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गुरुवार, दिसंबर 05, 2013

कविताएँ बच्चन की चयन अमिताभ बच्चन का : बच्चन प्रेमियों के लिए एक अमूल्य पुस्तक !

पिछले हफ्ते हरिवंश राय बच्चन की कविताओं के इस संकलन को पढ़ा। इस संकलन की खास बात ये है कि इसमें संकलित सत्तर कविताओं का चयन अमिताभ बच्चन ने किया है। अमिताभ ने इस संकलन में अपने पिता द्वारा चार दशकों में लिखी गई पुस्तकों आकुल अंतर, निशा निमंत्रण, सतरंगिनी, आरती और अंगारे, अभिनव सोपान, मधुशाला, मेरी कविताओं की आधी सदी, मधुबाला, चार खेमे चौंसठ खूँटे, बहुत दिन बीते, दो चट्टानें , त्रिभंगिमा, मिलन यामिनी, जाल समेटा, एकांत संगीत और कटती प्रतिमाओं की आवाज़ में से अपनी पसंदीदा कविताएँ चुनी हैं।


अमिताभ के लिए उनके पिता की लिखी ये कविताएँ क्या मायने रखती हैं? अमिताभ इस प्रश्न का जवाब इस पुस्तक की भूमिका में कुछ यूँ देते हैं..
मैं यह नहीं कह सकता कि मुझे उनकी सभी कविताएँ पूरी तरह समझ आती हैं। पर यह जरूर है कि उस वातावरण में रहते रहते, उनकी कविताएँ बार बार सुनते सुनते उनकी जो धुने हैं, उनके जो बोल हैं वह अब जब पढ़ता हूँ तो बिना किसी कष्ट के ऐसा लगता है कि यह मैं सदियों से सुनता आ रहा हूँ, और मुझे उस कविता की धुन गाने या बोलने में कोई तकलीफ़ नहीं होती। मैंने कभी बैठकर उनकी कविताएँ रटी नहीं हैं। वह तो अपने आप मेरे अंदर से निकल पड़ती हैं।
ज़ाहिर है कि इस संकलन में वो कविताएँ भी शामिल हैं जिनसे शायद ही हिन्दी काव्य प्रेमी अनजान हो पर जिन्हें बार बार पढ़ने पर भी मन एक नई धनात्मक उर्जा से भर उठता है। जो बीत गई सो बात गई, है अँधेरी रात तो दीवा जलाना कब मना है, इस पार प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा, जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला.., नीड़ का निर्माण फिर फिर, मधुशाला की रुबाइयाँ, अग्निपथ व बुद्ध और नाचघर को ऐसी ही लोकप्रिय कविताओं की श्रेणी में रखा जा सकता है। पर इनके आलावा भी इस पुस्तक में आम बच्चन प्रेमियों के लिए उनकी उन रचनाओं का भी जखीरा है जिसे शायद आपने पहले ना पढ़ा हो और जिसका चुंबकीय आकर्षण उनके सस्वर पाठ करने पर आपको मजबूर करता है।

इस पुस्तक में शामिल बच्चन जी कुछ जानी अनजानी  रचनाओं को आज आपके सम्मुख लाने की कोशिश कर रहा हूँ जिनमें दर्शन भी है और प्रेम भी,एकाकीपन के स्वर हैं तो दिल में छुपी वेदना का ज्वालामुखी भी।

 (1)
मैनें चिड़िया से कहा, मैं तुम पर एक
कविता लिखना चाहता हूँ।
चिड़िया नें मुझ से पूछा, 'तुम्हारे शब्दों में
मेरे परों की रंगीनी है?'
मैंने कहा, 'नहीं'।
'तुम्हारे शब्दों में मेरे कंठ का संगीत है?'
'नहीं।'
'तुम्हारे शब्दों में मेरे डैने की उड़ान है?'
'नहीं।'
'जान है?'
'नहीं।'
'तब तुम मुझ पर कविता क्या लिखोगे?'
मैनें कहा, 'पर तुमसे मुझे प्यार है'
चिड़िया बोली, 'प्यार का शब्दों से क्या सरोकार है?'
एक अनुभव हुआ नया।
मैं मौन हो गया!


(2)
जानकर अनजान बन जा।

पूछ मत आराध्य कैसा,
जब कि पूजा-भाव उमड़ा;
मृत्तिका के पिंड से कह दे
कि तू भगवान बन जा।
जानकर अनजान बन जा।


आरती बनकर जला तू
पथ मिला, मिट्टी सिधारी,
कल्पना की वंचना से
सत्‍य से अज्ञान बन जा।
जानकर अनजान बन जा।


किंतु दिल की आग का
संसार में उपहास कब तक?
किंतु होना, हाय, अपने आप
हत विश्वास कब तक?
अग्नि को अंदर छिपाकर,
हे हृदय, पाषाण बन जा।
जानकर अनजान बन जा।

(3)
सन्नाटा वसुधा पर छाया,
नभ में हमनें कान लगाया,
फ़िर भी अगणित कंठो का यह राग नहीं हम सुन पाते हैं
कहते हैं तारे गाते हैं

स्वर्ग सुना करता यह गाना,
पृथ्वी ने तो बस यह जाना,
अगणित ओस-कणों में तारों के नीरव आँसू आते हैं
कहते हैं तारे गाते हैं

उपर देव तले मानवगण,
नभ में दोनों गायन-रोदन,
राग सदा उपर को उठता, आँसू नीचे झर जाते हैं
कहते हैं तारे गाते हैं


 (4)
कोई पार नदी के गाता!

