रविवार, नवंबर 30, 2008

गिरती लाशें सुलगते प्रश्न : इक लौ इस तरह क्यूँ बुझी मेरे मौला?

पिछले तीन चार दिनों से पीसी की ओर देखने का ही दिल नहीं हो रहा। ब्लागिंग ही बेमानी लग रही है। कटक में भारत की जीत की खुशी को दिल में आत्मसात कर ही रहा था कि चैनल सर्फिंग के दौरान रिमोट का बटन हाथ से दब गया। और फिर रात के दस बजे से ढ़ाई बजे तक टीवी के पर्दे सड़क पर गिरती लाशों के मंज़र को देखता रहा। बहुत सी तसवीरें बिल्कुल दिल से नहीं निकाल पा रहा, कार्यालय यंत्रवत जा रहा हूँ पर ज़ेहन में वही बातें उमड़ घुमड़ रही हैं। कुछ प्रश्न हैं जिन्हें हर व्यक्ति पूछ रहा है, ये जानते हुए भी कि उसके प्रश्न का ईमानदारी से जवाब देने वाला यहाँ कोई नहीं...



.......ताज और वीटी स्टेशन पर गोलीबारी शुरु हो गई है। शुरुआती रिपोर्ट में बताया जा रहा है शायद दो गुटों की आपसी रंजिश का नतीजा है। ताज के सामने अफरातफ़री का माहौल है। पुलिस का सिपाही हाथ में डंडा ले कर लोगों को हटा रहा है। पर लोगों को हटाते हटाते अनायास ही बगल की बेंच पर झुक गया है। एक गोली उसके पेट के पास लगी है। जिन लोगों को वो वहाँ से हटा रहा था वही उसे कंधे पर ले कर किसी गाड़ी से उसे हॉस्पिटल भिजवाने का इंतजाम कर रहे हैं। एक तरफ AK47 की अंधाधुंध फायरिंग है तो दूसरी ओर ये पुलिसिया डंडा ! क्या इस नाइंसाफ़ी का जवाब किसी के पास है?



......एक घंटा बीत चुका है। ताज पर पुलिस की और टुकड़ियाँ हथियारो समेत आ गई हैं। उन्हें बस इतना बताया गया है कि ताज में कुछ आतंकवादी घुसे हैं। आतंकवादी कितने हैं, कहाँ छुपे हैं पता नही? पर जैसे ही ये सिपाही अपनी पोजीशन लेने के लिए गाड़ी से उतरते हैं ऊपर से गोलियों की बौछार शुरु हो जाती है। हमारे सिपाहियों को अपने शत्रुओं के बारे में कुछ भी नहीं पता है पर वे संख्या में इतने कम होते हुए भी सारी गतिविधियाँ देख पा रहे हैं। अगले छः घंटों में जब तक NSG कमांडो को कमान सौंपी जाती है तो भी कोई रणनीति नहीं बन पाई है और ना आतंकियों की स्थिति के बारे में जानकारी में इजाफ़ा हुआ है। संभवतः यही वो समय रहा होगा जब गोलीबारी से घायल लोग दम तोड़ रहे होंगे। सहज प्रश्न उठता है कि क्या हमारी पुलिस जिस पर मुंबई की सुरक्षा की पहली जिम्मेदारी है, क्या इस तरह की स्थिति से निपटने के लिए प्रशिक्षित है?


.....वीटी पर तबाही मचाने के बाद आतंकी कामा हॉस्पिटल की ओर चल पड़े हैं। खबर मिलती है कि वहाँ से एक जिप्सी उड़ा ली गई है। मीडिया उस जिप्सी को आते हुए दिखा रहा है। कैमरामैन पुलिस की जिप्सी समझकर उस पर फोकस करता है। पर ये क्या उसकी खिड़कियों से गोलियाँ निकलती दिख रही हैं। जिप्सी कुछ देर में ओझल हो जाती है पर कैमरा जेसे ही अगल बगल घूमता है सड़क पर लाशें गिरी दिखती हैं। एक व्यक्ति सड़क पार से अपने मित्र को बुला रहा है,पर तभी वो खुद भी गोलियों का शिकार हो जाता है। ए टी एस प्रमुख हेमंत करकरे और उनके साथियों को इन्हीं भागते आतंकवादियों ने गोली से छलनी कर दिया है। रात के दो बज गए हैं पर इस खबर को सुन कर मन और बुझ सा गया है।


हेमंत करकरे वहीं हैं जो मालेगाँव के बम धमाकों की जाँच कर रहे थे। कैसी विडंबना और बेशर्मी है कि हमारा प्रमुख विपक्षी दल जो इस जाँच की सत्यता पर सवालिया निशान उठा रहा था आज इस वीर की विधवा को मुआवज़ा देने की बात कर रहा है। हाल के बम धमाकों के बाद मुठभेड़ में दिल्ली में भी जब हमारे जवान शहीद हुए थे तो दूसरे दल अपनी राजनीतिक गोटी सेंकने में पीछे नहीं रहे थे। और प्रदेश के गृह मंत्री की तो बात ही क्या कुछ ही दिनों पहले बिहार से गए एक दिग्भ्रमित छात्र को मारने के बाद उन्होंने बयान दिया था कि मु्बई में गोली का जवाब गोली से दिया जाएगा। आज जब असल के आतंकियों की गोलियों से लड़ने की उनकी तैयारी की पोल खुल गई है तो उनका बयान हे कि ऍसे छोटे मोटे हादसे तो होते ही रहते हैं। क्या कहा जाए ऍसे लोगों के बारे में जिनमें ना नेतृत्व की कूवत है ना किसी तरह की मानवीय संवेदनाओं की समझ। दरअसल, आज मुंबई सँभली है तो अपने जांबाज सिपाहियों की वज़ह से नहीं तो इससे भी बुरे परिणाम हमारे सामने रहते।

