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रविवार, जनवरी 10, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 : पायदान संख्या 23 - रातों रात तारा कोई,चाँद या सितारा कोई, गिरे तो उठा लेना

वार्षिक संगीतमाला की 23 वीं पॉयदान पर एक नई तिकड़ी विराजमान है। यहाँ संगीतकार प्रीतम हैं पर गायक नीरज श्रीधर नहीं, गुलज़ार हैं पर विशाल भारद्वाज नहीं और तो और अभिजीत का साथ देने के लिए अलका यागनिक भी नहीं मौज़ूद। निर्देशक प्रियदर्शन ने गुलज़ार और प्रीतम को ये सोच कर अनुबंधित किया कि फिल्म के गीत ऐसे हों जो जिनमें आज के संगीत की झलक तो हो पर साथ में भावनाएँ भी हो जो दिल को छू सके। वैसे इस तिकड़ी ने इस गीत में प्रियदर्शन को निराश नहीं किया इसीलिए वे कहते हैं कि ये गीत उनकी बनाई फिल्मों का ये सबसे बेहतरीन गीत है। प्रीतम,गुलज़ार और अभिजीत दा ने मिलकर एक ऐसे गीत की रचना की है जिसमें रुमानियत तो है ही, साथ है बेहतरीन मेलोडी ।



गीत गिटार की मधुर तान से शुरु होता है। फिर आता है लड़कियों का कोरस और उसमें से उभरता अभिजीत दा का मखमली स्वर। ये तो नहीं कहूँगा कि गुलज़ार ने अपने शब्दों में कुछ नए बिंबों का इस्तेमाल किया है फिर भी उनका करिश्मा इतना जरूर है कि गीत को सुनकर इसके मुखड़े को गुनगुनाते रह जाएँ।

तो आखिर ये गीत कौन सा है। ये गीत है साल के शुरु में सुर्खियाँ बटोरने वाली फिल्म बिल्लू का और अगर अब तक आपने इसे नहीं सुना तो मैं तो बस इतना ही कहूँगा कि खुदाया खैर :)...

प्रीतम ने इस गीत के बनने की बातों को याद करते हुए कहते हैं

मैंने इस गीत की शुरुआत ओ रब्बा हो ओओ ओओ..से करने की सोची थी पर गुलज़ार ने उसे ख़ुदाया खैएएएर कर गीत का प्रभाव ही बढ़ा दिया। मैं अपने गीतों का कोई हिस्सा खाली नहीं छोड़ता, यानि मेरे गीतों में आर्केस्ट्राइसेशन खूब होता है। पर इस गीत में मैंने अपने बहुत सारे वाद्य यंत्र हटा किये to make it simple.
दरअसल प्रीतम की ये 'imposed simplicity' हमारे जैसे सुनने वालों के कानों को सुकून देने वाली हो गई। तो आइए सुनें पहले अभिजीत दा की आवाज़ में इस गीत को



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इसी गीत के दूसरे वर्जन को गाया है सोहम चक्रवर्ती,आकृति कक्कड़ और मोनाली ने। पर मुझे दूसरे वर्सन से कहीं ज्यादा अभिजीत का सोलो प्रभावित करता है।

रातों रात तारा कोई, चाँद या सितारा कोई
गिरे तो उठा लेना
ओ सुनियों रे
तारा चमकीला होगा,चाँद शर्मीला होगा
नथ में लगा लेना

जरा सी साँवरी है वो
ज़रा सी बावरी है वो
वो सुरमे की तरह मेरी
आँखों में ही रहती है

सुबह के ख्वाब से उड़ाई है
पलकों के नीचे छुपाई है
मानो ना मानो तुम
सोते सोते ख्वाबों में भी ख्वाब दिखाती है
मानो ना मानो तुम
परी है वो परी की कहानियाँ सुनाती है

खुदाया खैर, खुदाया खैर, खुदाया खैर, खुदाया खैर

रातों रात तारा कोई...नथ में लगा लेना

तू हवा मैं ज़मी, तू जहाँ मैं वहीँ
जब उडे मुझे ले के क्यूँ उड़ती नही
तू घटा मैं ज़मी,तू कहीं मैं कहीं
क्यों कभी मुझे लेके बरसती नही

जरा सी साँवरी है वो... रहती है
सुबह के ख्वाब....खुदाया खैर

जब दाँत में ऊँगली दबाये
या ऊँगली पे लट लिपटाये
बादल ये चढ़ता जाए, हो...