भंग निशा की नीरवता कर,
इस देहाती गाने का स्वर,
ककड़ी के खेतों से उठकर, आता जमुना पर लहराता!
कोई पार नदी के गाता!

होंगे भाई-बंधु निकट ही,
कभी सोचते होंगे यह भी,
इस तट पर भी बैठा कोई, उसकी तानों से सुख पाता!
कोई पार नदी के गाता!

आज न जाने क्यों होता मन,
सुन कर यह एकाकी गायन,
सदा इसे मैं सुनता रहता, सदा इसे यह गाता जाता!
कोई पार नदी के गाता!

(5)
आज मुझसे बोल, बादल!

तम भरा तू, तम भरा मैं,
गम भरा तू, गम भरा मैं,
आज तू अपने हृदय से हृदय मेरा तोल, बादल!
आज मुझसे बोल, बादल!

आग तुझमें, आग मुझमें,
राग तुझमें, राग मुझमें,
आ मिलें हम आज अपने द्वार उर के खोल, बादल!
आज मुझसे बोल, बादल!

भेद यह मत देख दो पल--
क्षार जल मैं, तू मधुर जल,
व्यर्थ मेरे अश्रु, तेरी बूँद है अनमोल बादल!
आज मुझसे बोल, बादल

171 पृष्ठों की इस पुस्तक का सबसे रोचक पहलू है इसके साथ दिया गया परिशिष्ट जिसमें अमिताभ बच्चन ने बड़ी संवेदनशीलता से बाबूजी से जुड़ी अपने बचपन की स्मृतियों को पाठकों के साथ बाँटा है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित 180 रुपये मूल्य की ये पुस्तक बच्चन प्रेमियों के लिए अमूल्य धरोहर साबित होगी ऐसा मेरा मानना है।

बुधवार, अगस्त 07, 2013

हरिवंशराय बच्चन और सतरंगिनी : इसीलिए खडा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

हरिवंशराय बच्चन की लिखी अनेकानेक पुस्तकों में सतरंगिनी  (Satrangini) का मेरे दिल में विशेष स्थान है। स्कूल जीवन में बच्चन जी के व्यक्तित्व के प्रति पहला आकर्षण उनकी कविता जो बीत गई वो बात गई से पैदा हुआ। स्कूल की किताबों में प्रत्येक वर्ष किसी कवि की अमूमन एक ही रचना होती थी। इसलिए हर साल जब नई 'भाषा सरिता' हाथ में होती तो ये जरूर देख लेता था कि इसमें बच्चन और दिनकर की कोई कविता है या नहीं। कॉलेज के ज़माने में बच्चन जी की कविताओं से सामना होता रहा और उनकी लिखी पसंदीदा कविताओं की सूची में जो बीत गई के बाद, नीड़ का निर्माण फिर फिर, अँधेरे का दीपक और नई झनकार  शामिल हो गयीं। बाद में पता चला कि ये सारी कविताएँ उनके काव्य संकलन सतरंगिनी का हिस्सा थीं।

बाद में जब उनकी आत्मकथा पढ़ते हुए क्या करूँ संवेदना ले कर तुम्हारी से जुड़ी घटना को पढ़ा तो इन कविताओं को उनकी पहली पत्नी श्यामा के निधन और उनकी ज़िंदगी में तेजी के आगमन से जोड़ कर देख सका। हरिवंश राय बच्चन हमेशा अपने पाठकों से उनकी रचनाओं को उनके जीवन की परिस्थिति और मनःस्थिति के आलोक में समझने की अपेक्षा रखते रहे हैं। संतरंगिनी के चौथे संस्करण की शुरुआत में अपने पाठकों से ये विनम्र निवेदन करते हुए वे कहते हैं..

आप ‘सतरंगिनी’ पढ़ने के पूर्व ‘मधुशाला’, मधुबाला’, ‘मधु कलश’ और ‘निशा निमन्त्रण’, ‘एकान्त संगीत’, ‘आकुल अन्तर’ पढ़ लें; यदि आप अधिक सचेत पाठक हों तो मैं कहूँगा कि आप मेरी ‘प्रारम्भिक रचनाएँ’ और ‘खैयाम की मधुशाला’ भी पढ़ लें। रचना-क्रम में पढ़ने से रचयिता के विकास का आभास होता चलता है, साथ ही प्रत्येक रचना उसके बाद आने वाली रचना की पूर्वपीठिका बनती जाती है और उसे ठीक समझने में सहायक सिद्ध होती हैं; यों मैं जानता हूँ कि साधारण पाठक के मन में किसी लेखक की रचनाओं को किसी विशेष क्रम में पढ़ने का आग्रह नहीं होता। मान लीजिए, ‘सतरंगिनी’ मेरी पहली रचना है जो आपके हाथों में आती है, तो आपको यह कल्पना तो करनी ही होगी कि वह जीवन की किस स्थिति, किन मनःस्थिति में है जो ऐसी कविताएँ लिख रहा है। कविताओं की साधारण समझ-बूझ के लिए इससे अधिक आवश्यक नहीं, पर उनका मर्म वही हृदयंगम कर सकेगा जो पूर्व रचनाओं की अनुभूतियों को अपनी सहानुभूति देता हुआ आएगा।

सतरंगिनी में बच्चन साहब की कुल 49 कविताएँ और एक शीर्षक गीत है। इन 49 कविताओं को पुस्तक में सात अलग रंगों में बाँटा गया है और प्रत्येक रंग में उनकी सात रचनाओं का समावेश है। 


