मंगलवार, जुलाई 31, 2007

संत माइकल हाई स्कूल,पटना और कहानी कक्षा '10 D' की....

ये घटना करीब बीस साल पुरानी है।
घटना स्थल था... शहर के एक बेहद सम्मानीय मिशनरी स्कूल का आहाता, जहाँ का छात्र होना उस शहर में एक विशिष्ट पहचान दिलाता था....
पर उस अनुशासन प्रिय स्कूल के गेट पर ये मज़मा कैसा?
अरे ! ये लड़के तो प्राध्यापक और उप-प्राध्यापक के ना जाने क्या-क्या अपशब्द कह रहे हैं। सामूहिक नारेबाजी से सारा माहौल गर्म है। कतार में लगी बसों के ड्राइवर और कंडक्टर इस अभूतपूर्व दृश्य को देख कर आनंदित हैं।
और क्यूँ ना हों...स्कूल के इतिहास में ऐसी धृष्टता पहले कभी किसी ने नहीं की थी।

फ़िर आख़िर कक्षा '10 D' के छात्र ऍसा क्यूँ कर रहे थे?
 
चार साल पहले ही मैं इस स्कूल में दाखिल हुआ था। अंग्रेजी माध्यम से एक अन्य स्कूल में जाने की अपेक्षा मैंने हिंदी माध्यम से पढ़ना ज्यादा बेहतर समझा था। हिंदी माध्यम उस स्कूल में नया-नया ही शुरु हुआ था और मैं इसके दूसरे बैच का छात्र था। उस वक़्त हर कक्षा में चार सेक्शन हुआ करते थे। 'A', 'B', 'C' अँग्रेजी मीडियम और 'D' हिंदी मीडियम का सेक्शन था। स्कूल में बिताए पहले तीन सालों में शायद ही मुझे कोई शिकायत रही थी।

बारिश के दिनों में स्कूल के पीछे बहती गंगा नदी का पानी उफनते देख कर खुश होना (पानी का स्तर बढ़ने से स्कूल में छुट्टियाँ हो जाया करती थीं) , सबा करीम के छक्के, कैंटीन में दस पैसे का समोसा, फुटबॉल के मैदान में मारा पहला और अंतिम गोल..ये सब कुछ ऐसी स्मृतियाँ हैं जिनके बारे में सोचकर आज भी चेहरे पर मुस्कुराहट आ ही जाती है।
 
कक्षा में हर तरह के छात्रों का जमावड़ा था। कुछ बेहद होनहार, कुछ सामान्य तो कुछ बेहद खुराफाती। पर नवीं कक्षा तक सब कुछ एक आम स्कूल की तरह ही बीत रहा था और कक्षा की कमान सामान्य और होनहार ही सँभाले हुए थे। पर कुछ बातें रह-रह कर सारी क्लॉस को परेशान कर रही थीं।

बेहद छोटी छोटी बातों से शुरु हुआ था वो सब ...,
'डी' सेक्शन का नाम खेल प्रतियोगिता में विजयी होकर भी ना बुलाया जाना,
अंग्रेजी मीडियम के साथ साथ मूवी शो देखने की अनुमति ना देना,
पुराने शिक्षकों को हटा कर नए शिक्षकों को पढ़ाने का काम सौंप देना....

ऐसा सबको लगने लगा था कि हिंदी माध्यम के छात्रों की, स्कूल की नज़र में वो अहमियत नहीं है जो अंग्रेजी माध्यम की है। दसवीं बोर्ड का डर सबको सता रहा था और कक्षा में अनुभवी आध्यापकों की कमी खटक रही थी। सबसे पहले प्रिंसपल साहब को दो तीन बार शिक्षकों के माध्यम से अपनी परेशानी बताई गई। पर उसका कोई नतीजा नहीं निकला।