पक्ष और विपक्ष के नेताओं में इतनी गंभीर समस्याओं से लड़ने की ना इच्छा शक्ति है ना कोई सोची समझी रणनीति। मीडिया भी मूल प्रश्नों को पीछा करते रहने की जगह टीआरपी के चक्करों में उलझ जाता है। आम आदमी के पास मतदान एक हथियार है पर वो किसको वोट दे? दूर दूर तक कोई ऍसा नेतृत्व नज़र नहीं आता जिसके पास इन परिस्थितियों से निबटने के लिए कोई दिशा हो,कोई दूरदृष्टि हो।

पर हम दबाव जरूर डाल सकते हैं कि कम से कम सुरक्षा के सवाल पर हमारे नेता एक सुर में बात करें। जिस तरह हर प्रदेश के नेता विकास को मुद्दा बनाने पर मज़बूर हुए हैं उसी तरह सुरक्षा भी एक मुद्दा बने। आतंकवाद से निबटने के लिए पुलिस और सुरक्षा बलों के हाथ खोलने होंगे,राजनैतिक दबावों से मुक्त कर उन्हें काम करने देना होगा, उनका संख्या बल बढ़ाना होगा,उन्हें हथियार देने होंगे और प्रशिक्षित करना होगा। पर इतना करने से बात बन जाएगी ये भी नहीं है। हमें अपना घर भी सँभालना होगा, भारत के सारे लोगों को एक जुट करना होगा। और ये हम आप कर सकते हैं। सांप्रादायिकता, क्षेत्रीयता और जातीयता से नफ़रत फैलाने वाले नेताओं का बहिष्कार कीजिए। इन नेताओं के बहकावे में आने से पहले हमें ये सोचना होगा कि ये जो कह रहे हैं वो सारे देश के लिए सही है या नहीं। हमारे वीर शहीदों की कुर्बानी हम यूँ नहीं भूल सकते, हमें आपने आप से हमेशा ये पूछते रहना होगा।
इक लौ इस तरह क्यूँ बुझी मेरे मौला ?
इक लौ जिंदगी की मौला
?



वक़्त के साथ ये प्रश्न मेरे ज़ेहन से दूर ना हो इसलिए इसे मैंने 'आमिर' फिल्म के इस गीत को अपनी रिंग टोन बना लिया है। क्या आप भी इस प्रश्न को अपने दिलो दिमाग के करीब रखना नहीं चाहेंगे?

शुक्रवार, नवंबर 28, 2008

जल्लाद की डॉयरी : जनार्दन पिल्लै की आपबीती को कहता शशि वारियर का एक उपन्यास

पिछली पोस्ट में आपने जाना फाँसी की प्रक्रिया और उसे देने वाले जल्लाद की मानसिक वेदना के बारे में जो तथाकथित पाप की भागीदारी की वज़ह से उसके हृदय को व्यथित करती रहती थी। जैसा कि पूनम जी ने पूछा हे कि
क्या जल्लाद ने ऍसी फाँसी के बारे में भी लिखा है जहाँ उसे पता हो कि व्यक्ति निर्दोष था?

नहीं...नहीं लिखा, अगर कोई व्यक्ति निर्दोष रहा भी हो तो उसका पता जनार्दन को कैसे चलता? जनार्दन पिल्लै के सामने जो भी क़ैदी लाए गए उनके अपराधों की फेरहिस्त जेलर द्वारा जल्लाद को बताई जाती थी और यही उसकी जानकारी का एकमात्र ज़रिया होता। पर जनार्दन जानता था कि इनमें से कई क़ैदी ये मानते थे कि जिनकी उन्होंने हत्या की वो वास्तव में उसी लायक थे।

हाँ, एक बात और थी जो जल्लाद को अपराध बोध से ग्रसित कर देती थी।
और वो थी लीवर घुमाने के बाद भी देर तक काँपती रस्सी.....।

रस्सी जितनी देर काँपती रहती है उतनी देर फाँसी दिया आदमी जिंदगी और मौत के बीच झूलता रहता था। कई बार इस अंतराल का ज्यादा होना जल्लाद द्वारा रस्सी की गाँठ को ठीक जगह पर नहीं लगा पाने का द्योतक होता और इस भूल के लिए जल्लाद को अपना कोई प्रायश्चित पूर्ण नहीं लगता। आखिर उसे मृत्यु को सहज बनाने के लिए ही पैसे मिलते हैं ना?

अपनी कहानी लिखते समय जनार्दन याद करते हैं कि जब जब वो फाँसी लगाने के बाद इस मनोदशा से व्यथित हुए दो लोगों ने उन्हें काफी संबल दिया। एक तो उनके स्कूल के शिक्षक 'माष' और दूसरे मंदित के हम उम्र पुजारी 'रामय्यन'। इन दोनों ने जनार्दन को बौद्धिक और धार्मिक तर्कों से जल्लाद के दर्द को कम करने की सफल कोशिश की।
माष कहा करते - तुम तो मानव पीड़ा को कम करने के बारे में सोचते हो, पर वहीं हमारे पूर्वज पीड़ा पहुँचाने में हद तक आविष्कारी थे। उस काल की सबसे वीभत्स प्रथा का जिक्र करते हुए शशि वारियर लिखते हैं हैं।

"....लगभग एक इंच के अंतर वाली लोहे की सलाखों का बना हुआ बदनाम कषुवनतूक्कु पिंजरा था। क़ैदी को इस संकरे पिंजरे में बंद कर देते थे और उसे धूप में छोड़ देते जहाँ गिद्ध आते। गिद्ध हरकत का इंतज़ार करते पर कुछ देख ना पाते, क्योंकि पिंजरे के भीतर आदमी हरकत नहीं कर सकता था। वह चीख़ भी नहीं सकता था , क्योंकि वो उसका मुँह बाँध देते थे। जब वे उसे धूप में छोड़ देते थे, तो जल्द ही गिद्ध मँडराने लगते। वे झिरी के बीच से भारी चोंच डालकर उसे नोचते और उसके मांस के रेशे फाड़ते जाते। तब तक, जब तक वह मर नहीं जाता।...."

