वार्षिक संगीतमाला 2009 की 16 वीं पॉयदान स्वागत कर रही है पिछले साल की एकमात्र फिल्मी ग़ज़ल का जो इस साल के मेरे पच्चीस मनपसंद गीतों में अपनी जगह बना सकी है। नंदिता दास द्वारा निर्देशित फिल्म फिराक़ की इस ग़ज़ल की रचना की है एक बार फिर गुलज़ार साहब ने। गुजरात के दंगों पर बनी इस गंभीर फिल्म के गीतों में जिस संवेदनशीलता की जरूरत थी उसे गुलज़ार ने बखूबी निभाया है।

अब आप ही बताइए दंगों से हैरान परेशान आदमी अपना कष्ट लिए प्रशासन के पास जाए और अगर उसे दुत्कार और प्रताड़ना के आलावा कुछ ना मिले तो वो क्या करेगा ? नाउम्मीद हो कर अपना दर्द मन में छुपाए मौन ही तो रह जाएगा ना। गुलज़ार ने इन भावनाओं को ग़ज़ल के मतले में शब्द देते हुए लिखा और क्या लाजवाब लिखा....
उम्मीद अब कहीं कोई दर खोलती नहीं
जलने के बाद शमा और बोलती नहीं
चारों ओर हिंसा और आगजनी से पसरे सन्नाटे को गुलज़ार ने अगले दो अशआरों में समेटने की कोशिश की है
जो साँस ले रही है हर तरफ़ वो मौत है
जो चल रही है सीने में वो जिंदगी नहीं
हर एक चीज जल रही है शहर में मगर
अँधेरा बढ़ रहा है कहीं रौशनी नहीं
जलने के बाद शमा और बोलती नहीं
उम्मीद अब कहीं कोई दर खोलती नहीं...
ये एक ऐसी ग़ज़ल है जो फिल्म की ही भांति हमें ये सोचने पर मजबूर करती है कि इंसान जब हैवानियत की चादर ओढ़ लेता है तो एक जीवंत शहर को लाशों और राख का ढेर बनते देर नहीं लगती।
इस ग़ज़ल का संगीत दिया है एक नवोदित संगीतकार जोड़ी पीयूष कनौजिया और रजत ढोलकिया ने । ये वही रज़त ढोलकिया हैं जिन्होंने पंचम के इंतकाल के बाद १९४२ ए लव स्टोरी का संगीत पूर्ण किया था। वे धारावी, होली और मिर्च मसाला जैसी लीक से हटकर बनाई गई फिल्म का संगीत भी दे चुके हैं। हाल फिलहाल में दिल्ली ६ में रहमान के साथ उनका नाम भी सह संगीत निर्देशक की हैसियत से था। चाहे मुखड़े के पहले की बात करे या अशआरों के बीच का फिलर हर जगह ग़ज़ल का संगीत मन में गहरी उदासी का रंग भरता नज़र आता है। रेखा भारद्वाज एक बार फिर अपनी उत्कृष्ट गायिकी द्वारा ग़ज़ल के मिज़ाज को हूबहू पकड़ने में सफल रही हैं।
तो अगर आपके पास कुछ फुर्सत के लमहे हों तो कोशिश कीजिए इस ग़ज़ल की भावनाओं में डूबने की...

अब आप ही बताइए दंगों से हैरान परेशान आदमी अपना कष्ट लिए प्रशासन के पास जाए और अगर उसे दुत्कार और प्रताड़ना के आलावा कुछ ना मिले तो वो क्या करेगा ? नाउम्मीद हो कर अपना दर्द मन में छुपाए मौन ही तो रह जाएगा ना। गुलज़ार ने इन भावनाओं को ग़ज़ल के मतले में शब्द देते हुए लिखा और क्या लाजवाब लिखा....
उम्मीद अब कहीं कोई दर खोलती नहीं
जलने के बाद शमा और बोलती नहीं
चारों ओर हिंसा और आगजनी से पसरे सन्नाटे को गुलज़ार ने अगले दो अशआरों में समेटने की कोशिश की है
जो साँस ले रही है हर तरफ़ वो मौत है
जो चल रही है सीने में वो जिंदगी नहीं
हर एक चीज जल रही है शहर में मगर
अँधेरा बढ़ रहा है कहीं रौशनी नहीं
जलने के बाद शमा और बोलती नहीं
उम्मीद अब कहीं कोई दर खोलती नहीं...
ये एक ऐसी ग़ज़ल है जो फिल्म की ही भांति हमें ये सोचने पर मजबूर करती है कि इंसान जब हैवानियत की चादर ओढ़ लेता है तो एक जीवंत शहर को लाशों और राख का ढेर बनते देर नहीं लगती।
इस ग़ज़ल का संगीत दिया है एक नवोदित संगीतकार जोड़ी पीयूष कनौजिया और रजत ढोलकिया ने । ये वही रज़त ढोलकिया हैं जिन्होंने पंचम के इंतकाल के बाद १९४२ ए लव स्टोरी का संगीत पूर्ण किया था। वे धारावी, होली और मिर्च मसाला जैसी लीक से हटकर बनाई गई फिल्म का संगीत भी दे चुके हैं। हाल फिलहाल में दिल्ली ६ में रहमान के साथ उनका नाम भी सह संगीत निर्देशक की हैसियत से था। चाहे मुखड़े के पहले की बात करे या अशआरों के बीच का फिलर हर जगह ग़ज़ल का संगीत मन में गहरी उदासी का रंग भरता नज़र आता है। रेखा भारद्वाज एक बार फिर अपनी उत्कृष्ट गायिकी द्वारा ग़ज़ल के मिज़ाज को हूबहू पकड़ने में सफल रही हैं।
तो अगर आपके पास कुछ फुर्सत के लमहे हों तो कोशिश कीजिए इस ग़ज़ल की भावनाओं में डूबने की...