कुछ कर के वो बात को टाले
जब माथे पे वो बल डाले
अम्बर यह सिकुड़ता जाए हो........

वो जब नाखून कुतरती है,तो चंदा घटने लगता है
वो पानी पर कदम रखे, सागर भी हट जाता है

सुबह के ख्वाब....
खुदाया खैर,खुदाया खैर,खुदाया खैर,खुदाया खैर


शनिवार, फ़रवरी 03, 2007

9 वीं पायदान : एक बार फिर अभिजीत की 'आवाज' के नाम...

जिंदगी में नाम की क्या अहमियत है..
शायद कुछ भी नहीं...
बस पुकारने का इक जरिया..
नाम बदल जाते हैं ...
चेहरे भी वक्त के साथ बदल जाते हैं..
पर दिल से निकली आवाज क्या बदल सकती है
नहीं कभी नहीं..क्योंकि वो तो दिल का आईना है..
और आईने कभी धोखा नहीं देते...



सत्तर के दशक की फिल्म 'किनारा' में यही बात गुलजार कह गए हैं
नाम गुम जाएगा , चेहरा ये बदल जाएगा
मेरी आवाज ही पहचान है, गर याद रहे



और इतने सालों बाद उसी सरसता से यही बात कही है गीतकार शाहीन इकबाल ने अभिजीत के इस एलबम लमहे में । कानपुर के इस गायक की इस गीतमाला में तीसरी और आखिरी पेशकश है । मैं नहीं जानता कि ये गीत आपको कितना पसंद आएगा पर मुझे इस गीत के बोल और अभिजीत की गायिकी दोनों पसंद हैं । तो पेश है नवीं पायदान का ये नग्मा




मैं रहूँ ना रहूँ मेरी आवाज...मैं रहूँ ना रहूँ मेरी आवाज..
तुम गूंजती हर जगह हर कदम पाओगे
मैं मिलूँ ना मिलूँ मेरे गीतों को तुम
जिंदगी की तरह हर कदम पाओगे...



मैं था जहाँ, हूँ मैं वहीं
बीता हुआ कल मैं नहीं
हर मोड़ पर, हर राह में
हर दर्द में , हर आह में
गुनगुनाऊँगा मैं, मुस्कुराऊँगा मैं
दिल की आबो हवा में याद आऊँगा मैं
याद आऊँगा मैं...
कुछ कहूँ, ना कहूँ मेरे गीतों को तुम
रोशनी की तरह , हर तरफ पाओगे
.
मैं आज हूँ, मैं कल भी हूँ
सदियाँ हूँ मैं, मैं पल भी हूँ
हर रंग में, हर रूप में
हर छांव में , हर धूप में
झिलमिलाऊँगा मैं, जगमगाऊँगा मैं
मौसमों की अदा में , याद आऊँगा मैं
मैं दिखूँ ना दिखूँ
मेरे अंदाज तुम, वक्त ही की तरह
हर तरफ पाओगे
मैं रहूँ ना रहूँ मेरी आवाज...मैं रहूँ ना रहूँ मेरी आवाज..
तुम गूंजती हर जगह हर कदम पाओगे


पिछले साल इसी जगह पर था यू बोमसी एंड मी के लिए नीरज श्रीधर का ये गीत कहाँ हो तुम मुझे बताओ ?

गुरुवार, फ़रवरी 01, 2007

वार्षिक संगीतमाला गीत # 10 : लमहा - लमहा दूरी यूँ पिघलती है ...

