साठ के दशक में एक फिल्म आयी थी नौनिहाल। संगीतकार थे मदनमोहन। इस फिल्म के सारे गीत कैफ़ी आज़मी ने लिखे थे। आज भी कैफ़ी आज़मी की पहचान गीतकार के बजाए एक शायर के रूप में ज्यादा है। पर काग़ज़ के फूल से ले कर अर्थ तक जितनी भी फिल्मों में कैफ़ी साहब ने लिखा, उनका काम सराहा गया। लोग उनकी तुलना साहिर से करते हैं। साहिर और कैफ़ी दोनों ही कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित थे। जहाँ साहिर ने फिल्मी गीतों में भी अपनी राजनीतिक सोच को व्यक्त किया वहीं कैफ़ी अपनी विचारधारा को अपनी शायरी की जुबान बनाते रहे पर फिल्मी गीतों में अपने लेखन को उन्होंने इस सोच से परे रखा। इससे पहले कि मैं आपसे नौनिहाल की इस ग़ज़ल की चर्चा करूँ, कैफ़ी साहब की ज़िंदगी से जुड़ा एक वाक़या आपसे बाँटना चाहूँगा।
एक इंसान.शायर कैसे बनता है ये हर काव्य प्रेमी जानना चाहता है। अब कैफ़ी साहब को ही ले लीजिए। उनके अब्बाजान ख़ुद तो शायर नहीं थे पर उन्हें कविता की पूरी समझ थी। उनसे बड़े तीनों भाई शायरी के बड़े उस्ताद थे। छुट्टियों में वो जब घर आते तो सारा कस्बा उनको सुनने उमड़ पड़ता। बालक कैफ़ी जब अपने भाइयों की वाहवाही सुनते तो उन्हें लगता कि क्या मैं भी कभी इनकी तरह शेर कह पाऊँगा। दुख की बात ये थी की इन महफिलों में उन्हें ज्यादा देर बैठना ही नसीब न होता था। उनके पिता उन्हें जब तब पान बनवाने का काम थमा कर वहाँ से भगा देते थे।
कैफ़ी के पिता जब बहराइच में थे तो वहाँ एक तरही मुशायरा हुआ। तरह थी (Word pattern for Qafiya & Radeef) मेहरबाँ होता, राजदाँ होता...कैफ़ी साहब को मौका मिला तो उनके मन में बहुत दिनों से जो चल रहा था वो शेर की शक़्ल में बाहर आ गया.. उन्होंने पढ़ा
वह सबकी सुन रहे हैं,सबको दाद ए शौक़ देते हैं
कहीं ऐसे में मेरा किस्सा ए गम बयाँ होता
लोगों ने तारीफ़ की कि बड़ी अच्छी याददाश्त है, क्या बढ़िया ढंग से पढ़ते हो। दरअसल सब यही सोच रहे थे कि कैफ़ी ने अपने भाईयों की ग़ज़ल उड़ाकर अपने नाम से यहाँ पढ़ दी है। जब उनके पिता ने भी यही शक़ ज़ाहिर किया तो कैफ़ी फूट फुट कर रो पड़े। सब लोगों ने कहा कि अगर तुमने ये ग़ज़ल लिखी है तो तुम्हें एक इम्तिहान देना पड़ेगा। कैफ़ी साहब को मिसरा (शेर की एक पंक्ति) थमा दिया गया ''इतना हँसों की आँख से आँसू निकल पड़ें''। अब इस कठिन मिसरे पर कैफ़ी को पूरी ग़ज़ल बनानी थी। कैफ़ी उसी कमरे में दीवार की ओर मुँह कर के बैठ गए और थोड़ी देर में तीन चार शेर लिख डाले। आपको जानकर ताज्जुब होगा कि कैफ़ी साहब तब सिर्फ ग्यारह साल के थे। कैफ़ी साहब ने लिखा था...
इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल1 पड़े
हँसने से हो सुकून ना रोने से कल2 पड़े
जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े
एक तुम के तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़3 है
एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े
मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े
हँसने से हो सुकून ना रोने से कल2 पड़े
जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म
यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े
एक तुम के तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़3 है
एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े
मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह
जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े
1.विघ्न 2. चैन 3. उतार चढ़ाव
तो ये थी कैफ़ी आज़मी की शायर बनने की दास्ताँ। लौटते हैं नौनिहाल की उस ग़ज़ल पर। क्या लिखा था कैफ़ी आज़मी साहब ने और क्या धुन बनाई मदनमोहन ने..वल्लाह ! मदन मोहन ग़ज़लों को इस खूबी से संगीतबद्ध करते थे कि लता जी आज भी उनको ''ग़ज़लों के शाहजादे'' के नाम से याद किया करती हैं। सितार और वॉयलिन का बेहतरीन इस्तेमाल किया है इस गीत के संगीत संयोजन में उन्होंने। पर कैफ़ी के अशआरों में धार ना होती तो मदनमोहन का संगीत कहाँ उतना प्रभावी हो पाता?
इस ग़ज़ल के हर मिसरे को पढ़ते ही मन के तार रूमानियत के रागों से झंकृत होने लगते हैं । जिस अंदाज़ में रफ़ी साहब ने इन खूबसूरत लफ्जों को अपनी आवाज़ दी है लगता है कि वक़्त ठहर जाए, ये ग़ज़ल और उससे उभरते अहसास मन की चारदीवारी से कभी बाहर ही ना निकलें।
तुम्हारी जुल्फ के साये में शाम कर लूँगा..
सफ़र इस उम्र का, पल में.., तमाम कर लूँगा
नजर.. मिलाई तो, पूछूँगा इश्क का.. अंजा..म
नजर झुकायी तो खाली सलाम कर लूँगा,
तुम्हारी जुल्फ ...
जहा..न-ए-दिल पे हुकूमत तुम्हे मुबा..रक हो..
रही शिकस्त. तो वो अपने नाम कर लूँगा
तुम्हारी जुल्फ ...
सफ़र इस उम्र का, पल में.., तमाम कर लूँगा
नजर.. मिलाई तो, पूछूँगा इश्क का.. अंजा..म
नजर झुकायी तो खाली सलाम कर लूँगा,
तुम्हारी जुल्फ ...
जहा..न-ए-दिल पे हुकूमत तुम्हे मुबा..रक हो..
रही शिकस्त. तो वो अपने नाम कर लूँगा
तुम्हारी जुल्फ ...
वैसे जानना चाहूँगा कि आप इस ग़ज़ल को सुनकर कैसा महसूस करते हैं?
