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शनिवार, जून 12, 2021

आँसू समझ के क्यूँ मुझे आँख से तूने गिरा दिया : तलत महमूद / राहुल देशपांडे

कई बार आपने देखा होगा कि कुछ गीत अगर बिना किसी संगीत संयोजन के गाए जाएँ तो उनकी धुन की मिठास को आप बड़ी गहराई तक महसूस कर सकते हैं।  मुझे आज ऐसा ही एक गीत याद आ रहा है फिल्म छाया (1961) का जो कि गीत देखते वक़्त सलिल दा के आर्केस्ट्रा के बीच कहीं खोता सा महसूस हुआ था। वैसे तो छाया का नाम लेते ही आपको उस फिल्म का सबसे चर्चित गीत इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा.. याद आ गया होगा पर आज मैं उसकी बात नहीं कर रहा हूँ  बल्कि उसी फिल्म के एक उदास नग्मे की याद दिला रहा हूँ जिसे तलत महमूद ने गाया था।

राहुल देशपांडे व तलत महमूद

उस ज़माने में प्रेम पर आधारित फिल्मों में ड्रामा अमीरी गरीबी से ही पैदा होता था। या तो नायक धनवान होता था या फिर नायिका बड़े बाप की बेटी होती थी। थोड़ी बहुत इधर उधर की ट्विस्ट के साथ फिल्में बन जाया करती थीं।इस फार्मूले वाली छाया भी अमीर नायिका व गरीब नायक की प्रेम कहानी थी। ये गीत भी कुछ ऐसी ही परिस्थिति में फिल्म में आता है। नायक सुनील दत्त के प्यार की रुसवाई होती है और वो अपना टूटा सा दिल कर भरी महफिल में नायिका के सामने अपना ग़म गलत करने आ जाते हैं। 

राजेंद्र कृष्ण ने बेहतरीन मुखड़ा लिखा था इस गीत का आँसू समझ के क्यूँ मुझे आँख से तूने गिरा दिया.... मोती किसी के प्यार का मिट्टी में क्यूँ मिला दिया। सहज शब्दों में लिखे गए गीत के अंतरे भी प्यारे थे। पर कमाल उस धुन का भी था जिसकी बदौलत गीत का दर्द  हृदय में घुलता चला जाता था। 

कुछ दिन पहले मैंने इसी गीत को शास्त्रीय गायक राहुल देशपांडे को की बोर्ड की हल्की टुनटुनाहट के साथ गाते सुना और मन कहीं और ही खो गया। आजकल ऐसी प्रस्तुति को नाममात्र के संगीत की वज़ह से Unplugged Versions का नाम देने का चलन है। राहुल यूँ तो अपने शास्त्रीय गायन के लिए जाने जाते हैं पर जब तब वो फिल्मी गीतों को भी अपनी आवाज़ से सँवारते रहते हैं। उनकी आवाज़ को सुन कर लगता है मानो युवा येसुदास को सुन रहे हों। ज़ाहिर है कि राहुल येसुदास जी के बड़े प्रशंसक हैं। 

इस गीत के बारे में वो कहते हैं कि इसे गाने की इच्छा वर्षों से थी और आज से करीब बीस साल पहले उन्होंने इस गीत को किसी कार्यक्रम में गाया था। उस वक्त वे तलत साहब के गाने अक्सर सुना करते थे और जिस तरह वो आपनी आवाज़ के कंपन का इस्तेमाल अपने गीतों में करते थे उससे राहुल बेहद प्रभावित रहे। ये गीत उन सबमें राहुल का प्रिय रहा क्यूँकि एक तो ये उनके प्रिय राग यमन पर आधारित था और दूसरे इस गीत में जो मेलोडी है वो उदासी का भाव भरते हुए भी मन को एक सुकून भी देती है जो कि आजकल के गीतों में कम ही दिखाई देता है। 


आँसू समझ के क्यूँ मुझे आँख से तूने गिरा दिया
मोती किसी के प्यार का मिट्टी में क्यूँ मिला दिया

आँसू समझ के क्यों मुझे

जो ना चमन में खिल सका मैं वो गरीब फूल हूँ
जो कुछ भी हूँ बहार की छोटी सी एक भूल हूँ
जिस ने खिला के खुद मुझे, खुद ही मुझे भुला दिया
आँसू समझ के क्यूँ मुझे

मेरी ख़ता मुआफ़ मैं भूले से आ गया यहाँ
वरना मुझे भी है खबर मेरा नहीं है ये जहाँ
डूब चला था नींद में अच्छा किया जगा दिया
आँसू समझ के क्यूँ मुझे

तो आइए सुनते हैं इस गीत को राहुल की आवाज़ में। गीत के उन्होने सिर्फ दो अंतरे ही गाए हैं पर पूरे दिल से गाए हैं । राहुल देशपांडे के गाये इस गीत को सुनने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें


वैसे भी साठ के दशक की शुरुआत में प्रदर्शित इस फिल्म के अच्छी गुणवत्ता वाले वीडियोज़ नेट पर उपलब्ध नहीं है पर एक ठीक ठाक आडियो मिला जिसमें तलत जी का गाया पूरा गीत है इस तीसरे अंतरे के साथ।

नग़्मा हूँ कब मगर मुझे अपने पे कोई नाज़ था 
गाया गया हूँ जिस पे मैं टूटा हुआ वो साज़ था
जिस ने सुना वो हँस दिया, हँस के मुझे रुला दिया
आँसू समझ के क्योँ मुझे ... 

