गुरुवार, अक्तूबर 30, 2008

अहमद हुसैन मोहम्मद हुसैन : इलाही कोई हवा का झोंका, दिखा दे चेहरा उड़ा के आँचल..

एक ज़माना वो था जब आँखों की देखा देखी के लिए शापिंग मॉल और मल्टीप्लेक्स की जगह छत और घर की छोटी सी बॉलकोनी युवाओं के लिए आदर्श स्थल हुआ करती थी। मोबाइल, चैट और ई मेल की कौन कहे तब तो पत्थर से बाँध कर पड़ोसिनों की छत पर पैगाम पहुँचाए जाते थे। हाथों का हल्का इशारा, झरोखों के पर्दों से दिखती बेचैन निगाहें या फिर एक खूबसूरत सी मुस्कान सालों चलते सो कॉल्ड चक्कर की कुल जमा पूँजी हुआ करतीं थी। पर मैं इन बातों को आपको क्यों याद दिला रहा हूँ ? शायद इसलिए कि अहमद और मोहम्मद हुसैन का गाया ये नग्मा भी वैसे ही किसी ज़माने में लिखा गया होगा।

पर इससे पहले कि हुसैन बंधुओं के इस नटखट और गुदगुदाते से नग्मे को सुना जाए समय की परिधि को १४ वर्ष पहले तक समेटने का मन हो रहा है।

बात १९९४ की है....
हम तीन मित्र जो उस वक़्त एस्कार्ट्स,फरीदाबाद में कार्यरत थे एक परीक्षा देने दिल्ली में आए। परीक्षा केंद्र था IIT दिल्ली। साथ वालों में एक बंदा दिल्ली का था और दूजा मेरठ का। परीक्षा के बाद बस से हम हॉज खास (Hauz Khas) से लाजपत नगर तक आ गए थे। अब हमें वहाँ से आश्रम के रास्ते फरीदाबाद जाने वाली बस पकड़नी थी।

अब जो भी बस जा रही थीं वो पूरी तरह ठसाठस भरी हुईं।
सो करे तो क्या करें हम ?
कभी उस तेज धूप तो कभी DTC को कोस रहे थे..

कि इत्ते में दूर से एक चार्टर्ड बस आती दिखाई दी। अमूमन ऍसी बस सिर्फ अपने रोज़ के मुसाफ़िरों को ही बैठाती हैं सो उसके वहाँ रुकने की कोई आशा नहीं थी। पर बस ज्योंही पास आई कि हम सबकी नज़र उस खूबसूरत मुखड़े पर जा अटकी जो खिड़की से हम सभी की ओर ही देख रही थी। बस फिर क्या था हम सभी के मन में शरारत सूझी और सब समवेत स्वर में उसकी ओर देख के एक साथ चिल्ला उठे...

रोको! रोको! हमें इसी बस में चढ़ना है !

अब दिल्ली के बस कंडक्टर तो ऍसे ही इतने ही कठोर हृदय वाले ठहरे सो भला बस क्यूँ रुकती पर हम भी जान लगाकर बस के साथ ऍसे दौड़े कि आज तो बस में इन्ट्री ले ही लेंगे। पर दौड़ना तो एक बहाना था, बस मोहतरमा का ध्यान अपनी ओर खींचना था।

और हमारा दौड़ना व्यर्थ नहीं गया क्योंकि तोहफे में मिली हमें एक उनमुक्त सी खिलखिलाती हँसी जिसे देख कर हम निहाल हो गए :)।

जिंदगी की यादों में क़ैद ये लमहे जब भी ज़ेहन की वादियों में उभरते हैं, मन में खुशमिज़ाजी आ जाती है। और ये नग्मा जिसे अस्सी के दशक में पहली बार सुना था, बहुत कुछ ऍसा ही अह्सास दिला जाता है



वो जिंदगी में क़मर की तरह से रौशन हैं
कि उसी के अक़्स से शफ्फाक़ दिल का दर्पण है
हसीं शरीक ए सफ़र है बहुत मुबारक है
उसी के साथ तो मेरा जनम का बंधन है

इलाही कोई हवा का झोंका
दिखा दे चेहरा उड़ा के आँचल
जो झाँकता है भी वो सितमगर
वो खिड़कियों में लगा के आँचल


सुनी जो कदमों के मेरे आहट
तो जा के चुपके से सो गए वो
सो गए वो...
जो मैंने तलवों में गुदगुदाया
पलट दिया मुसकुराकर आँचल
इलाही कोई हवा का झोंका......


