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सोमवार, जनवरी 16, 2017

वार्षिक संगीतमाला 2016 पायदान # 20 :जब गुलज़ार ने देखा साहिबा को इक नदी के रूप में.. Ek Naadi Thi

वार्षिक संगीतमाला 2016 के सफ़र को तय करते हुए हम आ पहुँचे हैं संगीतमाला के प्रथम बीस गीतों की तरफ़ और बीसवीं पायदान पर गाना वो जिसे लिखा है गुलज़ार ने, संगीतबद्ध किया शंकर अहसान लॉय ने और अपनी आवाज़ दी हे नूरा बहनों के साथ के. मोहन ने। 

साढ़े तीन मिनट के इस गाने में सच पूछिए तो गुलज़ार ने एक भरी पूरी कहानी छुपा रखी है जिसे आप तब तक नहीं समझ सकते जब तक आपकी मुलाकात साहिबा से ना करा दी जाए। पंजाब की तीन मशहूर प्रेम कहानियों में हीर रांझा, सोहनी महीवाल के बाद मिर्जा साहिबा की जोड़ी का नाम आता है। इसी मिर्जा साहिबा की प्रेम कहानी से प्रेरित होकर राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने मिर्जया बनाई। मिर्जा साहिबा की कहानी बहुत लंबी है पर उसके अंतिम प्रसंग का यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा क्यूँकि उसका सीधा संबंध इस गीत से है।


साहिबा के परिवार वालों के यहाँ से मिर्ज़ा उसकी शादी के दिन भगाकर बहुत दूर ले जाता है। जब  सफर की थकान से चूर हो कर मिर्ज़ा रास्ते में विश्राम करते हुए सो जाता है तो साहिबा उसके तरकश के तीर तोड़ देती है। उसे लगता है कि भाई उसकी हालत को देख उन दोनों पर दया करेंगे और अगर ये तीर रहने दिए तो यहाँ व्यर्थ का खून खराबा होगा। पर ऐसा कुछ होता नहीं है। साहिबा के भाई वहाँ पहुँचते ही मिर्जा पर आक्रमण कर देते हैं और जैसे ही वो अपने धनुष की ओर हाथ बढ़ाता है टूटे तीरों को देखकर साहिबा को अचरज से देखता है। तीरों की बौछार अब साहिबा अपने ऊपर लेती है और दोनों ही मारे जाते हैं।

फिल्म बनाने के दौरान राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने पटकथा लेखक गुलज़ार से यही सवाल किया था कि आख़िर साहिबा ने वो तीर क्यूँ तोड़े ? गुलज़ार ने स्क्रिप्ट के लिए उस समय मन में जो खाका खींचा उसी ने बाद में गीत की शक़्ल ले ली। क्या करती साहिबा ? एक साथ दो नावों में सवार जो थी एक ओर मिर्जा क प्यार तो दूसरी ओर घर परिवार का मोह। गुलज़ार की कल्पना ने साहिबा को एक नदी का रूप दे दिया और उन्होंने साहिबा के बारे  में लिखा
क नदी थी दोनो किनारे
थाम के बहती थी
इक नदी थी...
इक नदी थी कोई किनारा छोड़ ना सकती थी
इक नदी थी ..

तोड़ती तो सैलाब आ जाता
तोड़ती तो सैलाब आ जाता
करवट ले तो सारी ज़मीन बह जाती
इक नदी थी..
इक नदी थी दोनो किनारे
थाम के बहती थी
इक नदी थी दोनो किनारे
थाम के बहती थी, इक नदी थी....

आज़ाद थी जब झरने की तरह
झरने की तरह..
आज़ाद थी जब झरने की तरह
झरने की तरह.., झरने की तरह.. झरने की तरह..

एम्म.. आज़ाद थी जब झरने की तरह
चट्टानो पे बहती थी
इक नदी थी.. इक नदी थी..
इक नदी थी दोनो किनारे
थाम के बहती थी, इक नदी थी...