ख़ुद बच्चन साहब के शब्दों में सतरंगिनी तम भरे, ग़म भरे बादलों में इन्द्रधनुष रचने का प्रयास है। जिन कविताओं का मैंने ऊपर जिक्र किया है वे सभी उनके जीवन में तेजी जी के रूप में फूटी आशा की किरणों की अभिव्यक्ति मात्र हैं। पर बच्चन के अनुसार ये कोई सस्ता आशावाद नहीं , इसे अपने 'अश्रु स्वेद रक्त' का मूल्य चुकाकर प्राप्त किया गया है। आज की इस प्रविष्टि में सतरंगिनी की एक और आशावादी रचना आपको पढ़ाने और सुनाने जा रहा हूँ। सुनाना इस लिए की बच्चन की कविता को बोलकर पढ़ने से दिल में जो भावनाएँ उमड़ती घुमड़ती हैं उनकी अनुभूति इतनी आनंदमयी है कि मैं उसका रस लिए बिना कविता को आप तक नहीं पहुँचाना चाहता।



इसीलिए खडा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

जमीन है न बोलती न आसमान बोलता,
जहान देखकर मुझे नहीं जबान खोलता,
        नहीं जगह कहीं जहाँ न अजनबी गिना गया,
        कहाँ-कहाँ न फिर चुका दिमाग-दिल टटोलता,
कहाँ मनुष्य है कि जो उमीद छोडकर जिया,
इसीलिए खडा रहा कि तुम मुझे पुकार लो

इसीलिए खडा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

तिमिर - समुद्र कर सकी न पार नेत्र की तरी,
विनिष्ट स्वप्न से लदी, विषाद याद से भरी,
        न कूल भुमि का मिला, न कोर भोर की मिली,
        न कट सकी, न घट सकी विरह - घिरी विभावरी,
कहाँ मनुष्य है जिसे कमी खली न प्यार की,
इसीलिए खडा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

इसीलिए खडा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!

उजाड से लगा चुका उमीद मैं बहार की,
निदाघ से उमीद की बसंत के बयार की,
        मरुस्थली मरिचिका सुधामयी मुझे लगी,
        अंगार से लगा चुका उमीद मैं तुषार की,
कहाँ मनुष्य है जिसे न भूल शूल-सी गडी,
इसीलिए खडा रहा कि भूल तुम सुधार लो!

इसीलिए खडा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
पुकार लो दुलार लो, दुलार कर सुधार लो!

(निदाघ : ग्रीष्म लहरॆ लू , तिमिर : अंधकार, विषाद : दुख, शूल ‍: काँटा,  कूल : किनारा, विभावरी : रात,  तुषार : बर्फ, हिम)

इसीलिए जीवन में कभी उम्मीद ना छोड़िए, ना जाने कब कोई सदा आपको अकेलेपन के अंधकार से मुक्त कर जाए....

बुधवार, मई 01, 2013

जड़ की मुस्कान : हरिवंश राय बच्चन

ज़िंदगी की दौड़ में आगे भागने की ज़द्दोज़हद मे हमें कई सीढ़ियाँ पार करनी पड़ती हैं। हर सीढ़ी पर चढ़ने में नामालूम कितने जाने अनजाने चेहरों की मदद लेनी पड़ती है। पर जब हम शिखर पर पहुँचते हैं तो कई बार उन मजबूत हाथों और अवलंबों को भूल जाते हैं जिनके सहारे हमने सफलता की पॉयदानें चढ़ी थीं।

जाने माने कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपने काव्य संग्रह 'कटती प्रतिमाओं की आवाज़' में एक बेहद सहज पर दिल को छू लेने वाली कविता लिखी थी। देखिए इंसानों की इस प्रवृति को एक पेड़ के बिंब द्वारा कितनी खूबसूरती से उभारा है बच्चन साहब ने..
 

एक दिन तूने भी कहा था,
जड़?
जड़ तो जड़ ही है,
जीवन से सदा डरी रही है,
और यही है उसका सारा इतिहास
कि ज़मीन में मुँह गड़ाए पड़ी रही है,

लेकिल मैं ज़मीन से ऊपर उठा,
बाहर निकला, बढ़ा हूँ,
मज़बूत बना हूँ,
इसी से तो तना हूँ।


एक दिन डालों ने भी कहा था,
तना?
किस बात पर है तना?
जहाँ बिठाल दिया गया था वहीं पर है बना;
प्रगतिशील जगती में तील भर नहीं डोला है,
खाया है, मोटाया है, सहलाया चोला है;
लेकिन हम तने में फूटीं,
दिशा-दिशा में गयीं
ऊपर उठीं,
नीचे आयीं
हर हवा के लिए दोल बनी, लहरायीं,
इसी से तो डाल कहलायीं।


एक दिन पत्तियों ने भी कहा था,
डाल?
डाल में क्‍या है कमाल?
माना वह झूमी, झुकी, डोली है
ध्‍वनि-प्रधान दुनिया में
एक शब्‍द भी वह कभी बोली है?
लेकिन हम हर-हर स्‍वर करतीं हैं,
मर्मर स्‍वर मर्म भरा भरती हैं
नूतन हर वर्ष हुईं,
पतझर में झर
बाहर-फूट फिर छहरती हैं,
विथकित चित पंथी का
शाप-ताप हरती हैं।


एक दिन फूलों ने भी कहा था,
पत्तियाँ?
पत्तियों ने क्‍या किया?
संख्‍या के बल पर बस डालों को छाप लिया,
डालों के बल पर ही चल चपल रही हैं;
हवाओं के बल पर ही मचल रही हैं;
लेकिन हम अपने से खुले, खिले, फूले हैं-
रंग लिए, रस लिए, पराग लिए-
हमारी यश-गंध दूर-दूर  दूर फैली है,
भ्रमरों ने आकर हमारे गुन गाए हैं,
हम पर बौराए हैं।

सबकी सुन पाई है,
जड़ मुस्करायी है!


