मनुष्य का मन बड़ा विचित्र है। कभी उत्साह से लबरेज़ तो कभी निराशा के भँवरों में अंदर तक धँसा हुआ। पर गनीमत यही की कोई भी मूड, कैफ़ियत हमेशा हमेशा के लिए नहीं रहती। इसलिए व्यक्ति कभी अपने चारों ओर हो रही अच्छी बुरी घटनाओं को निराशा और अवसाद के क्षणों में बिल्कुल ही बेमानी मान लेता है तो कभी जब उसका मन धनात्मक भावनाओं से ओत प्रोत रहता है तो अपने दुख अपनी पीड़ा भी उसे किसी बड़े उद्देश्य की प्राप्ति के लिए भगवान द्वारा ली जा रही परीक्षा मान कर खुशी-खुशी वहन करता जाता है।

ये शामें, सब की सब शामें ...
जाने क्यों कोई मुझसे कहता
मन में कुछ ऐसा भी रहता
जिसको छू लेने वाली हर पीड़ा
जीवन में फिर जाती व्यर्थ नहीं
तो लगता है उनकी लेखनी से मेरे दिल की बात निकल रही है। तो आइए भारती जी के साथ ढूँढते हैं उन बोझिल उदास शामों के मायने..
ये शामें, सब की शामें ...
जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया
जिनमें प्यासी सीपी-सा भटका विकल हिया
जाने किस आने वाले की प्रत्याशा में
ये शामें
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
वे लमहे
वे सूनेपन के लमहे
जब मैनें अपनी परछाई से बातें की
दुख से वे सारी वीणाएँ फेकीं
जिनमें अब कोई भी स्वर न रहे
वे लमहे
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
वे घड़ियाँ, वे बेहद भारी-भारी घड़ियाँ
जब मुझको फिर एहसास हुआ
अर्पित होने के अतिरिक्त कोई राह नहीं
जब मैंने झुककर फिर माथे से पंथ छुआ
फिर बीनी गत-पाग-नूपुर की मणियाँ
वे घड़ियाँ
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
ये घड़ियां, ये शामें, ये लमहे
जो मन पर कोहरे से जमे रहे
निर्मित होने के क्रम में
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
ये शामें, सब की सब शामें ...
जाने क्यों कोई मुझसे कहता
मन में कुछ ऐसा भी रहता
जिसको छू लेने वाली हर पीड़ा
जीवन में फिर जाती व्यर्थ नहीं
अर्पित है पूजा के फूलों-सा जिसका मन
अनजाने दुख कर जाता उसका परिमार्जन
अपने से बाहर की व्यापक सच्चाई को
नत-मस्तक होकर वह कर लेता सहज ग्रहण
वे सब बन जाते पूजा गीतों की कड़ियाँ
यह पीड़ा, यह कुण्ठा, ये शामें, ये घड़ियाँ
इनमें से क्या है
जिनका कोई अर्थ नहीं !
कुछ भी तो व्यर्थ नहीं !
जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया
जिनमें प्यासी सीपी-सा भटका विकल हिया
जाने किस आने वाले की प्रत्याशा में
ये शामें
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
वे लमहे
वे सूनेपन के लमहे
जब मैनें अपनी परछाई से बातें की
दुख से वे सारी वीणाएँ फेकीं
जिनमें अब कोई भी स्वर न रहे
वे लमहे
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
वे घड़ियाँ, वे बेहद भारी-भारी घड़ियाँ
जब मुझको फिर एहसास हुआ
अर्पित होने के अतिरिक्त कोई राह नहीं
जब मैंने झुककर फिर माथे से पंथ छुआ
फिर बीनी गत-पाग-नूपुर की मणियाँ
वे घड़ियाँ
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
ये घड़ियां, ये शामें, ये लमहे
जो मन पर कोहरे से जमे रहे
निर्मित होने के क्रम में
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
ये शामें, सब की सब शामें ...
जाने क्यों कोई मुझसे कहता
मन में कुछ ऐसा भी रहता
जिसको छू लेने वाली हर पीड़ा
जीवन में फिर जाती व्यर्थ नहीं
अर्पित है पूजा के फूलों-सा जिसका मन
अनजाने दुख कर जाता उसका परिमार्जन
अपने से बाहर की व्यापक सच्चाई को
नत-मस्तक होकर वह कर लेता सहज ग्रहण
वे सब बन जाते पूजा गीतों की कड़ियाँ
यह पीड़ा, यह कुण्ठा, ये शामें, ये घड़ियाँ
इनमें से क्या है
जिनका कोई अर्थ नहीं !
कुछ भी तो व्यर्थ नहीं !
धर्मवीर भारती जी की कविताओं को मैंने ज्यादा नहीं पढ़ा और इस कविता पर मेरी नज़र तब गई जब पिछली पोस्ट की पुस्तक चर्चा में सूरज का सातवाँ घोड़ा के बारे में लिख रहा था। जैसा कि आप सब को पता है इस किताब पर श्याम बेनेगल साहब ने एक फिल्म बनाई है। और नेट पर फिल्म की जानकारी ढूँढते हुए मुझे इस फिल्म के एक गीत की तारीफ सुनने को मिली और इस गीत की खोज में ये कविता पहले नज़र आई. बाद में जब गीत सुनने को मिला तो देखा कि ये गीत तो इस कविता से ही प्रेरित है।

इस गीत का संगीत दिया है वनराज भाटिया ने जो कुछ दिन पहले तक श्याम बेनेगल की फिल्मों के स्थायी संगीतकार रहे हैं। गीत के भावों के आलावा इस गीत में सबसे ज्यादा असरदार मुझे उदित नारायण के आवाज़ की मधुरता और उनका स्पष्ट उच्चारण लगता है। इस गीत में उनका साथ दिया है कविता कृष्णामूर्ति ने। राग यमन पर आधारित ये गीत कुछ और लंबा होता तो इसका आनंद और बढ़ जाता। पिछली पोस्ट में किताब के बारे में चर्चा करते हुए मैंने आपको बताया था इस उपन्यास के किरदारों के बारे में । ये गीत फिल्माया गया है माणिक मुल्ला (रजत कपूर) और उनकी प्रेमिका लिली (पल्लवी जोशी) के ऊपर।
ये शामें, सब की सब शामें ...
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
घबरा के तुम्हें जब याद किया
क्या उन शामों का अर्थ नहीं
क्या उन शामों का अर्थ नहीं
सूनेपन के इन लमहों में
अपनी छाया से बातें की
जिनमें कोई भी स्वर न रहे
दुख से वे वीणाएं फेकीं
ये भीगे पंक्षी से लमहे
क्या इनका कोई अर्थ नहीं ?
ये शामें, सब की सब शामें ...