हाँ . दिल इक ज़ालिम
हाकिम था वो
उसकी ज़ंजीरों में रहती थी
इक नदी थी..

इक नदी थी दोनो किनारे...इक नदी थी...




शंकर अहसान लॉय ने इस गीत में नाममात्र का संगीत संयोजन रखा है। चुटकियों, तालियों के बीच गिटार की टुनटुनाहट के आलावा कोई वाद्य यंत्र बजता नज़र नहीं आता। बजे भी क्यूँ? नूरा बहनों और मोहन की बुलंद आवाज़ के बीच पूरे गीत में चतुराई से प्रयुक्त कोरस (जिसमें शंकर महादेवन ने ख़ुद भी योगदान दिया है।) उसकी जरूरत ही महसूस नहीं होने देता। गुलज़ार के शब्द दिल को छूते हैं क्यूँकि हम सभी साहिबा की तरह कभी ना कभी जीवन में दो समानांतर धाराओं के बीच अपनी भावनाओं को घिरा पाते हैं। ना किसी के पास जा पाते हैं ना किसी को छोड़ सकते हैं। इनसे सामंजस्य बिठाना दिल के लिए बड़ा तकलीफ़देह होता है। ये गीत सुनते हुए साहिबा की मजबूरी और दिल की पीड़ा बड़ी अपनी सी लगने लगती है। शायद आपको भी लगे...

ये वादियाँ दूधिया कोहरे की इनमें सदियाँ बहती हैं
मरता नहीं ये इश्क ओ मिर्ज़ा सदियों साहिबा रहती हैं….

वार्षिक संगीतमाला  2016 में अब तक

शुक्रवार, जनवरी 30, 2015

वार्षिक संगीतमाला 2014 पायदान # 11 : चाँदनिया तो बरसे फिर क्यूँ मेरे हाथ अँधेरे लगदे ने.. Chaandania

जनवरी का महीना खत्म होने को है और वार्षिक संगीतमाला 2014 का ये सफ़र जा पहुँचा है ग्यारहवीं पायदान पर। गीतमाला  के पिछले गीत में तो अमावस्या की काली चादर ओढ़ हमारा ये 'चाँद'  अपने घर होने वाली सेंध को बचा गया था पर आज के इस गीत में देखिए ना विरह का दंश झेलते दो प्रेमियों की झोली में चाँदनी बरसा कर एक दूसरे से मिलने की चाहत को और तीव्रता प्रदान कर रहा है।



इश्क़ की भी अपनी पेचीदगियाँ है साहब। जब इसका नशा चढ़ता है तो इसके सामने मद के सारे प्याले फेल। पर ये खुमारी जब दो लोगों की छोटी छोटी गलतियों और गलतफहमियों का शिकार हो जाए तो उसे एक दूसरे के प्रति अविश्वास व क्रोध में बदलने में देर नहीं लगती। प्रेम तो वहीं रहता है पर उसके सामने अहम की दीवारें खड़ी हो जाती हैं जिसे तोड़ना कई बार बेहद मुश्किल लगने लगता है।

चेतन भगत की किताब पर बनी फिल्म 2 States का ये गीत नायक नायिका के बीच बनी ऐसी ही परिस्थिति के बाद आता है जब अलग रह कर वे  अपने एकाकी जीवन की पीड़ा महसूस कर रहे होते हैं। अमिताभ भट्टाचार्य ने इस गीत के साथ पहली बार इस साल की संगीतमाला में अपना कदम रखा है। अपने प्रियतम की जुदाई की तुलना जिस तरह उन्होंने आग रहित सूरज व बिना राग की कोयल से की है वो गीत के मुखड़े में चार चाँद लगा देती है। विरह वेदना को स्वर देते देते उनकी शब्द रचना सूफ़ियत का रंग ले उठती है जब वे कहते हैं जिस्म ये क्या है खोखली सीपी...रूह दा मोती है तू । अभी ये सुन कर आप मन से वाह वाह कर ही रहे होते हैं कि अगली पंक्ति मेरे सारे बिखरे सुरों से, गीत पिरोती है तू  आपको फिर से लाजवाब कर जाती है।

