शनिवार, जुलाई 21, 2007

मैं, उत्तरांचल, जोशी जी और 'कसप'..आइए चलें इस पुस्तक यात्रा पर - भाग: १

मेरा उत्तरांचल से क्या संबंध है? कुछ ख़ास नहीं। बस इतना भर कि रुड़की में मैं डेढ़ वर्ष रहा हूँ और प्रवीण सिंह खेतवाल जो मेरे यात्रा विवरणों में आपको हमेशा दिखाई पड़ते हैं और मेरे अभिन्न मित्र हैं, खुद कुमाऊँ से हैं। खेतवाल जी की शान में एक बात ये भी कहने योग्य है कि उनका महेंद्र सिंह धोनी के घर, जो कि हमारे आफिस के पास है, आना जाना है। कार्यालय में हम सभी मन में ये आस लगाएँ हैं कि कभी ना कभी वो साक्षात हमें धोनी से मिलवा पाएँगे।


पर रुड़की का मेरा प्रवास हो या खेतवाल जी का सानिध्य, कोई मुझे उत्तरांचल की मिट्टी के इतने पास नहीं ले गया जितना वो शख़्स जिससे मैं कभी नहीं मिला और ना ही मिल पाऊँगा। जी हाँ, मैं मनोहर श्याम जोशी जी की बात कर रहा हूँ, जिनकी किताब क्याप की चर्चा कुछ दिनों पहले मैंने इसी चिट्ठे पर की थी। आज आपके समक्ष जोशी जी के एक अलग तरह के उपन्यास 'कसप' की चर्चा करूँगा। अलग इसलिए कि जोशी जी अपने व्यंग्यात्मक लेखन कौशल के लिए ज़रा ज्यादा जाने जाते हैं और ये कथा है गाँव के एक अनाथ, साहित्य सिनेमा प्रेमी, मूडियल लड़के देवीदत्त तिवारी यानि डीडी और शास्त्रियों की सिरचढ़ी, खिलन्दड़ और दबंग लड़की बेबी के प्रेम की। किताब में इस बात का जिक्र है कि जोशी जी ने ये उपन्यास अपनी पत्नी भगवती के लिए लिखा और वो भी मात्र ४० दिनों में। विचित्र शीर्षक रखने की परंपरा (कुरु कुरु स्वाहा, कसप, क्याप) को कायम रखने के आरोप को ख़ारिज करते हुए लेखक कहते हैं..

."आपकी तरह मैं भी चौंकाने वाले साहित्य का विरोधी हूँ। बल्कि मुझे तो समस्त ऐसे साहित्य से आपत्ति है जो मात्र यही या वही करने की कसम खाए हुए हों। पर इस कथा के जो भी सूझे मुझे विचित्र शीर्षक सूझे। कदाचित इसलिए कि इस सीधी-सादी कहानी के पात्र सीधा-सपाट सोचने में असमर्थ रहे।"
सही ही कह रहे हैं जोशी जी पूरे उपन्यास में नायक-नायिका की खट्टी-मीठी प्रेम कथा पढ़ कर भी ये निर्णय करना मुश्किल हो जाता है कि जिसने जो किया क्या वो सही था? और उतना सोचने के बाद जवाब यही निकल कर आता है कि कसप !(कुमाऊँनी में कसप का मतलब है क्या जाने ! )

हमारी आंचलिक भाषाएँ कितनी मीठी है ये कसप जैसे उपन्यासों को पढ़ कर महसूस होता है। जोशी जी ने कुमाऊँनी हिंदी का जो स्वरूप पाठकों के समक्ष रखा है वो निश्चय ही मोहक हे। इससे पहले ऐसा ही रस फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यासों को पढ़ने में आया करता था। जोशी जी ने कुमाऊँनी समाज की जो झांकी अपनी इस कथा में दिखाई है, उसे पाठकों के हृदय तक पहुँचाने का श्रेय बहुत कुछ उनके द्वारा प्रयुक्त की गई भाषा का है। पूरे उपन्यास में जोशी जी सूत्रधार की भूमिका निभाते दिखते हैं। प्रेम कथा तब प्रारंभ होती है जब हमारे नायक-नायिका यानि डीडी और बेबी पहली बार शादी के एक आयोजन में मिलते हैं। अब ये मत समझ लीजिएगा कि ये मुलाकात नैनीताल के मनभावन तालों के किनारे किसी हसीन शाम में हुई होगी। अब जोशी जी क्या करें बेचारे ! खुद कहते हैं...
"यदि प्रथम साक्षात्कार की बेला में कथानायक अस्थायी शौच में बैठा है तो मैं किसी भी साहित्यिक चमत्कार से उसे ताल पर तैरती किसी नाव पर तो नहीं बैठा सकता।"

