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बुधवार, नवंबर 07, 2012

अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो : जगजीत, मजाज़ और कहकशाँ

पहले दक्षिणी महाराष्ट्र और फिर कानाताल की दस बारह दिनों की यात्रा की वज़ह से दूरदर्शन के पुराने धारावाहिक कहकशाँ में अलग अलग शायरों के साथ जगजीत की सुरीली आवाज़ के सफ़र में विराम लग गया था। आज कहकशाँ से जुड़ी इस श्रृंखला की आखिरी कड़ी में बात करते हैं मजाज़ लखनवी की लिखी नज़्म एतराफ़ की। मजाज़ की इस नज़्म को आम जनों तक पहुँचाने में जगजीत की दर्द में डूबी आवाज़ का बहुत बड़ा हाथ रहा है। कहकशाँ में शामिल ग़ज़लों और नज़्मों में अरबी फ़ारसी शब्दों की बहुतायत होने की वज़ह से उन्हें पूरी तरह समझना हर ग़ज़ल प्रेमी के लिए चुनौतीपूर्ण रहा है। पर  इस नज़्म में तो मजाज़ ने ऐसे ऐसे रूपकों का इस्तेमाल किया है कि सामान्य उर्दू जानने वाले भी चकरा जाएँ।

जगजीत जी की इस बात के लिए तारीफ़ करनी होगी कि उन्होंने इतनी कठिन भाषा के बावज़ूद भी अपनी गायिकी से इस नज़्म के मर्म को श्रोताओं तक भली भांति पहुँचा दिया।  एक शाम मेरे नाम के पाठकों के लिए दीपावली की सौगात के रूप में पेश है मजाज़ की पूरी नज़्म उसके अनुवाद की एक कोशिश के साथ ताकि अगली बार जब भी आप ये नज़्म पढ़ें, सुनें या गुनगुनाएँ उसकी भावनाएँ आपके दिलो दिमाग पर और गहरी उतर सकें।

हिंदी में एतराफ़ का अर्थ होता है स्वीकारोक्ति। पर मजाज़ इस नज़्म के माध्यम से आख़िर क्या स्वीकार करना चाहते थे? मजाज़ किस तरह एक शादी शुदा रईसजादी के इश्क़ में गिरफ्तार हुए और किस तरह उनकी मोहब्बत उन्हें पागलपन की कगार पर ले गई, ये किस्सा मैं आपको उनकी मशहूर नज़्म आवारा के बारे में लिखते हुए सुना चुका हूँ।  बस इतना कहना चाहूँगा कि मजाज़ के इस दर्द में आप अगर पूर्णतः शरीक होना चाहते हैं तो आवारा से जुड़ी उन प्रविष्टियों को जरूर पढ़ें।

अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?

मैने माना कि तुम इक पैकर-ए-रानाई हो
चमन-ए-दहर में रूह-ए-चमन आराई हो
तिलअत-ए-मेहर हो फ़िरदौस की बरनाई हो
बिन्त-ए-महताब हो गर्दूं से उतर आई हो

मुझसे मिलने में अब अंदेशा-ए-रुसवाई है
मैने खुद अपने किये की ये सज़ा पाई है


एतराफ़ की शुरुआत मजाज़ अपनी नायिका की सुंदरता के बखान से करते हैं।  मजाज़ कहते हैं कि मैं जानता हूँ कि तुम सौन्दर्य की एक प्रतिमा हो। अगर ये संसार एक खूबसूरत वाटिका है तो तुम उस फुलवारी की सुंदरता का केंद्रबिंदु हो। तुम्हारे यौवन में दहकते सूर्य की छवि है। तुम्हारा रूप स्वर्ग की अप्सरा का सा है। कभी कभी तो लगता है कि तुम उस हसीं चाँद की बेटी हो जो आकाश से उतर कर इस धरा पर आ गई है । पर आज तुम्हारे इस सौन्दर्य का मैं क्या करूँ? सच तो ये है कि आज के हालातों में बदनामी के डर से शायद ही तुम मुझसे मिलने की कोशिश करो। मैंने अपनी ज़िदगी को अब तक जिस तरह जिया है उसी की सज़ा मैं भोग रहा हूँ।


अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?