इस गीत को संगीतबद्ध किया है शंकर अहसान लॉय ने। 2 States और कुछ हद तक 'किल दिल' का संगीत छोड़ दें तो इस तिकड़ी के लिए ये साल अपेक्षाकृत फीका रहा है। पर इस गीत में गिटार की प्रमुखता में किया गया उनका संगीत संयोजन ध्यान खींचता है। उनके दिए संगीत का सबसे खूबसुरत पहलू मुझे अकार्डियन का वो 20 सेकेन्ड का मधुर टुकड़ा लगता है जिसे आप गाने में 1 मिनट 40 सेकेन्ड के बाद सुन सकते हैं। 

इस युगल गीत को आवाज़ दी है मोहन कानन और यशिता शर्मा ने। अगर आप रॉक बैंड अग्नि को सुनते हों तो मोहन कानन आपके लिए अपरिचित नाम नहीं होगा क्यूँकि वो इस बैंड के मुख्य गायक हैं। जहाँ तक यशिता की बात है तो सा रे गा मा पा 2009 में वो प्रथम रनर्स अप रह चुकी हैं। इन दो अपेक्षाकृत नयी आवाज़ों का मिश्रण गाने को एक ताजगी सा प्रदान करता है।

तो आइए सुनते हैं इस गीत को जो अँधेरे में डूबे दिलों को चाँदनी की एक नर्म रोशनी देता हुआ प्रतीत होता है..



तुझ बिन सूरज में आग नहीं रे
तुझ बिन कोयल में राग नहीं रे

चाँदनिया तो बरसे
फिर क्यूँ मेरे हाथ अँधेरे लगदे ने

हाँ तुझ बिन फागुन में फाग नहीं रे
हाँ तुझ बिन जागे भी जाग नहीं रे
तेरे बिना ओ माहिया
दिन दरिया, रैन जज़ीरे लगदे ने
अधूरी अधूरी अधूरी कहानी, अधूरा अलविदा
यूँ ही यूँ ही रह ना जाए अधूरे सदा
अधूरी है कहानी, अधूरा अलविदा

ओ चाँदनिया तो बरसे
फिर क्यूँ मेरे हाथ अँधेरे लगदे ने
केदी तेरी नाराज़गी,गल सुन लै राज़ की
जिस्म ये क्या है खोखली सीपी
रूह दा मोती है तू
गरज़ हो जितनी तेरी, बदले में जिंदड़ी मेरी
मेरे सारे बिखरे सुरों से, गीत पिरोती है तू
ओ माहिया तेरे सितम, तेरे करम
दोनों लुटेरे लगदे ने


तुझ बिन सूरज में आग नहीं रे ... लगदे ने
अधूरी .... सदा
ना ना ना…
फिर क्यूँ मेरे हाथ अधेरे लगदे ने
तेरे बिना, ओ माहिया
दिन दरिया, रैन जज़ीरे लगदे ने 


वार्षिक संगीतमाला 2014 में अब तक 

सोमवार, फ़रवरी 08, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 : पॉयदान संख्या 14 - ज़मीन से उखड़े लोगों में उम्मीद जगाते प्रसून जोशी

वार्षिक संगीतमाला 2009 में आज बारी है 14 वीं पॉयदान पर के गीत की। ये एक ऐसा गीत है जो हफ्ते दर हफ्ते मेरे मन में घर बनाता जा रहा है और मेरी आरंभिक सोच से छः पॉयदानों की छलाँग लगा कर ये आ पहुँचा है इस पॉयदान पर। पहली बार जब इसे सुना था तो लगा था कि एक बैंड को प्रमोट करने की परिस्थिति के अनुरूप ही इस गीत का मुखड़े और साथ का धूम धड़ाका रचा गया है। पर फिर भी कुछ बात थी इस नग्मे में कि मैंने इसे बाद में सुनने के लिए सहेज कर रख लिया।