बिलकुल सही और इसीलिए नायक, नायिका से पहली मुलाकात में चाँद सितारों की बात ना कर उस मारगाँठ (पैजामे में लगी दोहरी गाँठ) का ज़िक्र करता है जो अस्थायी शौच में उसे देखकर हड़बड़ाकर उठने से लगी थी।

ख़ैर, जोशी जी की नोक-झोंक के ताने बाने में बढ़ती प्रेम कथा को थोड़ी देर के लिए विराम देते हैं। अपने उपन्यास में जब-तब वो अपने सरस अंदाज़ में उत्तरांचल के समाज की जो झलकियाँ दिखाते हैं, वो कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। अब यही देखिए एक नव आगुंतक के परिचय लिए जाने का कुमाऊँनी तरीका.....

"'कौन हुए' का सपाट सा जवाब परिष्कृत नागर समाज में सर्वथा अपर्याप्त माना जाता है। यह बदतमीजी की हद है कि आप कह दें कि मैं डीडी हुआ। आपको कहना होगा, न कहिएगा तो कहलवा दिया जाएगा, मैं डीडी हुआ दुर्गादत्त तिवारी, बगड़गाँव का, मेरे पिताजी मथुरादत्त तो बहुत पहले गुजर गए थे, उन्हें आप क्या जानते होंगे, बट परहैप्स यू माइट भी नोइंग बी.डी तिवारी,वह मेरे एक अंकल ठहरे.....वे मेरे दूसरे अंकल ठहरे।
उम्मीद करनी होगी कि इतने भर से जिज्ञासु समझ जाएगा। ना समझा तो आपको ननिहाल की वंशावली बतानी होगी।
किस्सागोई की कुमाऊँ में यशस्वी परंपरा है। ठंड और आभाव में पलते लोगों का नीरस श्रम साध्य जीवन किस्सों के सहारे ही कटता आया है। काथ, क्वीड, सौल-कठौल जाने कितने शब्द हैं उनके पास अलग अलग तरह की किस्सागोई के लिए! यही नहीं, उन्हें किस्सा सुनानेवाले को 'ऐसा जो थोड़ी''ऐसा जो क्या'कहकर टोकने की और फिर किस्सा अपने ढ़ंग से सुनाने की साहित्यिक जिद भी है।"
वैसे लोगों की किसी भी अजनबी के लिए उत्सुकता , भारत के हर छोटे गाँव या कस्बे का अभिन्न अंग है जहाँ अभी भी महानगरीय बयार नहीं बही है। वापस प्रेम कथा पर चलें तो हमारा नायक विवाह के आयोजन में नायिका के साथ खिलंदड़ी कर अपने संभावित साले से दुत्कार झेलने के बाद मायानगरी मुंबई का रुख कर चुका है जहाँ वो किसी व्यवसायिक दिग्दर्शक का सहायक है। अब वहाँ पहुँचकर नायक, नायिका को पत्र लिखने की सोचता है। पर ये तथाकथित प्रेम पत्र, दिल का मज़मूं बयां करने के बज़ाए नायक के सारे साहित्यिक और फिलासिफिकल ज्ञान बघारते नज़र आते हैं। अब बेबी उन्हें पढ़ कर करे भी तो क्या, आधे से ज्यादा सिर के ऊपर से गुजर जाने वाला ठहरा। पहला ही पत्र पढ़कर कह बैठी...

"बाब्बा हो, जाने कैसे लिख देते होंगे लोग इतना जड़ कंजड़ ! कहाँ से सूझता होगा इन्हें? बरेली से बंबई तक जाने के बारे में ही पाँच कागज़ रँग रखे।....और लिख भी इस डीडी ने ऐसी हिंदी रखी जिसमें से आधा मेरी समझ में नहीं आती। नेत्र निर्वाण क्या ठहरा बाबू ?"

