस , अस्पताल और अन्य जरुरी सेवाओं में लगे लोगों को देखता हूँ तो मन में यही ख्याल आता है कि  काश  जंग ही नहीं होती, अपराध नहीं होते , लोग आपस में खून खराबा नहीं करते तो इन आकस्मिक और जरुरी सेवाओं की फेरहिस्त भी छोटी हो जाती। दरअसल एक साथ जुटने , खुशियों को बांटने के अलावा ये प्रकाशोत्सव  हमें मौका देता है की हम अपनी उन आंतरिक त्रुटियों को दूर करें ताकि घृणा , वैमनस्य, हिंसा जैसी भावनाएँ हमारे पास भी न भटकें।

आख़िर दीपावली में हम अपने घर भर में उजाला क्यों करते हैं? इसीलिए ना कि बाहर फैली रौशनी की तरह हमारा अंतर्मन भी प्रकाशित हो। हम सब के अंदर का कलुष रूपी तमस दीये की लौ के साथ जलकर  सदविचार में तब्दील हो सके। हिंदी के प्रखर कवि  गोपाल दास नीरज की एक कविता याद आ रही है जिसमें उन्होंने इसी विचार को अपने ओजपूर्ण शब्दों से संवारा था ।




जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

नई ज्योति के धर नये पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण-द्वार जगमग,
उषा जा न पाए, निशा आ ना पाए।

जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यों ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए।

जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ़ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आएँ नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधेरे घिरे अब
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए

जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए

इस कविता के माध्यम से कवि ये कहना चाहते हैं कि दीपावली में दीपक जलाकर रोशनी करना तो उत्सव का एक रूप है जो कि रात तक सिमट जाता है। पर वास्तव हमें ये पर्व ये संदेश देता है कि असली दीवाली तब मनेगी जब इस संपूर्ण संसार के लोगों के हृदय अंदर से जगमग हो जाएँ। ये तभी संभव हो पाएगा हर मानव के अंदर सदाचार, ईमानदारी व कर्मठता का दीप जल उठेगा।


दीपावली का ये मंगल पर्व एक शाम मेरे नाम के पाठकों के लिए खुशिया लाए  और हम  सब को एक बेहतर मानव बनने को प्रेरित कर सके इन्हीं आशाओं  और शुभकामनाओं के साथ!

रविवार, सितंबर 24, 2017

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास...

एक दशक पहले की बात है। वो ब्लॉगिंग के शुरुआती दिन थे और तभी अमित कुलश्रेष्ठ से आभासी जान पहचान हुई थी। टिप्पणियों के आलावा कभी कभी चैट पर भी बातें हो जाया करती थीं, जिनका मुख्य विषय अक़्सर कविता व शायरी ही हुआ करता था। फिर अमित अध्ययन से अध्यापन में जुट गए और हमारे बीच संवाद लगभग खत्म ही हो गया। अपनी किसी टिप्पणी के साथ गाहे बगाहे वो कभी प्रकट हो जाते थे और फिर अंतर्ध्यान भी हो जाया करते थे। इतना मुझे आभास था कि गणित से जुड़ा शोध और प्रेम उन्हें सोशल मीडिया व ब्लॉग पर विचरने का कम ही मौका देता है।



सालों बाद धर्मवीर भारती की एक कविता का जिक्र उन्हें  मेरे ब्लॉग पर फिर ले आया। फिर दो तीन महीने पहले उन्होंने एक ख़त लिखा कि सितंबर में मोहाली से राँची आना है। राँची विश्वविद्यालय में गणित से जुड़ी एक कार्यशाला है।  कार्यशाला में आने के साथ मुझसे मिलना भी एक प्रयोजन है। ज़ाहिर है मुझे खुशी हुई कि इतने दिनों बाद भी उन्होंने मुझे याद रखा था। मिलना शनिवार को था। छुट्टी भी थी पर कार्यालय से ऐसा आकस्मिक कार्य आ गया कि मुझे आसनसोल रवाना होना पड़ा।

फिर भी शुक्रवार को संध्या में हमने दो घंटे निकाल ही लिए। इडली और सांभर बड़े के बीच बातचीत का दौर शुरु हुआ। अमित गणित के विद्वान तो हैं ही साथ ही एक साहित्य प्रेमी भी है। भगवान ने उन्हें कविताओं के मामले में स्मरण शक्ति भी अच्छी दे रखी है। मेरी मित्र मंडली में ऍसे कुछ लोग हैं जिन्हें बस कहने की देर है और पुरानी से पुरानी कविता उनकी जिह्वा पर आ जाती है। सच बड़ा रश्क़ होता है ऐसे लोगों को देखकर। अमित भी इसी बिरादरी के हैं। हमलोग अलग अलग विषयों पर बात करते रहे और वो उन बातों का भाव लिए कविताओं की पंक्तियाँ सुना कर मन आनंदित करते रहे।

लिहाज़ा शिवमंगल सिंह सुमन, पंत, भवानी प्रसाद मिश्र, बाबा नागार्जुन, दुष्यंत कुमार से होती हुई बात अदम गोंडवी तक पहुँच गयी। किसी लेखक के लेखन से उसके व्यक्तित्व का कितना सही आकलन कर पाते हैं उस पर चर्चा हुई। अमित ने उन दिनों के ब्लॉगरों को भी याद किया जब वे ब्लागिंग में सक्रिय थे। स्कूलों में भाषा का गिरता स्तर चाहे वो हिंदी हो या अंग्रेजी हम दोनों के लिए चिंता का विषय था। एक मुद्दा ये भी रहा कि जिनके लिए हिंदी रोज़ी रोटी का विषय है वे ही इसकी साख में बट्टा लगाने की कोई कसर नहीं छोड़ रहे। मैं था तो संगीत और मेरी यात्राओं से जुड़ी बातें होनी ही थीं सो हुईं भी।

बहुत अच्छा लगा अमित आप आए और आपसे कविता सुनने का मौका मिला और समय रहता तो मैं कुछ अपने उन पसंदीदा गीतों को आपके सामने जरूर गुनगुनाता जिनमें अंदर की कविता मेरे हृदय को हर मूड में प्रफुल्लित कर देती है। चलते चलते बाबा नागार्जुन की जिस कविता का ये कहते हुए उल्लेख किया था कि बताइए बाबा ने एक कानी कुतिया में भी कितना सटीक बिंब ढूँढ लिया..

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद
धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद
कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।


ये छोटी सी कविता बाबा नागार्जुन ने अकाल के संदर्भ में पचास के दशक में लिखी थी। कविता का शीर्षक था अकाल और उसके बाद। बाबा ने कविता के पहले अंतरे में उस अकाल पीड़ित खेतिहर के घर के बारे में लिखा है जहाँ हफ्तों से चूल्हा नहीं जला । अब जब भोजन ही नहीं पकना तो चूल्हे के पास कुत्ते को फटकने से कौन रोके। रसोई मे जब आग ही ना जलेगी तो कीट पतंग कहाँ से आकर्षित हो पाएँगे। अब ये भला छिपकलियाँ कहाँ जानती थीं वो तो दीवारों पर लगाती रहीं गश्त। अब भोजन नहीं तो जूठन भी नहीं तो चूहों को भी खाने के लाले पड़ गए। दूसरे अंतरे में अकाल से जूझने के बाद रसोई में फिर से चूल्हा जलने की खुशी का जिक्र है जिससे घर के लोगों के साथ साथ मुंडेर पर मँडराते कौवे को भी आशा का नई किरण दिख चुकी है।

एक रोचक तथ्य ये भी है कि इसे फिल्म लुटेरा में सोनाक्षी और रणवीर ने मिलकर इस कविता को पढ़ा था। 😊

शुक्रवार, जुलाई 07, 2017

शाम: दो मनःस्थितियाँ - धर्मवीर भारती Shaam : Do Manahsthitiyan by Dharamvir Bharati

धर्मवीर भारती को किशोरावस्था तक अपनी प्रिय पत्रिका धर्मयुग का संपादक भर जानता रहा। गुनाहों का देवता और सूरज का सातवाँ घोड़ा तो बहुत बाद में ही पढ़ा। सूरज का सातवाँ घोड़ा पढ़ते हुए ही उनकी एक खूबसूरत कविता से भी रूबरू हुआ जो इसी नाम की एक फिल्म में गीत बन कर भी उभरी। गीत के बोल थे ये शामें सब की सब शामें क्या इनका कोई अर्थ नहीं.. 