नतीजन,खुराफाती दिमाग वालों की बन आई। वे क्लॉस के अगुआ बन गए। फ़ैसला हुआ कि अगर प्रिसिंपल उनकी बात नहीं सुनेगा तो वो भी नए नवेले शिक्षकों की नाक में दम कर देंगे। अर्थशास्त्र की शिक्षिका हमारी क्लॉस टीचर थीं । पिछले साल ही क्लॉस को पढ़ा रहे एक वरीय शिक्षक की जगह उन्हें लिया गया था। थीं तो वो सीधी-साधी पर तज़ुर्बे की कमी कह लें या उनका ढीला ढाला व्यक्तित्व, कक्षा पर उनका नियंत्रण कदाचित ही हो पाता था। ज्यादातर छात्र उनसे निज़ात पाना चाहते थै। सो कक्षा की उद्दंडता का पहला निशाना वो बन गईं।

मार्च का महिना था,होली आने वाली थी। मिस ग्रोवर ने कक्षा के मॉनीटर को किसी कार्य से टीचर्स रूम में बुलाया। जब वो उससे बात कर वापस पहुँची तो सहअध्यापक विस्मित से पूछ बैठे !

ये किसने किया मिस ग्रोवर ?

उन्हें तभी पता चला कि पीछे से उनके सारे कपड़े, स्याही की छोटी-छोटी बूँदों से अटे पड़े हैं। शिकायत ऊपर पहुँची..पर माफीनामे और चेतावनी के बाद मॉनीटर महोदय बरी हो गए।

कक्षा की खुराफ़ाती मंडली के दूसरे शिकार भूगोल के शिक्षक हुए। मिशनरी स्कूलों में अक्सर ऍसे शिक्षकों की बहाली होती है जिनकी एकमात्र योग्यता उनका धर्म होता है। भूगोल के नए नियुक्त शिक्षक इसी श्रेणी में आते थे। वो आते के साथ बोर्ड पर कुछ लिखना शुरु करते और बिना कुछ समझाए बगैर लिखाते-लिखाते कक्षा का समय समाप्त कर देते थे। सो एक दिन वो आए ओर आते ही उन्हें भेंट स्वरूप एक कैलेंडर प्रस्तुत किया गया। कैलेंडर पर क्या था ये बताने की जरूरत नहीं पर उसे दिखाकर लड़कों ने उनकी वो रैगिंग की, कि वो हफ्तों स्कूल में दिखाई नहीं पड़े।

ये सब सही नहीं हो रहा था...पर समझने को कोई पक्ष तैयार नहीं था। '10 D' कक्षा की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी थी। स्कूल की शिक्षिकाएँ सामने के बजाए दूर के रास्ते से गुजरना पसंद करतीं ।

अगर अभी तक प्रिंसपल कुछ कर नहीं पा रहे थे तो वो इस वजह से कि कक्षा को अंग्रेजी पढ़ाने वाले अमरीकी रेक्टर ने उन्हें मना किया था। उनका पढ़ाने का तरीका इतना प्यारा था कि उनकी कक्षा में सभी एकाग्रचित्त होकर पढ़ते थे। वो समझ ही नहीं पाते थे कि इतनी अनुशासित क्लॉस, कैसे इतनी अभद्रता पर उतर आती है? उन्होंने शिक्षकों के बारे में हमारी शिकायत को अपनी छुट्टी के बाद पूरा करने का वायदा भी किया था।

पर वो छुट्टी कुछ ज्यादा ही लंबी हो गई थी। अगर वो घटना के समय रहते तो बात कुछ दूसरी होती...

सितंबर के आसपास का महिना चल रहा था। स्कूल में बड़े पर्दे पर फिल्म दिखाई जा रही थी। सभी देख रहे थे कि दसवीं के बाकी सेक्शन पंक्तिबद्ध होकर जा रहे हैं। हिंदी की कक्षा थी। छात्रों ने सर को बताया कि A,B और C वाले चले गए और अब section D की बारी है। अनुमति मिल गई ...पर जैसे ही कक्षा ने थि॓एटर रूम में प्रवेश किया, प्रिंसिपल सभी को देखते ही आग बबूला हो गए और दहाड़ते हुए बोले

JUST GO BACK AND STAND UP ON YOUR BENCH....