मूल विषय के समानांतर ही लेखक और जनार्दन के बीच पुस्तक को लिखने के दौरान आपसी वार्त्तालाप का क्रम चलता रहता है जो बेहद दिलचस्प है। लेखन उनकी भूली हुई यादों को लौटाता तो है पर उन स्मृतियों के साथ ही दर्द का पुलिंदा भी हृदय पर डाल देता है। जनार्दन को ये भार बेहद परेशान करता है। पर जब वो अपने अपराध बोध को सारी बातों के परिपेक्ष्य में ध्यान में रखकर सोचते हैं तो उन्हें अंततः एक रास्ता खुलता सा दिखाई देता है, जिसे व्यक्त कर वो अपने आपको और हल्का महसूस करते हैं।

अपनी कहानी पूरी करने पर वो पाते हैं कि इस किताब ने उनके व्यक्तित्व को ही बदल कर रख दिया। अब वे दोस्तों के साथ व्यर्थ की गपशप में आनंद नहीं पाते और ना ही दारू के अड्डे में उनकी दिलचस्पी रह जाती है। कुल मिलाकर लेखक से उनका जुड़ाव उनमें धनात्मक उर्जा का संचार करता है। इसलिए पुस्तक खत्म करने के बाद अपने आखिरी पत्र में बड़ी साफगोई से लेखक के बारे में वे लिखते हैं

"...मैं नहीं जानता कि आपसे और क्या कहूँ? गुस्से और झगड़ों के बावजूद आपका पास रहना मुझे अच्छा लगता था। इसे स्वीकार करना मेरे लिए बहुत कठिन है, यद्यपि आप मुझसे आधी उम्र के हैं और आपका दिमाग बेकार के किताबी ज्ञान से भरा है, फिर भी मैंने आपसे कुछ सीखा है। मैं आशा करता हूँ कि आप वह सब पाएँ जिसकी आपको तालाश है और जब आप उसे प्राप्त कर लें तो यह भी पाएँ कि वह उतना ही अच्छा है जितनी आपने आशा की थी। आप बुरे आदमी नहीं हैं, यद्यपि आपको बहुत कुछ सीखना है।

आपका मित्र और सहयोगी मूर्ख लेखक
जनार्दन पिल्लै, आराच्चार ....."


सच कहूँ तो ये साफगोई ही इस पुस्तक को और अधिक दिल के करीब ले आती है। लेखक ने उपन्यास की भाषा को सहज और सपाट रखा है और जहाँ तो हो सके एक आम कम पढ़े लिखे व्यक्ति की कथा को उसी के शब्दों में रहने दिया है। २४८ पृष्ठों और १७५ रु मूल्य की इस किताब से एक बार गुजरना आपके लिए एक अलग से अहसास से पूर्ण रहेगा ऍसा मेरा विश्वास है।

इस चिट्ठे पर आप इन पुस्तकों के बारे में भी पढ़ सकते हैं

असंतोष के दिन, गुनाहों का देवता, कसप, गोरा, महाभोज, क्याप, एक इंच मुस्कान, लीला चिरंतन, क्षमा करना जीजी, मर्डरर की माँ, दो खिड़कियाँ, हमारा हिस्सा, मधुशाला,
मुझे चाँद चाहिए, कहानी एक परिवार की

सोमवार, नवंबर 24, 2008

जल्लाद की डॉयरी : फाँसी लगाने वाले की मनःस्थिति को व्यक्त करता एक अनूठा उपन्यास


आपने मृत्यु को क्या बिल्कुल नजदीक से देखा है? या कभी ये सोचा है कि जब आप किसी को बिना विद्वेष के मार दें तो उसके बाद आपकी क्या मनःस्थिति होगी। कैसा लगता है जब आम जिंदगी में लोग आपको और आपके पेशे को एक तरह के खौफ़ से देखते हैं। एक आम जन के लिए ये सवाल बेतुके और बेमानी से लगेंगे। पर जब बात एक पेशेवर जल्लाद की हो तो ये प्रश्न बेहद प्रासंगिक हो उठते हैं।
इन्ही प्रश्नों को लेकर केरल के एंग्लोइंडियन उपन्यासकार शशि वारियर पहुँच जाते हैं जनार्दन पिल्लै के पास, जिन्होंने त्रावणकोर के राजा के शासन काल और उसके उपरांत में तीन दशकों में ११७ फाँसियाँ दीं थीं। लेखक ने इस उपन्यास में उन सारी बातों को बिना लाग लपेट पाठकों तक पहुँचाने की कोशिश की है जिसे जनार्दन ने अपनी सोच और समझ के हिसाब से लेखक द्वारा दी गई कापियों में लिखा और अपने मरने के पहले लेखक को सौगात के रूप में छोड़ गया।