जड़ की इस मुस्कुराहट से जनाब राहत इंदौरी का ये शेर याद आता है।

ये अलग बात कि ख़ामोश खड़े रहते हैं
फिर भी जो लोग बड़े हैं वो बड़े रहते है

इस चिट्ठे पर हरिवंश राय 'बच्चन' से जुड़ी कुछ अन्य प्रविष्टियाँ


  •  जड़ की मुस्कान
  • मधुशाला के लेखक क्या खुद भी मदिराप्रेमी थे ?
  • रात आधी खींच कर मेरी हथेली एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने...
  • मैं हूँ उनके साथ खड़ी, जो सीधी रखते अपनी रीढ़ 
  • मधुशाला की चंद रुबाईयाँ हरिवंश राय बच्चन , अमिताभ और मन्ना डे के स्वर में...
  • एक कविता जिसने हरिवंश राय 'बच्चन' और तेजी बच्चन की जिंदगी का रास्ता ही बदल दिया !
  • गुरुवार, जुलाई 31, 2008

    एक कविता जिसने हरिवंश राय 'बच्चन' और तेजी बच्चन की जिंदगी का रास्ता ही बदल दिया



    अमूमन जब कवि कोई कविता लिखता है तो कोई घटना, कोई प्रसंग या फिर किसी व्यक्तित्व का ताना बाना जरूर उसके मानस पटल पर उभरता है। ये ताना बाना जरूरी नहीं कि हाल फिलहाल का हो। अतीत के अनुभव और आस पास होती घटनाएँ कई बार नए पुराने तारों को जोड़ जाती हैं और एक भावना प्रकट होती है जो एक कविता की शक्ल ले लेती है। पर कभी भूत में लिखी आपकी रचना, आप ही के भविष्य की राहों को भी बदल दे तो ? हो सकता है आप के साथ भी कुछ ऐसा हुआ हों।


    आज जिस प्रसंग का उल्लेख करने जा रहा हूँ वो एक बार फिर हरिवंश राय बच्चन जी के जीवन की उस संध्या से जुड़ा हुआ है जब श्यामा जी के देहांत के बाद वे एकाकी जीवन व्यतीत कर रहे थे और अपने एक मित्र प्रकाश के यहाँ बरेली पहुंचे थे। वहीं उनकी पहली मुलाकात मिस तेजी सूरी से हुई थी। अपनी आत्मकथा में मुलाकात की रात का जिक्र करते हुए बच्चन कहते हैं


    "........उस दिन ३१ दिसंबर की रात थी। रात में सबने ये इच्छा ज़ाहिर कि नया वर्ष मेरे काव्य पाठ से आरंभ हो। आधी रात बीत चुकी थी, मैंने केवल एक दो कविताएं सुनाने का वादा किया था। सबने क्या करूँ संवेदना ले कर तुम्हारी वाला गीत सुनना चाहा, जिसे मैं सुबह सुना चुका था. यह कविता मैंने बड़े सिनिकल मूड में लिखी थी। मैंने सुनाना आरंभ किया। एक पलंग पर मैं बैठा था, मेरे सामने प्रकाश बैठे थे और मिस तेजी सूरी उनके पीछे खड़ीं थीं कि गीत खत्म हो और वह अपने कमरे में चली जाएँ। गीत सुनाते सुनाते ना जाने मेरे स्वर में कहाँ से वेदना भर आई। जैसे ही मैंने उस नयन से बह सकी कब इस नयन की अश्रु-धारा पंक्ति पढ़ी कि देखता हूँ कि मिस सूरी की आँखें डबडबाती हैं और टप‍‍ टप उनके आँसू की बूंदे प्रकाश के कंधे पर गिर रही हैं। यह देककर मेरा कंठ भर आता है। मेरा गला रुँध जाता है। मेरे भी आँसू नहीं रुक रहे हैं। और जब मिस सूरी की आँखों से गंगा जमुना बह चली है और मेरे आँखों से जैसे सरस्वती। कुछ पता नहीं कब प्रकाश का परिवार कमरे से निकल गया और हम दोनों एक दूसरे से लिपटकर रोते रहे। आँसुओं से कितने कूल-किनारे टूट गिर गए, कितने बाँध ढह-बह गए, हम दोनों के कितने शाप-ताप धुल गए, कितना हम बरस-बरस कर हलके हुए हैं, कितना भींग-भींग कर भारी? कोई प्रेमी ही इस विरोध को समझेगा। कितना हमने एक दूसरे को पा लिया, कितना हम एक दूसरे में खो गए। हम क्या थे और आंसुओं के चश्मे में नहा कर क्या हो गए। हम पहले से बिलकुल बदल गए हैं पर पहले से एक दूसरे को ज्यादा पहचान रहे हैं। चौबीस घंटे पहले हमने इस कमरे में अजनबी की तरह प्रवेश किया और चौबीस घंटे बाद हम उसी कमरे से जीवन साथी पति पत्नी नहीं बनकर निकल रहे हैं. यह नव वर्ष का नव प्रभात है जिसका स्वागत करने को हम बाहर आए हैं। यह अचानक एक दूसरे के प्रति आकर्षित, एक दूसरे पर निछावर अथवा एक दूसरे के प्रति समर्पित होना आज भी विश्लेषित नहीं हो सका है। ......"