ख़ाक में आह मिलाई है जवानी मैने
शोलाज़ारों में जलाई है जवानी मैने
शहर-ए-ख़ूबां में गँवाई है जवानी मैने
ख़्वाबगाहों में गँवाई है जवानी मैने

हुस्न ने जब भी इनायत की नज़र ड़ाली है
मेरे पैमान-ए-मोहब्बत ने सिपर ड़ाली है


क्या कहूँ अब सोचता हूँ तो लगता है कि मैंने अपनी जवानी व्यर्थ ही बर्बाद कर ली। सुंदरियों के नगर में, ख़्वाबों को जन्म देने वाले उन शयनागारों में , हुस्न के उन शोलों के बीच आखिर मुझे क्या मिला ? जब जब किसी शोख़ नज़र ने अपनी चाहत का दामन मेरी तरफ़ फैलाया अपने पहले प्रेम के संकल्प की ढाल से मैंने उसे दूर ढकेल दिया।

उन दिनों मुझ पे क़यामत का जुनूँ तारी था
सर पे सरशारि-ए-इशरत का जुनूँ तारी था
माहपारों से मोहब्बत का जुनूँ तारी था
शहरयारों से रक़ाबत का जुनूँ तारी था

बिस्तर-ए-मखमल-ओ-संजाब थी दुनिया मेरी
एक रंगीन-ओ-हसीं ख्वाब थी दुनिया मेरी

जन्नते शौक़ थी बेगान ए आफ़ाते समूम
दर्द जब दर्द ना हो काविशे दरमाँ मालूम
खाक़ थे दीद ए बेबाक में गरदूँ के नजूम
बज़्मे परवीन भी निगाहों में कनीज़ों का हुजूम

लैल ए नाज़ बरअफ़गंदा नक़ाब आती थी
अपनी आँखों में लिए दावत ए ख़्वाब आती थी


उन दिनों दिलो दिमाग पर मौज मस्ती का नशा छाया हुआ था। चाँद के उन हसीन टुकड़ों को मैं अपनी मोहब्बत का हासिल समझने लगा था। मेरे गुरूर की इंतहा इस हद तक थी कि हुस्न के मैदान में मैं बादशाहों से भी मुकाबला करने को तैयार था। मखमल के बिस्तर में सिमटा मेरा वो संसार एक हसीन सपने की तरह था। गर्म हवा की आफ़तों से अपरिचित वो दुनिया मेरे लिए प्रेम का स्वर्ग के समान दिखती थी। मेरा पास उस वक़्त हर दर्द की दवा थी। तब मुझे ऐसा लगता था कि मेरी बेबाक नज़रे आसमान के तारों तक को खाक़ में मिला सकती हैं। सुन्दरियों की महफिल मुझे दासियों का हुजूम लगती थी।

वैसे ये जुनूँ बेवज़ह तो नहीं था। वो भी क्या दिन थे ! नाज़ नखरों में पली बढ़ी सुंदरियाँ तक नक़ाब उठा कर मुझे आँखों ही आँखों में अपनी ख़्वाबगाह में आने का निमंत्रण दे डालती थी।

संग को गौहरे नायाबों गिराँ जाना था
दश्ते पुरख़ार को फ़िरदौसे जवाँ जाना था
रेग को सिलसिल ए आबे रवाँ जाना था
आह ये राज अभी मैंने कहाँ जाना था

मेरी हर फतह में है एक हज़ीमत पिनहाँ
हर मुसर्रत में है राज़े ग़मो हसरत पिनहाँ


क्या सुनोगी मेरी मजरूह जवानी की पुकार
मेरी फ़रियाद-ए-जिगरदोज़ मेरा नाला-ए-ज़ार
शिद्दत-ए-कर्ब में ड़ूबी हुई मेरी गुफ़्तार
मै के खुद अपने मज़ाक़-ए-तरब आगीं का शिकार

वो गुदाज़-ए-दिल-ए-मरहूम कहाँ से लाऊँ
अब मै वो जज़्बा-ए-मासूम कहाँ से लाऊँ
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?


