महानगरीय ज़िदगी में एक अदद घर की तलाश कितनी मुश्किल, कितनी भयावह हो सकती है एक प्रेमी युगल के लिए, इसी विषय को लेकर सत्तर के दशक में एक फिल्म बनी थी घरौंदा। श्रीराम लागू, अमोल पालेकर और ज़रीना वहाब अभिनीत ये फिल्म अपने अलग से विषय के लिए काफी सराही भी गयी थी।
मुझे आज भी याद है कि हमारा पाँच सदस्यीय परिवार दो रिक्शों में लदकर पटना के उस वक़्त नए बने वैशाली सिनेमा हाल में ये फिल्म देखने गया था। फिल्म तो बेहतरीन थी ही इसके गाने भी कमाल के थे। दो दीवाने शहर में, एक अकेला इस शहर में, तुम्हें हो ना हो मुझको तो .. जैसे गीतों को बने हुए आज लगभग पाँच दशक होने को आए पर इनमें निहित भावनाएँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक, उतनी ही अपनी लगती हैं।
जयदेव का अद्भुत संगीत गुलज़ार और नक़्श ल्यालपुरी की भावनाओं में डूबी गहरी शब्द रचना और भूपिंदर (जो भूपेंद्र के नाम से भी जाने जाते हैं) और रूना लैला की खनकती आवाज़ आज भी इस पूरे एलबम से बार बार गुजरने को मजबूर करती रहती हैं।
आज इसी फिल्म का एक गीत आपको सुना रहा हूँ जिसे ग़ज़लों की सालाना महफिल खज़ाना में मशहूर गायक पापोन ने पिछले महीने अपनी आवाज़ से सँवारा था।
फिल्म के इस गीत को लिखा था गुलज़ार साहब ने। गुलज़ार की लेखनी का वो स्वर्णिम काल था। सत्तर के दशकों में उनके लिखे गीतों से फूटती कविता एक अनूठी गहराई लिए होती थी। इसी गीत में एक अंतरे में नायक के अकेलेपेन और हताशा की मनःस्थिति को उन्होने कितने माकूल बिंबों में व्यक्त किया है। गुलज़ार लिखते हैं
और रात है जैसे अंधा कुआँ
इन सूनी अँधेरी आँखों में
आँसू की जगह आता है धुआँ
अपना घर बार छोड़ कर जब कोई नए शहर में अपना ख़ुद का मुकाम बनाने की जद्दोजहद करता है तो अकेले में गुलज़ार की यही पंक्तियाँ उसे आज भी अपना दर्द साझा करती हुई प्रतीत होती हैं।
मंज़िल पे पहुँचते देखा नहीं
बस दौड़ती-फिरती रहती हैं
हमने तो ठहरते देखा नहीं
इस अजनबी से शहर में
जाना-पहचाना ढूँढता है
ढूँढता है, ढूँढता है
तो सुनिए पापोन की आवाज़ में गीत का यही अंतरा। इस महफिल में उनके साथ अनूप जलोटा और पंकज उधास तो हैं ही, साथ में कुछ नए चमकते सितारे जाजिम शर्मा, पृथ्वी गंधर्व व हिमानी कपूर जिन्होंने मूलतः ग़ज़लों के इस कार्यक्रम में अपनी गायिकी से श्रोताओं का मन मोहा था।
