साठ के दशक में गीतकार अनजान की संघर्ष गाथा को तो पिछली पोस्ट में बयाँ कर ही चुका हूँ। आज आपसे बाते करूँगा उनके उत्कर्ष काल की यानि सत्तर के आखिर से लेकर अस्सी का दशक की। ये वो दौर था जब हम बचपन से किशोरावस्था की ओर प्रवेश कर रहे थे। लिहाज़ा अनजान के लिखे उन नग्मों को अपनी आँखों के सामने लोकप्रिय होते देखने का सौभाग्य मिला था मुझे। जैसा कि पिछली पोस्ट में मैंने आपको बताया कि संगीतकार कल्याण जी आनंद जी के साथ फिल्म बंधन के बनते वक़्त अनजान की जो मुलाकात हुई वो उन्हें 1978 में आई फिल्म डॉन के साथ सफलता की नई ऊँचाइयों पर ले गई।
डॉन के गाने भी कल्याण जी आनंद जी इंदीवर से लिखवाने की सोच रहे थे। इंदीवर ने उसका एक गीत ये मेरा दिल.. लिखा भी पर फिर किसी बात से उनके बीच अनबन हो गई और बाकी गाने अनजान की झोली में आ गए। अनजान ने इस मौके को पूरी तरह भुनाया। जिसका मुझे था इंतजार..... से लेकर खई के पान बनारसवाला... तक हर गली मोहल्ले में अनजान के गीत बजने लगे। खई के पान... .के पीछे की भी एक मजेदार कहानी है जिसे उनके पुत्र समीर कई साक्षात्कारों में बता चुके हैं।
हुआ यूँ कि अनजान किशोर कुमार को गीत के बोल लिखवा रहे थे भंग का रंग जमा हो चकाचक...। किशोर दा ने ये पंक्ति सुनी और अपनी कलम रख दी और कहा कि अनजान तुम ये कहाँ कहाँ के शब्द ढूँढ के लाते हो.. मैंने तो सारी ज़िदगी ये "चकाचक" शब्द नहीं सुना।
किशोर दा की अगली आपत्ति गीत के मुखड़े को लेकर थी। कहने लगे अनजान, मैं खई के नहीं, खा के पान बनारसवाला ही गाऊँगा। पूरे गाने को सुनने के बाद किशोर दा ने कल्याण जी से कहा भाई ये बड़ा कठिन गाना है, ऊपर से इतने अटपटे से शब्द हैं मैं तो इसे एक एक बार ही गाऊँगा अगर सही रहा तो तुम्हारा नसीब नहीं हुआ तो किशोर कुमार भाग जाएगा।
रिकार्डिंग के ठीक पहले किशोर दा ने पूछा कि आप लोग पान खाते खाते बात कैसे करते हैं? आनन फानन में पान के बीड़े और पीकदान मँगवाए गए। सबने पान खाए और उनकी बात करने के अंदाज़ को किशोर ने परखा और हू बहू गाने में उतार दिया। इतनी सब नौटंकी के बाद भी किशोर दा ने इस गीत के लिए जो बनारसी अदा दिखाई उसे कौन भूल सकता है?