पर शायद वो मेरा बचपना था। दुनिया के तौर तरीकों से मैं वाकिफ़ नहीं था।

मैं क्या जानता था कि एक पत्थर भी दुर्लभ मोती जवाहरात बनने की लालसा रखता है!
काँटेदार जंगल भी खिलती बगिया का रूप रखने की आस रखता है!
रेत के कण भी बहती धारा के साथ सागर को चूमने की ख्वाहिश रखते हैं!

वो भी अपने सुनहरे भविष्य की आस में मुझे छोड़ कर चली गई। गर्व और अहंकार में डूबी मेरी उस ज़िदगी की हर जीत अब शिकस्त में तब्दील हुई लगती है। ध्यान से देखो तो पाओगी कि मेरे हर खुशी के पीछे कई ग़म चेहरा छुपाए बैठे हैं। अपने इस घायल हृदय की हालत को तुम से अब क्या बयाँ करूँ?  कौन समझेगा मेरी हृदय को चीरनेवाली इस फ़रियाद को, आँसू भरे गीतों को व दर्द में डूबी मेरी बातों को। हालात ये हैं कि मैं  ख़ुद अपने तौर तरीकों की वज़ह से सबके बीच मजाक़ का पात्र बन गया हूँ। तुमने आने में अब बहुत देर कर दी है। तुम्हीं कहो अब इस मरे हुए दिल में वो कोमलता कहाँ से लाऊँ? अपनी भावनाओं में वो पहली वाली मासूमियत कहाँ से लाऊँ?

मेरे साये से डरो, तुम मेरी कुरबत से डरो
अपनी जुरअत की कसम , तुम मेरी जुरअत से डरो
तुम लताफ़त हो अगर, मेरी लताफ़त से डरो
मेरे वादों से डरो, मेरी मोहब्बत से डरो

अब में अल्ताफ़ो इनायत का सज़ावार नही
मैं वफ़ादार नहीं, हाँ मैं वफ़ादार नहीं
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?


नज़्म का ये आख़िरी हिस्सा मजाज़ के दिल मैं फैले नैराश्य को सामने लाता है। मजाज़ को अपनी ज़िदगी अपने साये तक से नफ़रत हो गई है। इसलिए वो नायिका को अपने से दूर रहने की सलाह देते हैं। जिस वफ़ा, कोमलता, रूमानियत समाज से लड़ने के जज़्बे को वो अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बना कर चले थे उन पर उनका खुद का विश्वास डगमगा गया था। मजाज़ ने ये नज़्म 1945 में लिखी थी यानि अपनी मृत्यु के ग्यारह साल पहले। जीवन के अंतिम सालों में वे अपने मानसिक संतुलन खो बैठे थे। इलाज से उनकी हालत में सुधार जरूर हुआ पर एकाकी जीवन और शराब पीने की लत ने उन्हें इस दुनिया को छोड़ने पर मजबूर कर दिया। तो आइए एक बार फिर सुनें इस नज़्म में छुपी शायर की पीड़ा को जगजीत की आवाज़ में...

एक शाम मेरे नाम पर जगजीत सिंह और कहकशाँ 

मंगलवार, अक्टूबर 09, 2012

जगजीत सिंह और कहकशाँ : देखना जज़्बे मोहब्बत का असर आज की रात..