बुधवार, मई 23, 2018

इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा : जब मोत्सार्ट का रंग चढ़ा सलिल चौधरी पर Itna na mujhse tu pyar badha

सलिल चौधरी के गीतों के बारे में लिखते हुए पहले भी मैं आपको बता चुका हूँ कि कैसे उनका बचपन अपने डाक्टर पिता के साथ रहते हुए असम के चाय बागान में बीता। पिता संगीत के रसिया थे। उनके एक आयरिश मित्र थे जो वहाँ से जाते समय अपना सारा पश्चिमी शास्त्रीय संगीत का खजाना सलिल दा के पिता को दे गए थे।  उनके संग्रह से ही सलिल को मोत्सार्ट, शोपिन, बीथोवन जैसे पश्चिमी संगीतकारों की कृतियाँ हाथ लगी थीं।

सलिल के गीतों की खास बात ये थी कि उनकी मधुरता लोक संगीत और भारतीय रागों से बहकर निकलती थी पर जो मुखड़े या इंटरल्यूड्स में वाद्य यंत्रों का संयोजन होता था वो पश्चिमी संगीत से प्रभावित रहता था । उन्होंने अपने कई गीतों में मोत्सार्ट (Mozart)) से लेकर शोपिन (Chopin) की धुन से प्रेरणा ली। आज के संगीतकार भी कई बार ऐसा करते हैं पर अपने आप को किसी धुन से प्रेरित होने की बात स्वीकारने में झिझकते हैं। आज के इस इंटरनेट युग में सलिल दा को अपने इस मोत्सार्ट प्रेम पर कुछ मुश्किल सवालों के जवाब जरूर देने पड़ते पर सलिल दा ने अपने संगीत में मोत्सार्ट के प्रभाव को कभी नहीं नकारा। वो तो अपने आप को फिर से पैदा हुआ मोत्सार्ट ही कहते थे।

आज उनके ऐसे ही एक गीत की बात आप को बताना चाहता हूँ जिसे लिखा था राजेंद्र कृष्ण ने। ये युगल गीत था फिल्म छाया से जो वर्ष 1961 में प्रदर्शित हुई थी। गीत के बोल थे इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा..सलिल दा ने इस गीत के मुखड़े की धुन मोत्सार्ट सिम्फोनी 40 G Minor 550 से हूबहू इस्तेमाल की थी। खुद मोत्सार्ट ने इस सिम्फोनी को वर्ष 1788 में विकसित किया था। मोत्सार्ट की इस मूल धुन को  पहले पियानो और फिर छाया फिल्म के इस युगल गीत में सुनिए। समानता साफ दिखेगी।


इस गीत को आवाज़े दी थीं तलत महमूद और लता मंगेशकर ने। युगल गीत को गीतकार राजेंद्र कृष्ण ने एक सवाल जवाब की शक्ल में ढाला था। बिम्ब भी बड़े खूबसूरत चुने थे उन्होंने नायक नायिका के लिए। जहाँ नायक अपने आप को आवारा बादल बताता है तो वहीं नायिका बादल के अंदर छिपी जलधारा में अपनी साम्यता ढूँढती है। इस गीत को फिल्माया गया था आशा पारिख और सुनील दत्त की जोड़ी पर।

इतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा, कि मैं इक बादल आवारा
कैसे किसी का सहारा बनूँ, कि मैं खुद बेघर बेचारा

इस लिये तुझसे प्यार करूँ, कि तू एक बादल आवारा
जनम-जनम से हूँ साथ तेरे, कि नाम मेरा जल की धारा

मुझे एक जगह आराम नहीं, रुक जाना मेरा काम नहीं
मेरा साथ कहाँ तक दोगी तुम, मै देश विदेश का बंजारा

ओ नील गगन के दीवाने, तू प्यार न मेरा पहचाने
मैं तब तक साथ चलूँ तेरे, जब तक न कहे तू मैं हारा

क्यूँ प्यार में तू नादान बने, इक बादल का अरमान बने
अब लौट के जाना मुश्किल है मैंने छोड़ दिया है जग सारा



वैसे राजेंद्र कृष्ण ने इसी गीत का दूसरा दुखभरा रूप भी गढा था जिसे तलद महदूद ने एकल रूप में गाया था। अगर गीत के रूप में उनकी आवारा बादल और उसमें से बरसती जलधारा की कल्पना अनुपम थी तो दूसरे रूप में ठोकर खाए दिल की अंदरुनी तड़प बखूबी उभरी थी..

अरमान था गुलशन पर बरसूँ, एक शोख के दामन पर बरसूँ
अफ़सोस जली मिट्टी पे मुझे, तक़दीर ने मेरी दे मारा

मदहोश हमेशा रहता हूँ, खामोश हूँ कब कुछ कहता हूँ
कोई क्या जाने मेरे सीने में, है बिजली का भी अंगारा

इतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा, कि मैं इक बादल आवारा
कैसे किसी का सहारा बनूँ, कि मैं खुद बेघर बेचारा


मंगलवार, अप्रैल 29, 2014

आमाय भाशाइली रे ..क्या था गंगा आए कहाँ से..का प्रेरणास्रोत ? Aamay Bhashaili Ray..Ganga Aaye Kahan Se

कुछ दिनों पहले कोक स्टूडियो के सीजन 6 के कुछ गीतों से गुजर रहा था तो अचानक ही  बाँग्ला शीर्षक वाले  इस नग्मे पर नज़र पड़ी। मन में उत्सुकता हुई कि कोक स्टूडियो में बांग्ला गीत कब से संगीतबद्ध होने लगे। आलमगीर की गाई पहली कुछ पंक्तियाँ कान में गयीं तो लगा कि अरे इससे मिलता जुलता कौन सा हिंदी गीत मैंने सुना है? ख़ैर दिमाग को ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी और तुरंत फिल्म काबुलीवाला के लिए सलिल चौधरी द्वारा संगीतबद्ध और गुलज़ार द्वारा लिखा वो गीत याद आ गया  गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे..लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे....