ये पुस्तक सबसे पहले १९९० में Hangman's Journal के नाम से अंग्रेजी में प्रकाशित हुई और इसका हिंदी संस्करण पहली बार पेंगुइन बुक्स ने यात्रा बुक्स के सहयोग से २००६ में निकला। इस संस्करण का अंग्रेजी से अनुवाद कुमुदनि पति ने किया है। इस उपन्यास का विषय कुछ ऍसा है जो ना चाहते हुए भी आपको ये सोचने के लिए मजबूर कर देता है कि फाँसी के समय जान जाने वाले और लेने वाले की क्या दशा होती है। पर उस बारे में बाद में बात करते हैं पहले ये बताइए कि फाँसी लगने की बात कहते हुए क्या आपने कभी सोचा है कि वास्तव में ये प्रक्रिया है क्या? पर लेखक पाठक को इस दुविधा में ज्यादा देर नहीं रखते और उपन्यास का आगाज़ कुछ यूं करते हैं...

"......इसे पतन कहते हैं
इसके लिए जेलरों के पास एक लघु तालिका होती है, यह बताने के लिए कि अपराधी व्यक्ति गर्दन में लगे फंदे सहित कितनी दूरी तक गिरे जिसे उसका काम सफाई से तमाम हो। विशेषज्ञों का कहना है कि उसे उतना ही गिरना चाहिए कि उसके वेग से रस्सी उसकी गर्दन तोड़ दे। यदि शरीर अधिक दूर गिरता है तो रस्सी उसकी गर्दन में धँस जाती है और बहुत संभव है कि सिर को अलग कर दे। यदि शरीर पर्याप्त दूरी पर नहीं गिरता है तो गर्दन नहीं टूटेगी और व्यक्ति को दम घुटकर मिटने में कुछ मिनट लगेंगे।..."
जनार्दन अपने संस्मरण में कई बार फाँसी देने के पहले होने वाली क़वायद का जिक्र करते हैं। फाँसी के तख्ते का परीक्षण पहले बिना वज़न के और फिर वज़न के साथ किया जाता है। जल्लाद का सबसे प्रमुख कार्य होता है रस्सी की गाँठ को सही जगह लगाना। गाँठ सही जगह लगी तो गर्दन तुरंत टूटती है वर्ना क़ैदी की दम घुटकर धीरे धीरे मौत होती है। पुराने ज़माने में रस्सी खुद जल्लाद तैयार करता था। रस्सी का उस हिस्से को चिकना रखने के लिए जो गर्दन को छूता है, मक्खन या रिफांइड तेल का इस तरह इस्तेमाल होता था कि मक्खन रस्सी के रेशों में पूरी तरह समा जाए। अब तो नर्म कपास का प्रयोग होने लगा है।

तख्ता, लीवर, रस्सी की जाँच के बाद लीवर छोड़ा जाता है तो तख्ता नीचे दीवार से लगी पैडिंग से टकराता है जो आवाज़ को कम करने के लिए लगाया गया होता है। परीक्षण हो चुका है। सब कुछ सहजता से सम्पन्न होने के बाद भी जनार्दन असहज महसूस कर रहे हैं। वे जानते हैं कि आज की रात फाँसी लगने के पहले वाली रात कोई क़ैदी उनसे आँखें नहीं मिलाएगा। उस रात जनार्दन खुद से सवाल पूछते हैं

"..मौत को जीवन से सहज बनाने के लिए हम अपने जीवन का इतना समय क्यूँ लगा देते हैं? .."

पर ये किताब फाँसी की प्रक्रिया से कहीं ज्यादा फाँसी देने वाले के अन्तर्मन में झाँकती है और यही इस उपन्यास का सबसे सशक्त पहलू भी है। किसी को मारना चाहे वो आपकी ड्यूटी का हिस्सा क्यों ना हो मानसिक रूप से बेहद यंत्रणा देने वाला होता है। और जनार्दन इस यंत्रणा से हर फाँसी के बाद डूबते उतराते हैं। क्यों ये पेशा चुना उन्होंने? पेट पालने के लिए इसके आलावा कोई चारा भी तो नहीं था। मन को समझाते हैं। आखिरकार वे राजा के निर्णय का पालन भर कर रहे हैं। वो राजा जिसे धरती पर भगवान का दूत बनाकर भेजा गया है। पर कुछ सालों के बाद जब जनार्दन स्कूल के समय के अपने पुराने शिक्षक से मिलते हैं तो वे राजा के भी एक सामान्य इंसान होने की असलियत से वाकिफ़ होते हैं और उनके दिल पर हत्या का बोझ हर फाँसी के बाद बढ़ता चला जाता है।

पर किसी की जान लेने के पाप से बचने का डर सिर्फ जल्लाद की परेशानी का सबब नहीं था,. खुद राजा भी इस पाप के भागीदार नहीं बनने के लिए एक अलग तरह की नौटंकी को अंजाम देते थे। लेखक ने इस दिलचस्प प्रकरण का खुलासा अपनी पुस्तक में किया है।
हर मृत्युदंड के ठीक पहले वाले दिन दोपहर तक उसकी क्षमा याचना की अर्जी राजा के पास पेश की जाती थी। राजा शाम को फाँसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल देते पर उनके इस निर्णय को अमल में लाने के लिए उनका हरकारा सूर्योदय के बाद निकलता ताकि जब तक वो जेल तक पहुँचे, फाँसी लग चुकी हो। पता नहीं राजा ऍसा करके किसको छलावा देते थे पर बेचारा जल्लाद क्या करता उसके पास तो इन छलावों की ढाल भी नहीं थी। इसलिए तो उन दी गई फाँसियों के बारे में जनार्दन सोचना नहीं चाहता। उसे लेखक पर क्रोध आता है कि क्यों उनके चक्कर में पड़ा। पर सोचना पड़ता है चेतन मन में ना सही तो अचेतन स्वप्निल मन से....