दरअसल पाश्चात्य संगीत आयोजन के आवरण में आम सा लगने वाला गीत खास तब हो जाता है जब गीत के पहले 75 सेकेंड बीत चुके होते हैं। उसके बाद आ ज़माने आ.. के साथ गीत की लय यूँ बदलती है कि मन झूम उठता है और गायक के साथ सुर में सुर मिलाने को उद्यत हो जाता है।

प्रसून जोशी ने यहाँ एक बार फिर अपनी कलम की जादगूरी का बेहतरीन नमूना पेश किया है। वैसे तो गीत की परिस्थिति विदेशी ज़मीन पर अपने मुकाम की तलाश कर रहे बैंड के जज़्बे को दिखाने की है पर प्रसून ने गीत के माध्यम से विस्थापित जिंदगियों में रंग भरने की सफल कोशिश की है। अपनी जमीन से उखड़े लोगों के दर्द के बारे में हमारे साथी चिट्ठाकार हमेशा लिखते रहे हैं। इस बारे में कुछ दिनों पहले शरद कोकास और महिनों पहले रवीश कुमार का लिखा लेख तुरंत ही याद पड़ता है। प्रसून अपने इस गीत में ऍसे ही लोगों को विषय बना कर उनमें एक अच्छे कल के लिए नई आशा का संचार करते हुए दीखते हैं। प्रसून के इस साल के लिखे गीतों में ये गीत मुझे बोलों के हिसाब से सबसे बेहतरीन लगा। प्रसून अपने इस गीत के बारे में कहते हैं
खानाबदोश जिप्सी को कहते हैं, बंजारे को कहते हैं, जिसका बना बनाया ठिकाना नहीं है वो हम जैसा नहीं है जो जहाँ चल पड़ा वही घर है जहाँ बिस्तरा बिछा लिया वहीं उसका बेड रूम है। ये सिर्फ सलमान और अजय का गाना नहीं है ये उन सब लोगों का गीत है जो प्रवासी हैं जो विदेशों में या देश के अलग अलग शहरों में जाकर कुछ करने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी सोच है कि हम तो अपनी जड़ों से कट कर निकल चुके हैं और अब तो सारी दुनिया ही हमारा घर है। ये गीत सिर्फ अप्रवासी भारतीयों की नहीं बल्कि उन सभी लोगों की बात करता है जो अपना अपना गाँव अपना कस्बा छोड़कर देश के विभिन्न शहरों में जा बसे हैं। वो सब लोग जो काफ़िले में हैं, जो एक सफ़र में हैं, जिनके अंदर एक जुनून है, एक तलाश है जिनके पास, जिनकी आँखों में एक नए कल का सपना है ये उन सब का गाना है।
शंकर अहसान लॉय के संगीत से सजा ये नग्मा वेस्टर्न बीट्स और चुटकी के अद्भुत मिश्रण से शुरु होता है। संगीतकार जोड़ी चाहती तो ये गीत खुद शंकर महादेवन से गवा सकती थी। पर ये इनका बड़प्पन है कि इस गीत को गाने के लिए नवोदित गायक मोहन को चुना गया। तो चलें लंदन ड्रीम्स फिल्म के इस गीत में गायक मोहन की गायिकी का लुत्फ़ उठाने...




खानाबदोश खानाबदोश
फिरते हैं हम ख्वाबों के संग लिए
लंदन ड्रीम्स

है होठों पे सीटी, पैरों में सफ़र है
है दूर मंजिल, साथ बस हुनर है

गुनगुनाएँगे हम, चलते जाएँगे हम
जब तक देखे ना, सुने ना
समझे ना , माने ना, ये सारा ज़हाँ

आ ज़माने आ, आ ज़माने आ,
आजमाने आ, आजमाने आ,
पेशेवर हवा, पेशेवर हवा,
मुश्किलें सजा, हो ओ ओ हो
ख़्वाब ना सगे, ख़्वाब ना सगे,
ज़िंदगी ठगे,ज़िंदगी ठगे,