    तो देखा आपने कविता के चंद शब्द दो अजनबी मानवों को कितने पास ला सकते हैं। भावनाओं के सैलाब को उमड़ाने की ताकत रखते हैं वे। तो आइए देखें क्या थी वो पूरी कविता

    क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
    क्या करूँ?

    मैं दुखी जब-जब हुआ
    संवेदना तुमने दिखाई,
    मैं कृतज्ञ हुआ हमेशा,
    रीति दोनो ने निभाई,
    किन्तु इस आभार का अब
    हो उठा है बोझ भारी
    ;
    क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
    क्या करूँ?

    एक भी उच्छ्वास मेरा
    हो सका किस दिन तुम्हारा?
    उस नयन से बह सकी कब
    इस नयन की अश्रु-धारा?
    सत्य को मूंदे रहेगी
    शब्द की कब तक पिटारी?
    क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
    क्या करूँ?

    कौन है जो दूसरों को
    दु:ख अपना दे सकेगा?
    कौन है जो दूसरे से
    दु:ख उसका ले सकेगा?
    क्यों हमारे बीच धोखे
    का रहे व्यापार जारी?
    क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
    क्या करूँ?

    क्यों न हम लें मान, हम हैं
    चल रहे ऐसी डगर पर,
    हर पथिक जिस पर अकेला,
    दुख नहीं बंटते परस्पर,
    दूसरों की वेदना में
    वेदना जो है दिखाता,
    वेदना से मुक्ति का निज
    हर्ष केवल वह छिपाता;
    तुम दुखी हो तो सुखी मैं
    विश्व का अभिशाप भारी!
    क्या करूँ संवेदना लेकर तुम्हारी?
    क्या करूँ?

    क्या ये सच नहीं जब अपने दुख से हम खुद ही निबटने की असफल कोशिश कर रहे हों तो संवेदनाओं के शब्द, दिल को सुकून पहुँचाने के बजाए मात्र खोखले शब्द से महसूस होते हैं हर्ष की बात इतनी जरूर है कि बच्चन की ये दुखी करती कविता खुद उनके जीवन में एक नई रोशनी का संचार कर गई।


    वैसे ये बताएँ कि क्या आपके द्वारा लिखी कोई कविता ऍसी भी है जिसने आपके जीवन के मार्ग को एकदम से मोड़ दिया हो?

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  • मधुशाला की चंद रुबाईयाँ हरिवंश राय बच्चन , अमिताभ और मन्ना डे के स्वर में...
  • एक कविता जिसने हरिवंश राय 'बच्चन' और तेजी बच्चन की जिंदगी का रास्ता ही बदल दिया !
  • गुरुवार, जुलाई 24, 2008

    मैं हूँ उनके साथ खड़ी, जो सीधी रखते अपनी रीढ़ : सुनिए अमिताभ के स्वर में 'बच्चन' की ये प्रासंगिक कविता

    हरिवंशराय बच्चन की कविताएँ छुटपन से ही मन को लुभाती रही हैं। दरअसल भावों के साथ उनकी कविता में जो शब्दों का प्रवाह रहता है वो मेरे मन को हमेशा से बेहद रोमांचित करता है। उनकी कविता को बार-बार बोल कर दुहराने में जिस असीम आनंद की अनुभूति होती थी, उसकी कमी इस युग की अधिकांश कविताओं में हमेशा खटकती है। खैर , इससे पहले आपके सामने बच्चन जी की इस कविता को पेश करूँ क्या ये आप नहीं जानना चाहेंगे कि बच्चन जी ने अपनी पहली कविता कब लिखी और कविता लिखने का शौक उनमें कैसे पनपा?

    कायस्थ पाठशाला में बच्चन जी ने अपनी पहली पूरी हिंदी कविता लिखी, किसी अध्यापक के विदाअभिनंदन पर जब वे सातवीं में थे। अपनी आत्मकथा में बच्चन ने लिखा है
    ".....स्कूल में शिक्षक जब निबंध लिखाते तब कहते, अंत में कोई दोहा लिख देना चाहिए। विषय से सम्बन्ध दोहा याद ना होने पर मैं स्वयं कोई रचकर लगा देता था। इन्हीं दोहों से मेरे काव्य का उदगम हुआ। 'भारत भारती' से गुप्त जी की पद्यावली, 'सरस्वती' के पृष्ठों से पंत जी की कविता और 'मतवाला' के अंकों से निराला जी के मुक्त छंदों से मेरा परिचय हो चुका था। नवीं, दसवीं कक्षा में तो मैंने कविताओं से एक पूरी कापी भर डाली। पर मेरी ये कविताएँ इतनी निजी थीं कि जब मेरे एक साथी ने चोरी से उन्हें देख लिया तो मैंने गुस्से में पूरी कॉपी टुकड़े टुकड़े करके फेंक दी। मेरे घर से खेत तक कॉपी के टुकड़े गली में फैल गए थे, इसका चित्र मेरी आँखों के सामने अब भी ज्यों का त्यों है। कविताएँ मैंने आगे भी बिल्कुल अपनी और निजी बनाकर रखीं और मेरे कई साथी उनके साथ ताक झांक करने का प्रयत्न करते रहे।....."