शाम का पहर बड़ा अजीब सा है। दोस्तों का साथ रहे तो कितना जीवंत हो उठता है और अकेले हों तो कब अनायास ही मन में उदासी के बादल एकदम से छितरा जाएँ पता ही नहीं चलता। फिर तो हवा के झोकों के साथ अतीत की स्मृतियाँ मन को गीला करती ही रहती हैं। धर्मवीर भारती को भी लगता है शाम से बड़ा लगाव था। पर जब जब उन्होंने दिन के सबसे खूबसूरत पहर पर कविताएँ लिखीं उनमें ज़िंदगी से खोए लोगों का ही पता मिला। उनके ना होने की तड़प मिली।


अब भारती जी की इसी कविता को लीजिए मायूसी के इस माहौल में डूबी शाम में वो उम्मीद कर रहे हैं एक ऐसे अजनबी की जो शायद जीवन को नई दिशा दे जाए। पर वक़्त के साथ उनकी ये आस भी आस ही रह जाती है। अजनबी तो नहीं आते पर किसी के साथ बिताए वे पल की यादें पीड़ा बन कर रह रह उभरती है। 

कविता की अंतिम पंक्तियों में भारती जी जीवन का अमिट सत्य बयान कर जाते हैं। जीवन में कई लोग आते हैं जिनसे हमारा मन का रिश्ता जुड़ जाता है। उनके साथ बीता वक़्त मन को तृप्त कर जाता है। पर यही लगाव, प्रेम उनके जुदा होने से दिल में नासूर की तरह उभरता है। हमें विचलित कर देता है। शायद शाम के समय जब हम अपने सबसे ज्यादा करीब होते हैं हमारा दिल अपने बंद किवाड़ खोलता है और भारती  जी जैसा कवि हृदय तब कुछ ऐसा महसूस करता है...

 (1)

शाम है, मैं उदास हूँ शायद
अजनबी लोग अभी कुछ आएँ
देखिए अनछुए हुए सम्पुट
कौन मोती सहेजकर लाएँ
कौन जाने कि लौटती बेला
कौन-से तार कहाँ छू जाए!

बात कुछ और छेड़िए तब तक
हो दवा ताकि बेकली की भी
द्वार कुछ बन्द, कुछ खुला रखिए
ताकि आहट मिले गली की भी!

देखिए आज कौन आता है
कौन-सी बात नयी कह जाए
या कि बाहर से लौट जाता है
देहरी पर निशान रह जाए
देखिए ये लहर डुबोये, या
सिर्फ़ तटरेख छू के बह जाए!

कूल पर कुछ प्रवाल छूट जाएँ
या लहर सिर्फ़ फेनवाली हो
अधखिले फूल-सी विनत अंजुली
कौन जाने कि सिर्फ़ खाली हो?




(2)

वक़्त अब बीत गया बादल भी
क्या उदास रंग ले आए
देखिए कुछ हुई है आहट-सी
कौन है? तुम? चलो भले आए!

अजनबी लौट चुके द्वारे से
दर्द फिर लौटकर चले आए
क्या अजब है पुकारिए जितना
अजनबी कौन भला आता है
एक है दर्द वही अपना है
लौट हर बार चला आता है!

अनखिले गीत सब उसी के हैं
अनकही बात भी उसी की है
अनउगे दिन सब उसी के हैं
अनहुई रात भी उसी की है
जीत पहले-पहल मिली थी जो
आखिरी मात भी उसी की है!

एक-सा स्वाद छोड़ जाती है
ज़िन्दगी तृप्त भी व प्यासी भी
लोग आए गए बराबर हैं
शाम गहरा गई, उदासी भी! 


सम्पुट : दोनों हथेलियों को मिलाने और टेढ़ा करने से बना हुआ गड्ढा जिसमें भरकर कुछ दिया या लिया जाता है, प्रवाल : कोरल, कूल : किनारा


तो आइए सुनिए इस कविता के भावों तक पहुँचने की मेरी एक कोशिश..
 

बुधवार, दिसंबर 14, 2016

एक फूल की चाह ... सियाराम शरण गुप्त Ek Phool Ki Chaah

छुआछूत की समस्या ने एक समय इस देश में विकराल रूप धारण किया हुआ था। आज़ादी के सात दशकों बाद हमारे समाज की रुढ़ियाँ ढीली तो हो गयी हैं पर फिर भी गाहे बगाहे देश के सुदूर इलाकों से मंदिर में प्रवेश से ले कर पानी के इस्तेमाल पर रोक जैसी घटनाएँ सामने आती ही रहती हैं। यानि कहीं ना कहीं आज भी सबको समान अधिकार देने के फलसफ़े को हममें से कई लोग दिल से स्वीकार नहीं कर पाए हैं। अगर ऐसा ना होता तो ना ये छिटपुट  घटनाएँ होती और ना ही स्त्रियों को आज भी मंदिर या दरगाह के हर हिस्से में जाने के अपने अधिकार के लिए लड़ना पड़ रहा होता।

किसी आस्थावान व्यक्ति से भगवान का आशीर्वाद पाने का अधिकार छीन लेना कितना घृणित लगता है ना? बरसों पहले इसी समस्या पर सियाराम शरण गुप्त ने एक लंबी सी कविता लिखी थी। कविता क्या कविता के रूप में एक कहानी ही तो थी उनकी ये रचना। वैसे भी सियाराम शरण जी अपनी कविताओं की कथात्मकता के लिए जाने जाते थे। कविता का शीर्षक था एक फूल की चाह जो आजकल NCERT की नवीं कक्षा में अपने संक्षिप्त रूप में पढ़ाई जाती है।


झांसी से ताल्लुक रखने वाले सियाराम शरण गुप्त, हिंदी के प्रखर कवि मैथिली शरण गुप्त के अनुज थे। गाँधी और विनोबा के विचारों से प्रभावित सियाराम शरण गुप्त ने अपनी कविताओं में तात्कालीन सामाजिक कुरीतियों पर जबरदस्त कुठाराघात किया है। अछूतों से सामाजिक भेदभाव को दर्शाती ये कविता एक छोटी बच्ची सुखिया और उसके पिता के इर्द गिर्द घूमती है।

महामारी में ज्वर से पीड़ित सुखिया  मंदिर से देवी के आशीर्वाद स्वरूप पूजा के एक फूल की कामना रखती थी पर तमाम कोशिशों के बावज़ूद उसका  पिता अपनी बेटी की ये अंतिम  इच्छा पूरी नहीं कर पाता क्यूंकि समाज के ठेकेदारों ने उसे अछूत का तमगा दे रखा है। सियारामशरण जी ने इस घटना का कविता में मार्मिकता से चित्रण किया है।

भगवान के घर के रखवालों की ऐसी छोटी सोच पर प्रभावशाली ढंग  से तंज़ कसते हुए कवि सुखिया के पिता की तरफ़ से सवाल दागते हुए कहते हैं कि

ऐ, क्या मेरा कलुष बड़ा है, देवी की गरिमा से भी
किसी बात में हूँ मैं आगे, माता की महिमा से भी?
माँ के भक्त हुए तुम कैसे, करके यह विचार खोटा
माँ से सम्मुख ही माँ का तुम, गौरव करते हो छोटा!


इस कविता को अंत तक पढ़ते हुए गला रूँध सा जाता है और आवाज़ जवाब दे जाती है। फिर भी मैंने एक कोशिश की है सुनियेगा और बताइएगा कि क्या ये कविता आपके दिल को झकझोरने में सफल हुई?  कम से कम मुझे तो ऐसा ही महसूस हुआ इसे पढ़ते हुए..




उद्वेलित कर अश्रु-राशियाँ, हृदय-चिताएँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचण्ड हो, फैल रही थी इधर उधर।
क्षीण-कण्ठ मृतवत्साओं का, करुण-रुदन दुर्दान्त नितान्त,
भरे हुए था निज कृश रव में, हाहाकार अपार अशान्त।

बहुत रोकता था सुखिया को, ‘न जा खेलने को बाहर’,
नहीं खेलना रुकता उसका, नहीं ठहरती वह पल भर।
मेरा हृदय काँप उठता था, बाहर गई निहार उसे;
यही मानता था कि बचा लूँ, किसी भांति इस बार उसे।

भीतर जो डर रहा छिपाये, हाय! वही बाहर आया।
एक दिवस सुखिया के तनु को, ताप-तप्त मैंने पाया।
ज्वर से विह्वल हो बोली वह, क्या जानूँ किस डर से डर -
मुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल ही दो लाकर।

बेटी, बतला तो तू मुझको, किसने तुझे बताया यह
किसके द्वारा, कैसे तूने. भाव अचानक पाया यह?
मैं अछूत हूँ, मुझे कौन हा! मन्दिर में जाने देगा
देवी का प्रसाद ही मुझको, कौन यहाँ लाने देगा?