जब इस ब्लॉग पर सचिन देव बर्मन के गाए गीतों की श्रंखला चली थी तो उसमें माँझी और भाटियाली  गीतों पर मैंने विस्तार से चर्चा की थी। बाँग्लादेश के लोक संगीत को कविता में ढालने वाले कवि जसिमुद्दीन की रचनाओं और धुनों से प्रेरित होकर सचिन दा ने बहुतेरे गीतों की रचना की। जब मैंने आमाय भाशाइली रे. सुना तो सलिल दा को भी उनसे प्रेरित पाया।  वैसे पाकिस्तान के पॉप संगीत के कर्णधारों में से एक आलमगीर ने कवि जसिमुद्दीन के लिखे जिस गीत को अपनी आवाज़ से सँवारा है उसे सलिल दा काबुलीवाले के प्रदर्शित होने से भी पहले बंगाली फिल्म में मन्ना डे से गवा चुके थे।


ख़ैर मन्ना डे तो मन्ना डे हैं ही पर पन्द्रह साल की आयु में अपना मुल्क बाँग्लादेश छोड़कर कराची में बसने वाले आलमगीर ने भी इस गीत को इतने दिल से गाया है कि मात्र दो मिनटों में ही वो इसमें प्राण से फूँकते नज़र आते हैं। इस गीत की लय ऐसी है कि अगर आपका बाँग्ला ज्ञान शून्य भी हो तो भी आप अपने आप को इसमें डूबता उतराता पाते हैं। कोक स्टूडिओ की इस प्रस्तुति में खास बात ये है कि इस लोकगीत में संगीत सर्बियन बैंड का है जो कि गीत के साथ ही बहता सा प्रतीत होता है।

तो आइए देखें इस लोकगीत में कवि जसिमुद्दीन हमसे क्या कह रहे हैं

आमाय भाशाइली रे आमाय डूबाइली रे
अकूल दोरियर बूझी कूल नाई रे


मैं भटकता जा रहा हूँ..मुझे कोई डुबाए जा रहा है इस अथाह जलराशि में जिसका ना तो कोई आदि है ना अंत

चाहे आँधी आए रे चाहे मेघा छाए रे
हमें तो उस पार ले के जाना माँझी रे

कूल नाई कीनर नाई, नाई को दोरियर पाड़ी
साबधाने चलइओ माँझी आमार भंग तोरी रे
अकूल दोरियर बूझी कूल नाइ रे


इस नदी की तो ना कोई सीमा है ना ही कोई किनारा नज़र आता है। माँझी मेरी इस टूटी नैया को सावधानी पूर्वक चलाना ताकि हम सकुशल अपने ठिकाने पहुँचें।

दरअसल कवि सांकेतिक रूप से ये कहना चाहते हैं कि ये जीवन संघर्ष से भरा है। लक्ष्य तक पहुँचने के लिए जोख़िमों का सामना निर्भय और एकाग्र चित्त होकर करना पड़ेगा वर्ना इस झंझावत में डूबना निश्चित ही है।

काबुलीवाला में  गुलज़ार ने  गंगा की इस प्रकृति को उभारा है कि उसमें चाहे जितनी भी भिन्न प्रकृति की चीज़ें मिलें वो बिना उनमें भेद किए हुए उन्हें एक ही रंग में समाहित किए हुए चलती है। गीत के अंतरों में आप देखेंगे कि किस तरह गंगा के इस गुण को गुलज़ार प्रकृति और संसार के अन्य रूपकों में ढूँढते हैं?

गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे
आए कहाँ से, जाए कहाँ रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे

रात कारी दिन उजियारा मिल गए दोनों साए
साँझ ने देखो रंग रूप के कैसे भेद मिटाए रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे, गंगा आए कहाँ से....

काँच कोई माटी कोई रंग बिरंगे प्याले
प्यास लगे तो एक बराबर जिस में पानी डाले रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे, गंगा आए कहाँ से....

गंगा आए कहाँ से, गंगा जाए कहाँ रे
आए कहाँ से, जाए कहाँ रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे

नाम कोई बोली कोई लाखों रूप और चहरे
खोल के देखो प्यार की आँखें सब तेरे सब मेरे रे
लहराए पानी में जैसे धूप छाँव रे, गंगा आए कहाँ से....

 

गुरुवार, नवंबर 29, 2012

रातों के साये घने जब बोझ दिल पर बने..चोपिन से प्रेरित सलिल दा की यादगार धुन

सलिल दा संगीत निर्देशित और योगेश द्वारा लिखे दार्शनिकता लिए (यानि फिलासफिकल) गीतों की श्रृंखला का तीसरा नग्मा है फिल्म अन्नदाता का। सलिल दा के संगीत निर्देशित गीतों में इसे जटिलतम गीतों में से एक माना जाता है। अगर सलिल दा की धुनों को जलेबी की तरह घुमावदार माना जाता था तो ये गीत उस परिभाषा में सहज ही शामिल हो जाता है। पर इस गीत की बात करने के पहले सलिल दा को इस गीत की प्रेरणा देने वाले शख़्स के बारे में बताना जरूरी है।

