मंगलवार, जून 30, 2009

मेरे सराहने जलाओ सपने : आखिर क्या करे कोई जब ख्वाब डसने लगें नीदों को !

सपने देखने चाहिए..यही तो विचारक सदियों से कहते आए हैं पर साथ में वो ये भी पुछल्ला जोड़ देते हैं कि अपने सपनों को पूरा करने की दिशा में मनुष्य को ठोस कदम भी उठाने चाहिए। और ये तभी संभव है जब इंसान में अदम्य इच्छा शक्ति, बाधाओं से लड़ने का दृढ़संकल्प और मेहनत से दूर भागने की फितरत ना हो।

पर ये बातें कहना आसान है और इसे अपने जीवन में कार्यान्वित कर पाना बेहद मुश्किल। अपने आस पास की दुनिया में रोज़ कई पात्र ऍसे नज़र आते हैं जिनकी ख्वाबों की उड़ान तो काफी लंबी होती है पर उसके अनुरूप उनके कर्मों की फेरहिस्त बेहद छोटी। और ऊपर से उन्हें इस बात का अहसास तक नहीं होता। असफलता का एक वार ऐसे लोगों का उत्साह ठंडा कर देता है। अपने भाग्य को कोसते वो अपना समय दुनिया में नुक़्स निकालने में ही व्यर्थ कर देते हैं। पर ख्वाब हैं कि फिर भी बेचैन किये रहते हैं और लोग बाग सफलता के शार्ट कर्ट की तलाश में कुछ ऍसे भटक जाते हैं कि वापस जिंदगी की गाड़ी पटरी पर लगा पाना बेहद दुष्कर हो जाता है।


ये तो नहीं कहूँगा कि बिल्कुल ऍसा ही, पर कुछ कुछ मिलता हुआ एक जटिल चरित्र था मैडम बोवेरी (Madame Bovary) का जिन्हें नब्बे के दशक में केतन मेहता ने अपनी फिल्म माया मेमसॉब में माया के भारतीय रूप में रूपांतरित किया था। फिल्म की कथा में माया ने भी अपनी ख्वाबों की उड़ान बिना वांछित कर्मों की लटाई के आसमां में बेलगाम छोड़ दी थी। इन ख्वाबों ने जब माया की जिंदगी के मकाँ में अपने लिए कोई आशियाना नहीं देखा तो सर्पों की केंचुल चढ़ा नींद में अपन फन फैलाए चले आए उसे डसने.. अब ऍसे सपनों का क्या करे माया, शायद उनके दहन से ही उसे मुक्ति मिले..

ख्वाबों खयालों की भाषा को अगर किसी गीतकार द्वारा विविध कोणों से देखे परखे और रचे जाने की बात आती है तो सबसे पहले गुलज़ार का नाम ज़ेहन में उभरता है। और शायद इसीलिए केतन मेहता ने फिल्म माया मेमसाब की स्वछंद व्यक्तित्व स्वामिनी माया के मन को पढ़ने का काम गुलज़ार को सौंपा। और देखिए किस खूबसूरती से इस गीत में गुलज़ार ने माया की भावनाओं को अपने लफ़्ज़ दिये है..

मेरे सराहने जलाओ सपने
मुझे ज़रा सी तो नींद आए

खयाल चलते हैं आगे आगे
मैं उनकी छाँव में चल रही हैं
ना जाने किस मोम से बनी हूँ
जो कतरा कतरा पिघल रही हूँ
मैं सहमी रहती हूँ नींद में भी
कहीं कोई ख्वाब डस ना जाए
मेरे सराहने जलाओ सपने...

कभी बुलाता है कोई साया
कभी उड़ाती है धूल कोई
मैं एक भटकी हुई सी खुशबू
तलाश करती हूँ फूल कोई
जरा किसी शाख पर तो बैठूँ
जरा तो मुझको हवा झुलाए
मेरे सराहने जलाओ सपने...

तो आइए सुनें हृदयनाथ मंगेशकर के संगीत निर्देशन में लता मंगेशकर की मधुर स्वर लहरी से सुसज्जित ये गीत..


रविवार, जून 28, 2009

राग 'ख़माज' पर आधारित एक प्यारा नग्मा "मोरा सैयां मोसे बोले ना....."

