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शुक्रवार, जुलाई 07, 2017

शाम: दो मनःस्थितियाँ - धर्मवीर भारती Shaam : Do Manahsthitiyan by Dharamvir Bharati

धर्मवीर भारती को किशोरावस्था तक अपनी प्रिय पत्रिका धर्मयुग का संपादक भर जानता रहा। गुनाहों का देवता और सूरज का सातवाँ घोड़ा तो बहुत बाद में ही पढ़ा। सूरज का सातवाँ घोड़ा पढ़ते हुए ही उनकी एक खूबसूरत कविता से भी रूबरू हुआ जो इसी नाम की एक फिल्म में गीत बन कर भी उभरी। गीत के बोल थे ये शामें सब की सब शामें क्या इनका कोई अर्थ नहीं.. 

शाम का पहर बड़ा अजीब सा है। दोस्तों का साथ रहे तो कितना जीवंत हो उठता है और अकेले हों तो कब अनायास ही मन में उदासी के बादल एकदम से छितरा जाएँ पता ही नहीं चलता। फिर तो हवा के झोकों के साथ अतीत की स्मृतियाँ मन को गीला करती ही रहती हैं। धर्मवीर भारती को भी लगता है शाम से बड़ा लगाव था। पर जब जब उन्होंने दिन के सबसे खूबसूरत पहर पर कविताएँ लिखीं उनमें ज़िंदगी से खोए लोगों का ही पता मिला। उनके ना होने की तड़प मिली।


अब भारती जी की इसी कविता को लीजिए मायूसी के इस माहौल में डूबी शाम में वो उम्मीद कर रहे हैं एक ऐसे अजनबी की जो शायद जीवन को नई दिशा दे जाए। पर वक़्त के साथ उनकी ये आस भी आस ही रह जाती है। अजनबी तो नहीं आते पर किसी के साथ बिताए वे पल की यादें पीड़ा बन कर रह रह उभरती है। 

कविता की अंतिम पंक्तियों में भारती जी जीवन का अमिट सत्य बयान कर जाते हैं। जीवन में कई लोग आते हैं जिनसे हमारा मन का रिश्ता जुड़ जाता है। उनके साथ बीता वक़्त मन को तृप्त कर जाता है। पर यही लगाव, प्रेम उनके जुदा होने से दिल में नासूर की तरह उभरता है। हमें विचलित कर देता है। शायद शाम के समय जब हम अपने सबसे ज्यादा करीब होते हैं हमारा दिल अपने बंद किवाड़ खोलता है और भारती  जी जैसा कवि हृदय तब कुछ ऐसा महसूस करता है...

 (1)

शाम है, मैं उदास हूँ शायद
अजनबी लोग अभी कुछ आएँ
देखिए अनछुए हुए सम्पुट
कौन मोती सहेजकर लाएँ
कौन जाने कि लौटती बेला
कौन-से तार कहाँ छू जाए!

बात कुछ और छेड़िए तब तक
हो दवा ताकि बेकली की भी
द्वार कुछ बन्द, कुछ खुला रखिए
ताकि आहट मिले गली की भी!

देखिए आज कौन आता है
कौन-सी बात नयी कह जाए
या कि बाहर से लौट जाता है
देहरी पर निशान रह जाए
देखिए ये लहर डुबोये, या
सिर्फ़ तटरेख छू के बह जाए!

कूल पर कुछ प्रवाल छूट जाएँ
या लहर सिर्फ़ फेनवाली हो
अधखिले फूल-सी विनत अंजुली
कौन जाने कि सिर्फ़ खाली हो?




(2)

वक़्त अब बीत गया बादल भी
क्या उदास रंग ले आए
देखिए कुछ हुई है आहट-सी
कौन है? तुम? चलो भले आए!

अजनबी लौट चुके द्वारे से
दर्द फिर लौटकर चले आए
क्या अजब है पुकारिए जितना
अजनबी कौन भला आता है
एक है दर्द वही अपना है
लौट हर बार चला आता है!

अनखिले गीत सब उसी के हैं
अनकही बात भी उसी की है
अनउगे दिन सब उसी के हैं
अनहुई रात भी उसी की है
जीत पहले-पहल मिली थी जो
आखिरी मात भी उसी की है!

एक-सा स्वाद छोड़ जाती है
ज़िन्दगी तृप्त भी व प्यासी भी
लोग आए गए बराबर हैं
शाम गहरा गई, उदासी भी! 


सम्पुट : दोनों हथेलियों को मिलाने और टेढ़ा करने से बना हुआ गड्ढा जिसमें भरकर कुछ दिया या लिया जाता है, प्रवाल : कोरल, कूल : किनारा


तो आइए सुनिए इस कविता के भावों तक पहुँचने की मेरी एक कोशिश..
 