".मैं पहले सीढ़ियाँ देखता हूँ, बेतरतीब पत्थर की सीढ़ियाँ, जो फाँसी के तख्ते के नीचे बने अँधेरे कुएँ की ओर जाती हैं। .............फाँसी के तख़्ते पर, फंदे के ठीक नीचे नकाब पहने आदमी खड़ा है। उसकी धारीदार पोशाक कड़क ओर ताजा है। वह नक़ाब कुछ अज़ीब सा है।........ सुदूर ढोल की आवाज़ तेज होती है और मैं समझ जाता हूँ कि क्या गड़बड़ी है। नक़ाब अधिक चपटा सा है। कम से कम वो उठा हुआ हिस्सा होना चाहिए , जहाँ आदमी की नाक उठती है। ....अंतरदृष्टि से एक पल में जान लेता हूँ कि नकाब के पीछे कोई चेहरा नहीं है। नक़ाब ही चेहरा है। भय गहरा होता जाता है . मुझे यहाँ से किसी तरह बच निकलना है। वह लोहे का दरवाज़ा मुझसे लगभग तीस फुट दूर है पर मैं दौड़ नहीं पा रहा हूँ। मैं बहुत तकलीफ़ के साथ धीरे धीरे दरवाज़े तक पहुँचता हूँ, पर यह क्या? दरवाज़े पर भारी ताला पड़ा है जिसे मैं हिला नहीं सकता।
किसी पूर्वाभास के चलते मुड़ता हूँ। वहाँ चपटे नक़ाब वाला आदमी दिखता है, उसके हाथ पैर पूरी तरह मुक्त हैं। मैं अपनी गर्दन के इर्द गिर्द उसके मज़बूत हाथों को कसता हुआ महसूस करता हूँ। मैं सांस नहीं ले पा रहा
... मैं आँखें बंद करने की कोशिश करता हूँ ताकि उसका चपटा सा नक़ाब मेरी आँखों से ओझल हो जाए, पर लाख चाहकर भी ये संभव नहीं हो पाता। जैसे जैसे अपने घुटनों पर धसकता जाता हूँ मुझे मालूम होता है कि मेरी छाती के भीतर दिल फट जाएगा।..."

जनार्दन ऍसे स्वप्न से अचानक जाग उठे हैं। पर अपनी पुरानी यादों को ताज़ा करने के क्रम में ये स्वप्न और भयावह होते जाते हैं। आखिर कौन सा अपराध बोध उन्हें सालता है और उससे निकलने के लिए वे किस तरह अपने आपको मानसिक रूप से तैयार करते हैं ? इन बातों से जुड़ी इस रोचक और एक अलग तरह के उपन्यास की चर्चा जारी रहेगी अगली कड़ी में ...
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बुधवार, नवंबर 19, 2008

सो गए हैं खो गए हैं दिल के अफसाने : फिल्म 'ज़ुबैदा' का एक संवेदनशील गीत

सन २००० में एक फिल्म आई थी ज़ुबैदा जिसमें करिश्मा कपूर का अभिनय श्याम बेनेगल के निर्देशन में निखर कर सामने आया था। पर इस फिल्म की एक और खासियत थी और वो थी जावेद अख्तर के खूबसूरत बोलों पर दिया गया ए आर रहमान का बेहतरीन संगीत। यूँ तो इस फिल्म के तमाम गीत बेहतरीन थे पर एक नग्मा जरूर अपने मूड में बाकी गीतों से अलहदा सा था। वैसे भी उदास नग्मे, दिल के कोनों में अक्सर ज्यादा दिन तक कब्जा जमा लेते हैं इसलिए ज़ुबैदा के गीतों को जब याद करता हूँ तो यही गीत मन में सबसे पहले उभरता है....

ख्वाहिशों की चिता में अगर आग लग जाए तो क्या होगा ? सारे अरमान राख ही तो हो जाएँगे । पर उस राख के बीच सुलगती हल्की सी चिंगारी को कोई नाउम्मीद कैसे करे ? उसे तो हमेशा ही आशा रहती है हवा के एक झोंके की जो शायद कभी उस चिंगारी को धधकती ज्वाला का रूप दे जाए।

कुछ ऍसे ही अहसास जगा जाता है लता जी का गाया ये गीत ...

मुखड़े के पहले रहमान जिस धुन से इस गीत का आगाज़ करते हैं वो पूरे गीत की उदासी को अपने में समाहित करती सी चलती है। और इंटरल्यूड्स में दिया गया संगीत इस मायूसी को हम तक बहा कर ले आता है।

वहीं दमित संकुचित इच्छाओं को जावेद अख्तर जब इस ढ़ंग से उभारते हैं

दिल में इक परछाई है लहराई सी
आरज़ू मेरी है इक अंगड़ाई सी
इक तमन्ना है कहीं शरमाई सी


तो मन वाह वाह किए बिना नही रह पाता !