बेंच पर खड़ा होने की परंपरा हम सभी सातवीं कक्षा से ही भूल चुके थे। और दसवीं को ऐसा सज़ा मिलना तो सबके लिए अप्रत्याशित था...

इस बार गलती हमारी नहीं थी। अनुमति लेकर हम सब वहाँ गए थे। हमें वापस जाने को कहा जा सकता था पर बेंच पर सारी कक्षा को खड़ा करने का कोई तुक नहीं था। इस अपमान से सभी आहत थे। बीस पचीस मिनट इसी तरह खड़े रहे..और क्लॉस में कोई नहीं आया। समय के सा्थ छात्रों के खून की गर्मी भी बढ़ती गई। सारे बच्चे कक्षा छोड़ने को आमादा थे।

पर मैं ये जानता था कि इस दंड का पालन ना करने से हानि हम सब की ही होनी है। सब को ये समझाते व़क्त मन के किसी कोने में आत्मसम्मान कचोट रहा था...शायद कह रहा था कि अगर सारी कक्षा राजी है तो क्या तेरी ही गैरत ख़त्म हो गई है...इसलिए मैंने भी वही किया जो सारी कक्षा ने किया..मँझधार के साथ बहने का फ़ैसला ये जानते हुए भी कि इसमें सबको साथ ही डूबना है।

और फिर वो हुआ जो नहीं होना चाहिए।

जब तक हम चिल्लाते रहे पलड़ा हमारा भारी रहा क्यूँकि उस स्थिति में हमारा न्यूसेंस वैल्यू ज्यादा रहा। पर दो तीन बार जब बड़े प्यार से हमें अंदर आकर बातचीत से मामला हल करने के लिए कहा गया तो हम सब शांत हुए। पर अंदर जाते ही हमारी हेकड़ी ख़त्म हो गई। प्रिंसिपल के कक्ष में जम कर झाड़ मिली। स्कूल से निकाल दिए जाने की धमकियाँ दी गयीं। अंत में यही कहा गया कि अगर स्कूल मे पढ़ना है तो उन्हीं शिक्षकों से पढ़ना होगा, जो हमें स्वीकार्य नहीं था। लिहाज़ा स्कूल ने हमें छः महीनों के लिए छुट्टी दे दी। बोर्ड की परीक्षा हमने बिना स्कूल के सहायता के दी।

यानि जो तय बात थी वही हुई...नुक़सान स्कूल से ज्यादा छात्रों का हुआ। +2 में हमें स्कूल ने लेने से इनकार कर दिया और हम लोगों को इंटर में अच्छे कॉलेज में दाखिला नहीं मिला।

संत माइकल की गणना आज भी पटना के सम्मानित स्कूलों में होती है। पर मेरे लिए स्कूल में बिताए मीठे लमहों के ऊपर स्कूल के दिनों के पटाक्षेप की दुखद स्मृतियों ही ज्यादा हावी हो गईं है। इसलिए हममें से ज्यादातर ने पटना में रहकर भी अपने स्कूल का मुँह तक नहीं देखा। दो तीन छात्रों के आलावा मुझे आज अपने सहपाठियों की कोई ख़बर नहीं है।
आशा है, मेरी तरह वे भी उस चोट से उबर गए होंगे..शायद उन्होंने अनुशासन के महत्त्व को समझा होगा..और शायद मेरा स्कूल भाषाई पूर्वाग्रह से ग्रसित वैसे प्राध्यापकों से मुक्त हो गया होगा....