तेर ख्वारन च्यूड चेली !(ओ तेरे सिर पर चिउरे बच्ची...ऐसी आशीर्वादवत गालियाँ कुमाऊंनी विशेषता हैं।)...इधर दिखा यह कैसी नेत्र निर्वाण रामायण लिख रखी है उस छोरे ने.."
सो पत्र व्यवहार का एकतरफा सिलसिला जो प्रेमी युगलों के बीच शुरु हुआ, वो वास्तव में डीडी और शास्त्रीजी के संवाद में बदल गया। पत्र का साहित्यिक और वैचारिक मर्म खुद पिता पुत्री को समझाने में लग गए, आख़िर शास्त्री जो ठहरे। धीरे-धीरे ही सही बेबी की बुद्धि खुली और लिख ही डाली उसने अपनी पहली पाती....

"तू बहुत पडा लिखा है। तेरी बुद्धी बड़ी है। मैं मूरख हूँ। अब मैं सोच रही होसियार बनूँ करके। तेरा पत्र समझ सकूँ करके। मुसकिल ही हुआ पर कोसीस करनी ठहरी। मैंने बाबू से कहा है मुझे पडाओ।....हम कुछ करना चाहें, तो कर ही सकनेवाले हुए, नहीं? वैसे अभी हुई मैं पूरी भ्यास (फूहड़)। किसी भी बात का सीप (शऊर) नहीं हुआ। सूई में धागा भी नहीं डाल सकने वाली हुई। लेकिन बनूँगी। मन में ठान लेने की बात हुई। ठान लूँ करके सोच रही।"
भाषा की सीमाएँ भावनाओं के संप्रेषण में कभी बाधा नहीं बनती ये कितनी सहजता से साबित कर दिया जोशी जी ने। आश्चर्य नहीं कि हमारा नायक इस पत्र को बार-बार चूमे जा रहा है और इस सरल सहज पत्र को उच्च कोटि के प्रेम पत्र में शुमार कर रहा है।

जोशी जी के इस उपन्यास की ख़ासियत ये भी है कि वो नायक या नायिका या हर चरित्र के किसी भी कृत्य के पश्चात बड़े ही रोचक अंदाज में उसका विश्लेषण करते हैं। पाठकों के मन में उस वक़्त चल रही भावनाओं और भीतरी द्वंद्व को समझते हुए अपनी त्वरित प्रतिक्रिया भी दे डालते हैं जिससे पढ़ने का आनंद और बढ़ जाता है।

डीडी और बेबी की अगली भेंट एक दूसरे वैवाहिक आयोजन में होती है... कैसा रूप लेती है ये कथा ये जानते हैं इस चर्चा के अगले भाग में..
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19 टिप्पणियाँ:

Pratyaksha on जुलाई 21, 2007 ने कहा…

ये किताब मुझे भी पसं‍द है । अगले भाग का इंतज़ार रहेगा ।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` on जुलाई 22, 2007 ने कहा…

मनीष भाई,
बडी रोचक कहानी आप समझाते हुए चलिये ..हमेँ अगली किश्तोँ का इँतज़ार रहेगा -
स्नेह,
-- लावण्या

मसिजीवी on जुलाई 22, 2007 ने कहा…

चिट्ठों की दुनिया वाले नहीं मानेंगे- पहले टटा प्रोफेसर फिर से पढ़नी पड़ी थी अब आपकी वजह से कसप फिर एक बार पढ़नी पड़ेगी...
शुक्रिया।

जारी रहें

Yunus Khan on जुलाई 22, 2007 ने कहा…

मनीष भाई, कसप क़रीब नौ साल पहले पढ़ी थी और बहुत आनंद मिला था । मुझे मनोहर श्‍याम जोशी अनूठे कथानक और उससे भी अनूठी भाषा शैली के लिए बहुत प्रिय हैं ।

Sanjeet Tripathi on जुलाई 22, 2007 ने कहा…

मसिजीवी जी से सहमत हूं!!

Manish Kumar on जुलाई 22, 2007 ने कहा…

प्रत्यक्षा आपने एक टिप्पणी की थी कभी इस संबंध में।
http://ek-shaam-mere-naam.blogspot.com/2006/10/blog-post_08.html#comment-116027816493150466

अगला भाग शीघ्र लाऊँगा।

Manish Kumar on जुलाई 23, 2007 ने कहा…

यूनुस भाई मुझे पहली बार अंतरजाल पर ही इस किताब के बारे में पता चला था। पर कई पुस्तक मेले में निराश लौटने के बाद ये मुझे कार्यालय के पुस्तकालय में अचानक दिख गई। पढ़ने के बाद पिछले महिने से इसके बारे में लिखने की सोच रहा था। अब जा कर लिख पाया हूँ।

लावण्यम जी शुक्रिया ! अगला भाग हाज़िर है।

Manish Kumar on जुलाई 23, 2007 ने कहा…

मसिजीवी जी टा टा प्रोफेसर मैंने भी पढ़ी है तब जब इंटरनेट नहीं था। पर कुल मिलाकर जोशी जी की अब तक पढ़ी सभी पुस्तकों में ये सबसे बेहतर लगी।

संजीत आपने भी इसे पहले पढ़ा है क्या?