बार बार, फिर फिर, तेरा हठ!, पूरा इसे करूँ कैसे;
किससे कहे कौन बतलावे, धीरज हाय! धरूँ कैसे?
कोमल कुसुम समान देह हा!, हुई तप्त अंगार-मयी
प्रति पल बढ़ती ही जाती है, विपुल वेदना, व्यथा नई।


मैंने कई फूल ला लाकर, रक्खे उसकी खटिया पर
सोचा - शान्त करूँ मैं उसको, किसी तरह तो बहला कर।
तोड़-मोड़ वे फूल फेंक सब, बोल उठी वह चिल्ला कर -
मुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल ही दो लाकर!

क्रमश: कण्ठ क्षीण हो आया, शिथिल हुए अवयव सारे,
बैठा था नव-नव उपाय की, चिन्ता में मैं मनमारे।
जान सका न प्रभात सजग से, हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण-घनों में कब रवि डूबा, कब आई सन्ध्या गहरी।

सभी ओर दिखलाई दी बस, अन्धकार की ही छाया
छोटी-सी बच्ची को ग्रसने, कितना बड़ा तिमिर आया!
ऊपर विस्तृत महाकाश में, जलते-से अंगारों से,
झुलसी-सी जाती थी आँखें, जगमग जगते तारों से।

देख रहा था - जो सुस्थिर हो, नहीं बैठती थी क्षण भर,
हाय! बही चुपचाप पड़ी थी, अटल शान्ति-सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मैं, उसे स्वयं ही उकसा कर -
मुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल ही दो लाकर!

हे माते:, हे शिवे, अम्बिके, तप्त ताप यह शान्त करो;
निरपराध छोटी बच्ची यह, हाय! न मुझसे इसे हरो!
काली कान्ति पड़ गई इसकी, हँसी न जाने गई कहाँ,
अटक रहे हैं प्राण क्षीण तर, साँसों में ही हाय यहाँ!

अरी निष्ठुरे, बढ़ी हुई ही, है यदि तेरी तृषा नितान्त,
तो कर ले तू उसे इसी क्षण, मेरे इस जीवन से शान्त!
मैं अछूत हूँ तो क्या मेरी, विनती भी है हाय! अपूत,
उससे भी क्या लग जाएगी, तेरे श्री-मन्दिर को छूत?

किसे ज्ञात, मेरी विनती वह, पहुँची अथवा नहीं वहाँ,
उस अपार सागर का दीखा, पार न मुझको कहीं वहाँ।
अरी रात, क्या अक्ष्यता का, पट्टा लेकर आई तू,
आकर अखिल विश्व के ऊपर, प्रलय-घटा सी छाई तू!

पग भर भी न बढ़ी आगे तू, डट कर बैठ गई ऐसी,
क्या न अरुण-आभा जागेगी, सहसा आज विकृति कैसी!
युग के युग-से बीत गये हैं, तू ज्यों की त्यों है लेटी,
पड़ी एक करवट कब से तू, बोल, बोल, कुछ तो बेटी!

वह चुप थी, पर गूँज रही थी, उसकी गिरा गगन-भर भर
‘मुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल तुम दो लाकर!’
“कुछ हो देवी के प्रसाद का, एक फूल तो लाऊँगा
हो तो प्रात:काल, शीघ्र ही, मन्दिर को मैं जाऊँगा।

तुझ पर देवी की छाया है, और इष्ट है यही तुझे;
देखूँ देवी के मन्दिर में, रोक सकेगा कौन मुझे।”
मेरे इस निश्चल निश्चय ने, झट-से हृदय किया हलका;
ऊपर देखा - अरुण राग से, रंजित भाल नभस्थल का!

झड़-सी गई तारकावलि थी, म्लान और निष्प्रभ होकर
निकल पड़े थे खग नीड़ों से, मानों सुध-बुध सी खो कर।
रस्सी डोल हाथ में लेकर, निकट कुएँ पर जा जल खींच,
मैंने स्नान किया शीतल हो, सलिल-सुधा से तनु को सींच।

उज्वल वस्र पहन घर आकर, अशुचि ग्लानि सब धो डाली।
चन्दन-पुष्प-कपूर-धूप से, सजली पूजा की थाली।
सुखिया  के सिरहाने जाकर, मैं धीरे से खड़ा हुआ।
आँखें झँपी हुई थीं, मुख भी, मुरझा-सा था पड़ा हुआ।

मैंने चाहा - उसे चूम लें, किन्तु अशुचिता से डर कर
अपने वस्त्र सँभाल, सिकुड़कर, खड़ा रहा कुछ दूरी पर।
वह कुछ कुछ मुसकाई सहसा, जाने किन स्वप्नों में लग्न,
उसकी वह मुसकाहट भी हा! कर न सकी मुझको मुद-मग्न।

अक्षम मुझे समझकर क्या तू, हँसी कर रही है मेरी?
बेटी, जाता हूँ मन्दिर में, आज्ञा यही समझ तेरी।
उसने नहीं कहा कुछ, मैं ही, बोल उठा तब धीरज धर
तुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल तो दूँ लाकर!

ऊँचे शैल-शिखर के ऊपर, मन्दिर था विस्तीर्ण विशाल
स्वर्ण-कलश सरसिज विहसित थे, पाकर समुदित रवि-कर-जाल।
परिक्रमा-सी कर मन्दिर की, ऊपर से आकर झर झर,
वहाँ एक झरना झरता था, कल-कल मधुर गान कर-कर।

पुष्प-हार-सा जँचता था वह, मन्दिर के श्री चरणों में,
त्रुटि न दिखती थी भीतर भी, पूजा के उपकरणों में।
दीप-दूध से आमोदित था, मन्दिर का आंगन सारा
गूँज रही थी भीतर-बाहर, मुखरित उत्सव की धारा।

भक्त-वृन्द मृदु-मधुर कण्ठ से, गाते थे सभक्ति मुद-मय -
“पतित-तारिणि पाप-हारिणी, माता, तेरी जय-जय-जय!”
“पतित-तारिणी, तेरी जय-जय” -मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को, जानें किस बल से ढिकला!

माता, तू इतनी सुन्दर है, नहीं जानता था मैं यह;
माँ के पास रोक बच्चों की, कैसी विधि यह तू ही कह?
आज स्वयं अपने निदेश से, तूने मुझे बुलाया है;
तभी आज पापी अछूत यह, श्री-चरणों तक आया है।

मेरे दीप-फूल लेकर वे, अम्बा को अर्पित करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब, आगे को अंजलि भरके
भूल गया उसका लेना झट, परम लाभ-सा पाकर मैं।
सोचा - बेटी को माँ के ये, पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं।

सिंह पौर तक भी आंगन से, नहीं पहुँचने मैं पाया,
सहसा यह सुन पड़ा कि - “कैसे, यह अछूत भीतर आया?
पकड़ो, देखो भाग न जावे, बना धूर्त यह है कैसा;
साफ-स्वच्छ परिधान किए है, भले मानुषों जैसा!

पापी ने मन्दिर में घुसकर, किया अनर्थ बड़ा भारी
कुलषित कर दी है मन्दिर की, चिरकालिक शुचिता सारी।”
ऐ, क्या मेरा कलुष बड़ा है, देवी की गरिमा से भी
किसी बात में हूँ मैं आगे, माता की महिमा से भी?

माँ के भक्त हुए तुम कैसे, करके यह विचार खोटा
माँ से सम्मुख ही माँ का तुम, गौरव करते हो छोटा!

कुछ न सुना भक्तों ने, झट से, मुझे घेर कर पकड़ लिया;
मार-मार कर मुक्के-घूँसे, धम-से नीचे गिरा दिया!

मेरे हाथों से प्रसाद भी, बिखर गया हा! सब का सब,
हाय! अभागी बेटी तुझ तक, कैसे पहुँच सके यह अब।
मैंने उनसे कहा - दण्ड दो, मुझे मार कर, ठुकरा कर,
बस, यह एक फूल कोई भी, दो बच्ची को ले जाकर।

न्यायालय ले गए मुझे वे, सात दिवस का दण्ड-विधान
मुझको हुआ; हुआ था मुझसे, देवी का महान अपमान!
मैंने स्वीकृत किया दण्ड वह, शीश झुकाकर चुप ही रह
उस असीम अभियोग, दोष का, क्या उत्तर देता; क्या कह?

सात रोज ही रहा जेल में, या कि वहाँ सदियाँ बीतीं,
अविस्श्रान्त बरसा करके भी, आँखें तनिक नहीं रीतीं।
कैदी कहते - “अरे मूर्ख, क्यों ममता थी मन्दिर पर ही?
पास वहाँ मसजिद भी तो थी, दूर न था गिरजाघर भी।”

कैसे उनको समझाता मैं, वहाँ गया था क्या सुख से
देवी का प्रसाद चाहा था, बेटी ने अपने मुख से।
दण्ड भोग कर जब मैं छूटा, पैर न उठते थे घर को
पीछे ठेल रहा था कोई, भय-जर्जर तनु पंजर को।

पहले की-सी लेने मुझको, नहीं दौड़ कर आई वह
उलझी हुई खेल में ही हा! अबकी दी न दिखाई वह।
उसे देखने मरघट को ही, गया दौड़ता हुआ वहाँ
मेरे परिचित बन्धु प्रथम ही, फूँक चुके थे उसे जहाँ।

बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर, छाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल-सी कोमल बच्ची, हुई राख की थी ढेरी!
अन्तिम बार गोद में बेटी, तुझको ले न सका मैं हाय!
एक फूल माँ का प्रसाद भी, तुझको दे न सका मैं हा!