सलिल दा ने ये धुन पोलैंड के संगीतकार फ्रेडेरिक चोपिन (Frédéric Chopin) की धुन से प्रेरित होकर बनाई थी। चोपिन एक माहिर पियानो वादक थे। बीस साल तक पोलैंड में रहने के बाद वो फ्रांस चले गए। यूरोप के विभिन्न देशों में किए उनके कॉन्सर्ट लोकप्रिय हुए। उनकी ज्यादातर धुनें सोलो पियानों पर हैं। आज भी पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के रसिया उनकी रोमांटिक धुनों को चाव से सुनते हैं।



सलिल दा ने चोपिन की धुन पर जो गीत रचा उसे गाने के लिए एक क़ाबिल गायिका की जरूरत थी। अगर इस गीत को गुनगुनाएँ तो आप तुरंत समझ जाएँगे कि इसे ढंग से गाना कितना कठिन है। मुखड़े के आखिर तक आते आते सुरों का चढ़ाव एक तरफ़ और उसके ठीक बाद बदली हुई लय में अंतरे की शुरुआत की बारीकियाँ दूसरी तरफ़। पर लता जी जब इसे गाती हैं तो सुनने पर लगता ही नहीं कि उन्हें इसे निभाने में कोई दिक्कत हुई होगी। ये बात उनकी महानता की परिचायक है। सलिल दा उनकी इस महानता से भली भांति वाक़िफ़ थे। उनकी पुत्री अंतरा ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था

"बाबा के लिए लता माँ सरस्वती का दूसरा रूप थीं। उनके लिए संगीत रचते समय वो इस चिंता से दूर रहते थे कि गीत किस सुर तक या कैसी ताल में चलेगा क्यूँकि उन्हें पूरा विश्वास था कि उसे लता बखूबी निभा लेंगी। मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि अन्नदाता के गीत रातों के साये.. में जो खूबसूरत संगीत संयोजन था उसके साथ लता जी ने पूरा न्याय किया है। बाबा ने लता जी की आवाज़ का अपने गीतों में जिस तरह इस्तेमाल किया वो क़ाबिलेतारीफ़ है।"

 योगेश का लिखा ये गीत हमें ज़िदगी में आने वाली मायूसियों से जूझने की प्रेरणा देता है। योगेश ने गीत के हर अंतरे में विकट परिस्थितियों में मन में आशा का दीपक जलाए रखने का जो संदेश दिया है वो किसी भी बुझे मन को जागृत करने का माद्दा रखता है। अंतरे की लय गीत की खूबसूरती में चार चाँद लगाती दिखती है। मिसाल के तौर पर एक अंतरे की लय के स्वरूप पर ज़रा गौर कीजिए
जब ज़िन्दगी.. किसी.. तरह.. बहलती नहीं..खामोशियों से भरी.. जब रात ढलती नहीं...तब मुस्कुराऊँ मैं..यह गीत गाऊँ मैं.. फिर भी ना डर..अगर.. बुझें.. दीये....सहर.. तो है.. तेरे.. लिये
है ना कमाल  ! तो चलिए सुनते हैं अन्नदाता फिल्म का ये गीत जिसे जया भादुड़ी पर फिल्माया गया था।

रातों के साये घने जब बोझ दिल पर बने
ना तो जले बाती, ना हो कोई साथी
फिर भी ना डर अगर बुझें दीये....सहर तो है तेरे लिये

जब भी मुझे कभी कोई जो ग़म घेरे
लगता है होंगे नहीं, सपने ये पूरे मेरे
कहता है दिल मुझको, माना हैं ग़म तुझको
फिर भी ना डर ... तेरे लिये

जब ना चमन खिले मेरा बहारों में
जब डूबने मैं लगूँ , रातों के मझधारों में
मायूस मन डोले, पर ये गगन बोले
फिर भी ना डर ... तेरे लिये

जब ज़िन्दगी किसी तरह बहलती नहीं
खामोशियों से भरी, जब रात ढलती नहीं
तब मुस्कुराऊँ मैं, यह गीत गाऊँ मैं
फिर भी ना डर ... तेरे लिये
रातों के साये घने ...



सलिल दा से जुड़ी इस श्रृंखला में यहीं विराम लेते हैं। वैसे सलिल योगेश की जोड़ी के दार्शनिकता लिए गीतों में उन गीतों की चर्चा रह ही गई जिसमें सलिल दा के पसंदीदा गायक मुकेश ने अपनी आवाज़ दी थी। पर वो सिलसिला फिर कभी ..पर चलते चलते क्या आप नहीं जानना चाहेंगे कि सलिल दा अपने संगीत को किस तरह आँकते थे? प्रसिद्ध फिल्म पत्रकार राजू भारतन से हुई बातचीत में एक बार उन्होंने कहा था

 "फुटबॉल के खेल को ही देखिए। सारे नियम हैं वहाँ! फ्री किक, थ्रो इन, आफ साइड, पेनाल्टी... पर फिर भी एक खिलाड़ी है पेले जो इन नियमों के भीतर रहते हुए कुछ ऐसा कर दिखाता है कि लगता है वो कुछ ऐसा कर गया जो इस खेल में होना एक अनूठी बात है। मैं भी संगीत का वही पेले हूँ।"

सलिल दा और योगेश इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

शुक्रवार, नवंबर 23, 2012

सलिल, योगेश व मन्ना डे : ज़िंदगी कैसी है पहेली, हाए...