(स्कूल जाते वक़्त एक ही बस में सफ़र करने वाले सहपाठी अमिताभ माहेश्वरी को साभार, जिन्होंने मुझे इस पोस्ट को लिखने के लिए प्रेरित किया)

इस प्रविष्टि के सारे चित्र यहाँ से लिए गए हैं।
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19 टिप्पणियाँ:

बेनामी ने कहा…

मनीष जी सहने की भी सीमा होती है मुझे लगता है प्रीन्सिपल के अशोोभनीय़ रवैए के काऱण ही यह नौबत आई। छात्रों की इसमें कोोई गल्ती नहीं थी।

mamta on जुलाई 31, 2007 ने कहा…

शुक्रिया तो हमे भी आपके दोस्त का करना चाहिऐ ।

स्कूल का अपने छात्रों के साथ ऐसा बर्ताव करना निसंदेह गलत था ।

ePandit on जुलाई 31, 2007 ने कहा…

कुछ गलती छात्रों की भी थी, लेकिन स‌्कूल का भी कम दोष नहीं था। छात्र स‌्कूल प्रबंधन तक अपनी बात पहुँचा ही चुके थे, लेकिन कुल मिलाकर बात ये है कि नुक्स‌ान छात्रों का ही हुआ।

Udan Tashtari on जुलाई 31, 2007 ने कहा…

बहुत अच्छा लगा यह स्कूल के दिनों का संस्मरण पढ़ना. सन्त माईकिल स्कूल, पटना के एक छात्र हमारे साथ बम्बई में सी ए करते थे. मगर वो अंग्रेजी माध्यम से आये थे और अपने स्कूल की तारीफ करते नहीं अधाते थे. :)

Yunus Khan on जुलाई 31, 2007 ने कहा…

जमाना बदल गया है मनीष भाई । आज ऐसा होता तो सबसे पहले चैनल वाले पहुंचते और स्‍कूल की भद्द उतार देते । ये विवरण पढ़ के बहुत दुख हुआ । दरअसल मिशनरी स्‍कूलों से ऐसी घटनाओं की खबर आती रहती है । मैं खुद थोड़े दिन मिशनरी स्‍कूल में पढ़ा हूं । कुछ बातें बुरी लगती थीं, पर कुछ नहीं बदला । ऐसा आज भी होता है ।

सुनीता शानू on अगस्त 01, 2007 ने कहा…

मनीष जी बहुत अच्छा लगा लेख पढ़कर स्कूल के दिनो की याद हमे भी आ गई...बहुत जरूरी है स्कूलों में अनुशासन का होना...मगर ये भी जरूरी है स्कूल प्रबंधक और स्कूल टीचर भी अनुशासन में रहें...मुझे आज भी याद है मेरी एक सहपाठीका को बेवजह एक अध्यापिका के थप्पड़ को सहन करना पड़ा जबकी दसंवी कक्षा में आने के बाद ये बेहद गलत है...यद्यपि मेरा मानना है यदि माता-पिता गलत बात पर डाँट सकते है या दण्ड दे सकते है तो अध्यापक भी दे सकते है,मगर बात यहाँ कुछ और है यहाँ तो प्रिन्सिपल की मनमानी है...आहत होने के सिवा कुछ नही किया जा सकता मेरा मानना तो यही है उस वक्त जब आप कुछ नही कर सकते अपना नुकसान भी मत करो...ये छोटी-छोटी बातें ही तो हमे प्रेरणा देती है,कि हम वो गलती कदापि न करे जो हमारे बड़े कर चुके है,जिस बात से हम आहत होते है,ये सोच हमे एक योग्य और कुशल...व्यक्ति बनाने में सहायक होगी...


सुनीता(शानू)

Manish Kumar on अगस्त 05, 2007 ने कहा…

रत्ना जी, ममता जी जी बिलकुल ..अपनी राय देने के लिए शुक्रिया !

श्रीश जी आप तो खुद ही शिक्षक हैं । आपकी राय से पूरी तरह इत्तेफ़ाक रखता हूँ।

समीर जी स्कूल वैसे तो अच्छा ही है..हमारे समय के प्रधानाचार्य के ग़लत व्यवहार ने समस्या को इन हालातों तक पहुँचा दिया।