वह प्रसाद देकर ही तुझको, जेल न जा सकता था क्या?
तनिक ठहर ही सब जन्मों के, दण्ड न पा सकता था क्या?
बेटी की छोटी इच्छा वह, कहीं पूर्ण मैं कर देता
तो क्या अरे दैव, त्रिभुवन का, सभी विभव  मैं हर लेता?

यहीं चिता पर धर दूँगा मैं, - कोई अरे सुनो, वर दो -
मुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल ही लाकर दो!


(मृतवत्सा – जिस माँ की संतान मर गई हो, दुर्दांत – जिसे दबाना या वश में करना करना हो, कॄश – कमज़ोर, रव – शोर , तनु - शरीर• स्वर्ण घन - सुनहले बादल,  तिमिर – अंधकार, विस्तीर्ण – फैला हुआ, रविकर जाल - सूर्य किरणों का समूह, अमोदित - आनंदपूर्ण, ढिकला - ठेला गया, सिंह पौर - मंदिर का मुख्य द्वार, परिधान - वस्त्र,• शुचिता – पवित्रता, सरसिज – कमल , अविश्रांत – बिना थके हुए , प्रभात सजग - हलचल भरी सुबह।)

शनिवार, अक्टूबर 22, 2016

सतपुड़ा के घने जंगल, नींद मे डूबे हुए से ऊँघते अनमने जंगल

कविताएँ तो स्कूल के ज़माने में खूब पढ़ीं। कुछ खूब पसंद आतीं तो कुछ पल्ले ही नहीं पड़तीं। सतपुड़ा के घने जंगल भी पसंद ना आने वाली कविताओं में ही एक थी। एक तो थी भी इतनी लंबी। दूसरे तब ये समझ के बाहर होता था कि किसी जंगल पर भी इतनी लंबी कविता लिखी जा सकती है। किसी जंगल में घूमना विचरना ही उस छोटी उम्र में  हुआ ही कहाँ था? फिर भी परीक्षा के ख़्याल से ही कुछ रट रटा के ये पाठ निकालने की फिराक़ में थे कि घास पागल, कास पागल, शाल और पलाश पागल, लता पागल, वात पागल, डाल पागल, पात पागल पढ़कर हमने ये निष्कर्ष निकाल लिया था कि या तो ये कवि पागल था या इस कविता का मर्म समझते समझते हम ही पागल हो जाएँगे।


आज से ठीक दस साल पहले मुझे पचमढ़ी जाने का मौका मिला और वहाँ सतपुड़ा के घने जंगलों से पहली बार आमना सामना हुआ। अप्सरा, डचेस और बी जैसे जलप्रपातों तक पहुँचने के लिए हमें वहाँ के जंगलों के बीच अच्छी खासी पैदल यात्रा करनी पड़ी। सच कहूँ तब मुझे पग पग पर भवानी प्रसाद मिश्र की ये कविता याद आई और तब जाकर बुद्धि खुली कि कवि ने क्या महसूस कर ये सब रचा होगा। सतपुड़ा के जंगल के बीच बसे पचमढ़ी से जुड़े यात्रा वृत्तांत में मैंने जगह जगह इस कविता के विभिन्न छंदो को अपने आस पास सजीव होता पाया... 
"सतपुड़ा के हरे भरे जंगलों में एक अजीब सी गहन निस्तब्धता है। ना तो हवा में कोई सरसराहट, ना ही पंछियों की कोई कलरव ध्वनि। सब कुछ अलसाया सा, अनमना सा। पत्थरों का रास्ता काटती पतली लताएँ जगह जगह हमें अवलम्ब देने के लिये हमेशा तत्पर दिखती थीं। पेड़ कहीं आसमान को छूते दिखाई देते थे तो कहीं आड़े तिरछे बेतरतीबी से फैल कर पगडंडियों के बिलकुल करीब आ बैठते थे।.."

अगर इन जंगलों की प्रकृति के बारे में आपकी उत्सुकता हो तो आप उस आलेख को यहाँ पढ़ सकते हैं।

भवानी प्रसाद मिश्र जी मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले से ताल्लुक रखते थे। गाँधीवादी थे सो कविताओं के साथ आजादी की लड़ाई में भी अपना योगदान निभाते रहे। कविताएँ तो हाईस्कूल से ही लिखनी शुरु कर चुके थे।  गीत फरोश, चकित है दुख, गान्धी पंचशती, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, त्रिकाल सन्ध्या जैसे कई काव्य संग्रह उनकी लेखनी के नाम है। बुनी हुई रस्सी के लिए वो 1972 में साहित्य अकादमी पुरस्कार  से सम्मानित हुए उनकी कविताएं भाषा की सहजता और गेयता के लिए जानी जाती थीं। कविताओं में सहज भाषा के प्रयोग की हिमायत करती उनकी ये उक्ति बार बार याद की जाती है....

जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हम से बड़ा तू दिख।

है ना पते की बात। वही कविता जिसका सिर पैर मुझे समझ नहीं आता था, अब मेरी प्रिय हो गई है। इसीलिए आज मैंने इस कविता को अपनी आवाज़ में रिकार्ड किया है। आशा है आप इसे सुनकर मुझे बताएँगे कि मेरा ये प्रयास आपको कैसा लगा?



सतपुड़ा के घने जंगल
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल
झाड़ ऊँचे और नीचे,
चुप खड़े हैं आँख मींचे,
घास चुप है, कास चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है।
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल।
सतपुड़ा के घने जंगल पचमढ़ी शहर के करीब

सड़े पत्ते, गले पत्ते,
हरे पत्ते, जले पत्ते,
वन्य पथ को ढक रहे-से
पंक-दल मे पले पत्ते।
चलो इन पर चल सको तो,
दलो इनको दल सको तो,
ये घिनौने-घने जंगल
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।

अटपटी-उलझी लताएँ,
डालियों को खींच खाएँ,
पैर को पकड़ें अचानक,
प्राण को कस लें कपाएँ।
सांप सी काली लताएँ
बला की पाली लताएँ
लताओं के बने जंगल
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।
सतपुड़ा के जंगल डचेस फॉल ले रास्ते में

मकड़ियों के जाल मुँह पर,
और सर के बाल मुँह पर
मच्छरों के दंश वाले,
दाग काले-लाल मुँह पर,
वात- झन्झा वहन करते,
चलो इतना सहन करते,
कष्ट से ये सने जंगल,
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल|

अजगरों से भरे जंगल  
अगम, गति से परे जंगल
सात-सात पहाड़ वाले,
बड़े-छोटे झाड़ वाले,
शेर वाले बाघ वाले,
गरज और दहाड़ वाले,
कम्प से कनकने जंगल,
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।

इन वनों के खूब भीतर,
चार मुर्गे, चार तीतर
पाल कर निश्चिन्त बैठे,
विजनवन के बीच बैठे,
झोंपडी पर फूस डाले
गोंड तगड़े और काले।
जब कि होली पास आती,
सरसराती घास गाती,
और महुए से लपकती,
मत्त करती बास आती,
गूँज उठते ढोल इनके,
गीत इनके, बोल इनके
सतपुड़ा के घने जंगल
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल।
हांडी खोह, पचमढ़ी

जागते अँगड़ाइयों में,
खोह-खड्डों खाइयों में,
घास पागल, कास पागल,
शाल और पलाश पागल,
लता पागल, वात पागल,
डाल पागल, पात पागल
मत्त मुर्गे और तीतर,
इन वनों के खूब भीतर।

क्षितिज तक फैला हुआ-सा,
मृत्यु तक मैला हुआ-सा,
क्षुब्ध, काली लहर वाला
मथित, उत्थित जहर वाला,
मेरु वाला, शेष वाला
शम्भु और सुरेश वाला
एक सागर जानते हो,
उसे कैसा मानते हो?
ठीक वैसे घने जंगल,
नींद मे डूबे हुए-से
ऊँघते अनमने जंगल|

धँसो इनमें डर नहीं है,
मौत का यह घर नहीं है,
उतर कर बहते अनेकों,
कल-कथा कहते अनेकों,
नदी, निर्झर और नाले,
इन वनों ने गोद पाले।
लाख पंछी सौ हिरन-दल,
चाँद के कितने किरन दल,
झूमते बन-फूल, फलियाँ,
खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
पूत, पावन, पूर्ण रसमय
सतपुड़ा के घने जंगल,
लताओं के बने जंगल।

गुरुवार, सितंबर 22, 2016

पिंक : तू ख़ुद की खोज में निकल, तू किस लिये हताश है Why everyone should see Pink ?