सलिल दा और योगेश रचित फिलासफिकल गीतों की इस श्रृंखला में पिछली पोस्ट में बात हो रही थी गीत ना जाने क्यूँ होता है ये ज़िंदगी के साथ....... की। और हाँ इस गीत को गाते वक़्त इसके पहले अंतरे के बाद भटक कर मैं जा पहुँचा था एक दूसरे गीत की इस पंक्ति कभी देखो मन नहीं जागे पीछे पीछे सपनों के भागे पर। शायद दोनों गीतों की कुछ पंक्तियाँ एक जैसे मीटर में हों। ख़ैर आनंद का ये गीत ज़िदगी की इस पहेली के सच को चंद शब्दों में इस खूबसूरती से उभारता है कि मन इस गीत को सुनकर अंदर तक भींग जाता है। सलिल दा की मेलोडी, मन्ना डे की दिल तक पहुँचती आवाज़ और योगेश के सहज पर मन को चोट करते शब्द इस गीत का जादू हृदय से कभी उतरने नहीं देते। 

पिछली पोस्ट में आपको बताया था कि किस तरह सलिल दा पश्चिमी शास्त्रीय संगीत से प्रभावित थे। आनंद के इस गीत का आरंभ ऐसे ही संगीत संयोजन से होता है। साथ ही मन्ना डे की आवाज़ के पीछे वही कोरस पार्श्व में लहराता हुआ चलता है जो सलिल दा के गीतों का एक ट्रेडमार्क था। पर उस कोरस पर सलिल दा ने जिस तरह भारतीय मेलोडी की परत चढ़ाई है वो काबिले तारीफ़ है। सलिल दा अक्सर कहा करते थे..
"Music will always be dismantling and recreating itself, and assuming new forms in reaction to the times. To fail to do so would be to become fossilized. But in my push to go forward I must never forget that my heritage is also my inspiration.
"यानि संगीत हमेशा अपने आप को बँधे बँधाए ढांचे से तोड़ता और पुनर्जीवित करता चलेगा। इस प्रक्रिया में उसका स्वरूप समय की माँग के अनुरूप बदलेगा। अगर वक़्त की ये आहट कोई नहीं समझ सकेगा तो वो अतीत की गर्द में समा जाएगा। पर वक़्त के साथ आगे चलते वक़्त हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हमारी विरासत भी हमारी प्रेरणास्रोत है।"
सलिल दा के गीतों में मेहनतकशों का लोक संगीत है तो दूसरी ओर मोजार्ट की सिम्फोनी भी। सलिल मोजार्ट के संगीत से इस क़दर प्रभावित थे कि वो अपने आपको रिबार्न मोजार्ट (Reborn Mozart) कहा करते। पर उनकी सफलता का राज ये रहा कि इस सिम्फोनी को उन्होंने भारतीय रंग में ढाला।  हाल ही में सलिल दा की पुत्री अंतरा चौधरी ने विविधभारती में दिये अपने साक्षात्कार में कहा था
"बाबा प्रील्यूड और इंटरल्यूड को गीत के बोलों के साथ जोड़ कर अपने संगीत की रचना करते थे। जब भी कोई बाबा का गाना गाता है तो वो प्रील्यूड और इंटरल्यूड को गुनगुनाए बिना मुखड़े व अंतरे तक पहुँच ही नहीं पाएगा।"
कहने का मतलब ये कि सलिल दा के लिए प्रील्यूड और इंटरल्यूड गीत के अतरंग हिस्से हुआ करते थे। अंतरा की बात को मन्ना डे के गाए इस गीत को सुनकर बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। पर इस गीत में सपनों के पीछे भागते मन का चित्र अंकित करने वाले गीतकार योगेश के योगदान को भी हमें भूलना नहीं चाहिए। अच्छे कवि को अपनी बात कहने के लिए शब्दों का महाजाल रचने की आवश्यकता नहीं होती। योगेश कितनी खूबसूरती से जीवन के यथार्थ को एक पंक्ति में यूँ समेट लेते हैं ...एक दिन सपनों का राही चला जाए सपनों के आगे कहाँ. भई वाह।

वैसे आनंद के पहले योगेश बतौर गीतकार बहुत जानामाना नाम नहीं थे। उनकी माली हालत ऐसी थी कि अपने खुद के लिखे गीतों को सुनने के लिए उन्हें सविता चौधरी के पास जाना पड़ता था। योगेश सविता जी को तब से जानते थे जब उनकी शादी सलिल दा से नहीं हुई थी। सविता ने ही गीतकार के लिए योगेश का नाम सलिल दा को सुझाया था। सलिल दा तब तक अपना ज्यादातर काम शैलेंद्र के साथ किया करते थे। शैलेंद्र की मृत्यु के बाद उन्हें एक नए गीतकार की तलाश थी। जब पहली बार सलिल दा ने योगेश को आधे घंटे में एक गीत लिखने को दिया तो योगेश से कुछ लिखा ही नहीं गया। निराश मन से योगेश घर के बाहर निकल आए। मजे की बात ये रही कि बस स्टॉप तक पहुँचते ही उनके मन में एक गीत शक्ल लेने लगा। जब वापस आ कर उन्होंने सलिल दा का वो गीत सुनाया तो सलिल दा ने तुरंत अपनी पत्नी को बुलाकर कहा कि इसने तो बहुत अच्छा लिखा है।

गीत सुनते वक़्त आपने ध्यान दिया होगा कि किस तरह मन्ना डे ऊँचे सुरों में  एक दिन सपनों का राही तक पहुँचते हैं और उस के बाद  नीचे के सुरों में  चला जाए.... सपनों के.... आगे कहाँ गाते हुए हमारे दिल को वास्तविकता के बिल्कुल करीब ले आते हैं। ये प्रतिभा होती है एक अच्छे संगीतकार की जो शब्दों की लय को इस तरह रचता है कि सुनने वाले पर उसका अधिकतम असर हो। तो आइए सुनते हैं इस गीत को सलिल दा के अनूठे संगीत संयोजन के साथ


ज़िंदगी कैसी है पहेली, हाए
कभी तो हँसाए
कभी ये रुलाए
ज़िंदगी ...

