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बुधवार, मई 21, 2008

रात हमारी तो चाँद की सहेली है...!

क्या ये सच नहीं है कि अँधेरे को हम सब पीड़ा और अवसाद का प्रतीक मानते हैं ?

पर लोगों की बात मैं क्यूँ मानूँ ?

मेरी नज़रों ने तो कुछ और ही देखा है... कुछ और ही महसूस किया है...
ज़ेहन की वादियों से कभी उन लमहों को चुन कर देखें...
दिल जब कहीं भटक रहा हो निरुद्देश्य और दिशाविहीन..
अपने चारों ओर की दुनिया जब बेमानी लगने लगी हो ....
यहाँ तक की आप अपनी परछाई से, अपने साये से भी दूर भागने लगे हों .....
किसी से बात करने की इच्छा ना हो....


ऍसे हालात में अपना गम अपनी कुंठा ले के आप कहाँ जाएँगे..
सोचिए तो?
पर मुझे सोचने की जरूरत नहीं...
ऍसे समय मेरा हमदम, मेरा वो मित्र हमेशा से मेरे करीब रहा है..
अपनी विशाल गोद में काली चादर लपेटे आमंत्रित करता हुआ..

पहली बार इससे दोस्ती तब हुई थी जब मैंने किशोरावस्था में कदम रखा था। ये वो वक़्त था जब छुट्टी के दिनों में सात बजे के बाद घर की बॉलकोनी में मैं और मेरा दोस्त घंटों खोए रहते थे। जाने कैसी चुम्बकीय शक्ति थी मेरे इस सहचर में कि शाम से ही उसके आने का मैं बेसब्री से इंतजार करता फिरता।

कॉलेज के दिनों में ये दोस्ती और गहरी होती गई। फ़र्क सिर्फ इतना था कि हॉस्टल के उस बंद कमरे में घुप्प अँधेरे के साथ कोई और साथ हो आया था।

अरे ! अरे ! आप इसका कोई और मतलब ना निकाल लीजिएगा।

वो तीसरा कोई और नहीं..वो गीत और गज़लें थीं जिनके बोल उस माहौल में एक दम से जीवंत हो उठते थे।

कभी वे दिल को सुकून देते थे...
तो कभी आँखों की कोरों को पानी...


इसलिए २००५ में फिल्म परिणीता का ये गीत जब भी मैं सुनता हूँ तो लगता है कि अरे ये तो मेरा अपना गीत है..अपनी जिंदगी में जिया है इसके हर इक लफ़्ज़ को मैंने...
गीत शुरु होता है स्वान्द किरकिरे की गूँजती आवाज से.. पार्श्व में झींगुर स्वर रात के वातावरण को सुनने वाले के पास पहुँचा देता है। शान्तनु मोइत्रा का संगीत के रूप में घुँघरुओं की आवाज़ का प्रयोग लाजवाब है और फिर स्वानंद किरकिरे के शब्द चित्र और गायिका चित्रा का स्वर मन की कोरों को भिंगाने में ज्यादा समय नहीं लेता।

रतिया कारी कारी रतिया
रतिआ अँधियारी रतिया
रात हमारी तो चाँद की सहेली है
कितने दिनों के बाद आई वो अकेली है
चुप्पी की बिरहा है झींगुर का बाजे साज

रात हमारी तो चाँद की सहेली है
कितने दिनों के बाद आई वो अकेली है
संध्या की बाती भी कोई बुझा दे आज
अँधेरे से जी भर के करनी है बातें आज
अँधेरा रूठा है,अँधेरा ऐंठा है
गुमसुम सा कोने में बैठा है

अँधेरा पागल है, कितना घनेरा है
चुभता है डसता है, फिर भी वो मेरा है
उसकी ही गोदी में सर रख के सोना है
उसकी ही बाँहों में चुपके से रोना है
आँखों से काजल बन बहता अँधेरा

तो  सुनें रात्रि गीतों की श्रृंखला में परिणीता फिल्म का ये संवेदनशील नग्मा..