कुछ दिनों पहले पिंक देखी। एक जरूरी विषय पर ईमानदारी से बनाई गई बेहद कसी हुई फिल्म है पिंक। सबको देखनी चाहिए, कम से कम लड़कों को तो जरूर ही।  लड़कियों के प्रति लड़कों की सोच को ये समाज किस तरह परिभाषित करने में मदद करता है या यूँ कहें कि भ्रमित करता है, उससे आप सब वाकिफ़ ही  होंगे। पिंक ने इस कहानी के माध्यम से इसी सोच की बखिया उधेड़ने का काम किया है। 


दशकों बीत गए और लड़कियों  के प्रति हमारी सोच आज भी वहीं की वहीं है।  समाज के निचले तबकों में मुखर है तो मध्यम वर्ग में अंदर ही दबी हुई है जो वक़्त आने पर अपने सही रंग दिखाने लगती है। फिर तो  लगने लगता है कि इस सोच का पढ़ाई लिखाई से लेना देना है भी या नहीं?

आज वो दिन याद आ रहे हैं जब मैंने इंटर में एक कोचिंग में दाखिला लिया था। जैसा अमूमन होता है, अक्सर ब्रेक  में लड़के पढ़ाई के आलावा लड़कियों की भी बाते किया करते थे। किसी भी लड़की का चरित्र चुटकियों में तय कर दिया जाता था और वो भी किस बिना पर?  देखिये तो  ज़रा ..

जानते हैं इ जो नई वाली आई है ना, एकदमे करप्ट है जी
क्यूँ क्या हुआ?
देखते नहीं है कइसे सबसे हँस हँस के बात करती है
अरे आप भी तो सबसे हँस मुस्कुराकर बात करते हैं ?
अरे छोड़िए महाराज है तो उ लइकिए नू..


मतलब ख़ुद करें तो सही और लड़की करे तो लाहौल विला कूवत। मुझे बड़ी कोफ्त होती थी इस दोहरी सोच पर तब भी और आज इतने सालों के बाद भी मुझे नहीं लगता कि कमोबेश स्थिति बदली है। किसी का सबके साथ हँसना मुस्कुराना, हाथ पकड़ लेना, साथ घूमना, खाना  पीना  सो कॉल्ड हिंट मान लिया जाताा है।

ख़ैर इन्हें तो छोड़िए, अकेली सुनसान सड़कों पर चलना भी कोई हिंट है क्या? आफिस से रात में देर से लौटना कोई हिंट है क्या? मेरी एक सहकर्मी ने बहुत पहले अपने से जुड़ी एक घटना बताई थी जिसमें सुबह की एक प्यारी मार्निंग वॉक, एक कुत्सित दिमाग के व्यक्ति की वहशियाना नज़रों और भद्दी फब्तियों के बीच अपनी हिम्मत बनाए रखते हुए अपना आत्मसम्मान बचा पाने की जद्दोजहद हो गई थी। बिना किसी गलती के ऐसी यंत्रणा क्यूँ झेलनी पड़ती हैं लड़कियों को? डर  के साये में क्यूँ छीन लेना चाहते हैं हम उनका मुक्त व्यक्तित्व?

रही बात वैसे पुरुषों के अहम की जो ना सुनने का आदी ही नहीं है। दिल्ली में जिस तरह कुछ दिनों पहले शादी के लिए मना करने की वजह से सरे आम एक महिला की चाकू से गोद गोद कर नृशंस हत्या की गई उसे आप क्या कहेंगे? प्यार ! ऐसा ही प्यार करने वाले बड़ी खुशी से उन चेहरों पर तेजाब फेंक देखते हैं जिसे वो अपना बनाने चाहते थे। ये सब सुन और देख कर क्या आपको नहीं लगता है कि मनुष्य जानवरों से भी बदतर और कुटिल जीव है? क्या हमारे अंदर व्याप्त ये दरिंदगी कभी खत्म होगी?   पिंक के गाने के वो बोल याद आ रहे हैं

कारी कारी रैना सारी,  सौ अँधेरे क्यूँ लाई, क्यूँ लाई
रोशनी के पाँव में ये बेड़ियाँ सी क्यूँ लाई, क्यूँ लाई
उजियारे कैसे अंगारे जैसे, छाँव छैली धूप मैली, क्यूँ है री

 बस मन में सवाल ही हैं जवाब कोई नहीं......

आज जब की लड़कियाँ पढ़ लिख कर हर क्षेत्र में अपनी काबिलयित का लोहा मनवा रही हैं तो फिर उनसे अपनी हीनता का बोध हटाएँ कैसे? बस  जोर आजमाइश से आसान और क्या है। आबरू तो सिर्फ लड़कियों की ही जाती है ना इस दुनिया में। यही वो तरीका है जिसमें बिना मेहनत के किसी स्वाभिमानी स्त्री को अंदर तक तोड़ दिया जाए।  

मेरा मानना है कि आप प्रेम उसी से करते हैं, कर सकते हैं जिनकी मन से इज़्ज़त करते हैं।  अगर मान लें कि ये प्रेम एकतरफा है तो भी आप उस शख़्स की बेइज़्ज़ती होते कैसे देख सकते हैं। उससे झगड़ा कर सकते हैं, नाराज़ हो सकते हैं पर उसे शारीरिक क्षति कैसे पहुँचा सकते हैं?

आज फिल्मों में ही सही इन बातों को बेबाकी से उठाया तो जा रहा है। लोगों की मानसिकता को बदलने के लिए ये एक अच्छी पहल है और इसलिए मैंने शुरुआत में कहा कि ये फिल्म सबको देखनी चाहिए कम से कम लड़कों को तो जरूर ही। पर ये लड़ाई लंबी है और इसकी शुरुआत हर परिवार से की जानी चाहिए। अपने लड़कों को पालते वक़्त उनमें लड़कियों के प्रति एक स्वच्छ सोच को अंकुरित करना माता पिता का ही तो काम है। परिवार बदलेंगे तभी तो समाज बदलेगा, सोचने का नज़रिया बदलेगा। 

अभी तो समाज का पढ़ा लिखा तबका इस पर बहस कर रहा है। पर बदलाव तो उस वर्ग तक पहुँचना चाहिए जो समाज के हाशिये पर है और जिसकी आवाज़ इस देश के हृदय तक जल्दी नहीं पहुँच पाती। 

हताशा के इस माहौल में तनवीर गाजी की लिखी ये कविता एक नई उम्मीद जगाती है। मुझे यकीन है की अवसाद के क्षणों में अमिताभ की आवाज़ में आशा के ये स्वर लड़कियों के मन में आत्मविश्वास के साथ जोश की नई लहर जरूर पैदा करेंगे

तू ख़ुद की खोज में निकल, तू किस लिये हताश है
तू चल तेरे वजूद की, समय को भी तलाश है

जो तुझ से लिपटी बेड़ियाँ, समझ न इन को वस्त्र तू
यॆ बेड़ियाँ पिघला के, बना ले इन को शस्त्र तू

चरित्र जब पवित्र है, तो क्यूँ है यॆ दशा तेरी
यॆ पापियों को हक़ नहीं, कि ले परीक्षा तेरी

जला के भस्म कर उसे, जो क्रूरता का जाल है
तू आरती की लौ नहीं, तू क्रोध की मशाल है

चूनर उड़ा के ध्वज बना, गगन भी कँपकपाएगा
अगर तेरी चूनर गिरी, तो एक भूकम्प आएगा ।

तू ख़ुद की खोज में निकल ...

गुरुवार, अगस्त 25, 2016

कृष्ण की चेतावनी : रामधारी सिंह दिनकर Krishna ki Chetavani by Dinkar

रामधारी सिंह 'दिनकर' की कविताएँ बचपन से मन को उद्वेलित करती रही हैं। पर स्कूल की पुस्तकों में उनके लिखे महाकाव्य कुरुक्षेत्र व रश्मिरथी के कुछ बेहद लोकप्रिय अंश ही रहा करते थे । स्कूल के दिनों में उनकी   दो लोकप्रिय कविताएँ शक्ति और क्षमाहिमालय हमने नवीं  और दसवीं में पढ़ी थीं जो कुरुक्षेत्र का ही हिस्सा थीं। कुरुक्षेत्र तो महाभारत के शांति पर्व पर आधारित थी वहीं रश्मिरथी दानवीर कर्ण पर ! रश्मिरथी का शाब्दिक अर्थ वैसे व्यक्ति से है जिसका जीवन रथ किरणों का बना हो। किरणें तो ख़ुद ही सुनहरी व उज्ज्वल होती हैं। कर्ण के लिए ऐसे उपाधि का चयन दिनकर ने संभवतः उनके सूर्यपुत्र और पुण्यात्मा होने की वज़ह से किया हो।


रश्मिरथी के अंशों को मैंने शुरुआत में टुकड़ों में पढ़ा इस बात से अनजान कि ये पुस्तक बचपन से ही घर में मौज़ूद रही। रश्मिरथी यूँ तो 1952 में प्रकाशित हुई पर 1980 में जब करीब सवा सौ पन्नों की ये पुस्तक मेरे घर आई तो जानते हैं इसका मूल्य कितना था? मात्र ढाई रुपये!