गुरूर ढाएगा कोई कितना
गुरूर महशत बपा करेगा
गुरूर ढाएगा ...
ये तेरा आठखेलियों से चलना
झुका के गर्दन गिरा के आँचल

इलाही कोई हवा का झोंका......

जुरूर है माज़रा ये कोई
वो रहते हैं दूर दूर हमसे
दूर दूर................
जो पास आकर भी बैठते हैं
तो हर तरफ से दबा का आँचल

इलाही कोई हवा का झोंका......

शनिवार, अक्तूबर 25, 2008

सुनो अच्छा नहीं लगता कि कोई दूसरा देखे ..क्या आप भी Possessive हैं ?

क्या आप अपने किसी प्रिय के प्रति Possessive हैं?
वैसे तो हम सभी होते हैं कभी छोटी सी किसी वस्तु के लिए तो कभी अपने किसी खास के लिए। पर ये Possessiveness कुछ ज्यादा हो जाए तो वही हाल होता है जो इस शायर का हो रहा है.... दिल की मजबूरियों को भला कौन लगाम दे सकता है।
पर ऍसा रोग ना ही लगे तो बेहतर वर्ना Possessiveness का ये कीड़ा दुख भी बहुत देता है।

इस रचना का एक हिस्सा बहुत पहले मुझे अपनी एक पोस्ट पर टिप्पणी के रूप में मिला था। जब पूरा पढ़ा तो लगा कि है तो सादी सी नज़्म पर दिल को छूती हुई इसीलिए इसे आज आप सब के साथ बाँट रहा हूँ

सुनो अच्छा नहीं लगता
कि कोई दूसरा देखे
तुम्हारी शरबती आँखें
लब ओ रुखसार1 और पलकें
सियाह लंबी घनी जुल्फें
सराहे दूसरा कोई
मुझे अच्छा नहीं लगता

सुनो अच्छा नहीं लगता
करे जब तज़किरा2 कोई
करे जब तबसरा3 कोई
तुम्हारी जात को खोजे
तुम्हारी बात को सोचे
मुझे अच्छा नहीं लगता

सुनो अच्छा नहीं लगता
तुम्हारी मुस्कराहट पर
हजारों लोग मरते हों
तुम्हारी एक आहट पर
हजारों दिल धड़कते हों
किसी का तुम पे यूँ मरना
मुझे अच्छा नहीं लगता

सुनो अच्छा नहीं लगता
हवा गुजरे तुम्हें छू कर
ना होगा ज़ब्त4 ये मुझसे
करे कोई ये गुस्ताखी
तुम्हारी जुल्फ़ें बिखर जाएँ
तुम्हारा लम्स5 पा जाएँ
मुझे अच्छा नहीं लगता

सुनो अच्छा नहीं लगता
कि तुमको फूल भी देखें
तुम्हारे पास से महकें
या चंदा की गुजारिश हो
कि अपनी रोशनी बख्शूँ
रुख ए जानां कोई देखे
मुझे अच्छा नहीं लगता

1. गाल, 2. चर्चा, 3. विस्तार से घटना का विवरण देना, 4. बर्दाश्त, 5. स्पर्श

इस नज़्म की भावनाओं को अपनी आवाज में उतारने की कोशिश की है। पढ़ते वक़्त दो जगह भूलें हुई हैं क्योंकि रिकार्डिंग के समय सही बोल मेरे पास नहीं थे बाद में जब नज़्म उतारने बैठा तो देखा कि तज़करा की जगह तज़किरा और तुम्हारे लम्स पे जाएँ की जगह अर्थ के हिसाब से तुम्हारा लम्स पा जाएँ होना चाहिए। आशा है आप इसे नज़रअंदाज कर देंगे।

गुरुवार, अक्तूबर 16, 2008

कविराजा कविता के मत अब कान मरोड़ो, धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो

फिल्मों में हास्य कविता का प्रयोग होते मैंने बहुत कम ही देखा है। एक ऍसी ही कविता पर मेरी नज़र तब पड़ी, जब इससे संबंधित जानकारी इस चिट्ठे की पाठिका अंबिका पंत जी ने अपनी टिप्पणी के माध्यम से माँगी। अंतरजाल पर खोजने पर पता चला कि ये कविता तो वी शांताराम की १९५९ में प्रदर्शित हुई मशहूर फिल्म नवरंग का हिस्सा थी।

मैंने ये फिल्म दूरदर्शन पर अस्सी के दशक में देखी थी। भरत व्यास के लिखे आधा है चंद्रमा रात आधी... और जा रे जा नटखट.... जैसे नायाब गीतों के बीच कोई कविता भी फिल्माई गई थी, इसका ख्याल तो मुझे बिल्कुल नहीं था। एक रोचक तथ्य ये भी है कि रचनाकार भरत व्यास ने खुद इस हास्य कविता के लिए स्वर दिया था ।

तो देखिए भरत व्यास जी कवियों को किस तरह धन संग्रह करने के लिए उद्यत कर रहे हैं।

कविराजा कविता के मत अब कान मरोड़ो
धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो

शेर शायरी कविराजा ना काम आयेगी
कविता की पोथी को दीमक खा जायेगी
भाव चढ़ रहे अनाज हो रहा मँहगा दिन दिन
भूखे मरोगे रात कटेगी तारे गिन गिन
इसी लिये कहता हूँ भैय्या ये सब छोड़ो
धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो

अरे छोड़ो कलम चलाओ मत कविता की चाकी
घर की रोकड़ देखो कितने पैसे बाकी
अरे कितना घर में घी है कितना गरम मसाला
कितने पापड़, बड़ी, मंगोड़ी, मिर्च मसाला
कितना तेल नोन, मिर्ची, हल्दी और धनिया
कविराजा चुपके से तुम बन जाओ बनिया

अरे! पैसे पर रच काव्य भूख पर गीत बनाओ
पैसे,अरे पैसे पर रच काव्य भूख पर गीत बनाओ
गेहूँ पर हो ग़ज़ल, धान के शेर सुनाओ
नोन मिर्च पर चौपाई, चावल पर दोहे
सुकवि कोयले पर कविता लिखो तो सोहे

कम भाड़े की
अरे! कम भाड़े की खोली पर लिखो क़व्वाली
झन झन करती कहो रुबाई पैसे वाली
शब्दों का जंजाल बड़ा लफ़ड़ा होता है
कवि सम्मेलन दोस्त बड़ा झगड़ा होता है
मुशायरों के शेरों पर रगड़ा होता है
पैसे वाला शेर बड़ा तगड़ा होता है


इसी लिये कहता हूँ मत इस से सर फोड़ो
धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो




अगर आप हास्य कविता के शौकीन हैं तो इसे भी पढ़ना पसंद करेंगे..

सोमवार, अक्तूबर 13, 2008

इतनी मुद्दत बाद मिले हो, किन सोचों में गुम रहते हो : दिलराज कौर और गुलाम अली की आवाज़ों में

पिछले हफ़्ते भर मैं अपने चिट्ठे से दूर उड़ीसा के कस्बों और जंगलों में यायावरी करता रहा । सफ़र के दौरान नौका पर लेटे लेटे आसमान की ओर नज़रें डालीं तो ये आधा अधूरा चाँद मुझको ताकता दिखा और बरबस जनाब मोहसीन नक़वी की ये पंक्तियाँ याद आ गईं

बिछुड़ के मुझ से कभी तूने ये भी सोचा है
अधूरा चाँद भी कितना उदास लगता है

चिट्ठे से अपना विरह आज समाप्त हुआ तो दिल हुआ कि क्यूँ ना मोहसीन नक़वी साहब की ये प्यारी ग़ज़ल आप सबको सुनवाई जाए। ये ग़ज़ल गुलाम अली साहब की उस एलबम का हिस्सा थी जिसने उन्हें भारत में ग़ज़ल गायिकी के क्षेत्र में मकबूलियत दिलवाई। अब हंगामा है क्यूँ बरपा, आवारगी और इतनी मुद्दत बाद मिले हो जैसी मशहूर ग़ज़लों को कौन भूल सकता है। 'आवारगी' लिखने वाले भी मोहसीन ही थे।

