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शनिवार, जून 12, 2021

आँसू समझ के क्यूँ मुझे आँख से तूने गिरा दिया : तलत महमूद / राहुल देशपांडे

कई बार आपने देखा होगा कि कुछ गीत अगर बिना किसी संगीत संयोजन के गाए जाएँ तो उनकी धुन की मिठास को आप बड़ी गहराई तक महसूस कर सकते हैं।  मुझे आज ऐसा ही एक गीत याद आ रहा है फिल्म छाया (1961) का जो कि गीत देखते वक़्त सलिल दा के आर्केस्ट्रा के बीच कहीं खोता सा महसूस हुआ था। वैसे तो छाया का नाम लेते ही आपको उस फिल्म का सबसे चर्चित गीत इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा.. याद आ गया होगा पर आज मैं उसकी बात नहीं कर रहा हूँ  बल्कि उसी फिल्म के एक उदास नग्मे की याद दिला रहा हूँ जिसे तलत महमूद ने गाया था।

राहुल देशपांडे व तलत महमूद

उस ज़माने में प्रेम पर आधारित फिल्मों में ड्रामा अमीरी गरीबी से ही पैदा होता था। या तो नायक धनवान होता था या फिर नायिका बड़े बाप की बेटी होती थी। थोड़ी बहुत इधर उधर की ट्विस्ट के साथ फिल्में बन जाया करती थीं।इस फार्मूले वाली छाया भी अमीर नायिका व गरीब नायक की प्रेम कहानी थी। ये गीत भी कुछ ऐसी ही परिस्थिति में फिल्म में आता है। नायक सुनील दत्त के प्यार की रुसवाई होती है और वो अपना टूटा सा दिल कर भरी महफिल में नायिका के सामने अपना ग़म गलत करने आ जाते हैं। 

राजेंद्र कृष्ण ने बेहतरीन मुखड़ा लिखा था इस गीत का आँसू समझ के क्यूँ मुझे आँख से तूने गिरा दिया.... मोती किसी के प्यार का मिट्टी में क्यूँ मिला दिया। सहज शब्दों में लिखे गए गीत के अंतरे भी प्यारे थे। पर कमाल उस धुन का भी था जिसकी बदौलत गीत का दर्द  हृदय में घुलता चला जाता था। 

कुछ दिन पहले मैंने इसी गीत को शास्त्रीय गायक राहुल देशपांडे को की बोर्ड की हल्की टुनटुनाहट के साथ गाते सुना और मन कहीं और ही खो गया। आजकल ऐसी प्रस्तुति को नाममात्र के संगीत की वज़ह से Unplugged Versions का नाम देने का चलन है। राहुल यूँ तो अपने शास्त्रीय गायन के लिए जाने जाते हैं पर जब तब वो फिल्मी गीतों को भी अपनी आवाज़ से सँवारते रहते हैं। उनकी आवाज़ को सुन कर लगता है मानो युवा येसुदास को सुन रहे हों। ज़ाहिर है कि राहुल येसुदास जी के बड़े प्रशंसक हैं। 

इस गीत के बारे में वो कहते हैं कि इसे गाने की इच्छा वर्षों से थी और आज से करीब बीस साल पहले उन्होंने इस गीत को किसी कार्यक्रम में गाया था। उस वक्त वे तलत साहब के गाने अक्सर सुना करते थे और जिस तरह वो आपनी आवाज़ के कंपन का इस्तेमाल अपने गीतों में करते थे उससे राहुल बेहद प्रभावित रहे। ये गीत उन सबमें राहुल का प्रिय रहा क्यूँकि एक तो ये उनके प्रिय राग यमन पर आधारित था और दूसरे इस गीत में जो मेलोडी है वो उदासी का भाव भरते हुए भी मन को एक सुकून भी देती है जो कि आजकल के गीतों में कम ही दिखाई देता है। 


आँसू समझ के क्यूँ मुझे आँख से तूने गिरा दिया
मोती किसी के प्यार का मिट्टी में क्यूँ मिला दिया

आँसू समझ के क्यों मुझे

जो ना चमन में खिल सका मैं वो गरीब फूल हूँ
जो कुछ भी हूँ बहार की छोटी सी एक भूल हूँ
जिस ने खिला के खुद मुझे, खुद ही मुझे भुला दिया
आँसू समझ के क्यूँ मुझे

मेरी ख़ता मुआफ़ मैं भूले से आ गया यहाँ
वरना मुझे भी है खबर मेरा नहीं है ये जहाँ
डूब चला था नींद में अच्छा किया जगा दिया
आँसू समझ के क्यूँ मुझे

