दो तीन हफ्तों से ब्लॉग पर चुप्पी छाई है तो वो इस वज़ह से कि इसी बीच कॉलोनी में घर भी बदलना पड़ा और फिर BSNL वालों से टेलीफोन का स्थानांतरण करवाना कोई आसान काम थोड़े ही है। चलिए फोन अगर शिफ्ट करवा भी लिया तो फिर इंटरनेट सेवा की बहाली करना भी कम मुश्किल नहीं?
सारा कुछ होते होते दो हफ्ते बीत गए और होली भी आ गई तो सोचा सही अवसर है अपने नए घर से पहली पोस्ट करने का। नया घर कॉलोनी के कोने में है। पिछवाड़े में ग्वालों की बस्ती है सो दस बजे के बाद से ही कॉलोनी के अंदर व बाहर हुड़दंग का माहौल है। जोगीया सा रा रा की तर्ज पर एक से एक होली गीत गाए जा रहे हैं। तो मौसम का मिज़ाज देखते हुए लगा कि आपको भी होली के रंग में रँगे कुछ दोहे सुना दिए जाएँ।
इन्हें लिखा है पंकज सुबीर जी ने जो एक ख्यातिप्राप्त साहित्यकार हैं और अपने उपन्यास ये वो सहर तो नहीं के लिए ज्ञानपीठ नवलेखन व अपने कथा संग्रह महुआ घटवारिन के लिए इन्दु शर्मा सम्मान से नवाज़े जा चुके हैं।
सारा कुछ होते होते दो हफ्ते बीत गए और होली भी आ गई तो सोचा सही अवसर है अपने नए घर से पहली पोस्ट करने का। नया घर कॉलोनी के कोने में है। पिछवाड़े में ग्वालों की बस्ती है सो दस बजे के बाद से ही कॉलोनी के अंदर व बाहर हुड़दंग का माहौल है। जोगीया सा रा रा की तर्ज पर एक से एक होली गीत गाए जा रहे हैं। तो मौसम का मिज़ाज देखते हुए लगा कि आपको भी होली के रंग में रँगे कुछ दोहे सुना दिए जाएँ।
इन्हें लिखा है पंकज सुबीर जी ने जो एक ख्यातिप्राप्त साहित्यकार हैं और अपने उपन्यास ये वो सहर तो नहीं के लिए ज्ञानपीठ नवलेखन व अपने कथा संग्रह महुआ घटवारिन के लिए इन्दु शर्मा सम्मान से नवाज़े जा चुके हैं।
ब्रज मंडल में आ गया, होली का त्यौहार ।।
सतरंगी सी देह पर, चूनर है पचरंग ।
तन में बजती बाँसुरी, मन में बजे मृदंग ।।
बिरहन को याद आ रहा, साजन का भुजपाश।
अगन लगाये देह में, बन में खिला पलाश ।।
जवाकुसुम के फूल से, डोरे पड़ गये नैन ।
सुर्खी है बतला रही, मनवा है बेचैन ।।
बरजोरी कर लिख गया, प्रीत रंग से छंद ।
ऊपर से रूठी दिखे, अंदर है आनंद ।।
आंखों में महुआ भरा, सांसों में मकरंद ।
साजन दोहे सा लगे, गोरी लगती छंद ।।
कस के डस के जीत ली, रँग रसिया ने रार ।
होली ही हिम्मत हुई, होली ही हथियार ।।
हो ली, हो ली, हो ही ली, होनी थी जो बात ।
हौले से हँसली हँसी, कल फागुन की रात ।।
केसरिया बालम लगा, हँस गोरी के अंग ।
गोरी तो केसर हुई, साँवरिया बेरंग ।।
देह गुलाबी कर गया, फागुन का उपहार ।
साँवरिया बेशर्म है, भली करे करतार ।।
साँवरिया रँगरेज ने, की रँगरेजी खूब ।
फागुन की रैना हुई, रँग में डूबम डूब।।
कंचन घट केशर घुली, चंदन डाली गंध ।
आ जाये जो साँवरा, हो जाये आनंद ।।
घर से निकली साँवरी, देख देख चहुँ ओर ।
चुपके रंग लगा गया, इक छैला बरजोर ।।
बरजोरी कान्हा करे, राधा भागी जाय ।
बृजमंडल में डोलता, फागुन है गन्नाय ।।
होरी में इत उत लगी, दो अधरन की छाप ।
सखियाँ छेड़ें घेर कर, किसका है ये पाप ।।
कैसो रँग डारो पिया, सगरी हो गई लाल ।
किस नदिया में धोऊँ अब, जाऊँ अब किस ताल ।।
फागुन है सर पर चढ़ा, तिस पर दूजी भाँग ।
उस पे ढोलक भी बजे, धिक धा धा, धिक ताँग ।।
हौले हौले रँग पिया, कोमल कोमल गात ।
काहे की जल्दी तुझे, दूर अभी परभात ।।
फगुआ की मस्ती चढ़ी, मनवा हुआ मलंग ।
तीन चीज़ हैं सूझतीं, रंग, भंग और चंग ।।
इन दोहों की मस्ती को अपनी आवाज़ देने की कोशिश की है यहाँ...
मेरी तरफ़ से एक शाम मेरे नाम के पाठकों को होली की रंगारंग शुभकामनाएँ !