कभी देखो मन नहीं जागे
पीछे पीछे सपनों के भागे
एक दिन सपनों का राही
चला जाए सपनों के आगे कहाँ
ज़िंदगी ...

जिन्होने सजाए यहाँ मेले
सुख-दुख संग-संग झेले
वही चुनकर ख़ामोशी
यूँ चले जाए अकेले कहाँ
ज़िंदगी ...

चलते चलते इस गीत से जुड़ा एक और किस्सा आपसे बाँटता चलूँ । आनंद के गीतों को लिखने के लिए लिए हृषिकेश दा ने गुलज़ार और सलिल दा ने योगेश को कह रखा था। पर दोनों ने ये बात एक दूसरे को नहीं बताई थी। लिहाजा एक ही परिस्थिति के लिए गुलज़ार ने ना जिया लागे ना लिखा और योगेश ने ना ना रो अखियाँ  लिखा। गीत तो गुलज़ार का ही रखा गया पर हृषिकेश दा ने योगेश की मेहनत को ध्यान में रखकर पारिश्रमिक के रूप में एक चेक दिया। योगेश ने कहा जब उनका गीत फिल्म में है ही नहीं तो फिर काहे के पैसे। इस समस्या के सुलझाव के लिए ज़िंदगी कैसी है पहेली को ..मूल स्क्रिप्ट में जोड़ा गया। वैसे आनंद के लिए योगेश ने मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने बुने भी लिखा।

सलिल दा से जुड़ी श्रृंखला का अगला गीत जीवन में आए दुखों से लड़ने की प्रेरणा देता है। इस बेहद कठिन गीत को एक बार फिर आवाज़ दी थी लता जी ने। बताइए तो कौन से गीत की बात मैं कर रहा हूँ?

सलिल दा और योगेश इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

सोमवार, नवंबर 19, 2012

सलिल चौधरी,योगेश व लता : न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ ...

आज सलिल चौधरी यानि सलिल दा का जन्मदिन है। पर यकीन मानिए ये इत्तिफ़ाक़ ही है कि उनके जन्मदिन पर उनसे जुड़ी ये श्रृंखला शुरु कर रहा हूँ। दरअसल हुआ यूँ कि बहुत दिनों से मैं सलिल दा द्वारा संगीत निर्देशित इस गीत के बारे में लिखना चाह रहा था। कल जब ये गीत गुनगुना रहा था तो अंतरे तक पहुँचने के बाद उसी लय में एक दूसरे गीत की पंक्तियाँ जुबाँ पर आ गयीं। मुझे लगा हो ना हो वो भी सलिल दा का गीत रहा होगा और वास्तव में वो उनका ही गीत निकला। इसी खोजबीन में ये भी नज़र में आ गया कि आज से करीब अस्सी साल पहले यह विलक्षण प्रतिभा वाला संगीत निर्देशक जो बहुमुखी प्रतिभा का धनी था, इस धरती पर आया था।

मेरी इस श्रृंखला का उद्देश्य सलिल दा के उन गीतों को आपके समक्ष रखना है जिसमें उन्होंने गीतकार योगेश गौड़ के साथ मिलकर जीवन की फिलॉसफी को इस तरह उतारा कि उनके बोल और धुनें समय के थपेड़ों के बीच रह रह कर ज़ेहन में आती रहीं और शायद जीवन पर्यन्त आती रहेंगी। यही तो खूबी है इन नग्मों कि ये वक़्त के साथ आपके दिल में अपना एक अलग वज़ूद बना लेते हैं। गीत का ख्याल आते वक़्त उस फिल्म से कहीं ज्यादा वो भावनाएँ आपके इर्द गिर्द घूम रही होती हैं जो गीत के बोलों में अंतरनिहित हैं।

अब फिल्म छोटी सी बात के इस गीत को ही देखिए। इस गीत के मुखड़े के सच को ना जाने कितने लोगों ने जीवन में महसूस किया होगा...

न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ
अचानक ये मन
किसी के जाने के बाद, करे फिर उसकी याद
छोटी छोटी सी बात, न जाने क्यूँ

कितनी सहजता से लिख गए ये सब योगेश ! पर मुंबई में आने से पहले तो योगेश को ये भी नहीं पता था कि उन्हें एक गीतकार बनना है पर जो काम उन्होंने सलिल दा के साथ किया वो उन्हें आज भी देश के अव्वल गीतकारों में स्थान दिलाने के लिए काफी है। पिता की मृत्यु के बाद योगेश नौकरी की तलाश में लखनऊ से मुंबई आए। पर वो ये सोचकर नहीं आए थे कि काम फिल्म जगत में करना है। उनके चचेरे भाई व्रजेंद्र गौड़ (जो एक पटकथा लेखक थे) ने उन्हें फिल्मों में काम करने की सलाह तो दी पर काम दिलवाने में कोई मदद नहीं की। नाराज़ योगेश ने अपने नाम के आगे से गौड़ टाइटल हटा लिया ताकि लोग ये ना समझें कि उन्हें फिल्म उद्योग में अपने भाई की वज़ह से काम मिला है। बचपन से ही उन्हें कोई भी पढ़ी गई कविता जल्द ही याद हो जाया करती थी इसलिए उन्होंने सोचा कि क्यूँ ना अब कविता लिखने का भी प्रयास किया जाए और इस तरह वो गीतकार बन गए।