जगजीत जी को गुजरे एक साल होने को आया है। दस अक्टूबर को उनकी पहली बरसी है। जगजीत ऐसे तो यूँ दिल में बसे हैं कि उनकी गायी ग़ज़लें या नज़्में कभी होठों से दूर नहीं गयीं और इसीलिए एक शाम मेरे नाम पर उनके एलबमों का जिक्र होता रहा है। पर जगजीत जी के कुछ एलबम बार बार चर्चा करने के योग्य रहे हैं और कहकशाँ उनमें से एक है।

यूँ तो दूरदर्शन के इस धारावाहिक में प्रस्तुत अपनी कई पसंदीदा ग़ज़लों और नज्मों मसलन मजाज़ की आवारा, हसरत मोहानी की रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम और फिराक़ गोरखपुरी की अब अक्सर चुप चुप से रहे हैं की चर्चा पहले ही इस ब्लॉग पर हो चुकी है। पर कहकशाँ ग़ज़लों और नज़्मों का वो गुलिस्तां है जिसकी झोली में ऐसे कितने ही फूल हैं जिसकी खुशबू को इस महफिल में फैलाना बेहद जरूरी है। जगजीत जी की पहली बरसी के अवसर पर इस चिट्ठे पर अगले कुछ हफ्तों में आप सुनेंगे इस महान ग़ज़ल गायक के धारावाहिक कहकशाँ से चुनी कुछ पसंदीदा ग़ज़लें और नज़्में

तो शुरुआत मजाज़ लखनवी की एक रूमानी ग़ज़ल से। मजाज़ व्यक्तिगत जीवन के एकाकीपन के बावज़ूद अपनी ग़ज़लों में रूमानियत का रंग भरते रहे। अब उनकी इस ग़ज़ल को ही देखें जो आज की रात नाम से उन्होंने 1933  में लिखी थी। मजाज़ ने अपनी ग़ज़ल में 17 शेर कहे थे। जगजीत ने उनमें से चार अशआर चुने। ये उनकी अदाएगी का असर है कि जब भी उनकी ये ग़ज़ल सुनता हूँ हर शेर के साथ उनका मुलायमियत से कहा गया आज की रा...त बेसाख्ता होठों से निकल पड़ता है। अब जब जगजीत जी की इस ग़ज़ल का जिक्र आया है तो क्यूँ ना मजाज़ की लिखी इस ग़ज़ल के 17 तो नहीं पर चंद खूबसूरत अशआर से आपकी मुलाकात कराता चलूँ।


ग़ज़ल का मतला सुन कर ही दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं। आपके कंधे पर उनका सर हो तो इतना तो मान कर चलिए कि वो आपसे बेतक्कलुफ़ हो चुके हैं। कितना प्यारा अहसास जगाती  हैं ये पंक्तियाँ 

देखना जज़्बे मोहब्बत का असर आज की रात
मेरे शाने पे है उस शोख़ का सर आज की रात

अब इस घायल दिल को और क्या चाहिए देख तो लिया उन्होंने  आज एक अलग ही अंदाज़ में.. अब तो समझ ही नहीं आता देखूँ तो कहाँ देखूँ हर तरफ तो उनके हुस्न का जलवा है।

और क्या चाहिए अब ये दिले मजरूह तुझे
उसने देखा तो ब अंदाज़े दिगर आज की रात

नूर ही नूर है किस सिम्त उठाऊँ आँखें
हुस्न ही हुस्न है ता‍‌-हद्दे- नज़र आज की रात

अरे ये तो मेरी इन चंचल निगाहों का कमाल है जिसने उनके गालों को सुबह की लाली के समान सुर्ख कर दिया है।  गीत का माधुर्य और शराब का नशा मुझे मदहोश कर रहा है। मेरी मधुर रागिनी  का ही असर है जिसने उनकी आँखों में एक ख़ुमारी भर दी है।

आरिज़े गर्म पे वो रंग ए शफक़ की लहरें
वो मिरी शोख़‍‍-निगाही का असर आज की रात

नगमा-ओ-मै का ये तूफ़ान-ए-तरब क्या कहना
मेरा घर बन गया ख़ैयाम का घर आज की रात

नरगिस-ए-नाज़ में वो नींद का हलका सा ख़ुमार
वो मेरे नग़्म-ए-शीरीं का असर आज की रात

मेरी हर धड़कन पर उनकी नज़र है और मेरी हर बात पर उनका स्वीकारोक्ति में सर हिलाना इस रात को मेरे लिए ख़ास बना रहा है। ये उनकी मेहरबानी का ही जादू है कि आज मैं अपने दिल को पहले से ज्यादा प्रफुल्लित और हलका महसूस कर रहा हूँ