'सा रे गा मा पा' जी टीवी का एक ऍसा कार्यक्रम है जिसके प्रतिभागी हर साल कुछ ऍसे गीत जुरूर चुनते हैं जिसमें उनकी गायन प्रतिभा निखरकर आ सके। अभी पिछले हफ्ते की बात है, पीसी के सामने बैठकर कीबोर्ड पर उंगलियाँ घिस रहा था कि बगल के कमरे से इस गीत का मुखड़ा सुना। दौड़ कर गया तो देखा तो दुबई से आए गायक 'अमानत अली' इस गीत को बड़ी संजीदगी से गा रहे हैं। गाना तो खत्म हो गया पर गीत का ये जुमला "मोरा सैयां मोसे बोले ना....." मन में रच-बस गया। मन ही मन अपने को कोसा कि ये गीत अगर इतना लोकप्रिय है, कि दिया मिर्जा , जी टीवी के उस शो में आने के पहले उसे अपनी गाड़ी में सुन रहीं थीं तो मैं अब तक इसे क्यूँ नहीं सुन पाया।



अंतरजाल पर खोज के बाद पता चला कि ये किसी फिल्म का गीत नहीं बल्कि पाकिस्तान के म्यूजिक बैंड फ्यूजन की एलबम 'सागर' का एक ट्रैक है। ये बैंड शफकत अमानत अली खाँ (गायन), इमरान मोमिन ( कीबोर्ड ) और शालुम जेवियर( गिटॉर) का सम्मिलित प्रयास है। इस गीत की खासियत ये है कि इस गीत की बंदिश राग ख़माज पर आधारित है और शफ़कत ने इसे गाया भी बेहद खूबसूरती से है। अगर शफकत अमानत अली खाँ आपके लिए नया नाम हो तो ये बता देना जरूरी होगा कि ये वही शफ़कत है जिनके गाए 'कभी अलविदा ना कहना' के गीत मितवा... पर सारा देश झूम उठा था। पटियाला घराने से जुड़े शफ़कत से जब ये पूछा गया कि ठेठ शास्त्रीय गायन को छोड़ कर उन्हें इस तरह का एलबम करने की क्या सूझी तो उनका जवाब था कि

"शास्त्रीय संगीत में थोड़ी मीठी चाशनी लगा हम आज के युवाओं को परोस रहे हैं। आज हमारे कार्यक्रमों में युवा आते हैं और कहते हैं कि 'ख़माज' गाईए। उनमें से अधिकतर को इस राग के बारे में पता नहीं होता। पर ये भी जरूर होगा कि उनमें से कईयों में इसे सीखने की रुचि जाग्रत होगी।"

इस गीत के बोल बिलकुल सीधे सरल हैं...अपने पिया के विरह वियोग में डूबी नायिका की करुण पुकार। इस सलीके से शफ़कत ने उन भावनाओं को अपने सुर के उतार चढ़ाव के साथ समाहित किया है कि इसे सुनते सुनते मन खोने सा लगता है ..कुछ क्षणों के लिए अपने चारों ओर की दुनिया बेमानी सी लगने लगती हैं...सच्ची लगती हैं तो बस इस गीत की भावनाएँ ..

सावन बीतो जाए पीहरवा
मन मेरा घबड़ाए
ऍसो गए परदेश पिया तुम
चैन हमें नही आए
मोरा सैयां मोसे बोले ना....
मैं लाख जतन कर हारी
लाख जतन कर हार रही
मोरा सैयां मोसे बोले ना....

तू जो नहीं तो ऍसे पिया हम
जैसे सूना आंगना
नैन तेरी राह निहारें
नैनों को तरसाओ ना
मोरा सैयां मोसे बोले ना....
मैं लाख जतन कर हारी..
लाख जतन कर हार रही
मोरा सैयां मोसे बोले ना....

प्यार तुम्हें कितना करते हैं
तुम ये समझ नहीं पाओगे
जब हम ना होंगे तो पीहरवा
बोलो क्या तब आओगे ?
मोरा सैयां मोसे बोले ना....
मैं लाख जतन कर हारी
लाख जतन कर हार रही
मोरा सैयां मोसे बोले ना....


गुरुवार, जून 25, 2009

दिल जो ना कह सका आज सुनिए लता जी की मीठी आवाज में ये रूमानियत भरा गीत...

पिछली पोस्ट में आपने सुना इस गीत को मोहम्मद रफ़ी  की आवाज़ में। सुरों की मलिका लता जी ने भी इस प्यारे से गीत को अपना स्वर दिया है। जैसा कि मैंने पहले कहा था कि लता वाले वर्सन का मिज़ाज कुछ दूसरा है।रफ़ी साहब का गाया गीत एक ऊंचा टेम्पो लिए हुए था वहीं मीना कुमारी पर फिल्माया ये गीत उस शांत नदी की धारा की तरह है जिसके हर सिरे से सिर्फ और सिर्फ रूमानियत का प्रवाह होता है।


जहाँ रफ़ी साहब को विभिन्न अंतरों में गीत के बदलते भावों के हिसाब से आवाज़ का लहजा बदलना था वहीं लता इस गीत में अपनी मीठी आवाज़ से प्रेम में आसक्त नायिका के कथ्यों में मिसरी घोलती नज़र आती हैं।