तो आइए सुनें रहमान, जावेद और लता जी का ये सम्मिलित शानदार प्रयास



सो गए हैं खो गए हैं दिल के अफसाने
सो गए हैं खो गए हैं दिल के अफसाने
कोई तो आता फिर से कभी इनको जगाने

सो गए हैं खो गए हैं दिल के अफसाने
सो गए हैं खो गए हैं दिल के अफसाने

साँस भी लेती हैं जो कठपुतलियाँ
उनकी भी थामें हैं कोई डोरियाँ
आँसुओं में भीगी ये खामोशियाँ

सो गए हैं खो गए हैं दिल के अफसाने
सो गए हैं खो गए हैं दिल के अफसाने

दिल में इक परछाई है लहराई सी
आरज़ू मेरी है इक अंगड़ाई सी
इक तमन्ना है कहीं शरमाई सी

सो गए हैं खो गए हैं दिल के अफसाने
सो गए हैं खो गए हैं दिल के अफसाने


शुक्रवार, नवंबर 14, 2008

मुझे अपने ज़ब्त पे नाज़ था, सर ए बज़्म रात ये क्या हुआ : नैयरा नूर / इकबाल अज़ीम

बहुत दिनों पहले एक ग़ज़ल पढ़ी थी और उसे उतारा था अपनी डॉयरी में। पर इसके शायर का नाम पता नहीं था। पर कुछ ही दिन पहले कहीं पड़ा कि इसे लिखा है पाकिस्तान के मक़बूल शायर इकबाल अज़ीम साहब ने। साथ ही ये भी जानकारी मिली कि इसके के कुछ हिस्से को गाया है पाकिस्तान की मशहूर ग़ज़ल गायिका नैयरा नूर ने। अब इकबाल अज़ीम के बारे में तो मुझे भी ज्यादा मालूम नहीं पर उनकी पढ़ी इस ग़ज़ल का ये वीडिओ मिला तो सोचा शायर की पहचान के लिए इस ग़ज़ल को सुनाने के पहले ये वीडियो दिखाना मुनासिब रहेगा



वैसे बड़े कमाल के अशआर हैं इस ग़जल के। अब मतले पर गौर करें तो आप पाएँगे कि कितनी बार आपके साथ खुद ऍसा हो चुका होगा कि लाख आपने अपनी भावनाओं पर काबू करने की कोशिश की होगी, पर ना चाहते हुए भी किसी के सामने आँसुओं का सैलाब बह निकला होगा। इसी बात को शायर किस खूबसूरती से कहते हैं

मुझे अपने ज़ब्त पे नाज था, सर ए बज़्म रात ये क्या हुआ
मेरी आँख कैसे छलक गई, मुझे रंज है ये बुरा हुआ

बाकी की ग़ज़ल को पढ़ें और फिर सुनें नैयरा नूर की खूबसूरत अदाएगी, खुद बा खुद इस ग़ज़ल के रंग में रंग जाएँगे

मेरी जिंदगी के चराग का ये मिज़ाज कोई नया नहीं
अभी रोशनी, अभी तीरगी1, ना जला हुआ ना बुझा हुआ
1.अँधेरा

मुझे जो भी दुश्मन ए जाँ मिला वही पुख्ता कार जफ़ा 2 मिला
ना किसी की ज़र्ब हलक पड़ी 3 ना किसी का तीर खता हुआ
2. क्रूरता की हद, 3. वार गलत होना

मुझे आप क्यूँ ना समझ सके कभी अपने दिल से पूछिए
मेरी दास्तान ए हयात4 का है वर्क5 वर्क खुला हुआ

4.जिंदगी की किताब, 5. पन्ना,

जो नज़र बचा के गुजर गए मेरे सामने से अभी अभी
ये मेरे ही शहर के लोग थे, मेरे घर से घर है मिला हुआ

हमें इस का कोई हक़ नहीं कि शरीक ए बज्म खुलूस हों
ना हमारे पास नक़ाब है, ना कुछ आस्तीं में छुपा हुआ

मेरे एक गोशा ए फिक्र 6 में मेरी जिंदगी से अज़ीज़ तर
मेरा एक ऍसा भी दोस्त है, जो कभी मिला ना जुदा हुआ

6.दिमाग एक कोने में

मुझे एक गली में पड़ा हुआ, किसी बदनसीब का खत मिला
कहीं खून ए दिल से लिखा हुआ, कहीं आँसुओं से मिटा हुआ

मुझे हमसफ़र भी मिला कोई तू शिकस्ता हाल मेरी तरह
कई मंजिलों का थका हुआ, कहीं रास्ते में लुटा हुआ

हमें अपने घर से चले हुए सर ए राह उम्र गुजर गई
कोई जुस्तज़ू का सिला मिला, ना सफ़र का हक़ अदा हुआ



शनिवार, नवंबर 08, 2008

रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम : सुनिए हसरत मोहानी की ये दिलकश ग़ज़ल


'कहकशाँ' में जगजीत सिंह ने तमाम शायरों की बेमिसाल ग़ज़लों को बड़े दिल से अपनी आवाज़ से सँवारा है। इसमें एक ग़ज़ल थी उन्नाव के पास 'मोहान' में जन्में सैयद फ़ज़ल उल हसन साहब की जिन्हें ये दुनिया मौलाना हसरत मोहानी साहब के नाम से ज्यादा जानती है। मौलाना विभाजन के बाद में भी भारत में ही रहे और मई १९५१ में लखनऊ में उनका इंतकाल हुआ


तो आइए देखें क्या कहना चाहा है शायर ने अपनी इस रूमानी सी ग़ज़ल में

रौशन जमाल-ए-यार से है अंजुमन तमाम
दहका हुआ है आतिश-ए-गुल से चमन तमाम


हैरत ग़ुरूर-ए-हुस्न से शोखी से इज़्तराब
दिल ने भी तेरे सीख लिये हैं चलन तमाम


तुम्हारे इस रूप से पूरी महफिल गुलशन हो गई है ठीक वैसे ही जैसे सुर्ख दहकते फूल पूरे बगीचे को रौशन कर देते हैं। पर मुझे हैरत होती है तेरे हुस्न का गुरूर देख...घबरा जाता हूँ तेरी इस मदमस्त चंचलता से। अब तो लगता है कि ज़माने के रंग ढंग देख तूने भी अपने सलीके बदल लिए हैं।