पर कभी-कभी सीधे सहज शब्द ज्यादा तेजी से असर करते हैं। शायद यही वज़ह रही कि बीस बाईस साल पहले गुलाम अली की ये ग़ज़ल ऐसी दिल में बसी कि फिर कभी नहीं निकल सकी।
इतनी मुद्दत बाद मिले हो
किन सोचों में गुम रहते हो

तेज़ हवा ने मुझसे पूछा,
रेत पे क्या लिखते रहते हो

हमसे न पूछो हिज्र के किस्से
अपनी कहो, अब तुम कैसे हो

कौन सी बात है तुम में ऐसी
इतने अच्छे क्यों लगते हो


पर आज इसे मैं आपको गुलाम अली साहब की आवाज़ के साथ साथ दिलराज कौर की आवाज में भी सुना रहा हूँ। जहाँ गुलाम अली ने इस ग़ज़ल में शब्दों के उतार चढ़ाव को अपनी गायिकी के हुनर के ज़रिए कई नमूनों में पेश किया है वहीं दिलराज कौर ने सीधे तरीके से इस ग़ज़ल को अपनी खूबसूरत आवाज़ से सँवारा है। तो पहले सुनिए दिलराज कौर की दिलकश अदाएगी..

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गुलाम अली इस ग़ज़ल को गाते समय कहते हैं जैसे लफ्ज़ इज़ाजत दें वैसे ही सुर लगाने की कोशिश कर रहा हूँ तो सुनिए उनका अपना अलग सा अंदाज़...


वैसे आप बताएँ कि इनमें से ग़ज़ल गायिकी का कौन सा तरीका आपको ज्यादा पसंद आया ?

सोमवार, अक्तूबर 06, 2008

महेंद्र कपूर की याद मे : मेरा प्यार वो है के, मर कर भी तुम को...

महेंद्र कपूर पिछले हफ्ते इस दुनिया से रुखसत कर गए। अभी कुछ दिन पहले ही महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें इस साल का लता मंगेशकर पुरस्कार देने की घोषणा की थी। पार्श्व गायन तो उन्होंने छोड़ ही रखा था पर सत्तर से ऊपर होने के बावजूद अभी भी वो सांगीतिक गतिविधियों से अलग नहीं हुए थे। भारत के बाहर उनके कानसर्ट हर साल हुआ करते थे और अभी हाल में ये भी पढ़ा था कि गायन की सभी विधाओं में अपनी प्रतिभा दिखाने के बाद वो एक सूफी एलबम की तैयारी में जुटे थे।

महेंद्र कपूर के मशहूर गीतों से हम सब वाकिफ़ हैं। मनोज कुमार और बी आर चोपड़ा के बैनर तले बनी फिल्मों के अधिकतर गीत उन्होंने ही गाए। देशभक्ति गीतों का खयाल आते ही आज भी जनता को पहले उन्हीं का चेहरा ज़ेहन में आता है पर मैंने तो अन्य कोटि के गीतों में भी कपूर साहब की गायिकी को बेहतरीन पाया है। आज मैं वो गीत आपके सामने पेश कर रहा हूँ वो मुझे बेहद पसंद रहा है। जब भी इसे गुनगुनाता हूँ, मन पूरी तरह इसके भावों में डूब जाता है।


ओ पी नैयर के संगीत निर्देशन में 'ये रात फिर ना आएगी' फिल्म के इस गीत को लिखा था शमसुल हूदा 'बिहारी' यानि एस.एच.'बिहारी' साहब ने। अब उनका जिक्र आया है तो ये बताना मुनासिब होगा कि अपने नाम के अनुरूप बिहारी साहब बिहार के एक नगर आरा के निवासी थे। यूँ तो उन्होंने ज्यादा फिल्मों के लिए गीत नहीं लिखे पर जिनके लिए भी लिखा कमाल लिखा। प्रेम की भावनाओं को व्यक्त करने का उनका तरीका ही अलहदा था। क्या आपको नहीं लगता कि प्रेम को शिद्दत से महसूस करने वाला ही ये लिख सकता है

