वार्षिक संगीतमाला की ग्यारहवीं पायदान पर गाना वो जो पिछले साल संगीत चैनलों पर खूब बजा और युवाओं में खासा लोकप्रिय हुआ। हाल फिलहाल में सीटी का वाद्य यंत्र जैसा इतना अच्छा प्रयोग शायद ही किसी गाने में हुआ हो। जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ फिल्म रॉय के गीत तू है कि नहीं.. की। इस फिल्म को बॉक्स आफिस पर जो भी सफलता मिली उसमें इसके गीत संगीत का बहुत बड़ा हाथ था। संगीतकार अंकित तिवारी के लिए इस गीत का संगीत रचना एक बहुत बड़ी चुनौती थी क्यूँकि इस गाने को रणबीर कपूर जैसा बड़ा अदाकार निभा रहा था। वो कहते हैं कि
"मुंबई के फिल्म उद्योग में कदम रखने से पहले मेरा एक सपना था कि मेरे संगीतबद्ध गीत बड़े स्टार पर फिल्माए जाएँ। फिल्म रॉय में मेरा ये सपना पूरा हो गया। "
पर अंकित तिवारी के खूबसूरत संगीत संयोजन के साथ जिस शख़्स ने इस गीत को इन ऊँचाइयों पर पहुँचाने का अहम किरदार निभाया है उसका नाम है अभेंद्र कुमार उपाध्याय। बिहार के रोहतास जिले से निम्न मध्यम वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने वाले अभेंद्र का बॉलीवुड का सफ़र आसान नहीं रहा। फिल्मों से उनका नाता टेलीविजन के माध्यम से हुआ जो उनके घर पन्द्रह साल पहले आया। कविता लिखने की ललक उनमें तब पड़ी जब पहली बार प्रेम के गिरफ़त में आए। आज भी वो अपने गीतों की रूमानियत का श्रेय अपने पहले प्यार को देते हैं जिसमें लगे घावों ने रिसकर उनकी लेखनी को स्याही दी और आज तक दे रही है। अभेंद्र उन्नीस साल की उम्र में मुंबई आ गए। उन्हें तब लगता था कि मुंबई की मायानगरी जैसी फिल्मों में दिखती है इतनी ही प्रेम और सहृदयता से भरपूर होगी.। दस साल की लंबी जद्दोज़हद के बाद उन्हें साज़िद वाजिद की फिल्म पेयिंग गेस्ट में एक गीत लिखने का मौका मिला।
पर अभेन्द्र के भाग्य का सितारा तब खुला जब वे आशिकी टू की सफलता के बाद अंकित तिवारी से मिले। पिछले साल उन्होंने अंकित के सानिध्य में सिंघम रिटर्न, एलोन, खामोशियाँ व रॉय जैसी फिल्मों में काम किया। रॉय के इस गीत में परिस्थिति ये है कि नायक तो मोहब्बत भी गुमसुम है क्यूँकि उसे इस बात पर अभी भी पूरी तरह भरोसा नहीं है कि उसका प्रिय भी उसके बारे में कुछ वैसी ही भावनाएँ रखता है या नहीं।
दरअसल ऐसा तो हम सभी के साथ होता है। नहीं क्या ? हम उस शख्स के बारे में सोते जागते उठते बैठते इतना सोचते हैं कि वो हमारे अक़्स का ही एक हिस्सा हो जाता है। इसीलिए तो अभेन्द्र कहते हैं हर साँस से पूछ के बता दे ..इनके फासलों में, तू है कि नहीं। अभेन्द्र की अंतरों की शब्द रचना बड़ी प्यारी है। अब इन पंक्तियों को ही देखें दौड़ते हैं ख्वाब जिनपे रास्ता वो तू लगे, नींद से जो आँख का है वास्ता वो तू लगे.... या फिर धूप तेरी ना पड़े तो धुंधला सा मैं लगूँ.. आ के साँसे दे मुझे तू, ताकि ज़िंदा मैं रहूँ ...इन्हें गुनगुनाते उन्हें दाद देने को जी चाहता है।
गीत मैं कुछ उतना नहीं जमता तो वो है अंकित तिवारी का उच्चारण। हर साँस से पूछ के बता दे को वो ऐसे गाते हैं जैसे हर साँस से पूँछ के बता दे बताइए अर्थ का अनर्थ नहीं हो गया पर उनका बेहतरीन संगीत संयोजन खासकर मुखड़े के पहले और अंतरों के बीच बजती सीटी इस गलती को नज़रअंदाज करने के लिए बाध्य करती है। तो आइए सुनते हैं ये गीत..
मुझसे ही आज मुझको मिला दे
देखूँ आदतों में, तू है कि नहीं
हर साँस से पूछ के बता दे
इनके फासलों में, तू है कि नहीं
मैं आस-पास तेरे और मेरे पास
तू है कि नहीं.. तू है कि नहीं..
तू है कि नहीं.. तू है कि नहीं..
दौड़ते हैं ख्वाब जिनपे रास्ता वो तू लगे
नींद से जो आँख का है वास्ता वो तू लगे
तू बदलता वक़्त कोई खुशनुमा सा पल मेरा
तू वो लम्हा जो ना ठहरे आने वाला कल मेरा
मैं आस पास तेरे और मेरे पास
तू है कि नहीं..तू है कि नहीं..
तू है कि नहीं.. तू है कि नहीं..
इन लबों पे जो हँसी है इनकी तू ही है वज़ह
बिन तेरे मैं कुछ नहीं हूँ मेरा होना बेवजह
धूप तेरी ना पड़े तो धुंधला सा मैं लगूँ
आ के साँसे दे मुझे तू, ताकि ज़िंदा मैं रहूँ
मैं आस पास तेरे और मेरे पास
तू है कि नहीं..तू है कि नहीं..
तू है कि नहीं.. तू है कि नहीं..
वैसे अगर आपकी भी हालत ऐसी हो रही हो तो इतना गाने गुनगुनाने से तो बेहतर है कि सीधे सीधे जाकर उनसे ख़ुद ही पूछ लें मैं आस-पास तेरे और मेरे पास तू है कि नहीं..
वार्षिक संगीतमाला 2015