    वक़्त के पहिए की चाल देखिए....एक बालक जो अपने सहपाठियों में अपनी कविताएँ दिखाते हिचकता था, ने ऍसी कृतियों की रचना की जिसे सारे भारत की हिंदी प्रेमी जनता पूरे प्रेम से रस ले लेकर पढ़ती रही।

    बच्चन की ये कविता हर उस स्वाभिमानी मनुष्य के दिल की बात कहती है जिसने अपने उसूलों के साथ समझौता करना नहीं सीखा। उनके सुपुत्र अमिताभ बच्चन ने एलबम बच्चन रिसाइट्स बच्चन (Bachchan Recites Bachchan) में बड़े मनोयोग से इस कविता को पढ़ा है। तो आइए सुनें अमित जी की आवाज़ में हरिवंश राय बच्चन जी की ये कविता....





    मैं हूँ उनके साथ,खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

    कभी नही जो तज सकते हैं, अपना न्यायोचित अधिकार
    कभी नही जो सह सकते हैं, शीश नवाकर अत्याचार
    एक अकेले हों, या उनके साथ खड़ी हो भारी भीड़
    मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

    निर्भय होकर घोषित करते, जो अपने उदगार विचार
    जिनकी जिह्वा पर होता है, उनके अंतर का अंगार
    नहीं जिन्हें, चुप कर सकती है, आतताइयों की शमशीर
    मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

    नहीं झुका करते जो दुनिया से करने को समझौता
    ऊँचे से ऊँचे सपनो को देते रहते जो न्योता
    दूर देखती जिनकी पैनी आँख, भविष्यत का तम चीर
    मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

    जो अपने कन्धों से पर्वत से बढ़ टक्कर लेते हैं
    पथ की बाधाओं को जिनके पाँव चुनौती देते हैं
    जिनको बाँध नही सकती है लोहे की बेड़ी जंजीर
    मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

    जो चलते हैं अपने छप्पर के ऊपर लूका धर कर
    हर जीत का सौदा करते जो प्राणों की बाजी पर
    कूद उदधि में नही पलट कर जो फिर ताका करते तीर
    मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

    जिनको यह अवकाश नही है, देखें कब तारे अनुकूल
    जिनको यह परवाह नहीं है कब तक भद्रा, कब दिक्शूल
    जिनके हाथों की चाबुक से चलती हें उनकी तकदीर
    मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

    तुम हो कौन, कहो जो मुझसे सही ग़लत पथ लो तो जान
    सोच सोच कर, पूछ पूछ कर बोलो, कब चलता तूफ़ान
    सत्पथ वह है, जिसपर अपनी छाती ताने जाते वीर
    मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़


    बच्चन की ये कविता सार्वकालिक है। आज जब हमारे समाज , हमारी राजनीति में नैतिक मूल्यों के ह्रास की प्रक्रिया निरंतर जारी है, जरूरत है हमारे नेताओं, प्रशासकों में अपने आत्म सम्मान को जगाने की, सही और गलत के बीच पहचान करने की। अगर वे इस मार्ग पर चलें तो देश की संपूर्ण जनता खुद ब खुद उनके पीछे खड़ी हो जाएगी।

    इस चिट्ठे पर हरिवंश राय 'बच्चन' से जुड़ी कुछ अन्य प्रविष्टियाँ

    शुक्रवार, सितंबर 28, 2007

    मधुशाला की चंद रुबाईयाँ हरिवंश राय बच्चन , अमिताभ और मन्ना डे के स्वर में...

    पिछली पोस्ट की टिप्पणी में पंडित नरेंद्र शर्मा की पुत्री लावण्या जी ने 'मधुशाला' की रचना से जुड़ी एक बेहद रोचक जानकारी बाँटी है। लावण्या जी लिखती हैं
    "......मधुशाला लिखने से पहले के समय की ओर चलें। श्यामा, डा.हरिवंश राय बच्चन जी की पहली पत्नी थीं जिसके देहांत के बाद कवि बच्चन जी बहुत दुखी और भग्न ह्र्दय के हो गये थे। तब इलाहाबाद के एक मकान में मेरे पापा जी के साथ कुछ समय बच्चन जी साथ रहे। तब तक बच्चन जी , ज्यादातर गद्य ही लिखते थे। पापा जी ने उन्हें "उमर खैयाम " की रुबाइयाँ " और फिट्ज़्जराल्ड, जो अँग्रेजी में इन्हीं रुबाइयों का सफल अनुवाद कर चुके थे, ये दो किताबें, बच्चन जी को भेंट कीं और आग्रह किया था कि
    "बंधु, अब आप पद्य लिखिए " और "मधुशाला " उसके बाद ही लिखी गई थी।........"

    'मधुशाला' की लोकप्रियता जैसे-जैसे बढ़ती गई हर कवि सम्मेलन में हरिवंश राय 'बच्चन' जी इसकी कुछ रुबाईयाँ सुनानी ही पड़तीं। मैंने सबसे पहले की कुछ रुबाईयाँ मन्ना डे की दिलकश आवाज़ में सुनी थी। उसी कैसेट में हरिवंश राय 'बच्चन' जी की आवाज में ये रुबाई सुनने का मौका मिला था। आप भी सुनें...



    मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवाला,
    'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
    अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
    'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।

    मन्ना डे की सधी आवाज़ में HMV पर रिकार्ड किया हुआ कैसेट तो आप सब सुन चुके ही होंगे। पर अमिताभ बच्चन की आवाज में 'मधुशाला' की पंक्तियाँ सुनने का आनंद अलग तरह का है। वो उसी लय में 'मधुशाला' पढ़ते हैं जैसे उनके पिताजी पढ़ते थे। और अमिताभ की आवाज़ तो है ही जबरदस्त। पीछे से बजती मीठी धुन भी मन में रम सी जाती है और बार-बार हाथ रिप्ले बटन पर दब जाते हैं। तो पहलें सुनें अमिताभ की आवाज में 'मधुशाला' की चंद रुबाईयाँ जो उन्होंने पिता के सम्मान में किए गए कवि सम्मेलन के दौरान सुनाईं थीं।




    अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,
    अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,
    फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उत्तर पाया -
    अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!

    एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
    एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
    दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
    दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।

    मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
    एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
    दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
    बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला ।

    यम आयेगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला,
    पी न होश में फिर आएगा सुरा-विसुध यह मतवाला,
    यह अंतिम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है,
    पथिक, प्यार से पीना इसको फिर न मिलेगी मधुशाला।

    मेरे अधरों पर हो अंतिम वस्तु न तुलसीदल प्याला
    मेरी जीह्वा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला,
    मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना
    राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।

    मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आँसू में हाला
    आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला,
    दे मुझको वो कांधा जिनके पग मद डगमग होते हों
    और जलूं उस ठौर जहाँ पर कभी रही हो मधुशाला।

    और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला
    कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,
    प्राणप्रिये यदि श्राद्ध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
    पीने वालों को बुलवा कर खुलवा देना मधुशाला।
    'मधुशाला' लिखने के बाद बच्चन जी ने कुछ रुबाईयाँ और लिखीं थी जिनमें से कुछ का जिक्र मैंने पिछली पोस्ट में किया था। वहीं अपनी टिप्पणी में संजीत ने जिस रुबाई का ज़िक्र किया है उसे सुनकर आँखें नम हो जाती हैं। बच्चन जी ने इसके बारे में खुद लिखा था...

    ".......जिस समय मैंने 'मधुशाला' लिखी थी, उस समय मेरे जीवन और काव्य के संसार में पुत्र और संतान का कोई भावना केंद्र नहीं था। अपनी तृष्णा की सीमा बताते हुए मृत्यु के पार गया, पर श्राद्ध तक ही

    प्राणप्रिये यदि श्राद्ध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
    पीने वालों को बुलवा कर खुलवा देना मधुशाला।

    जब स्मृति के आधार और आगे भी दिखलाई पड़े तो तृष्णा ने वहाँ तक भी अपना हाथ फैलाया और मैंने लिखा....

    पितृ पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
    बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
    किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
    तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला। .........."

    मन्ना डे ने बड़े भावपूर्ण अंदाज में इन पंक्तियों को अपना स्वर दिया है। सुनिए और आप भी संग गुनगुनाइए ....

    गुरुवार, सितंबर 27, 2007

    मधुशाला के लेखक हरिवंशराय 'बच्चन' क्या खुद भी मदिराप्रेमी थे ?

    स्कूल में जब भी हरिवंशराय बच्चन की कविताओं का जिक्र होता एक प्रश्न मन में उठता रहता कि जिस कवि ने मदिरालय और उसमें बहती हाला पर पूरी पुस्तक लिख डाली हो वो तो अवश्य निजी जीवन में धुरंधर पीने वाला रहा होगा।

    वैसे भी भला ऍसी रुबाईयों को पढ़कर हम और सोच भी क्या सकते थे?

    लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला,
    हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला,
    हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा,
    व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।







    संकोचवश ये प्रश्न कभी मैं अपने हिंदी शिक्षक से पूछ नहीं पाया। और ये जिज्ञासा, बहुत सालों तक जिज्ञासा ही रह गई....

    वर्षों बाद दीपावली में घर की सफाई के दौरान पिताजी की अलमारी से दीमकों के हमले का मुकाबला करता हुआ इसका १९७४ में पुनर्मुद्रित पॉकेट बुक संस्करण मिला। और मेरी खुशी का तब ठिकाना नहीं रहा जब पुस्तक के परिशिष्ट में हरिवंशराय बच्चन जी को खुद बड़े रोचक ढंग से इस प्रश्न की सफाई देता पढ़ा।

    तो लीजिए पढ़िए कि बच्चन जी का खुद क्या कहना था इस बारे में...

    "...........मधुशाला के बहुत से पाठक और श्रोता एक समय समझा करते थे, कुछ शायद अब भी समझते हों, कि इसका लेखक दिन रात मदिरा के नशे में चूर रहता है। वास्तविकता ये है कि 'मदिरा' नामधारी द्रव से मेरा परिचय अक्षरशः बरायनाम है। नशे से मैं इंकार नहीं करूँगा। जिंदगी ही इक नशा है। और भी बहुत से नशे हैं। अपने प्रेमियों का भ्रम दूर करने के लिए मैंने एक समय एक रुबाई लिखी थी


    स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,
    स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,
    पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,
    स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुँचा देता मधुशाला।


    फिर भी बराबर प्रश्न होते रहे, आप पीते नहीं तो आपको मदिरा पर लिखने की प्रेरणा कहां से मिलती है? प्रश्न भोला था , पर था ईमानदार। एक दिन ध्यान आया कि कायस्थों के कुल में जन्मा हूँ जो पीने के लिए प्रसिद्ध है, या थे। चन्द बरदाई के रासो का छप्पय याद भी आया। सोचने लगा, क्या पूर्वजों का किया हुआ मधुपान मुझपर कोई संस्कार ना छोड़ गया होगा! भोले भाले लोगों को बहलाने के लिए एक रुबाई लिखी

    मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,
    मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला,
    पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,
    मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।

    पर सच तो यह है कि हम लोग अमोढ़ा के कायस्थ हैं जो अपने आचार-विचार के कारण अमोढ़ा के पांडे कहलाते हैं, और जिनके यहाँ यह किवदंती है कि यदि कोई शराब पिएगा तो कोढ़ी हो जाएगा। यह भी नियति का एक व्यंग्य है कि जिन्होंने मदिरा ना पीने की इतनी कड़ी प्रतिज्ञा की थी, उनके ही एक वंशज ने मदिरा की इतनी वकालत की।................."