खुदा भी अगर तुमसे आ के मिले तो
तुम्हारी क़सम है मेरा दिल जलेगा

इसी फिल्म के लिए आशा जी का अमर गीत यही वो जगह है भी बिहारी साहब की लेखनी की उपज था।

बिहारी के इस इस गीत को महेंद्र जी ने इस भाव प्रवणता से गाया है कि ये गीत आपके मूड को संजीदा करने की ताकत रखता है... तो आइए सुनें ये गीत



और ये रहा विश्वजीत पर फिल्माए इस गीत का वीडिओ



मेरा प्यार वो है के, मर कर भी तुम को
जुदा अपनी बाहों से होने न देगा
मिली मुझको जन्नत तो जन्नत के बदले
खुदा से मेरी जाँ तुम्हें माँग लेगा
मेरा प्यार वो है ........

ज़माना तो करवट बदलता रहेगा
नए ज़िन्दगी के तराने बनेंगे
मिटेगी न लेकिन मुहब्बत हमारी
मिटाने के सौ सौ बहाने बनेंगे
हक़ीकत हमेशा हक़ीकत रहेगी
कभी भी न इसका फ़साना बनेगा
मेरा प्यार वो है ... ...

तुम्हें छीन ले मेरी बाहों से कोई
मेरा प्यार यूँ बेसहारा नहीं है
तुम्हारा बदन चाँदनी आके छू ले
मेरे दिल को ये भी गवारा नहीं है
खुदा भी अगर तुमसे आ के मिले तो
तुम्हारी क़सम है मेरा दिल जलेगा
मेरा प्यार वो है के ... .....

महेंद्र कपूर ने उस काल खंड में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई जब रफी, किशोर और मुकेश जैसे महान गायक अपनी चोटी पर थे। ये भी एक कारण रहा कि जिस शोहरत और सम्मान के वो हक़दार थे वो पूरी तरह उन्हें नहीं मिल पाया। इस बात का मुगालता कपूर साहब को भी रहा। एक पत्रिका को दिए अपने साक्षात्कार में एक बार उन्होंने बड़ी विनम्रता से पूछा था

".....मेरे बारे में इतना कम लिखा जाता है। मुझे समझ नही आता क्यूँ ? क्या मैंने कोई गलती की है? ....."


महेंद्र कपूर तो नहीं रहे पर उनके गाए गीत आने वाली पीढ़ियों के दिलों को भी जीतते रहेंगे ऍसी आशा है।

गुरुवार, अक्तूबर 02, 2008

गाँधी जयन्ती : सिर फूटत हौ, गला कटत हौ, लहू बहत हौ, गान्‍ही जी

आज गाँधी जयन्ती तो है ही साथ साथ शास्त्री जी के जन्मदिन का खुशनुमा मौका भी है।

आज इस पवित्र दिन अखबार उठाता हूँ और अगरतला में बम कांड से घायल महिला और उड़ीसा के कांधमाल में जले हुए घरों की तसवीरें देखता हूँ तो कैलाश गौतम की ये कविता जो पिछले साल आजादी की साठवीं वर्षगाँठ पर आप सबके साथ बाँटी थी, पुनः याद आ जाती है।


सिर फूटत हौ, गला कटत हौ, लहू बहत हौ, गान्‍ही जी
देस बंटत हौ, जइसे हरदी धान बंटत हौ, गान्‍ही जी


इसलिए ये समय विचार करने का है, कि हम इतने असहिष्णु, इतने जल्लाद , इतने संवेदनाशून्य क्यूँ होते जा रहे हैं? कैसे हम समझ लेते हैं कि ऐसी जलील हरकतों को करने से हमारा भगवान, हमारा परवरदिगार हमारी पीठ ठोंकेगा?