Ashok Pande on अक्तूबर 11, 2007 ने कहा…

बहुत शानदार उपन्यास है 'कसप'. मुझे तो उसके कई हिस्से कंठस्थ हैं. थैन्कू साब.

Ashok Pande on अक्तूबर 11, 2007 ने कहा…

बहुत शानदार उपन्यास है 'कसप'. मुझे तो उसके कई हिस्से कंठस्थ हैं. थैन्कू साब.

Manish Kumar on अक्तूबर 11, 2007 ने कहा…

शुक्रिया पांडे जी ! मुझे भी कसप जोशी जी के बाकी उपन्यासों की तुलना में ज्यादा पसंद आई।

बेनामी ने कहा…

From where I can free download this nobel....

Hindi on दिसंबर 12, 2009 ने कहा…

i halfread this wonderful book in 1983 but got to complete it in 2004.Wow what a wonderful book it is, one can only know this by reading it thoroughly. i enjoyed reading, re-reading it numerous times. i strongly recommend this book to all the lovers of good hindi literature as it is one of the best books of hindi. i want to read 'kahse kahoon' does anybody have ?
thanks to manish for starting this page of my most favourite author.

Cinemanthan on जुलाई 30, 2010 ने कहा…

कसप तो कमाल पुस्तक है। आप भी प्रेमी हैं इस किताब के!
अभी कुछ दिन पहले निर्मल पांडे पर एक स्मरण पोस्ट लिखते समय इस अदभुत उपन्यास का जिक्र किया था। निर्मल में पर्दे पर डीडी बनने के तमाम गुण थे।

Unknown on मार्च 02, 2011 ने कहा…

maine ye book padhi hai nice story but muje ye aaha adhura piyar lagta h jo kabhi mil nahi paaya kahi na kahi dono me aapsi samjh ki kabhi thi bebi ko dd ke halat samjhne chahiye the use bhi aapni ek pechchan banane ka haq hai jo d d ne kya woh sahi tha

Manish Kumar on मार्च 02, 2011 ने कहा…

सीमा जी सारी प्रेम कथाएँ सुखद तो नहीं हो सकती ना। आपने जो बेबी के बारे में कहा उससे मैं सहमत हूँ। अक्सर निजी महात्त्वाकांक्षाएँ और अहम प्रेम के आड़े आ जाती है। लेखक तो खुद कहते हैं...
"प्रेम जब ये चाहने लगे कि मैं अपने प्रिय को एक नए आकार में ढाल लूँ, प्रेम जब ये कल्पना करने लगे कि वह जो मेरा प्रिय है, मिट्टी का बना है ओर मैं उसे मनचाही आकृति दे सकता हूँ...अलग अलग कोणों से मिट्टी सने हाथों वाले किसी क्षण परम संतोष को प्राप्त हो सकता हूँ, तब प्रेम, प्रेम रह जाता है कि नहीं, इस पर शास्त्रार्थ की परम संभावना है।"

वैसे अगर आज की परिस्थितियाँ लें तो शायद इन हालातों में प्रेमी युगल एक दूसरे की भावनाओं को समझने से ज्यादा अपने निजी कैरियर को ही ज्यादा ध्यान देंगे।

rashmi ravija on जनवरी 21, 2012 ने कहा…

आपके BLG में शामिल होने का ये सबसे बड़ा लाभ हुआ...इतनी पुरानी पोस्ट पढ़ने को मिली...

पोस्ट पढ़ने के बाद ...पुस्तक को पढ़ने की उत्सुकता और बढ़ गयी है.

अनूप शुक्ल on फ़रवरी 02, 2012 ने कहा…

कसप अद्भुत उपन्यास है! न जाने कित्ते बार पढा है इसे! यहां इसके बारे में पढ़कर फ़िर से इसे पढ़ने का मन बन गया ठहरा! :)

PD on फ़रवरी 09, 2012 ने कहा…

मैं भी सोच रहा हूँ इसे एक बार और पढ़ लूं करके. पहले अनूप जी के कहने पर पढ़ा था. :)

 

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