मेरी हर साँस पे वह उनकी तवज़्जह क्या खूब
मेरी हर बात पे वो जुंबिशे सर आज की रात

उनके अल्ताफ़ का इतना ही फ़ुसूँ काफी है
कम है पहले से बहुत दर्दे जिगर आज की रात

और चलते चलते इसी माहौल को कायम रखते हुए असग़र गोंडवी की ग़ज़ल के अशआर। गोंडा से ताल्लुक रखने वाले असग़र और मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी की पत्नियाँ आपस में बहनें थीं और कहते हैं कि जिगर असग़र को अपना उस्ताद मानते थे।  जगजीत जी ने इस ग़ज़ल को भी उसी संज़ीदगी से गाया है जिनकी वो हक़दार हैं


नज़र वो है कि कौन ओ मकाँ के पार हो जाए
मगर जब रूह ए ताबाँ पर पड़े बेकार हो जाए
(यानि आँखों का तेज़ ऐसा हो कि वो आसमाँ और जमीं की हदों को पार कर जाए पर जब किसी पवित्र आत्मा पर पड़े तो ख़ुद ब ख़ुद अपनी तीव्रता, अपनी चुभन खो दे।)

नज़र उस हुस्न पर ठहरे तो आखिर किस तरह ठहरे
कभी जो फूल बन जाए कभी रुखसार* हो जाए

चला जाता हूँ हँसता खेलता मौज़-ए-हवादिस** से
अगर आसानियाँ हों ज़िन्दगी दुशवार हो जाए

*चेहरा  ** खतरों की लहरों

कहकशाँ में गाई ग़ज़लों की ख़ासियत ये है कि वे चुने हुए शायरों की प्रतिनिधि रचनाएँ तो हैं ही साथ ही साथ ज्यादातर ग़ज़लों में जगजीत की आवाज़ ना के बराबर संगीत संयोजन के बीच कानों तक पहुँचती है। इसीलिए उन्हें बार बार सुनने को जी चाहता है। कहकशाँ में गाई जगजीत की ग़ज़लों का सिलसिला आगे भी चलता रहेगा...
एक शाम मेरे नाम पर जब जब गूँजी जगजीत की आवाज़
  1. धुन पहेली : पहचानिए जगजीत की गाई मशहूर ग़ज़लों के पहले की इन  धुनों को !
  2. क्या रहा जगजीत की गाई ग़ज़लों में 'ज़िंदगी' का फलसफ़ा ?
  3. जगजीत सिंह : वो याद आए जनाब बरसों में...
  4. Visions (विज़न्स) भाग I : एक कमी थी ताज महल में, हमने तेरी तस्वीर लगा दी !
  5. Visions (विज़न्स) भाग II :कौन आया रास्ते आईनेखाने हो गए?
  6. Forget Me Not (फॉरगेट मी नॉट) : जगजीत और जनाब कुँवर महेंद्र सिंह बेदी 'सहर' की शायरी
  7. जगजीत का आरंभिक दौर, The Unforgettable (दि अनफॉरगेटेबल्स) और अमीर मीनाई की वो यादगार ग़ज़ल ...
  8. जगजीत सिंह की दस यादगार नज़्में भाग 1
  9. जगजीत सिंह की दस यादगार नज़्में भाग 2
  10. अस्सी के दशक के आरंभिक एलबम्स..बातें Ecstasies , A Sound Affair, A Milestone और The Latest की
  11. अपने होठों पर सजाना चाहता हूँ...क़तील शिफ़ाई,
  12. आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है...सुदर्शन फ़ाकिर
  13. ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ? ... मज़ाज लखनवी
  14. क्या बतायें कि जां गई कैसे ? ...गुलज़ार
  15. ख़ुमार-ए-गम है महकती फिज़ा में जीते हैं...गुलज़ार
  16. 'चराग़-ओ-आफ़ताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी...सुदर्शन फ़ाकिर,
  17. परेशाँ रात सारी है सितारों तुम तो सो जाओ...क़तील शिफ़ाई,
  18. फूलों की तरह लब खोल कभी..गुलज़ार 
  19. बहुत दिनों की बात है शबाब पर बहार थी..., सलाम 'मछलीशेहरी',
  20. रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम... हसरत मोहानी
  21. शायद मैं ज़िन्दगी की सहर ले के आ गया...सुदर्शन फ़ाकिर
  22. सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं...क़तील शिफ़ाई, 
  23. हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चाँद...राही मासूम रज़ा 
  24. फूल खिला दे शाखों पर पेड़ों को फल दे मौला
  25. जाग के काटी सारी रैना, गुलज़ार
  26. समझते थे मगर फिर भी ना रखी दूरियाँ हमने...वाली असी