    बाद में जब पूरी पुस्तक पढ़ी तो लगा मदिरालय और हाला को प्रतीक बनाकर बच्चन ने जीवन के यथार्थ को कितने सहज शब्दों में व्यक्त किया है। अगली पोस्ट में चलेंगे मधुशाला की कुछ रुबाईयों के संगीतमय सफ़र पर...

    रविवार, मई 13, 2007

    रात आधी खींच कर मेरी हथेली : 'बच्चन' की कविता, अमिताभ का स्वर...

    कविता या गजल की अदायगी, उसमें कही हुई भावनाओं को श्रोता के दिल तक पहुँचाने में एक उत्प्रेरक का काम करती हैँ । पिताजी बताते हैं कि उनके जमाने में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हरिवंश राय बच्चन मंच से जब अपनी मधुशाला का काव्य पाठ करते, तो सब के सब मंत्रमुग्ध हो कर सुनते रहते । बच्चन को तो सुनने का सौभाग्य मुझे सिर्फ आडियो कैसेट में ही हुआ है। पर हाई स्कूल में जब पहली बार दूरदर्शन पर नीरज को पूरे भावावेश के साथ कविता पढ़ता देखा तो मन रोमांचित हो गया था ।

    वैसे वीर रस के कवियों के लिए तो ये अदाएगी, उनकी रोजी रोटी का सवाल है । पता नहीं आप लोगों ने कभी ऐसा महसूस किया कि नहीं पर जहाँ तक मेरा अनुभव है, जब भी इस कोटि के कवि मंच पर आते हैं तो पूरा सम्मेलन कक्ष उनकी आवाज से गुंजायमान हो जाता है और अगर तालियों के अतिरेक ने उनका उत्साह बढ़ा दिया तो आगे की दर्शक दीर्घा के श्रोताओं के लिए कान के पर्दों के फटने का भी खतरा मंडराता रहता है ।:)

    वैसे ये काबिलियत कितनी अहम है इसका अंदाजा आप इस पुरानी घटना से लगा सकते हैं। ये उस वक्त की बात है जब इन्दीवर के गीत फिल्मों में काफी मशहूर हो रहे थे।एक बार काफी पैसे देकर इन्दीवर को एक कवि सम्मेलन में आमंत्रित किया गया और जैसा कि अमूमन होता है उन्हें सबसे अंत में काव्य पाठ करने को बुलाया गया । उन्होंने अपने एक बेहद मशहूर गीत से शुरुआत करी पर उनकी अदायगी इतनी लचर थी कि जनता गीत के बीच से ही उठ कर अपने घर को पलायन कर गई और आयोजक अपने तुरुप के पत्ते का ऐसा हश्र होते देख सर धुनते रह गए ।

    पर बात शुरु की थी मैंने हरिवंश राय बच्चन से और आज उन्हीं की एक कविता आपके सामने उनके सुपुत्र अमिताभ बच्चन के स्वर में पेश कर रहा हूँ। ये कविता प्रेम और विरह की भावनाओं से लबरेज है । इतनी खूबसूरती से 'बच्चन जी' ने एक प्रेमी के दर्द को उभारा है कि क्या कहा जाए ! और जब आप इसे अमिताभ की गहरी आवाज में सुनते हैं तो उसका असर इस कदर होता है कि मन कवि की पंक्तियों को अपने दिल में आत्मसात सा पाता है ।

    <bgsound src="raataadhi.mp3">

    रात आधी खींच कर मेरी हथेली
    एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

    फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में
    और चारों ओर दुनिया सो रही थी।
    तारिकाऐं ही गगन की जानती हैं
    जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी।
    मैं तुम्हारे पास होकर दूर तुमसे
    अधजगा सा और अधसोया हुआ सा।
    रात आधी खींच कर मेरी हथेली
    एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

    एक बिजली छू गई सहसा जगा मैं
    कृष्णपक्षी चाँद निकला था गगन में।
    इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आँसू
    बह रहे थे इस नयन से उस नयन में।
    मैं लगा दूँ आग उस संसार में है प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ कातर...
    जानती हो उस समय क्या कर गुज़रने
    के लिए था कर दिया तैयार तुमने!

    रात आधी खींच कर मेरी हथेली
    एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

    प्रात ही की ओर को है रात चलती
    औ उजाले में अंधेरा डूब जाता।
    मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी
    खूबियों के साथ परदे को उठाता।
    एक चेहरा सा लगा तुमने लिया था
    और मैंने था उतारा एक चेहरा।
    वो निशा का स्वप्न मेरा था कि अपने पर
    ग़ज़ब का था किया अधिकार तुमने।

    रात आधी खींच कर मेरी हथेली
    एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

    और उतने फ़ासले पर आज तक
    सौ यत्न करके भी न आये फिर कभी हम।
    फिर न आया वक्त वैसा
    फिर न मौका उस तरह का
    फिर न लौटा चाँद निर्मम।
    और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ।
    क्या नहीं ये पंक्तियाँ खुद बोलती हैं?
    बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
    रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने।
    रात आधी खींच कर मेरी हथेली
    एक उंगली से लिखा था प्यार तुमने।

    - हरिवंशराय बच्चन
     

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