तो दोस्तों पिछले महिने में आखिरी की १५ सीढ़ियाँ चढ़कर हम आ पहुँचे हैं पायदान संख्या १० पर । इस सीढ़ी पर गीत वो जिसके बारे में पहले भी इस चिट्ठे पर यहाँ लिख चुका हूँ गीत के बोल के साथ । दुख की बात ये कि ये इस गीतमाला का दूसरा ऍसा गीत है जिसकी धुन चुराने का इलजाम संगीतकार प्रीतम के सिर है । अंतरजाल पर खोज करने से पता चला कि इसकी धुन पाकिस्तानी गायक वारिस बेग के गीत 'कल शब देखा मैंने...' से ली गई है । बेग साहब का गीत यहाँ उपलब्ध है। वैसे जब मैंने आरिजिनल गीत सुना तो प्रीतम का प्रस्तुतिकरण काफी बेहतर लगा। बस उन्हें खुद इस गीत के कॉपीराइट खरीदने चाहिए थे ।


खैर चोरी की ही सही, पर मुझे इस धुन से खासा लगाव है । और फिर अभिजीत की आवाज में ये गीत सुनकर जी हल्का सा हो जाता है और बरबस ही गीत को गुनगुनाने लगता हूँ। नीलेश मिश्र ने गीत को एक काव्यात्मक जामा पहनाने की कोशिश की है ।

गैंगस्टर के इस गीत को आप
यहाँ भी सुन सकते हैं ।

अब चूंकि अंतिम दस का सिलसिला शुरु हो चुका है तो ये भी जानते चलें कि पिछले साल इस सीढ़ी पर कौन सा नग्मा पदस्थापित था ?

पिछले साल इस पायदान पर थे रब्बी शेरगिल बुल्ला कि जाणा मैं कौन ? के साथ !

सोमवार, जनवरी 08, 2007

गीत # 20 : बस यही सोच के खामोश मैं रह जाता हूँ...

ऊपर की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते आज आ पहुँचे हैं 20 वीं पायदान पर ! और आज यहाँ विराजमान हैं मेरे प्रिय गायक अभिजीत साहब उन्स के इस गीत के साथ ! पर ये कर क्या रहें हैं यहाँ पर ? कभी खामोश बैठ जाते हैं तो कभी खुद से उसके बारे में सवाल करते हैं और फिर खुद ही उनका जवाब देते हैं ।

ये सारे लक्षण जिस रोग की ओर इशारा करते हैं, वो तो समझ आ ही गया होंगा आपको । यानि एक तो इश्क और वो भी इकतरफा । अब क्या करें ये जनाब भी, हमारे हिन्दुस्तान में ज्यादातर किस्से होते ही ऐसे हैं । ख्याली पुलाव पकाने में तो हम सारे ही सिद्धस्त हैं । वैसे हमारे अभिजीत खामोश तो शायद ही कभी रहते हों । पाकिस्तानी गायकों को भारत में जरूरत से ज्यादा भाव दिये जाने पर और उस हिसाब से पाक द्वारा हमारे गायकों को तरजीह ना दिए जाने के मामले में वो सबसे ज्यादा मुखर रहे हैं। और हाल फिलहाल में जी टी वी के लिटिल चैम्पस कार्यक्रम में बतौर जूरी वो शांत तो कभी शायद ही रहे। इसलिये जब इतने प्यार और भोलेपन से उन्होंने अपनी इस खामोशी की दास्तान सुनाने की पेशकश की तो हम तो दंग से रह गए और ना नहीं कह सके....

बस यही सोच के खामोश मैं रह जाता हूँ
कि अगर हौसला करके मैं तुम्हें कह भी दूँ
तो कहीं टूट ना जाए ये भरम डरता हूँ
जिसने मासूम बनाया है तुम्हारे दिल को
जिसके साये में तुम्हें अपना कहा करता हूँ
ये भरम गम के धुएँ में ना कहीं खो जाए
दिल के जज्बों की ना तौहीन कहीं हो जाए
बस यही सोच के खामोश मैं रह जाता हूँ...


सुजीत शेट्टी के संगीत निर्देशन में शाहीन इकबाल रचित इस गीत को आप यहाँ सुन सकते हैं ।
 

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स्पष्टीकरण

इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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