योगेश सलिल के सानिध्य में कैसे आए ये किस्सा तो आगे की कड़ियों में आप से बाँटूगा पर योगेश सलिल चौधरी के बारे में क्या राय रखते हैं ये यहाँ बताना आवश्यक है। कुछ वर्षों पहले दिए गए अपने साक्षात्कर में उन्होंने कहा था
"सलिल दा मेरे प्रिय संगीतकार थे। पहली मुलाकात में वे मुझे अंतरमुखी से लगे, पर धीरे धीरे जब वे खुलने लगे तब उनके साथ काम करने का आनंद बढ़ गया। वो शायद एकमात्र ऐसे बंगाली संगीतकार थे जिन्हें हिंदी के बोलों की अच्छी समझ थी। ऐसा संभवतः इसलिए था कि सलिल दा खुद एक लेखक और कवि थे। पढ़ने लिखने का उनका शौक़ इस क़दर था कि उन्हें लगभग हर विषय के बारे में अच्छी जानकारी थी। सब लोग कहते थे कि उनकी धुनें जलेबी की तरह घुमावदार और जटिल हुआ करती थीं पर मुझे उनके साथ गीत लिखने में कभी ऐसी दिक्कत नहीं हुई।"
वहीं स्वर साम्राज्ञी लता जी ने अपनी एक CD में सलिल दा के बारे में कहा था कि
" मैंने ऐसे तो करीब सौ संगीत निर्देशकों से ज्यादा के साथ काम किया है। पर उनमें से दस ही ऐसे रहें होंगे जिन्हें संगीत और सिनेमा दोनों की समझ थी और उन दसों में सलिल दा सबसे अग्रणी थे। उनकी मेलोडी कुछ अलग तरह की होती थी जिसे गाना कठिन होता था। कई बार वो अपनी धुन को सही ढंग से विकसित करने के लिए कई दिनों तक ना खाते थे और ना सोते थे। "
सलिल के संगीत निर्देशित गीतों की एक खास बात ये थी कि वो गीत के इंटरल्यूड्स में कोरस का इस्तेमाल काफी करते थे। इंटरल्यूड्स में संगीत संयोजन पश्चिमी शास्त्रीय संगीत का असर लिए होता था। इसकी भी एक वज़ह थी। सलिल दा का बचपन आसाम के चाय बागानों में बीता था। उनके पिता डॉक्टर थे और उन्हें अपने पूर्ववर्ती आयरिश मूल के डॉक्टर से पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के तमाम ग्रामोफोन रिकार्ड मिले थे। सलिल ने तभी से मोजार्ट, बीथोवन और चोपिन जैसे संगीतज्ञों को सुनना शुरु कर दिया था और उनसे बेहद प्रभावित हुए थे। बाद में अपनी धुनों में भी वे पश्चिमी सिम्फोनी का प्रयोग करते रहे।

इस गीत में भी ये बातें देखने को मिलती हैं। सलिल दा ने जिस अनूठे तरीके से इस गीत की लय को बुना था उसके साथ न्याय करने के लिए लता से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता था। 

योगेश गीत के दोनों अंतरों में एक बार फिर किसी अज़ीज के साथ बिताए पलों को बेकली से याद करते हैं। वैसे भी पुरानी बातें, किसी के साथ बिताए वो हसीं लमहे किसी की यादों से दूर जा सकते हैं क्या..तो आइए आनंद उठाते हैं इस गीत का जिसे फिल्माया गया था विद्या सिन्हा व अमोल पालेकर पर 

 
वो अनजान पल
ढल गये कल, आज वो
रंग बदल बदल, मन को मचल मचल
रहें हैं छल न जाने क्यूँ, वो अनजान पल
तेरे बिना मेरे नैनों मे
टूटे रे हाय रे सपनों के महल
न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ ...

वही है डगर
वही है सफ़र, है नहीं
साथ मेरे मगर,अब मेरा हमसफ़र
ढूँढे नज़र न जाने क्यूँ, वही है डगर
कहाँ गईं शामें मदभरी
वो मेरे, मेरे वो दिन गये किधर
न जाने क्यूँ, होता है ये ज़िंदगी के साथ ...

जैसा कि मैंने शुरुआत में कहा था कि इस गीत का अंतरा गुनगुनाते एक दूसरे गीत के अंतरे में भटक गया। जिंदगी की ऊँच नीच को परिभाषित करता वो गीत सलिल दा और योगेश की जोड़ी द्वारा बनाया एक बेहद संजीदा गीत है। तो आप भी सोचिए मैं किस गीत की बातें कर रहा हूँ। अगली पोस्ट में सलिल दा और योगेश से जुड़ी कुछ और दिलचस्प बातों के साथ चर्चा होगी उस गीत की..

सलिल दा और योगेश इस श्रृंखला की सारी कड़ियाँ

शुक्रवार, जून 10, 2011

'लता' की 'सलिल' सरिता में बहता नग्मा : ओ सजना बरखा बहार आई...