जब किताब हाथ में आई तो समझ आया कि ये काव्य तो एक ऐसी रोचक कथा की तरह चलता है जिसे एक बार पढ़ना शुरु किया तो फिर बीच में इसे छोड़ना संभव नहीं। दिनकर, महाभारत के पात्र कर्ण की ये गाथा सात सर्गों यानि खंडों में कहते हैं। दिनकर की भाषा इतनी ओजमयी है कि शायद ही कोई उनके इस काव्य को बिना बोले हुए पढ़ सके।  आज जन्माष्टमी के अवसर पर मैं आपको इस महाकाव्य के तीसरे सर्ग का वो हिस्सा सुनाने जा रहा हूँ जिसमें बारह वर्ष के वनवास और एक साल के अज्ञातवास को काटने के बाद पांडवों ने कौरवों से सुलह के लिए भगवान कृष्ण को हस्तिनापुर भेजा जो कौरवों की राजधानी हुआ करती थी। इस अंश को कई जगह कृष्ण की चेतावनी के रूप में किताबों में प्रस्तुत किया गया।


वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रखो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका, आशीष समाज की ले न सका,
उलटे हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

 हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान कुपित होकर बोले
जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।


 यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

उदयाचल मेरा दीप्त भाल, भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं, मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
परिधि-बन्ध :  क्षितिज , मैनाक-मेरु : दो पौराणिक पर्वत

दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख, मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग क्षर-अक्षर, नश्वर मनुष्य, सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
दृग : आँख,  शत कोटि : सौ करोड़

शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश, शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल, शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
जिष्णु : विष्णु के अवतार

भूलोक अटल पाताल देख, गत और अनागत काल देख
यह देख जगत का आदि सृजन, यह देख महाभारत का रण 
मृतकों से पटी हुई भू है
पहचान,  कहाँ इसमें तू है

अंबर में  कुंतल जाल देख, पद के नीचे पाताल देख
मुट्ठी में तीनो काल देख, मेरा स्वरूप विकराल देख
सब जन्म मुझी से पाते हैं
फिर लौट मुझी में आते हैं
कुंतल :केश 

जिह्वा से कढ़ती ज्वाला सघन, साँसों से पाता जन्म पवन
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर, हँसने लगती है सृष्टि उधर
मैं जभी मूँदता  हूँ लोचन
छा जाता चारो ओर  मरण
लोचन : आँख

बाँधने मुझे तो आया है, जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन, पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

हित-वचन नहीं तूने माना, मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ, अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

टकरायेंगे नक्षत्र-निकर, बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा, विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
 वह्नि : अग्निपुंज

भाई पर भाई टूटेंगे, विष-बाण बँद से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे, सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।
 वायस : कौआ,  श्रृगाल : सियार

थी सभा सन्न, सब लोग डरे, चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर न अघाते थे, धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!

विदुर तो पहले से ही कृष्ण भक्त थे इसलिए उन्हें प्रभु के विकराल रूप के दर्शन हुए। पर ऐसी कथा है कि विदुर ने जब धृतराष्ट्र से कहा कि आश्चर्य है कि भगवान अपने विराट रूप में विराज रहे हैं। इसपर धृतराष्ट्र ने अपने अंधे होने का पश्चाताप किया। पश्चाताप करते ही भगवन के इस विराट रूप देखने तक के लिए उनको दृष्टि मिल गयी।

मुझे तो इस कविता को पढ़ना और अपनी आवाज़ में रिकॉर्ड करना आनंदित कर गया। रश्मिरथी का ये अंश और पूरी किताब आपको कैसी लगती है ये जरूर बताएँ। तीसरे सर्ग के इस अंश का कुछ हिस्सा अनुराग कश्यप ने अपनी फिल्म गुलाल में भी इस्तेमाल किया था। उन अंशों को अपनी आवाज़ से सँवारा था पीयूष मिश्रा ने।

शनिवार, जून 25, 2016

तेरे बिन मेरे होने का मतलब कुछ-कुछ ऐसा ही है... रमेश गौड़ Tere Bin by Ramesh Gaud

रमेश गौड़ को मैं नहीं जानता। कुछ दिन पहले व्हाट्सएप पर उनकी ये कविता एक मित्र ने भेजी और जी एकदम से उसे पढ़कर उदास हो गया। पता नहीं रमेश जी ने किसको सोचकर ये कविता लिखी होगी. पर इसमें उन सब लोगों का दर्द है जो अपनी छाया से दूर हैं। हम उसी व्यक्तित्व से तो जुड़ते हैं या जोड़ने की सोचते हैं जिसमें हमें अपना अक्स नज़र आता है या फिर ऐसी बात नज़र आती है जो हममें भले ना हो पर हम वैसा होना चाहते हैं। बरसों हम इसी काल्पनिक छाया के सपनों में डूबते उतराते रहते हैं। कभी तो ये कल्पना ज़िदगी की आपा धापी में दब सी जाती है तो कभी उस शख्स से सचमुच ही मिला देती है।
नेपथ्य में ताकती दो आँखें कुछ खोज रही हों जैसे, चित्र सोनमर्ग, जम्मू एवम् कश्मीर

अब ये छाया आभासी है या वास्तविक इससे क्या फर्क पड़ता है। उससे दूरी तो हमेशा ही खटकती है। अपनी छाया के बिना हम पूर्ण ही तो नहीं हो पाते। रमेश गौड़ इसी अपूर्णता को कुछ खूबसूरत और अनसुने से बिंबों में बाँटते हैं। कविता में मुझे विशेष रूप से संख्या के पीछे हटती इकाई, और बरसों बाद आई चिट्ठी के धुल जाने की बात दिल को छू गई। लगा कि जो उदासी इसे पढ़ने से मन में छाई है उसे तभी निकाल पाऊँगा जब इसे एक बार मन से पढ़ दूँ..


जैसे सूखा ताल बच रहे या कुछ कंकड़ या कुछ काई
जैसे धूल भरे मेले में चलने लगे साथ तन्हाई,
तेरे बिन मेरे होने का मतलब कुछ-कुछ ऐसा ही है
जैसे सिफ़रों की क़तार बाक़ी रह जाए बिन इकाई ।

जैसे ध्रुवतारा बेबस हो, स्याही सागर में घुल जाए
जैसे बरसों बाद मिली चिट्ठी भी बिना पढ़े धुल जाए,
तेरे बिन मेरे होने का मतलब कुछ-कुछ ऐसा ही है
जैसे लावारिस बच्चे की आधी रात नींद खुल जाए ।

जैसे निर्णय कर लेने पर मन में एक दुविधा  रह जाए
जैसे बचपन की क़िताब में कोई फूल मुँदा रह जाए,
मेरे मन पर तेरी यादें अब भी कुछ ऐसे अंकित  हैं
जैसे खंडहर  पर शासक का शासन-काल खुदा रह जाए...


रमेश गौड़ से अगर मेरे पाठकों में कोई परिचित हो तो जरूर मुझे आगाह करे। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में जानकर मुझे खुशी होगी...