Manish Kumar on अगस्त 05, 2007 ने कहा…

यूनुस भाई हाँ, शायद आज के समय में नतीज़ा कुछ और होता। हमारी कक्षा के छात्रों के साथ हुए बुरे बर्ताव को आपने महसूस किया उसके लिए आभार।
कुछ बातें बुरी लगती थीं, पर कुछ नहीं बदला । ऐसा आज भी होता है
सही ! दरअसल, अभिभावक आज भी स्कूलों के ऊल जलूल आदेशों पर आँख मूंद लेते हैं..अकेले कोई स्कूल की किरकिरी नहीं बनना चाहता।

Manish Kumar on अगस्त 05, 2007 ने कहा…

सुनीता जी अपनी यादों को बाँटने का शुक्रिया ! ऊपर की कक्षाओं मे इस तरह के दंड, विपरीत परिणाम दिखाते हैं। अपमानित मन, संयम और तार्किक रूप से निर्णय लेने की क्षमता खो देता है।

बेनामी ने कहा…

You guys faced such hardship and yet did not contest us when we were heaping praise on Mr Raj and others.This is what I appreciated.

It is not our fault,as you said that jiska jaisa anubhav hoga wahi to likhega.But I have told some of my close friends about your batch and the sesitiveness shown by you.Your article was lovely.It nearly brought tears in my eyes.

बेनामी ने कहा…

apka ye post behad dukhad laga...kissi ek teacher/principal ki wajah se itne saare bachchon ke bhavishya par itna bada asar!! kya unke conscious nahi hote?

बेनामी ने कहा…

This incident seems to have happened just a few years after my time in St.Mikes. I wonder where the parents were in all this.
I agree that what the principal did was inappropriate to put it mildly; but what about the students unwillingness to accept some of the teachers? Surely, they should not have rebelled like some cheap politicians while they were not yet adults. And surely, every class has its share of 'bad' teachers.
Quote from the article:
"जब तक हम चिल्लाते रहे पलड़ा हमारा भारी रहा क्यूँकि उस स्थिति में हमारा न्यूसेंस वैल्यू ज्यादा रहा।"
Students should not be doing these kinds of things – their protests/complaints should be via their parents/PTA or other appropriate channels. They cannot force the school to change teachers unless something extraordinary, e.g. criminal activity is going on. If they are encouraged in such behaviour then we are then setting the stage for beginning of lawlessness.
I remember in my time there was a similar rebellion by my classmates(including me). Briefly, it went thus:
It was school fete time; one of my classmates, a Patna MP's son, had done a lot of work in the organising of the fete. A couple of days before the fete , when everybody else was in uniform, he turned up in casuals. When the principal saw him, he promptly ordered him to go home and change. This 'enraged' my classmates who then walked out and held the school fete to ransom. I remember standing outside the school gates in protest demanding that an apology be made by the Princy himself and the boy be let back in(in casuals). This was the first time I had heard of any such incident in my 10 years at St. Mikes. In the end, the Vice-Princy came out crying(yes crying!) and begged us all to come back in and continue with helping organise the fete. We won! But I believe we also set the set the stage for beginning of lawlessness.
I regret to this day being one of boys standing outside gates protesting.
Discipline is just that – discipline!
p.s. Sorry, no offence meant to anyone.

Manish Kumar on मई 05, 2008 ने कहा…

Well Vineet its nice that you have given your views. But I have also concluded on two points the first which you yourself pointed out that

Discipline is just that – discipline!

and i fully agree with it...that why also wrote in last line that
शायद उन्होंने अनुशासन के महत्त्व को समझा होगा.

Second point is the language pejudice which you completely missed in your reply. if a school discriminates just because of this, it is also incorrect.

Amar on मई 07, 2008 ने कहा…

When I was told about these incidents some 10 months back by Amitabh Maheshwari,everything came to my memories in a Flashback.

Your Batch was senior to me, and I was witness to all these incidents and also on First hand detailed narration for what I was not witness from students of this batch,since we stayed in a Hostel.

I do Agree,that inadvertingly,this Batch was punished,where in some people like you might have been not responsible for anything.

Somehow, I think Its completely being biased blaming school for what you have gone through.

# You yourself Know what else students of this batch had done,what you have not mentioned everything here.
Students of this modern age would bow thier heads in shame,if they know what thier seniors had done so many years back.