तो आइए सुनते हैं इस गीत को राहुल की आवाज़ में। गीत के उन्होने सिर्फ दो अंतरे ही गाए हैं पर पूरे दिल से गाए हैं । राहुल देशपांडे के गाये इस गीत को सुनने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें


वैसे भी साठ के दशक की शुरुआत में प्रदर्शित इस फिल्म के अच्छी गुणवत्ता वाले वीडियोज़ नेट पर उपलब्ध नहीं है पर एक ठीक ठाक आडियो मिला जिसमें तलत जी का गाया पूरा गीत है इस तीसरे अंतरे के साथ।

नग़्मा हूँ कब मगर मुझे अपने पे कोई नाज़ था 
गाया गया हूँ जिस पे मैं टूटा हुआ वो साज़ था
जिस ने सुना वो हँस दिया, हँस के मुझे रुला दिया
आँसू समझ के क्योँ मुझे ... 

बुधवार, मई 23, 2018

इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा : जब मोत्सार्ट का रंग चढ़ा सलिल चौधरी पर Itna na mujhse tu pyar badha

सलिल चौधरी के गीतों के बारे में लिखते हुए पहले भी मैं आपको बता चुका हूँ कि कैसे उनका बचपन अपने डाक्टर पिता के साथ रहते हुए असम के चाय बागान में बीता। पिता संगीत के रसिया थे। उनके एक आयरिश मित्र थे जो वहाँ से जाते समय अपना सारा पश्चिमी शास्त्रीय संगीत का खजाना सलिल दा के पिता को दे गए थे।  उनके संग्रह से ही सलिल को मोत्सार्ट, शोपिन, बीथोवन जैसे पश्चिमी संगीतकारों की कृतियाँ हाथ लगी थीं।

सलिल के गीतों की खास बात ये थी कि उनकी मधुरता लोक संगीत और भारतीय रागों से बहकर निकलती थी पर जो मुखड़े या इंटरल्यूड्स में वाद्य यंत्रों का संयोजन होता था वो पश्चिमी संगीत से प्रभावित रहता था । उन्होंने अपने कई गीतों में मोत्सार्ट (Mozart)) से लेकर शोपिन (Chopin) की धुन से प्रेरणा ली। आज के संगीतकार भी कई बार ऐसा करते हैं पर अपने आप को किसी धुन से प्रेरित होने की बात स्वीकारने में झिझकते हैं। आज के इस इंटरनेट युग में सलिल दा को अपने इस मोत्सार्ट प्रेम पर कुछ मुश्किल सवालों के जवाब जरूर देने पड़ते पर सलिल दा ने अपने संगीत में मोत्सार्ट के प्रभाव को कभी नहीं नकारा। वो तो अपने आप को फिर से पैदा हुआ मोत्सार्ट ही कहते थे।

आज उनके ऐसे ही एक गीत की बात आप को बताना चाहता हूँ जिसे लिखा था राजेंद्र कृष्ण ने। ये युगल गीत था फिल्म छाया से जो वर्ष 1961 में प्रदर्शित हुई थी। गीत के बोल थे इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा..सलिल दा ने इस गीत के मुखड़े की धुन मोत्सार्ट सिम्फोनी 40 G Minor 550 से हूबहू इस्तेमाल की थी। खुद मोत्सार्ट ने इस सिम्फोनी को वर्ष 1788 में विकसित किया था। मोत्सार्ट की इस मूल धुन को  पहले पियानो और फिर छाया फिल्म के इस युगल गीत में सुनिए। समानता साफ दिखेगी।


इस गीत को आवाज़े दी थीं तलत महमूद और लता मंगेशकर ने। युगल गीत को गीतकार राजेंद्र कृष्ण ने एक सवाल जवाब की शक्ल में ढाला था। बिम्ब भी बड़े खूबसूरत चुने थे उन्होंने नायक नायिका के लिए। जहाँ नायक अपने आप को आवारा बादल बताता है तो वहीं नायिका बादल के अंदर छिपी जलधारा में अपनी साम्यता ढूँढती है। इस गीत को फिल्माया गया था आशा पारिख और सुनील दत्त की जोड़ी पर।

इतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा, कि मैं इक बादल आवारा
कैसे किसी का सहारा बनूँ, कि मैं खुद बेघर बेचारा

इस लिये तुझसे प्यार करूँ, कि तू एक बादल आवारा
जनम-जनम से हूँ साथ तेरे, कि नाम मेरा जल की धारा

