गुरुवार, जून 29, 2006

लमहा-लमहा दूरी यूँ पिघलती है...

अरे बाबा! दो महिने हो गये और इस चिट्ठे पर किसी गीत का जिक्र नहीं हुआ। ना जी आपका ये नाचीज बन्दा संगीत से दूर भला कैसे रह सकता है। पर क्या करें इस साल संगीत के नाम पर मायानगरी मुंबई ने अब तक जो कुछ परोसा है वो अपने उदर को कुछ खास पसंद नहीं आया था। पर गैंगस्टर का ये गीत सुना तो जुबान पर ये नग्मा चिपक सा गया।
इस हल्के फुल्के रूमानियत भरे नग्मे को अपनी मखमली आवाज से तराशा है गायक अभिजीत ने। और गाने में गिटार के जो प्रारंभिक नोट्स प्रयोग किये गये हैँ वो एक ऐसा माहौल पैदा करते हैं की सुनने वाला गीत के साथ बहता चले।

वो एक चेहरा..
भावनाओं में बहती वो आखें...
बिना हिले अपनी ही कहानी कहते वो होठ...
ना जाने कितने कवियों को कल्पना की उड़ान में बहाकर ले जा चुके हैं
गीतकार नीलेश मिश्र भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। इसलिये जनाब अगर सावन की सिमसिमी सी बयार आपके दिल को पहले से ही बेचेन किये हो तो ये गीत जुरूर सुनें। मेरा यकीं है कि ये आपके मूड को और रूमानी बना देगा! तो क्यूँ ना थोड़ा सा रूमानी हुआ जाए :) :p

लमहा-लमहा दूरी यूँ पिघलती है
जाने किस आग में ये शबनम जलती है
ख्वाहिशों की शाम ढ़लती है
जाने किस आग में ये शबनम जलती है

तेरी आँखें दिखाती हैं
हमें सपने सितारों के
तेरे होठों पे लिखा है
जो तुम बोले, इशारों में
ख्वाबो के कारवां में रात चलती है
जाने किस आग में ये शबनम जलती है

बहकती शाम, आयी है
तुझे लेकर के, बाहों में
तुझे छू लूँ कि रखूँ मैं
छुपाकर के, निगाहों में
शर्माती इठलाती है मचलती है
जाने किस आग में ये शबनम जलती है

लमहा-लमहा दूरी यूँ पिघलती है
जाने किस आग में ये शबनम जलती है
ख्वाहिशों की शाम ढ़लती है
जाने किस आग में ये शबनम जलती है

गीत सुनने के लिये यहाँ क्लिक करें ।
 

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