रविवार, मई 17, 2009

ये शामें, सब की सब शामें क्या इनका कोई अर्थ नहीं धर्मवीर भारती / उदित नारायण

मनुष्य का मन बड़ा विचित्र है। कभी उत्साह से लबरेज़ तो कभी निराशा के भँवरों में अंदर तक धँसा हुआ। पर गनीमत यही की कोई भी मूड, कैफ़ियत हमेशा हमेशा के लिए नहीं रहती। इसलिए व्यक्ति कभी अपने चारों ओर हो रही अच्छी बुरी घटनाओं को निराशा और अवसाद के क्षणों में बिल्कुल ही बेमानी मान लेता है तो कभी जब उसका मन धनात्मक भावनाओं से ओत प्रोत रहता है तो अपने दुख अपनी पीड़ा भी उसे किसी बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भगवान द्वारा ली जा रही परीक्षा मान कर खुशी-खुशी वहन करता जाता है।

अपनी जिंदगी के अब तक के अनुभवों को देखता हूँ तो यही पाता हूँ कि जिन अंतरालों में वक़्त के थपेड़ों ने मुझे हताश किया है, असफलता और अस्वीकृति से सामना हुआ है, उस समय की पीड़ा और दुख भविष्य की चुनौतियों का सामना करने में मेरे लिए सहायक रहे हैं। धर्मवीर भारती की ये कविता मुझे कुछ ऐसी ही शामों के बारे में सोचने को मज़बूर करती है। और जब उन बीती शामों की पीड़ा और अकेलेपन का जिक्र करने के बाद भारती जी ये कहते हैं

ये शामें, सब की सब शामें ...
जाने क्यों कोई मुझसे कहता
मन में कुछ ऐसा भी रहता
जिसको छू लेने वाली हर पीड़ा
जीवन में फिर जाती व्यर्थ नहीं


तो लगता है उनकी लेखनी से मेरे दिल की बात निकल रही है। तो आइए भारती जी के साथ ढूँढते हैं उन बोझिल उदास शामों के मायने..


ये शामें, सब की शामें ...
जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया
जिनमें प्यासी सीपी-सा भटका विकल हिया
जाने किस आने वाले की प्रत्याशा में
ये शामें
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?

वे लमहे
वे सूनेपन के लमहे
जब मैनें अपनी परछाई से बातें की
दुख से वे सारी वीणाएँ फेकीं
जिनमें अब कोई भी स्वर न रहे
वे लमहे
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?

वे घड़ियाँ, वे बेहद भारी-भारी घड़ियाँ
जब मुझको फिर एहसास हुआ
अर्पित होने के अतिरिक्त कोई राह नहीं
जब मैंने झुककर फिर माथे से पंथ छुआ
फिर बीनी गत-पाग-नूपुर की मणियाँ
वे घड़ियाँ
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?

ये घड़ियां, ये शामें, ये लमहे
जो मन पर कोहरे से जमे रहे
निर्मित होने के क्रम में
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?

ये शामें, सब की सब शामें ...
जाने क्यों कोई मुझसे कहता
मन में कुछ ऐसा भी रहता
जिसको छू लेने वाली हर पीड़ा
जीवन में फिर जाती व्यर्थ नहीं
अर्पित है पूजा के फूलों-सा जिसका मन
अनजाने दुख कर जाता उसका परिमार्जन
अपने से बाहर की व्यापक सच्चाई को
नत-मस्तक होकर वह कर लेता सहज ग्रहण
वे सब बन जाते पूजा गीतों की कड़ियाँ
यह पीड़ा, यह कुण्ठा, ये शामें, ये घड़ियाँ

इनमें से क्या है
जिनका कोई अर्थ नहीं !
कुछ भी तो व्यर्थ नहीं !


धर्मवीर भारती जी की कविताओं को मैंने ज्यादा नहीं पढ़ा और इस कविता पर मेरी नज़र तब गई जब पिछली पोस्ट की पुस्तक चर्चा में सूरज का सातवाँ घोड़ा के बारे में लिख रहा था। जैसा कि आप सब को पता है इस किताब पर श्याम बेनेगल साहब ने एक फिल्म बनाई है। और नेट पर फिल्म की जानकारी ढूँढते हुए मुझे इस फिल्म के एक गीत की तारीफ सुनने को मिली और इस गीत की खोज में ये कविता पहले नज़र आई. बाद में जब गीत सुनने को मिला तो देखा कि ये गीत तो इस कविता से ही प्रेरित है।

इस गीत का संगीत दिया है वनराज भाटिया ने जो कुछ दिन पहले तक श्याम बेनेगल की फिल्मों के स्थायी संगीतकार रहे हैं। गीत के भावों के आलावा इस गीत में सबसे ज्यादा असरदार मुझे उदित नारायण के आवाज़ की मधुरता और उनका स्पष्ट उच्चारण लगता है। इस गीत में उनका साथ दिया है कविता कृष्णामूर्ति ने। राग यमन पर आधारित ये गीत कुछ और लंबा होता तो इसका आनंद और बढ़ जाता। पिछली पोस्ट में किताब के बारे में चर्चा करते हुए मैंने आपको बताया था इस उपन्यास के किरदारों के बारे में । ये गीत फिल्माया गया है माणिक मुल्ला (रजत कपूर) और उनकी प्रेमिका लिली (पल्लवी जोशी) के ऊपर।


ये शामें, सब की सब शामें ...
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
घबरा के तुम्हें जब याद किया
क्या उन शामों का अर्थ नहीं
क्या उन शामों का अर्थ नहीं

सूनेपन के इन लमहों में
अपनी छाया से बातें की
जिनमें कोई भी स्वर न रहे
दुख से वे वीणाएं फेकीं
ये भीगे पंक्षी से लमहे
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
ये शामें, सब की सब शामें ...

 

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