खून पसीना और डॉन जैसी फिल्मों के गीत बजने बंद भी नहीं हुए थे कि अनजान के गीतों ने फिर एक बड़ा धमाका किया। फिल्म थी मुकद्दर का सिकंदर। मुझे अच्छी तरह याद है कि इस फिल्म को हॉल में देखने के बाद उसका हर एक गीत रोते हुए आते हें सब...., ज़िदगी तो बेवफ़ा है...., ओ साथी रे...., दिल तो है दिल ...., सलाम ए इश्क...., महीनों जुबान पर रहे थे ।
अगले ही साल यानि 1979 में उनकी भोजपुरी फिल्म आई बलम परदेसिया । वो फिल्म इतनी हिट हुई थी कि दो रिक्शों में हमारा परिवार घर से पाँच छः किमी दूर पटना के अल्पना सिनेमा हाल में देखने गया था। फिल्म कैसी लगी थी उस वक्त याद नहीं पर जब ये गाना गोरकी पतरकी रे मारे गुलेलवा जियरा उड़ उड़ जाए ....पर्दे पर आया था तो भाई लोग कमीज खोल खोल कर पर्दे तक नाचते हुए पहुँच गए थे।
संगीतकार बदलते रहे पर अनजान की सफलता का ये सिलसिला अस्सी के दशक में भी जारी रहा। अनजान, किशोर कुमार और अमिताभ बच्चन की तिकड़ी ने अस्सी के दशक में लावारिस, शराबी, और नमकहलाल जैसी फिल्मों में खूब धमाल मचाया। अनजान के गीतों में गज़ब की विविधता थी यशोदा का नंदलाला... जैसी लोरी लिखने वाले अनजान बप्पी दा के लिए I am a Disco Dancer लिख गए। एक ओर पिपरा के पतवा ..लिखा तो वहीं गोरकी पतरकी... भी। मानो तो हूँ गंगा माता ना मानो तो बहता पानी... जैसे भावपूर्ण गीत लिखे तो आज रपट जाएँ ....जैसे मस्ती भरे तराने भी। इस दौर में लिखे उनके दो गीतों को आज भी मन से याद करता हूँ। एक तो डिस्को बीट्स पर रचा और अलीशा चिनॉय का गाया मेरा दिल गाए जा जूबी जूबी जूबी जूबी जो उन दिनों मोहल्ले में होने वाली दुर्गा और सरस्वती पूजा की शान हुआ करता था और दूसरा वो जिसे फिल्म याराना के लिए उन्होंने राजेश रोशन के लिए रचा था.
कॉलेज के दिनों में मेरे मित्र वार्षिक संगीत संध्या पर पूरी आर्केस्टा के साथ ये गीत बजाते और हम घंटों इस गीत की धुन और शब्दों की ख़मारी में झूमते रहते। गीत तो आप पहचान ही गए होंगे चलिए आपको फिर से सुनवा भी देते हैं..
छूकर मेरे मन को किया तूने क्या इशारा
बदला ये मौसम लगे प्यारा जग सारा
तू जो कहे जीवनभर तेरे लिए मैं गाऊँ
गीत तेरे बोलों पे लिखता चला जाऊँ
मेरे गीतों में तुझे ढूंढ़े जग सारा
आजा तेरा आँचल ये प्यार से मैं भर दूँ
खुशियाँ जहाँ भर की तुझको नजर कर दूँ
तू ही मेरा जीवन तू ही जीने का सहारा
बदला ये मौसम लगे प्यारा जग सारा
तू जो कहे जीवनभर तेरे लिए मैं गाऊँ
गीत तेरे बोलों पे लिखता चला जाऊँ
मेरे गीतों में तुझे ढूंढ़े जग सारा
आजा तेरा आँचल ये प्यार से मैं भर दूँ
खुशियाँ जहाँ भर की तुझको नजर कर दूँ
तू ही मेरा जीवन तू ही जीने का सहारा
अनजान के इन सहज भोले शब्दों को गुनगुनाते हुए मन आज भी प्रेम की इस निर्मल हवा में झूम जाता है।
लंबे समय के संघर्ष के बाद मिली इस जबरदस्त सफलता के बाद भी अनजान को ज़िंदगी से दो मलाल रह गए थे। पहला तो तीन दशकों के संगीत सफ़र में एक बार भी फिल्मफेयर एवार्ड ना जीत पाने का ग़म और दूसरे बतौर साहित्यकार समाज को कुछ ना दे पाने की पीड़ा। पर भगवान की कृपा ये जरूर रही कि इस संसार को छोड़ने के पहले वो अपने पुत्र समीर को फिल्मफेयर पुरस्कार लेते हुए देख सके और बीमारी के बीच अपना कविता संग्रह 'गंगा तट का बंजारा' भी लिख पाए जिसका विमोचन खुद अमिताभ जी ने किया। अनजान के नाम से भले आप अनजान पर उनके रचे गीतों से आप और आने वाली पीढ़ियाँ अनजान रहेंगी इसकी कल्पना भी नामुमकिन है।