बुधवार, मई 25, 2016

शिव कुमार बटालवी : प्रसिद्धि की आड़ में घुलती, पिघलती ज़िंदगी Ikk Kudi Jihda Naam Mohabbat Part II

तो पिछली बार बातें हुई आपसे बटालवी साहब की दो प्रेम कथाओं की। पहली मीना और दूरी अनुसूया  जो लंदन जाकर गुम हो गयी । बटालवी की ज़िंदगी के प्रेम मंदिर में इन गुम हुई लड़कियों का कोई वारिस नहीं था। पटवारी की नौकरी करते हुए ज़मीन की नाप जोखी करने में तो बटालवी का मन नहीं लगा पर इसी दौरान उन्होंने पंजाब की लोक कथाओं में मशहूर पूरन भगत की कहानी को एक नारी की दृष्टि से देखते हुए उसे अपने नज़रिए से पेश किया । 
आख़िर क्या थी ये लोककथा? लोक कथाओं के अनुसार पूरन सियालकोट के राजा के बेटे थे। उनके पिता ने अपने से काफी उम्र की लड़की लूना से विवाह किया। लूना का दिल मगर अपने हमउम्र पूरन पर आ गया जो राजा की पहली पत्नी के बेटे थे। पूरन ने जब लूना का प्रेम स्वीकार नहीं किया तो उसने उसकी शिकायत राजा से की। राजा ने मार पीट कर पूरन को कुएँ में फिकवा दिया। पर उसे एक संत ने बचा लिया। उनके सानिध्य में पूरन ख़ुद एक साधू बन गया। बरसों बाद निःसंतान लूना जब अपनी कोख भरने की गुहार लगाने इस साधू के पास आई तो उसे अपनी गलती का अहसास हुआ। पूरन ने लूना और अपने पिता को क्षमा कर दिया और लूना को संतान का सुख भी मिल गया।

बटालवी ने इसी लूना को केंद्र बनाकर अपनी काव्य नाटिका का सृजन किया। उनकी लूना एक नीची जाति की एक कोमल व सुंदर लड़की थी जिसे अपनी इच्छा के विरुद्ध एक अधेड़ राजा से विवाह करना पड़ा। बटालवी ने  प्रश्न ये किया  कि अगर लूना को अपने हमउम्र लड़के से प्रेम हुआ तो इसमें उसका क्या दोष था? लूना पुरानी मान्यतओं को चोट करती हुई एक स्त्री की व्यथा का चित्रण करती है। बटालवी ने 1965 में लूना लिखी और इसी पुस्तक के लिए 28 वर्ष की छोटी उम्र में साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले पहले व्यक्ति बने। दरअसल बटालवी ने अपनी पीड़ा को  कविता में ऐसे बिम्बों व चरित्रों में व्यक्त किया जो सहज होने के साथ लोक जीवन के बेहद करीब थे।

तो गुम हुई लड़की पर लिखी इस  लंबी कविता के द्वारा  बटालवी के दिल के  कष्ट को समझने की कोशिश करते हैं वहाँ से जहाँ से मैंने पिछली पोस्ट में इसे छोड़ा था ..

हर छिन मैंनू यूँ लगदा है, हर दिन मैंनू यूँ लगदा है
जूड़े जशन ते भीड़ा विचों, जूड़ी महक दे झुरमट विचों
ओ मैनूँ आवाज़ दवेगी, मैं ओहनू पहचान लवाँगा
ओ मैनू पहचान लवेगी, पर इस रौले दे हद विच्चों
कोई मैंनू आवाज़ ना देंदा, कोई वी मेरे वल ना वेंहदा


हर पल, हर दिन मुझे ऐसा लगता है कि इस भागती दौड़ती भीड़ के बीच से, इन महकती खुशबुओं के बीच से वो मुझे आवाज़ लगाएगी। मै उसे पहचान लूँगा, वो भी मुझे पहचान लेगी। लेकिन सच तो ये है कि इन तमाम आवाज़ों के बीच से कोई मुझे नहीं पुकारता। कोई नज़र मुझ तक नहीं टकराती।

पर ख़ौरे क्यूँ तपला लगदा, पर खौरे क्यूँ झोल्ला पैंदा
हर दिन हर इक भीड़ जुड़ी चों, बुत ओहदा ज्यूँ लंघ के जांदा
पर मैंनू ही नज़र ना ओंदा,
गुम गया मैं उस कुड़ी दे, चेहरे दे विच गुमया रंहदा,
ओस दे ग़म विच घुलदा रंहदा, ओस दे ग़म विच खुरदा जांदा


पर पता नहीं क्यूँ मुझे लगता है, मुझे पूरा यकीं तो नहीं है पर हर दिन इस भीड़ भड़क्के के बीच उसका साया लहराता हुआ मेरी बगल से गुजरता है पर उसे मैं देख ही नहीं पाता। मैं तो उसके चेहरे में ही गुम हो गया हूँ और उस खूबसूरत जाल से बाहर निकलना भी नहीं चाहता। बस उसके ग़म में घुलता रहता हूँ , पिघलता रहता हूँ।   

ओस कुड़ी नूं मेरी सौंह है, ओस कुड़ी नूं आपणी सौंह है
ओस कुड़ी नूं सब दी सौंह है, ओस कुड़ी नूं रब्ब दी सौंह है

जे किते पढ़दी सुणदी होवे, जिउंदी जां उह मर रही होवे
इक वारी आ के मिल जावे, वफ़ा मेरी नूं दाग़ न लावे
नई तां मैथों जिया न जांदा, गीत कोई लिखिया न जांदा
इक कुड़ी जिहदा नाम मोहब्बत गुम है गुम है गुम है
साद मुरादी सोहणी फब्बत गुम है गुम है गुम है।


मैं तो बस याचना ही कर सकता हूँ कि ऐ लड़की गर मेरे लिए नहीं तो अपने आप के लिए , हम सब के लिए या भगवान के लिए ही सही   अगर तुम कहीं भी इसे पढ़ या सुन रही होगी, जी रही या मरती  होगी.... बस एक बार आकर मुझसे मिल लो । तुमने जो अपनी वफ़ा पर दाग लगाया है उसे आकर धो जाओ। नहीं तो मैं जिंदा नहीं रह पाऊँगा। कोई नया गीत नहीं लिख पाऊँगा।

और बटालवी अपने अंतिम दिनों में अपनी इन्हीं भावनाओं को चरितार्थ कर गए।  पटवारी की नौकड़ी छोड़ कर अब वो स्टेट बैंक बटाला में काम करने लगे। इसी बीच करुणा बटालवी से उनकी शादी हुई और कुछ ही सालों में वो दो बच्चों के पिता भी बन गए। बटाला उन्हें खास पसंद नहीं था सो उन्होंने  चंडीगढ़ में नौकरी शुरू की । ये वो दौर था जब वे हर साहित्यिक संस्था से पुरस्कार बटोर रहे थे। कॉलेज के समय से उनके प्रशंसकों ने उन्हें सॉफ्ट ड्रिंक  व सिगरेट की तलब लगा दी थी । वो गाते और उनके प्रशंसक उन्हें पिलाते।
साफ्ट ड्रिंक से हुए इस शगल ने उन्हें शराब की ओर खींचा। लोग को जब भी उन्हें गवाना होता मुफ्त की शराब पिलाते। लिहाज़ उनके फेफड़े की हालत खराब होने लगी। ऐसी हालत में सन 1972 में उन्हें इग्लैंड जाने का न्योता मिला। अनुसूया  को बटालवी भुला  नहीं पाए थे। उनका  दिल तो न  जाने कितनी बार लंदन की उड़ान भर चुका  था फिर ऐसे मौके को वो कैसे जाने देते ?

बटालवी 1972 में लंदन गए। उनकी ख्याति पंजाबी समुदाय में पहले से ही फैली हुई थी। सब लोग उन्हें अपने घर बुलाते। खातिरदारी का मतलब होता लजीज़ खाना और ढेर सारी शराब। पता नहीं उनके मेजबानों को उनकी गिरती तबियत का अंदाज़ा था या नहीं  या फिर अच्छा सुनने की फ़िराक़ में उन्होंने अपनी इंसानियत दाँव पर लगा दी थी। बटालवी अनुसूया से तो नहीं मिल पाए पर लंदन से लौटते लौटते अपने शरीर का बेड़ा गर्क जरूर कर लिया। वापस आ कर अस्पताल में भर्ती हुए पर उन्हें ये इल्म था कि ज़िंदगी उन्हें अब ज्यादा मोहलत नहीं देगी। इंग्लैंड जाने के एक साल बाद ही  पठानकोट के किर मंगयाल गाँव में उन्होंने अपने जीवन की अंतिम साँसें लीं।

तो चलते चलते सुनिए इस पूरी कविता को शिव कुमार बतालवी की तड़प भरी आवाज़ में जो एक टूटे दिल से ही निकल सकती है..


मंगलवार, मई 17, 2016

इक कुड़ी जिदा नाम मोहब्बत : कौन थी शिव कुमार बटालवी की वो गुमनाम कुड़ी ? Ikk Kudi Udta Punjab Part I

शिव कुमार बटालवी का व्यक्तित्व मेरे लिए अबूझ पहेली रहा है। पंजाब के इस बेहद लोकप्रिय कवि की लेखनी में आख़िर ऐसी क्या बात थी जिसने आम लोगों को बड़े कम समय में इनकी लिखी कविताओं का दीवाना बना दिया। 37 साल की छोटी उम्र में ऊपर कूच करने वाला इस इंसान क्यूँ ज़िदगी को एक धीमी गति से घटने  वाली आत्महत्या मानता था?