If someone neutral hears all of these,the batch would have not been allowed to continue further.
School was still Lenient enough.

# ALthough there were many innocent people in batch,but whoever was giving leadership to the entire batch from the student was also responsible equally to the followers

# why didnt the genuine people protest when Indiscipline "infact the deeds done does not even fit in paramenter of Indiscipline" was taking place.

# Those students who were about to face the Board don't happen to be that Immature.

#Someone above is right writing why PTA was not involved if so called atrocities was being done on students.

# Out of a batch of so many students,if there was a genuine attempt for sorting things out,parents could have been involved,and at least 30 Parents/Guardians were enough for putting things right.this was not done because Batch was at Fault.They were not accepting mistakes.

# Until you are students,why being ashamed of standing on Bench,it was as Humane a punishment,compared to what children face today in some Modern schools.Since genuine students,didnt restrained bad elements, you are also liable to face this punishment collectively,as similarly as the whole batch is praised if one or 2 student fair extraordinary.

what an irresponsible attitude mentioned below:

"बीस पचीस मिनट इसी तरह खड़े रहे..और क्लॉस में कोई नहीं आया। समय के सा्थ छात्रों के खून की गर्मी भी बढ़ती गई। सारे बच्चे कक्षा छोड़ने को आमादा थे।

पर मैं ये जानता था कि इस दंड का पालन ना करने से हानि हम सब की ही होनी है। सब को ये समझाते व़क्त मन के किसी कोने में आत्मसम्मान कचोट रहा था...शायद कह रहा था कि अगर सारी कक्षा राजी है तो क्या तेरी ही गैरत ख़त्म हो गई है...इसलिए मैंने भी वही किया जो सारी कक्षा ने किया..मँझधार के साथ बहने का फ़ैसला ये जानते हुए भी कि इसमें सबको साथ ही डूबना है।"


Then why complain for ,if you did not take corrective actions.

You guys are only thinking of yourself,

Have you thought over...what Bad name school had got that time ,because of your deeds ?

Did we people from other junior and senior Batches went Public and exposed you for what you have done in school ?
Other students from different schools used to taunt us on indiscipline.

and there is no linguistic attitude shown by school, there were more Hindi Meduim batches in school, no one ever faced such things.thats completely baseless.

if in This age of 14-16,students build ego issues and work towards destruction,you can yourself think,if you were going towards right direction or wrong direction.

# you also mentioned,you are only in touch with 2- or 3 of that batch.
me from junior batch,but I am in touch with at least 8-10 students from this batch and all except one says,students were wrong.

# I am not here to sermon,but I can only advice, look at the life positively,just change your attitude towards life and you will feel the difference.

# NOTE: I have names to relate to all such Incidents,but since those people don't want to be named, and they think, its time to move on in life,and some of them say,that was a great learning period in turbulence, and understanding of Herd Mentality...long after they had passed the school,I would not like to name them here.

wish you all the best in Life.....

Manish Kumar on मई 07, 2008 ने कहा…

अमर पूरी पोस्ट में मैंने कहीं ये नहीं कहा कि छात्रों की कम गलती थी। पर प्रधानाध्यापक की गलती तब थी जब उद्दंडता करते छात्र जिनमें से मॉनीटर महोदय आपकी तरह हॉस्टल में रहने वाले थे को समय रहते उचित दंड नहीं दिया गया था। शायद इसलिए कि वो उप प्रधानाध्यापक के हॉस्टल में रहते थे।

शिक्षकों को बदलने की माँग पढ़ने वाले छात्रों ने ही की थी और वो भी इसलिए कि बिहार बोर्ड के प्रश्नपत्रों के प्रारूप से नए शिक्षक अनिभिज्ञ थे। पर इस बारे में सबको बुलाकार बात करने की इच्छा भी उन्होंने ज़ाहिर नहीं की।