शनिवार, दिसंबर 09, 2006

मजाज़ लखनवी की जिंदगी का आईना 'आवारा' (भाग 2)

जनाब असरार उल हक उर्फ 'मजाज़ ' एक शायराना खानदान से ताल्लुक रखते थे।  उनकी बहन का निकाह जावेद अख्तर के पिता जानिसार अख्तर के साथ हुआ था । अपने शायराना सफर की शुरुआत सेंट जान्स कॉलेज में पढ़ते वक्त उन्होंने फनी बदायुनी की शागिर्दी में की थी । प्रेम मजाज की शायरी का केन्द्रबिन्दु रहा जो बाद में दर्द में बदल गया। जैसा कि स्पष्ट था कि मजाज़ को चाहने वालों की कभी कमी नहीं रही थी । पर प्रेम के खुले विकल्पों को छोड़ एक अमीर शादी शुदा स्त्री के इश्क ने उनकी जिंदगी में वो तूफान ला दिया जिस में वो डूबते उतराते ही रहे.... कभी उबर ना सके ।
 
मुन्तजिर* है एक तूफां -ए -बला मेरे लिये
अब भी जाने कितने दरवाजे हैं वा** मेरे लिये
पर मुसीबत है मेरा अहद -ए- वफा मेरे लिए
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
*इंतजार में,  ** खुला हुआ

जी में आता है कि अब अहद- ए -वफा* भी तोड़ दूँ
उन को पा सकता हूँ मैं ये आसरा भी छोड़ दूँ
हाँ मुनासिब है ये जंजीर -ए- हवा भी तोड़ दूँ
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
*वफा करने का वादा

क्या अजीब चीज है ये इश्क ! पास रहे तो सब खुशनुमा सा लगता है और दूर छिटक जाए तो चमकती चाँदनी देने वाला माहताब भी बनिये की किताब सा पीला दिखता है । रातें बीतती गईं। चाँद रोज रोज अपनी मनहूस शक्लें दिखलाता रहा । मजाज़ का दिल कातर और बेचैन ही रहा..और उन्होंने लिखा
 
इक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा*, जैसे बनिये की किताब
जैसे मुफलिस** की जवानी, जैसे बेवा का शबाब
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
* पगड़ी,  **गरीब
 
दिल में एक शोला भड़क उठा है आखिर क्या करूँ ?
मेरा पैमाना छलक उठा है आखिर क्या करूँ ?
जख्म सीने का महक उठा है आखिर क्या करूँ ?
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
जी में आता है कि चाँद तारे नोच लूँ
इस किनारे नोच लूँ , उस किनारे नोच लूँ
एक दो का जिक्र क्या, सारे के सारे नोच लूँ
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

मजाज़ को ऊँचे तबके के लोगों की महफिलों में उठने बैठने के कई अवसर मिले थे । अक्सर ऐसी महफिलों में अपने मनोरंजन के लिए मजाज को आमंत्रित किया जाता था । अमीरों के चरित्र का खोखलापन और आम जनता की गरीबी को उन्होंने करीब से देखा था । अन्य प्रगतिशील शायरों की तरह उनमें भी तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश था , जो आगे की इन पंक्तियों में साफ जाहिर होता है
 