फिर भी जाने क्यूँ, फिर भी जाने क्यूँ,
उम्मीद जगे हो ओ ओ हो
खानाबदोश खानाबदोश
फिरते हैं हम ख्वाबों के संग लिए
लंदन ड्रीम्स

हम तो नदी ताल के,लहरें उछाल के
रहते वहीं जहाँ, बहते हैं हम
दिल की सुराही, सोंधी सोंधी गहराई
जहाँ छलके हैं गीत, जिन्हें कहते हैं हम
आ ज़माने आ, आ ज़माने आ,
आजमाने आ.... उम्मीद जगे

आसमाँ से छनती है, आँधियों से बनती है
ठोकरों में हैं, अपने तो मस्तियाँ
सागरों के यार हैं, झूमने से प्यार है
डोलते रहेंगे हैं आवारा कश्तियाँ
खानाबदोश खानाबदोश

रविवार, जनवरी 13, 2008

वार्षिक संगीतमाला २००७ : पायदान १९ - लमहा ये जाएगा कहाँ ..लमहा ये जाएगा कहाँ ..

वार्षिक संगीतमाला की १९ वीं पायदान आपके सामने हैं मित्रों। और इस पर गाना वो जो अस्सी के दशक में बनी फिल्म 'गोलमाल' फिल्म ले उस अंतरे की याद दिलाता है जिसे गुलज़ार साहब ने लिखा था । याद है ना 'आने वाला पल जाने वाला है' का ये जुमला

इक बार वक़्त से लमहा गिरा कहीं
वहाँ दास्तां मिली लमहा कहीं नहीं


जीवन के इस सफ़र में कितने ही सुनहरे लमहों से हम दो चार होते हैं पर समय रहते उन के साथ जीने की इच्छा को दबाते हुए दौड़ में आगे बढ़ जाते हैं। पर मुकाम पर पहुंच जाने के बाद लगता है अरे ! बहुतेरी बातें तो करनी रह ही गईँ... ।

और फिर याद आती है अतीत की गर्द से झांकते उन लमहो की ...पर क्या हम उन्हें फिर से तालाश पाते हैं? शायद नहीं।
ऍसे ही लमहों की कहानी लेकर आएँ हैं नवोदित गीतकार प्रशांत पांडे। देखिए तो वो क्या कह रहे हैं...


खुशनुमा आवारा सा, बेसबब, बेचारा सा लमहा था
जिंदगी के आसमां में टूटा सा वो तारा था, तनहा था
कह रहे है जर्रे देखो, रास्तों से गुजरा था यहाँ
ढूंढते हैं उसको लेकिन, गायब हैं पैरों के निशान
लमहा ये जाएगा कहाँ ..लमहा ये जाएगा कहाँ...
लमहा कहाँ ये खो गया, इक पल में तनहा हो गया

आए जो मौसम नए, मंजर बदल जाएँगे
शाखों से पत्ते गिरे, गिरके किधर जाएँगे
कह रहे हैं जर्रे देखो, रास्तों से गुजरा था यहाँ
ढूंढते हैं उसको लेकिन, गायब हैं पैरों के निशान
लमहा ये जाएगा कहाँ ..लमहा ये जाएगा कहाँ...
लमहा कहाँ ये खो गया, इक पल में तनहा हो गया

शबनम का कतरा है ये, शोले बुझा जाएगा
कर जाएगा आँखें नम, यादों में बस जाएगा
बारिशों की बूंदें बरसे, बादलों के दिल हल्के हुए
जाने पहचाने चेहरों के, अक्स भी क्यूँ धुंधले हुए
लमहा ये जाएगा कहाँ ..लमहा ये जाएगा कहाँ...
तनहा ये जाएगा कहाँ... तनहा ये जाएगा कहाँ


और उनके खूबसूरत बोलों को सँवारा है के. मोहन ने अपनी आवाज़ से। तो आइए सुनें फिल्म दिल दोस्ती ईटीसी का ये गीत



इस संगीतमाला के पिछले गीत

 

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स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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