अल्लाह रे जिस्म-ए-यार की खूबी के ख़ुद-ब-ख़ुद
रंगीनियों में ड़ूब गया पैरहन तमाम


देखो तो चश्म-ए-यार की जादू निगाहियाँ
बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम


और तेरी खूबसूरती के बारे में क्या कहूँ तुम्हारे शरीर से लिपटकर सारे लिबास और भी दिलकश लगने लगते हैं। रही बात तुम्हारी आँखों की, तो तुम्हारी हसीन नज़र के एक वार से तो पूरी महफ़िल ही बेहोश हो जाए

शिरीनी-ए-नसीम है सोज़-ओ-ग़ुदाज़-ए-मीर,
‘हसरत’ तेरे सुख़न पे है लुत्फ़-ए-सुख़न तमाम


और मक़्ते में तो मौलाना हसरत मोहानी अपनी पीठ ठोकने का लोभ संवरण नहीं कर पाते। पहले तो मीर की शायरी में वो हवा की सी मिठास, दर्द और कोमलता का जिक्र करते हैं और फिर ये कहने से भी नहीं चूकते कि मेरी शायरी सुने बिना शायरी का पूरी तरह लुत्फ़ उठाना संभव नहीं है।

जगजीत ने इस ग़ज़ल के सिर्फ तीन अशआरों को इस एलबम में इस्तेमाल किया है। वहीं प्रसिद्ध सूफी गायिका आबिदा परवीन ने अपने अलग निराले अंदाज में अपने एलबम रक़्स ए बिस्मिल में इस ग़ज़ल को अपना स्वर दिया है तो आइए पहले सुने जगजीत सिंह को



और ये रहा आबिदा परवीन वाला वर्सन


एक शाम मेरे नाम पर जगजीत सिंह और कहकशाँ 

सोमवार, नवंबर 03, 2008

अनिल कुंबले - क्रिकेट के प्रति पूर्णतः कटिबद्ध इस जीवट खिलाड़ी के खेल जीवन से जुड़े वो यादगार पल...

अनिल कुंबले ने कल दिल्ली टेस्ट के आखिरी दिन प्रथम श्रेणी क्रिकेट से संन्यास ले लिया। नब्बे के दशक से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाले अनिल के १८ वर्षों के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के सफ़र का मैं साक्षी रहा हूँ। इस दौरान भारत ले लिए दिया गया उनका योगदान किसी भी हिसाब से सुनील गावस्कर और कपिल देव से कमतर नहीं है, ऐसा मेरा मानना है।


कुंबले का नाम आते ही एक ऐसे खिलाड़ी की शक्ल ज़ेहन में उभर कर आती है जिसने हमेशा टीम के हित को सर्वोपरि रखा। ये खिलाड़ी जब भी मैदान में उतरा अपना सर्वस्व झोंक कर आया। इसलिए अंतिम टेस्ट के लिए जैसे ही कुंबले को ये लगा कि शारीरिक रूप से वो पूर्णतः सक्षम नहीं हैं, उसने इस श्रृंखला के बीच में ही ये निर्णय ले लिया कि अलविदा कहने का वक़्त आ गया है।


अनिल को 'जंबो' की उपमा उनकी तेज गति से फेकी जाने वाली फ्लिपर (Flipper) की वज़ह से ही नहीं मिली बल्कि इसमें उनके जंबो साइज पाँवों का भी हाथ रहा :)। अनिल मेरे हमउम्र तो हैं ही, साथ ही वो हमारी जात बिरादिरी वाले भी हैं। चौंक गए ! अरे जनाब मेरे कहने का मतलब ये था कि वो भी एक यांत्रिकी यानि मेकेनिकल इंजीनियर (वो भी Distinction Holder) हैं। अब ये अलग बात है कि अपने चुस्त दिमाग का प्रयोग उन्होने क्रिकेट के मैदान में अपनी गेंदों की लेंथ, गति और फ्लाइट के बदलाव में दे डाला और तभी तो १३२ टेस्ट में ६१९ विकेट झटक डाले।

जितने मैचों में उन्होंने भारत को अपनी गेंदबाजी के बल पर जिताया है वो उनसे ज्यादा नामी खिलाड़ियो से कहीं अधिक है। वैसे तो कितने ही मौके हैं जो कुंबले ने तमाम भारतीयों के लिए यादगार बना दिए पर आज इस महान खिलाड़ी की विदाई के समय उनमें से कुछ पलों को आपसे फिर बाँटना चाहूँगा जिसे याद कर मन आज भी बेहद रोमांचित हो उठता है।