मैं फिर स्पष्ट कर दूँ कि ये पोस्ट मेरे निजी अनुभव हैं और मैंने घटना के बीस साल बाद जब जब ठंडे मन से विचार किया है दोनों पक्षों को बराबर रूप से दोषी पाया है। जिस स्कूल में मैं छठी से दसवीं तक अव्वल आता रहा उससे स्पष्ट है कि मेरी कुछ सुखद स्मृतियाँ भी जुड़ी हैं। इस घटना का कम से कम मेरे कैरियर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

और अब बीस साल बाद attitude के बारे में पाठ पढ़ाने से कोई फ़ायदा नहीं मित्र। हम अपनी जगह खुश हैं आप भी मस्त रहिए।

Amar on मई 08, 2008 ने कहा…

@और अब बीस साल बाद attitude के बारे में पाठ पढ़ाने से कोई फ़ायदा नहीं मित्र।

--I had clearly written,I am not here to sermon,advise is something,at least ill be open througout my life.


and there was no relation to someone staying in Vice principal's Hostel,but it was an act of pardoning by our teachers and being extra cautious by school on this batch,looking at the gravity of situation resulting out of misdeeds of students.

One who knows,something is going wrong in a group and not protesting,or restraining fellow students is more guiltier than who is comminitting the act and not knowing if what is being done is right and wrong.
One has his/her own conscience, and there is a way to present any matter,but not by politicising.

I am not sure how much you are aware of the incidents,...I guess you are if this line written by you gives a hint "ये सब सही नहीं हो रहा था...पर समझने को कोई पक्ष तैयार नहीं था। '10 D' कक्षा की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी थी। स्कूल की शिक्षिकाएँ सामने के बजाए दूर के रास्ते से गुजरना पसंद करतीं "

do you want me to write Graphic details what happenned with 2 of the school teachers ?

any Normal human being would not tolerate such activities what happenned during that day!

I consider the pricipal a genuinly considerate person,that he still allowed those people to be in school,other wise the misdeeds come under a extremly harsh punishment under Indian Law.

I am fortunate to have studied in such school, where the teachers and the principal did not go ahead and lodged police complaint,but pardoned you,and yes if they were too cautious in dealing with this batch,they were 101 % correct.why take chances to let appear more such incidents.
you were a Brilliant student and if you still dont know the facts or are ignoring what happenned, then its unfortunate.

Its good that you are happy today,and wish you all the best ahead,but what happenned during that time at School is a shame on the name of having such students.going into more graphic details would be hurting those particular teachers. I refrain from doing this and ant the same time, ....I can say I am proud of the school,that the school admin chose to pardon students,rather than handling them over in the hands of Law.

I dont intend to wash dirty linen of others here on a Public forum, I only responded because the initial post carried only 25 % of the truth.and I have not revealed even 10 % of rest of the facts.

One may have personal grudges,but if the whole school's Image is being tarnished here, I intend to make things more clear here that,I feel much proud thinkg the act of pardon done by school management that time,because one who pardons stands in the league of GOD.

Proud to be a Michaelite !
Take care !

Manish Kumar on मई 09, 2008 ने कहा…

अमरेंद्र , आप को जो भी लिखना है शौक से लिखिए जितने ग्राफिक डीटेल में लिखना चाहते हैं लिखिए। उससे मेरी बातों को ही बल मिलेगा :) जब बदमाशों को कोई सजा नहीं देगा तो उनकी हिम्मत बढ़ेगी ही। हँसी आती है आपकी pardoning theory पर!
. सात आठ छात्रों पर समय पर उचित कार्यवाही ना कर बाकी तीस छात्रों के जिनका कभी भी किसी घटना में हाथ ना रहा हो को सज़ा देते वक्त आपकी pardoning theory कहाँ चली गई।

Amar on मई 09, 2008 ने कहा…

Seems you have little problem comprehending,,,read again what I have written,,,why I would not like to give graphic details for reasons already mentioned.