जब मैंने इन बातों को जानने समझने के लिए शिव बटालवी के बारे में पढ़ना शुरु किया तो आँखों में कई चेहरे घूम गए उनमें एक मजाज़ का तो एक गोपाल दास नीरज का भी था। 1936  में पंजाब के गुरुदासपुर जिले के एक गाँव में जन्मे बटालवी  मिजाज़  में रूमानियत शुरु से थी। स्कूल से निकलते तो पास की नदी के पास घंटों अकेले  ख्यालों  में डूबे रहते । लड़कों की अपेक्षा गाँव की बालाओं से ही उनकी दोस्ती ज्यादा होती। प्राथमिक शिक्षा पूरी कर जब वो बटाला गए तो कविता के साथ उसे तरन्नुम में गा के सुनने की अदा उनके व्यक्तित्व का अहम हिस्सा हो गई। शुरुआत के उनके रचित  गीत रूमानी कलेवर ही ओढ़े मिलेंगे पर बटालवी से प्रेम के बारे में सवाल होता तो वो यही कहते की जीवन में लड़कियाँ तो हजारों आयीं पर कोई मुकम्मल तसवीर नहीं बन पाई। पर क्या ये बात पूरी तरह सही थी?


दरअसल जब जब बटालवी ने कोई चेहरा अपने दिल में गढ़ना शुरु किया उसके पहले ही वो तक़दीर के हाथों मिटा डाला गया। बटालवी खुली तबियत के इंसान  थे। किसी चीज़ से बँधना उन्हें मंजूर ना था। उनके तहसीलदार पिता ने उन्हें लायक बनाने की बहुत कोशिश की। पर बटालवी का दिल कभी एक तरह की पढ़ाई में नहीं रमा। किसी कॉलेज में वे विज्ञान के छात्र रहे तो कहीं कला के। यहाँ तक कि बीच में कुछ दिनों के लिए वो बैजनाथ में सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा करने भी चले गए। पर इनमें से कोई भी कोर्स वो पूरा नहीं कर पाए। 

बैजनाथ के एक मेले में उनकी मुलाकात मीना से हुई। चंद मुलाकातें ही इस मीना को उनके दिल की मैना बनाने के लिए काफी थीं । मीना पर भी प्रेम का ज्वर चढ़ चुका था पर इससे पहले कि वो अपनी स्वाभाविक नियति पर जाता वो टायफाइड की वजह  से इस संसार को ही छोड़ कर चली गई। बटालवी के लिए ये गहरा धक्का था और उनकी कविताओं में मीना को खो देने की पीड़ा झलकती रही।

पिता वैसे ही बटालवी से कोई आशा छोड़ चुके थे। उनके लिए बटालवी की छवि एक बिना काम के छुटभैये कवि से ज्यादा नहीं थी। पिता के दबाव में आकर बटालवी ने पटवारी की परीक्षा पास कर ली। पर वो जिस कॉलेज में भी गए अपनी कविता में भीतर का दुख उड़ेलते रहे और लोकप्रियता की पायदानों पर चढ़ते रहे। गाँव और कस्बों में उनके रचे गीत लोकगीतों की तरह गाए जाने लगे। इसी दौरान वो दूसरी बार मोहब्बत में पड़े। बटालवी पर इस बार एक साहित्यकार की पुत्री अपना दिल दे बैठी थीं। पर पिता को जब ये पता चला  तो गुस्से में उन्होंने उसे लंदन भेज दिया। बटालवी को खबर भी न हुई। उसकी याद में उन्होंने बहुत कुछ लिखा पर उस पर लिखी ये पंक्तियाँ खासी मशहूर हुई..

माये नी माये
मैं इक शिकरा यार बनाया.
चूरी कुट्टां तां ओ खांदा नाही
ओन्हुं दिल दा मांस खवाया
इक उडारी ऐसी मारी
ओ मुड़ वतनी ना आया.

हे माँ देख ना मैंने इक बाज को अपना दोस्त बनाया। चूरी (घी व रोटी से बनाया जाने वाला मिश्रण) तो वो खाता नहीं सो मैंने तो उसे अपना कलेजा ही खिला दिया और देखो मुझे छोड़कर ऐसी उड़ान भर कर चला गया जहाँ से वो वापस अपने घर कभी नहीं लौटेगा।

दर्द से शिव कुमार बटालवी का रिश्ता यहीं खत्म नहीं हुआ। पर उस दास्तान तक पहुँचने के पहले आपको ये बताना चाहता हूँ कि उन्होंने अपनी ज़िंदगी से गायब इस लड़की पर एक लंबी सी कविता लिखी जिसे महेंद्र कपूर से लेकर हंस राज हंस जैसे गायकों ने अपनी आवाज़ से सँवारा। तो आइए आज कोशिश करते हैं बटालबी की इस सहज सी कविता को हिंदी में समझने की.

सूरत उसदी परियाँ  वरगीसीरत दी ओ.. मरियम लगदी
हसदी है ताँ फुल्ल झड़दे ने
तुरदी है ताँ ग़ज़ल है लगदी
लम्म सलम्मी सरू दे  क़द दी
उम्र अजे है मर के अग्ग दी
पर नैणा दी गल्ल समझ दी
इक कुड़ी जिदा नाम मोहब्बत
गुम है गुम है गुम है...

इक लड़की जिसका नाम मोहब्बत था, वो गुम है, गुम है , गुम है। सादी सी, प्यारी सी वो लड़की गुम है। उसका चेहरा परियों जैसा था और हृदय मरियम सा पवित्र। वो हँसती तो लगता जैसे फूल झड़ रहे हों और चलती तो लगता जैसे एक ग़ज़ल ही मुकम्मल  हो गई हो। लंबाई ऐसी की सरू के पेड़ को भी मात दे दे। जवानी तो जैसे उसके अभी उतरी थी पर आंखों की भाषा वो खूब समझती थी। पर वो आज नहीं है। कहीं नहीं है।

गुमियां जन्म जन्म हन ओए, पर लगदै ज्यों कल दी गल्ल है
इयों लगदै ज्यों अज्ज दी गल्ल है, इयों लगदै ज्यों हुण दी गल्ल है
हुणे ता मेरे कोल खड़ी सी, हुणे ता मेरे कोल नहीं है
इह की छल है इह केही भटकण, सोच मेरी हैरान बड़ी है

नज़र मेरी हर ओंदे जांदे,
चेहरे दा रंग फोल रही है, ओस कुड़ी नूं टोल रही है
इक कुड़ी जिदा नाम मोहब्बत, गुम है गुम है गुम है

सालों साल बीत गए उसे देखे हुए पर लगता है जैसे कल की ही बात हो।  कभी कभी तो  लगता  है जैसे शायद आज की ही या अभी की बात हो । वो तो मेरे बगल में ही खड़ी थी। अरे, पर अभी तो वो नहीं है। ये कैसा छल है ये कैसी चाल है? मैं हैरान हूँ, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा। मेरी आँखें हर गुजरने वालों को टोहती हैं। मैं हर चेहरे की रंगत पढ़ने की कोशिश करता हूँ, शायद उन्हीं में वो हसीं भी दिख जाए पर वो तो नामालूम कहाँ गुम है।

सांझ ढले बाज़ारां दे जद, मोड़ां ते ख़ुशबू उगदी है
वेहल थकावट बेचैनी जद, चौराहियां ते आ जुड़दी है
रौले लिप्पी तनहाई विच
ओस कुड़ी दी थुड़ खांदी है, ओस कुड़ी दी थुड़ दिसदी है
इक कुड़ी जिदा नाम मोहब्बत, गुम है गुम है गुम है


जब बाजार पर सांझ की लाली पसरती है। जब इत्र की खुशबू से बाजार का कोना कोना मदहोश हो जाता है। जब बेचैनी और थकान फुर्सत के उन पलों से मिलते हैं उसकी यादें मुझे काटने को दौड़ती हैं। हर दिन हर पल मुझे ऐसा लगता है कि इस भीड़ के बीच से, इन खुशबुओं के बीच से वो मुझे आवाज़ देगी। वो मुझे दिखती है और फिर गुम हो जाती है... ..
 
ना ये लंबी कविता खत्म हुई है ना बटालवी की कहानी। पर आज यहीं विराम लेना होगा। तो चलने के पहले आपको सुनवाते हैं फिल्म उड़ता पंजाब का ये नग्मा जिसमें बटालवी के इस गीत के शुरुआती हिस्से का बड़ी ख़ूबसूरती  से प्रयोग किया है संगीतकार अमित त्रिवेदी ने। आवाज़ है दिलजीत दोसांझ   की



उस गुम हुई लड़की के पीछे बँधी उनके जीवन की डोर कैसे पतली होती हुई टूट गई जानने के लिए पढ़ें इस आलेख की अगली कड़ी...
 

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