मुफलिसी और ये मजाहिर हैं नजर के सामने
सैकड़ों चंगेज-ओ-नादिर हैं नजर के सामने
सैकड़ों सुल्तान जाबिर* हैं नजर के सामने
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
* अत्याचारी

ले के चंगेज के हाथों से खंजर तोड़ दूँ
ताज पर उस के दमकता है जो पत्थर तोड़ दूँ
कोई तोड़े या ना तोड़े मैं ही बढ़कर तोड़ दूँ
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
बढ़ के इस इन्दर सभा का साज-ओ-सामां फूँक दूँ
इस का गुलशन फूँक दूँ, उस का शबिस्ताँ* फूँक दूँ,
तख्त-ए-सुल्तान क्या मैं सारा कस्र-ए-सुल्तान** फूँक दूँ,
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?
* शयनगार,  **शाही महल

१९५४ में मजाज़ को दोबारा पागलपन का दौरा पड़ा । पागलपन के इस दौरे से बच तो निकले पर शराब से नाता नहीं टूट सका । उनके मित्र प्रकाश पंडित ने लिखा है कि अक्सर रईसों की महफिलों में उनके बुलावे आते। औरतें उनकी गजलियात और नज्में सुनतीं और साथ- साथ उन्हें खूब शराब पिलाई जाती । जब मजाज की साँसें उखड़ने लगतीं और मेजबान को लगता कि अब वो कुछ ना सुना सकेगा तो उन्हें ड्राइवर के हवाले कर किसी मैदान या रेलवे स्टेशन की बेंच पर छोड़ आया जाता था ।
 
मजाज़ की जिंदगी की आखिरी रात भी कुछ ऐसी ही थी । फर्क सिर्फ इतना रहा कि इस बार महफिल से शेरो शायरी का दौर तो खत्म हुआ पर मजाज को लखनऊ में दिसंबर की उस सर्द रात में लोगों ने छत पर ही छोड़ दिया । और अगली सुबह १५ दिसंबर १९५५ को दिमाग की नस फटने से वो इस दुनिया से कूच कर गए आज इस बात को गुजरे ५१ साल बीत चुके हैं पर आज भी कहकशाँ में जगजीत सिंह की आवाज में गर कोई इस नज्म को सुने तो मजाज के उस दर्द को महसूस कर सकता है ।

मजाज़ की जिंदगी उनकी दीवानगी, महकदे के चक्करों और बेपरवाही में गुजर गई । शायद उनके खुद कहे ये शेर उनके जीवन की सच्ची कहानी कहते हैं ।
कुछ तो होते हैं मोहब्बत में जुनूँ के आसार
और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं
हम महकदे की राह से होकर गुजर गए
वर्ना सफर हयात का बेहद तवील* था
*लम्बा
मेरी बर्बादियों के हमनशीनों
तुम्हें क्या मुझे भी गम नहीं है
*************************************
पुनःश्च :
इस लेख में जिक्र किए गए तथ्य प्रकाश पंडित और मराठी लेखक माधव मोहोलकर के संस्मरणों पर आधारित हैं ।१९५३ में आई फिल्म ठोकर में तलत महमूद साहब ने भी इस नज्म को अपनी आवाज दी है ।


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इस नज़्म का पिछला भाग आप इस पोस्ट में यहाँ पढ़ सकते हैं।

बुधवार, दिसंबर 06, 2006

मजाज़ 'लखनवी' की जिंदगी का आईना : 'आवारा '


मजाज़ लखनवी की ये नज्म आवारा उर्दू की बेहतरीन नज्मों में से एक मानी जाती है । यूँ तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले मजाज, प्रगतिशील शायरों में एक माने जाते थे, पर दिल्ली में अपना दिल खोने के बाद अपनी जिंदगी से वे इस कदर हताश हो गए कि शराब और शायरी के आलावा कहीं और अपना गम गलत नहीं कर सके ।
देखा जाए तो मजाज़ लखनवी की पूरी जिंदगी का दर्द इस नज्म के आईने में समा गया है । दिल्ली से वापस लखनऊ और फिर मुम्बई में किस्मत आजमाने आए मजाज का जख्म इतना हरा था कि उन्हें मुम्बई की चकाचौंध कहाँ से पसंद आती । सो उन्होंने लिखा