As I said, i dont have any intention wash others' dirty linen here in Public,where were you guys the so called innocent students,you cannot be termed innocents,if you supported the misdeeds.

you can laugh on pardoning theory and I laugh on so called innocents 30 mortals,who didn't had guts to protest on what wrong was being done,guts to involve guardians' intervention but become cry babies after 20 years.
I am not surprised on your laughing beacause, you must be laughing in those years too instead of initiating corrective actions,but suppoting bad elements.

For those people as I know people from this Batch,are Braver and balanced mortals, who have accepted thier mistakes and learnt from the past,rather crying and blaming school.they are doing excellent in thier lives.

Pardoning was done keeping entire batch ,not with specific students.
And some exceptions who think it was punishment,dont know what punishment would have meant for the mistakes were done.

An immature student can think in only from his/her perspective,but Teacher has to see the Larger Picture.

and someone said "sometimes silence is Bliss",that you dont think of minority who are mischiefs,but majority who have scope to improve make a better world.

There is no point bringing out the teachers' names here who went through the ordeal.

My last post here,with only intention to clear the air for wrong picturisation done till now with the initial blog by a misguided mortal.
God will pardon such brethen again



Proud to be a Michaelite

Amar

Manish Kumar on मई 09, 2008 ने कहा…

आपको अपने विचार रखने की पूरी स्वतंत्रता हैं अमरेन्द्र भाई। हर बच्चे को अपने स्कूल पे गर्व होना चाहिए आपको भी है जानकर खुशी हुई। आप मेरी बात मानें ना मानें ये आप पर है। इस बात पर भी गौर करने की जररत हूँ मैं उस कक्षा के छात्रों के साथ चार साल तक साथ रहा हूँ जबकि आप किसी जूनियर बैच में थे जैसा आपने कहा। फिर भी आप कहते हैं कि मैंने २५ प्रतिशत सही लिखा है जबकि आप सौ प्रतिशत जानकारी रखते हैं। मैं यही कहूँगा कि मैंने अपनी पोस्ट में दोनों पक्षों द्वारा घटना के मुख्य बिंदुओं को छुआ है। हर बात की डीटेल ना तो आप दे सकते हैं ना मैं. कारण वही जो आपने लिखा।

कुछ छात्रों ने उद्दंडता की हदें पार की इसका जिक्र मैंने पोस्ट में जगह जगह किया है। वे गलत थे ये भी मैंने अपनी पोस्ट में कहा है जो पोस्ट पढ़कर किसी भी हिंदी समझने वाले के लिए मुश्किल नही है। पर जो क्लास उन्हीं छात्रों के साथ नवीं कक्षा तक सही थी वो अचानक दसवीं में आकर ही इतनी बदल कैसे गई, इस बारे में भी पाठकों को सोचने की जरूरत है। कब तक ये क्लॉस अच्छे बच्चों की पकड़ में रही और कब इसका नेतृत्व बदमाश बच्चों के पास चला गया इसका जिक्र भी इस पोस्ट मे है। मैंने व्यक्तिगत तौर पर अपने साथियों को समझाने बुझाने के क्या प्रयास किए उसकी सत्यता मेरे सहपाठी जानते हैं। उसके लिए मुझे आपसे प्रमाण पत्र लेने की आवश्यकता नहीं है।

मैंने ये पोस्ट अमिताभ के कहने पर लिखी थी। न कि स्कूल के प्रति किसी विद्वेष के चलते। अगर ऍसा होता तो इसे सीधे मैं आरकुट पर स्कूल की कम्युनिटी में छापता। मैं समझ सकता हूँ स्कूल के प्रति आपका प्रेम और भावुकता मुझे misguided या immature की श्रेणी में ला देती है तो वही सही। प्राध्यापक से ना सही पर स्कूल के अच्छे शिक्षकों से मुझे भी उतना ही प्रेम है जितना आपको।

आपको अपनी बात कहने के लिए मैंने पूरा अवसर दिया है और इसीलिए आपकी प्रतिक्रिया ज्यों की त्यों छाप दी है। अब ये फ़ैसला पाठकों पर छोड़ दें कि वो किस नजरिए पर ज्यादा विश्वास करते हैं।

 

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