वैसे तो मानसून केरल में धूम मचा रहा है पर थोड़ी थोड़ी ही सही बारिश की कभी हल्की और कभी तेज़ फुहारें यहाँ भी मन को गुदगुदा जरूर रही हैं। शायद इसी मौसम का असर है कि इधर कुछ दिनों से में लता जी का फिल्म परख के लिए गाया ये अत्यंत मधुर गीत बारहा होठों पर आ रहा है। आज सोचा क्यूँ ना बारिश की लड़ियों से भींगे गीत की सोंधी महक से आपको भी सराबोर करूँ।



लता जी के गाए गीत को सुनने के बाद बस दिल में एक भावना रह जाती है..कुछ अद्भुत सा महसूस कर लेने की। गीतकार शैलैंद्र के शब्द बारिश की रूमानियत में विकल होती तरुणी के मन को बड़ी खूबसूरती से पढ़ते हैं। वैसे भी बारिश की फुहारें जब हमारे आस पास की प्रकृति को अपने स्वच्छ जल से धो कर हरा भरा करने लगती हैं तो उन्हें देख कर हरे भरे पेड़ों की तरह अपनी ही मस्ती में किसी का दिल भी झूमने लगे तो उसमें उसका क्या दोष। और फिर, ये हृदय तो एक विरहणी का है तो वो तो जलेगा ही... साजन के प्रेम को आतुर अँखिया तो तरसेंगी ही..

यहाँ ये बताना जरूरी होगा कि इस गीत को साधना पर फिल्माया गया था। जिस साल फिल्म 'परख' रिलीज हुई उसी साल साधना की फिल्म 'लव इन शिमला' भी रिलीज हुई। इसी फिल्म में निर्देशक आर के नैयर ने साधना की चौड़ी पेशानी छुपाने के लिए साधना कट की शुरुआत की। पर जब इसी रूप में साधना विमल राय के पास परख फिल्म के लिए रोल माँगने गयीं तो एक बड़ा मज़ेदार वाक़या हुआ। दैनिक भास्कर में नियमित रूप से रविवारीय स्तंभ लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार केसवानी  इस किस्से को कुछ यूँ बयाँ करते हैं।

जब साधना इसी हेयर स्टाइल के साथ फिल्म ‘परख’ के शूट पर पहुंची तो बिमल दा काफी खफा हो गए। गांव की गोरी ऐसी ग्लेमरस लड़की कैसे हो सकती थी। मौके की नज़ाकत को भाँपकर साधना ने मेकअप रूम में जाकर बालों को फिर से सँवारा और सीधी मांग निकालकर दादा के सामने हाजि़र हो गई। दादा ने एहतियातन एक और टेस्ट लिया। टेस्ट से ख़ुश दादा ने मुस्कराकर साधना से कहा ‘ओ के’। इसके बाद जिस समर्पण भाव के साथ साधना ने बिमल दा के साथ काम किया वे उससे इतने मुत्तासिर हुए कि उन्हें साधना में महान अभिनेत्री नूतन के गुण दिखाए देने लगे।

तो ये थी साधना की इस फिल्म के लिए सादगी से भरे सौंदर्य की प्रतिमूर्ति वाली छवि की कहानी। इस फिल्म को देखनेवाले जब भी इस गीत की बात करते हैं उनके मन में साधना की ये प्यारी छवि भी जरूर उभरती है। आप भी देखिए ..


ओ सजना बरखा बहार आई
रस की फुहार लाई
रस की फुहार लाई, अँखियों मे प्यार लाई
ओ सजना बरखा बहार आई
रस की फुहार लाई, अँखियों मे प्यार लाई
ओ सजना ...

तुमको पुकारे मेरे मन का पपिहरा
तुमको पुकारे मेरे मन का पपिहरा
मीठी मीठी अगनी में, जले मोरा जियरा
ओ सजना ...

ऐसी रिमझिम में ओ सजन, प्यासे प्यासे मेरे नयन
तेरे ही, ख्वाब में, खो गए...
ऐसी रिमझिम में ओ सजन, प्यासे प्यासे मेरे नयन
तेरे ही, ख्वाब में, खो गए

साँवली सलोनी घटा, जब जब छाई
साँवली सलोनी घटा, जब जब छाई
अँखियों में रैना गई, निंदिया न आई
ओ सजना ...

इस गीत के संगीतकार थे सलिल चौधरी। पुराने दौर के गीतों का भी अपना अदाज़ था। इसी गीत को लें। गीत की शुरुआत पे गौर करें बारिश की बूँदों के साथ कीटो पतंगों का शोर सिर्फ चार सेकेंड तक ही बजता है पर तब तक आपका मन वर्षामय हो चुका होता है। और फिर सितार की धुन एकदम से आ जाती है। एक बार लता जी का दिव्य स्वर कानों में पड़ता है तो मन गीत के बोलों में रमने लगता है कि तबले की थाप और अंत में आता पश्चिमी शास्त्रीय अंदाज़ लिए कोरस बिल्कुल गौण हो जाते हैं। सलिल दा ने लता जी को जिस अंदाज़ में ऐसी रिमझिम में ओ सजन, प्यासे प्यासे मेरे नयन, तेरे ही, ख्वाब में, खो गए गवाया है वो गाने की खूबसूरती को और बढ़ा देता है।

सलिल दा उस ज़माने में भी आज के दौर की तरह पहले धुनें बनाते थे और बाद में उस पर गीत लिखवाते थे। उन्होंने अपनी कई धुनों का इस्तेमाल बंगाली और हिंदी दोनो भाषाओं के गीतों के लिए किया। यानि धुन एक और गीत के भाव अलग अलग। परख फिल्म के इस गीत की धुन भी उन्होंने पहले इस बंगाली गीत के लिए रची थी जिसे लता जी ने ही गाया था । तो आइए वो गीत भी सुनते चलें...



'एक शाम मेरे नाम' पर मौसम 'बारिशाना'
 

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