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(ये गीत २००५ की वार्षिक संगीतमाला जो उस वक्त मेरे रोमन हिंदी चिट्ठे पर चला करती थी का सरताज गीत था और ये प्रविष्टि भी तभी लिखी गई थी।)

बुधवार, फ़रवरी 21, 2007

वार्षिक गीतमाला पायदान # 4: रात, नींद, ख्वाब और गुलजार !

देवियों और सज्जनों, एक बार फिर आपका ये सीरियल मेकर :) हाजिर है अपनी इस गीतमाला के चौथे नंबर के गीत को लेकर । अगर आपकी शिकायत ये है कि इस गीतमाला की रफ्तार इन दिनों पैसेंजर की माफिक क्यूँ हो गई है तो उसका जवाब यही है कि पिछले १२ दिनों में मैं सिर्फ तीन दिन ही घर पर बिता पाया हूँ और आगे भी हालात कुछ ऐसे ही नजर आ रहे हैं। खैर, इस बार हम लौटे हैं कानपुर की निम्मी -निम्मी ठंड का मजा लेते हुए । नींद, ख्वाब और रात के बारे में मैं सोचूँ तो अभी तो मुझे सफर में अपने डिब्बे की थोड़ी सी खुली खिड़की से आती सर्द हवा की याद आती है जिसने हमारी कच्ची नींद में जब तब सेंध लगाई ,पर गुलजार की रात में जागती आँखें तो कोई और फसाना बयां करती हैं ।

आखिर कौन है इन जागती आँखों का कुसूरवार?

अरे वही मुए ख्वाब जो उनकी नींद के साथ एक अर्से से कबड्डी खेलते आए हैं। याद है आपको घर फिल्म का किशोर दा का गाया वो गीत जिसने हॉस्टल के बन्द कमरे में हमारी कितनी ही रातों की नींद चुराई थीं ।

फिर वही रात है...
फिर वही रात है, ख्वाबों की
रात भर ख्वाब में, देखा करेंगे तुम्हें...
मासूम सी नींद में, जब कोई सपना चले
हमको बुला लेना तुम पलकों के पर्दे तले
ये रात है ख्वाब की, ख्वाब की रात है...


और फिर इंतजार की उन घड़ियों को गिनती ( फिल्म -खामोशी) की पुकार तो कभी मंद नहीं पड़ी..

ख्वाब चुन रही है रात बेकरार है, तुम्हारा इंतजार है....पुकार लो..!

या फिर जीवा में आशा जी का गाया ये गीत हो

रोज-रोज आँखों तले, एक ही सपना चले
रात भर काजल जले, आँख मे जिस तरह
ख्वाब का दीया जले...


नींद..रात ..ख्वाब..चाँद गुलजार के प्रिय विषय रहे हैं। शायद ये उनकी निजी जिंदगी में भी कुछ खास मायने रखते हों । यही वजह है कि इन शब्दों को पिरोकर निकला उनका हर गीत एक नए आयाम देता प्रतीत हुआ है । चौथी पायदान की ये छोटी सी नज्म इन शब्दों को जोड़ती हुई दिल को करीब से छूते हुए गुजर जाती हैं । गुरु फिल्म में इस नज्म की आरंभिक चार पंक्तियों का प्रयोग हुआ है क्योंकि वो कथानक पर दुरुस्त बैठती हैं।

जागे हैं देर तक हमें कुछ देर सोने दो
थोड़ी सी रात और है सुबह तो होने दो
आधे अधूरे ख्वाब जो पूरे ना हो सके
इक बार फिर से नींद में वो ख्वाब बोने दो

और अगर कोई ख्बाब देखते-देखते आपकी नींद टूट जाए तो भी हिम्मत ना हारें क्योंकि

इक ख्वाब टूट जाने का अहसास ही तो है
थोड़ी सी रात और सहर पास ही तो है !


गुरु की इस नज्म को अपना स्वर दिया है के. एस. चित्रा और ए.आर. रहमान ने । वैसे रहमान ने किसी दूसरे गायक को मौका दिया होता तो नतीजा और बेहतर होता ।

 

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