मुझे एक जगह आराम नहीं, रुक जाना मेरा काम नहीं
मेरा साथ कहाँ तक दोगी तुम, मै देश विदेश का बंजारा

ओ नील गगन के दीवाने, तू प्यार न मेरा पहचाने
मैं तब तक साथ चलूँ तेरे, जब तक न कहे तू मैं हारा

क्यूँ प्यार में तू नादान बने, इक बादल का अरमान बने
अब लौट के जाना मुश्किल है मैंने छोड़ दिया है जग सारा



वैसे राजेंद्र कृष्ण ने इसी गीत का दूसरा दुखभरा रूप भी गढा था जिसे तलद महदूद ने एकल रूप में गाया था। अगर गीत के रूप में उनकी आवारा बादल और उसमें से बरसती जलधारा की कल्पना अनुपम थी तो दूसरे रूप में ठोकर खाए दिल की अंदरुनी तड़प बखूबी उभरी थी..

अरमान था गुलशन पर बरसूँ, एक शोख के दामन पर बरसूँ
अफ़सोस जली मिट्टी पे मुझे, तक़दीर ने मेरी दे मारा

मदहोश हमेशा रहता हूँ, खामोश हूँ कब कुछ कहता हूँ
कोई क्या जाने मेरे सीने में, है बिजली का भी अंगारा

इतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा, कि मैं इक बादल आवारा
कैसे किसी का सहारा बनूँ, कि मैं खुद बेघर बेचारा


बुधवार, अक्टूबर 07, 2009

कोई शिक़वा भी नहीं.... और तुम्हें हम से वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं

प्यार भी एक अजीब सी फ़ितरत है। पहले तो किसी का दिल जीतने के लिए मशक्क़त कीजिए । और अगर वो मिल गया तो भी चैन कहाँ है जनाब ! उसे खोने का डर भी तो साथ चला आता है। और तो और परिस्थितियाँ बदलती रहें तो भी हमारे साथी की हमसे उम्मीद रहती है कि प्यार की तपिश बनी रहे। और गर आप साथी के खयालतों की सुध लेने से चूके तो फिर ये उलाहना मिलते देर नहीं कि तुम्हें हम से वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं !

पर ये भी है कि बिना शिक़वे, शिकायतों और मनुहारों जैसे टॉनिकों के प्रेम का रंग फीका रह जाता है। इसलिए रिश्तों की खामोशी भी मन में शक़ और बेचैनी पैदा कर देती है । ऐसी ही कुछ शिकायतें लिए एक प्यारा सा नग्मा आया था १९६६ में प्रदर्शित फिल्म 'नींद हमारी ख़्वाब तुम्हारे' में। रूमानियत में डूबे इस गीत को लिखा था राजेंद्र कृष्ण साहब ने और इस गीत की धुन बनाई थी मदन मोहन ने। गीतकार राजेंद्र के बोलों में वो कशिश थी कि कितने भी नाराज़ हमराही की मुस्कान को वापस लौटा लाए। बस जरूरत थी एक मधुर धुन और माधुर्य भरी आवाज़ की। और इस जरूरत को भली भांति पूरा किया मदनमोहन और आशा ताई की जोड़ी ने..

ये गीत वैसे गीतों में शुमार होता है जो बिना किसी वाद्य यंत्र के भी सुने जाएँ तो भी दिल को छूते से जाते हैं.. तो अगर आप भी शिकायती मूड में हैं तो बस अपने मीत के पास जाकर यही गीत गुनगुना दीजिए ना..



कोई शिक़वा भी नहीं, कोई शिकायत भी नहीं
और तुम्हें हम से वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं
कोई शिक़वा भी नहीं....

ये खामोशी, ये निगाहों में उदासी क्यूँ है?
पा के सब कुछ भी मोहब्बत अभी प्यासी क्यूँ है?
राज- ए- दिल हम भी सुनें इतनी इनायत भी नहीं
और तुम्हें हम से वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं
कोई शिक़वा भी नहीं....

प्यार के वादे वफ़ा होने के दिन आए हैं
ये ना समझाओ खफ़ा होने के दिन आए हैं
रूठ जाओगे तो कुछ दूर क़यामत भी नहीं
और तुम्हें हम से वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं
कोई शिक़वा भी नहीं....

हम वही अपनी वफ़ा अपनी मोहब्बत है वही
तुम जहाँ बैठ गए अपनी तो जन्नत है वही
और दुनिया में किसी चीज की चाहत भी नहीं
और तुम्हें हम से वो पहली सी मोहब्बत भी नहीं
कोई शिक़वा भी नहीं....


 

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