फरवरी १९९९, फिरोजशाह कोटला, दिल्ली

पाकिस्तान की टीम को जीतने के लिए अंतिम पारी में ४०० से ऊपर रन बनाने हैं। जीत असंभव है बस मैच बचाने की जुगत है। पहले स्पेल में अनिल भी कुछ खास नहीं कर पाते हैं। स्कोर १०१ तक जा पहुँचता है वो भी बिना कोई विकट खोए। पर अनिल का दूसरा स्पेल पाकिस्तानी बल्लेबाजों के लिए प्राणघातक साबित होता है। अफ़रीदी, सईद अनवर , इज़ाज अहमद, सलीम मलिक, इंजमाम जैसे धुरंधर बल्लेबाज कुंबले के शिकार बनते चले जाते हैं। हालत ये है कि सक़लीन मुश्ताक का जब नौवाँ विकेट गिरता है तो श्रीनाथ कोशिश करते हैं कि वो गलती से आखिरी विकेट ना ले जाएँ। वसीम अकरम के आउट होते ही भारत को मिलती है एक जबरदस्त जीत और कुंबले को एक ऍसा व्यक्तिगत मुकाम जिसे क्रिकेट इतिहास में सिर्फ एक और बार ही संपादित किया गया हो। तो आइए फिर से महसूस करें खुशी के उन पलों को और देखें कुंबले ने कैसे किए थे अपने ये दस शिकार


जब मैं बंगलोर गया था तो एम जी रोड के पास अनिल कुंबले के नाम का वो चौक भी दिखाई पड़ा था जो कर्नाटक सरकार ने उनकी इस उपलब्धि के उपहार स्वरूप दिया था।

मई २००२, एंटीगुआ
भारत और वेस्ट इंडीज के बीच एंटीगुआ में चौथा टेस्ट मैच चल रहा है। वेस्ट इंडीज के तेज गेंदबाज मरविन डिल्लन एक बाउंसर फेंकते हैं। अनिल इससे पहले कि गेंद की लाइन से अपने आप को हटा पाएँ गेंद उनके गाल पर जा लगती है। शुरु में तो ऍसा लगता है कि सिर्फ बाहरी कटाव है पर जब रात में दर्द बढ़ता है तो पता लगता है कि जबड़े में ही क्रैक है। पर जुझारुपन और जीवटता की मिसाल देखिए, चौथे दिन के खेल में सिर पर बैंडेज बाँधे ये खिलाड़ी मैदान पर उतरता है और लारा जैसे महान बल्लेबाज को आउट करने में सफल हो जाता है।


अगस्त २००७, क्वीन्स पार्क, ओवल

ओवल में दूसरा टेस्ट इंग्लैंड और भारत के बीच खेला जा रहा है। रनो का अंबार लग रहा है। धोनी की आतिशी पारी का अनायास अंत हुआ है और मैदान में कुंबले हैं। लग रहा है भारत की पारी जल्दी ही सिमट जाएगी क्यूंकि दूसरे छोर पर श्री संत हैं जिनका टेंपरामेंट जगजाहिर है। पर अपनी टेस्ट जीवन की १५१ वीं पारी में कुंबले पूरे फार्म में हैं। तेंदुलकर की तरह ही कवर ड्राइव लगा रहे हैं। और ये क्या अब तो वो अपने पहले शतक के पास भी पहुँच गए हैं।
हमारे दिल की धड़कने बढ़ गई हैं। निचले क्रम के बल्लेबाज का शतक, ऊपरी क्रम के बल्लेबाज की तुलना में हमारे लिए हजार गुना ज्यादा महत्त्व रखता है। शतक से अब एक शाट की दूरी है पर ये गेंद तो बल्ले के निचले किनारे से निकल कर विकेट की बगल से होती हुई सीमारेखा की ओर जा रही है । वहीं कुंबले पहला रन पूरा कर दूसरे के लिए भाग रहे हैं और अब तो गिर भी पड़े हैं पर शतक पूरा हो गया है। हमारी आँखे खुशी के अतिरेक से सजल हो उठीं हैं और उधर ड्रेसिंग रूम में तो जश्न का माहौल है ही।

नवंबर २००८ फिरोजशाह कोटला, दिल्ली
कुंबले कैच लेते वक़्त फिर घायल हैं। बायें हाथ में फिर 11 टाँकें पड़े हैं फिर भी आस्ट्रेलियाई टीम को आल आउट भी करना है। हरभजन नहीं है तो मैदान में उनकी जरूरत है। इंशांत शर्मा और अमित मिश्रा जैसे युवा खिलाड़ियों से लेकर लक्ष्मण तक आसान कैच नहीं ले पा रहे। कुंबले क्षेत्ररक्षण से खुश नहीं। मिशेल जानसन सीधा कुंबले के सिर के ऊपर से गेंद को उठाते हैं। पर कुंबले ने कॉल कर दिया है कि पीछे दौड़ते हुए भी वे ही कैच लेंगे और वो चोटिल हाथ से भी कैच पकड़ लेते हैं। हमें नहीं पता कि ये उनका अंतिम शिकार है क्यूँकि उनकी आँखों में विकेट लेने की भूख अब भी दिखती है पर ३८ साल की उम्र में शायद शरीर और साथ नहीं दे रहा।


आज ये दुख नहीं बल्कि खुशी का मौका है एक महान खिलाड़ी की विदाई का जिसने अपने विनम्र स्वभाव और खेल के प्रति अटूट कटिबद्धता से इस देश में ही नहीं बल्कि विदेशी खिलाड़ियों के बीच एक सम्मान का स्थान बनाया। आशा है अंतिम टेस्ट में भारतीय टीम कुंबले को सीरीज जीतने का तोहफा जरूर देगी।
आज इस देश को अनिल जैसे जीवट खिलाड़ियों की जरूरत है जिन्हें ना केवल अपनी काबिलियत पर भरोसा है पर अपनी प्रतिभा को तराशते रहने के लिए निरंतर मेहनत करने की इच्छा शक्ति भी है।

अनिल, अपनी पत्नी और बच्चों के साथ जीवन में खुशियाँ बटोरें ये मेरी और तमाम भारतवासियों की शुभकामना है।
 

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