शहर की रात और मैं नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सड़कों पे आवारा फिरूँ
गैर की बस्ती है कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ ?
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

मुंबई की मेरीन ड्राइव का रात का सौंदर्य भला किससे छुपा है?
पर जब दिल में किसी की बेवफाई की चोट हो तो ये मोतियों सरीखी टिमटिमाती रोशनी भी सीने में तेज धार वाली तलवार की तरह लगती हैं? न उस वक्त चाँद की चाँदनी दिल को शीतलता पहुँचाती हे ना खूबसूरत सितारों से पटी आकाशगंगा ही दिल को सुकूं दे पाती है

झिलमिलाते कुमकुमों की राह में, जंजीर सी
रात के हाथों में दिन की, मोहनी तसवीर सी
मेरे सीने पर मगर ,दहकी हुई शमशीर सी
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

ये रूपहली छांव ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफी का तस्सवुर, जैसे आशिक का हाल
आह ! लेकिन कौन समझे कौन जाने दिल का हाल ?
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

दिल की हालत तो तकदीर की गिरफ्त में कैद है ! किसी के भाग्य में फुलझड़ियों की चमक है तो कहीं टूटे तारों की टीस भरी यादें..

फिर वो टूटा इक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने किसकी गोद में आये ये मोती की लड़ी
हूक सी सीने में उठी, चोट सी दिल पर लगी
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

मजाज का मन भटकता रहा कभी मयखाने में तो कभी हुस्न की मलिका की महफिल में . पर हर वक्त वो महफिलें भी कहाँ से मयस्सर होतीं ! अगर कोई चीज हमेशा मजाज के साथ रही तो सिर्फ अकेलापन, उदासी और रुसवाई ।

रात हँस-हँस कर ये कहती है कि मैखाने में चल
फिर किसी शहनाज-ए-लालारुख के काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

हर तरफ बिखरी हुई रंगीनियाँ रअनाईयाँ
हर कदम पर इशरतें लेतीं हुईं अंगड़ाईयाँ
बढ़ रहीं हैं गोद फैलाए हुए रुसवाईयाँ
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

मजाज पहले प्यार को ना पाने के गम में ऐसा टूटे कि अपना संतुलन खो बैठे । पर वो फिर से उपचार के बाद उबर सके । माता पिता ने सोचा उनकी शादी करा दी जाए। पर अब मजाज के बिगड़े मानसिक संतुलन की खबर फैल चुकी थी और उनकर लिये आए कई रिश्ते अंत-अंत में टूट गए । ये हुआ एक ऐसे शायर के साथ जिसके बारे में इस्मत चुगताई ने कहा था कि कॉलेज के जमाने में उनकी शायरी पर लड़कियाँ जान देती थीं । पर मजाज जिंदगी के इस अकेलेपन से लड़ते रहे। अपनी जिंदगी की कशमकश को किस बखूबी से उन्होंने इन पंक्तियों में उतारा है

रास्ते में रुक के दम ले लूँ, मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊँ, मेरी फितरत नहीं
और कोई हमनवां मिल जाये, ये किस्मत नहीं
ऐ गम-ए-दिल क्या करूँ ? ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ ?

मजाज की लाचारी और मायूसी इस नज्म की हर पंक्तियों में नुमायां हैं । अब मैं आप सब को अभी और उदास नहीं करूँगा । मजाज की कुछ और बातों के साथ अगली पोस्ट में पेश करूँगा इस नज्म का अगला हिस्सा !

जगजीत सिंह ने कहकशाँ एलबम में इस लंबी नज़्म के कुछ हिस्सों को अपनी जादुई आवाज़ से सँवारा है...


इस नज़्म का अगला भाग आप इस पोस्ट में यहाँ पढ़ सकते हैं।
 

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