देश के इन हालातों में कैलाश जी की ये कविता कितनी सार्थक है ये इसे पढ़ कर आप महसूस कर सकते हैं। और जैसा अविनाश जी ने अपनी पिछली टिप्पणी में कहा था

"...60 साल की आज़ादी का सार है ये कविता। बार-बार पढ़ें, पढ़ाएं इसे। अपनी हक़ीक़त का पता चलता है। "



सिर फूटत हौ, गला कटत हौ, लहू बहत हौ, गान्‍ही जी
देस बंटत हौ, जइसे हरदी धान बंटत हौ, गान्‍ही जी

बेर बिसवतै ररूवा चिरई रोज ररत हौ, गान्‍ही जी
तोहरे घर क' रामै मालिक सबै कहत हौ, गान्‍ही जी

हिंसा राहजनी हौ बापू, हौ गुंडई, डकैती, हउवै
देसी खाली बम बनूक हौ, कपड़ा घड़ी बिलैती, हउवै
छुआछूत हौ, ऊंच नीच हौ, जात-पांत पंचइती हउवै
भाय भतीया, भूल भुलइया, भाषण भीड़ भंड़इती हउवै


का बतलाई कहै सुनै मे सरम लगत हौ, गान्‍ही जी
केहुक नांही चित्त ठेकाने बरम लगत हौ, गान्‍ही जी
अइसन तारू चटकल अबकी गरम लगत हौ, गान्‍ही जी
गाभिन हो कि ठांठ मरकहीं भरम लगत हौ, गान्‍ही जी

जे अललै बेइमान इहां ऊ डकरै किरिया खाला
लम्‍बा टीका, मधुरी बानी, पंच बनावल जाला
चाम सोहारी, काम सरौता, पेटैपेट घोटाला
एक्‍को करम न छूटल लेकिन, चउचक कंठी माला

नोना लगत भीत हौ सगरों गिरत परत हौ गान्‍ही जी
हाड़ परल हौ अंगनै अंगना, मार टरत हौ गान्‍ही जी
झगरा क' जर अनखुन खोजै जहां लहत हौ गान्‍ही जी
खसम मार के धूम धाम से गया करत हौ गान्‍ही जी

उहै अमीरी उहै गरीबी उहै जमाना अब्‍बौ हौ
कब्‍बौ गयल न जाई जड़ से रोग पुराना अब्‍बौ हौ
दूसर के कब्‍जा में आपन पानी दाना अब्‍बौ हौ
जहां खजाना रहल हमेसा उहै खजाना अब्‍बौ हौ


कथा कीर्तन बाहर, भीतर जुआ चलत हौ, गान्‍ही जी
माल गलत हौ दुई नंबर क, दाल गलत हौ, गान्‍ही जी
चाल गलत, चउपाल गलत, हर फाल गलत हौ, गान्‍ही जी
ताल गलत, हड़ताल गलत, पड़ताल गलत हौ, गान्‍ही जी

घूस पैरवी जोर सिफारिश झूठ नकल मक्‍कारी वाले
देखतै देखत चार दिन में भइलैं महल अटारी वाले
इनके आगे भकुआ जइसे फरसा अउर कुदारी वाले
देहलैं खून पसीना देहलैं तब्‍बौ बहिन मतारी वाले

तोहरै नाम बिकत हो सगरो मांस बिकत हौ गान्‍ही जी
ताली पीट रहल हौ दुनिया खूब हंसत हौ गान्‍ही जी
केहु कान भरत हौ केहू मूंग दरत हौ गान्‍ही जी
कहई के हौ सोर धोवाइल पाप फरत हौ गान्‍ही जी


जनता बदे जयंती बाबू नेता बदे निसाना हउवै
पिछला साल हवाला वाला अगिला साल बहाना हउवै
आजादी के माने खाली राजघाट तक जाना हउवै
साल भरे में एक बेर बस रघुपति राघव गाना हउवै

अइसन चढ़ल भवानी सीरे ना उतरत हौ गान्‍ही जी
आग लगत हौ, धुवां उठत हौ, नाक बजत हौ गान्‍ही जी
करिया अच्‍छर भंइस बराबर बेद लिखत हौ गान्‍ही जी
एक समय क' बागड़ बिल्‍ला आज भगत हौ गान्‍ही जी
 

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इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।

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