वैसे अंतरजाल पर इस गीत के बारे में ये बहस आम है कि गीत के इन दोनों रूपों में कौन सी प्रस्तुति ज्यादा धारदार थी? दो महान गायकों की ऍसी तुलना मुझे तो बेमानी लगती है, खासकर तब जब दोनों गीतों की परिस्थितियाँ फिल्म 'भीगी रात' में बिल्कुल अलहदा थीं।हाँ, मुझे ये जरूर लगता है कि रफ़ी वाले वर्सन को सफलता पूर्वक निभाने के लिए किसी भी गायक के लिए चुनौतियाँ कही ज़्यादा थीं।

लता रोशन जी की बतौर संगीतकार बेहद इज्जत करती थीं । और यही वज़ह है कि पचास साठ के दशक में बहू बेगम, चित्रलेखा, ममता, ताजमहल में संगीतकार रौशन के लिए गाए उनके गीत हिन्दी पार्श्व फिल्म गायन की अनमोल धरोहर बन गए हैं।

वैसे ये गीत भी अपने आप में लाजवाब है। गीत के शुरुआती हिस्से में लता जी की हमिंग के बीच चाशनी में घुला हुआ उनका स्वर उभरता है तो बस मन में समा बँध जाता है। वैसे इसके बाद कोई कसर बचती भी है तोगीतकार मज़रूह सुल्तानपुरी  के कभी नरमी कभी शोखी लिए बोल आपको रूमानी माहौल से निकलने का मौका ही नहीं देते।

हम्म्म्म...हम्म्म्म..हम्म्म्म
दिल जो ना कह सका
वही राज़-ए-दिल कहने की रात आई
दिल जो ना कह सका....

नगमा सा कोई जाग उठा बदन में
झंकार की सी थरथरी है तन में
झंकार की सी थरथरी है तन में
हो प्यार की इन्हीं धड़कती
धड़कती फिज़ाओं में, रहने की रात आई
दिल जो ना कह सका....

अब तक दबी थी इक मौज़ ए अरमाँ
लब तक जो आई बन गई है तूफाँ
लब तक जो आई बन गई है तूफाँ
हो..,, बात प्यार की बहकती
बहकती निगाहों से कहने की रात आई
दिल जो ना कह सका....

गुजरे ना ये शब, खोल दूँ ये जुल्फ़ें
तुमको छुपा लूँ मूँद के ये पलकें
तुमको छुपा लूँ मूँद के ये पलकें
हो..बेकरार सी लरज़ती
लरज़ती सी छाँव में रहने की रात आई
दिल जो ना कह सका....
(मौज़ ‍- लहर , लरज़ना - काँपना, थरथराना)

प्रेम रस से सराबोर इस गीत को अगर आप मीना कुमारी और प्रदीप कुमार की अदाकारी के साथ देखना चाहते हैं तो ये रहा इसका वीडिओ लिंक....

मंगलवार, जून 23, 2009

दिल जो ना कह सका...: रफ़ी, रौशन और मज़रूह की त्रिवेणी से निकला का एक यादगार नग्मा...

पिछले हफ्ते चैनल बदलते बदलते जी टीवी के लिटिल चैम्पस पर उँगलियाँ रुकीं तो रुकी की रुकी रह गईं। एक छोटे बालक को रफी साहब के इस गीत का एक हिस्सा गाते सुना तो मन आह्लादित हो गया। बीते दिनों के इन अनमोल मोतियों को आज के बच्चों के मुख से सुनना असीम संतोष की भावना से मन को भर देता है। कई दिनों के बाद ये गीत जब सुनने को मिला तो ज़ेहन से उतरने का नाम ही नहीं ले रहा। इसलिए सोचा कि क्यूँ ना इस आनंद को आप सब के साथ बाँटा जाए।

जिस गीत के बोल, धुन और गायिकी तीनों ही बेमिसाल हों तो आपको कहने को तो कुछ रह ही नहीं जाता, मन भावनाओं के आवेश से हिलोरें लेने लगता है और गीत खुद बा खुद होठों पर चला आता है ...

दिल जो ना कह सका
वही राज़-ए-दिल कहने की रात आई
दिल जो ना कह सका....



क्या धुन बनाई थी मुखड़े की संगीतकार रोशन ने कि आदमी मज़रूह सुल्तानपुरी के शब्दों की रवानी के साथ बहता ही चला जाता है। १९६५ में प्रदर्शित फिल्म भींगी रात का ये गीत बेहद लोकप्रिय हुआ था और उस साल की बिनाका संगीतमाला में पाँचवे स्थान तक जा पहुँचा था। अगर मुखड़े के लिए गीतकार और संगीतकार की जादूगरी को दाद देने का जी चाहता है तो वहीं अंतरे में मोहम्मद रफी साहब की कलाकारी इस गीत को उनके गाए बेहतरीन गीतों में से एक मानने पर मज़बूर कर देती है।

ये गीत फिल्म में प्रदीप कुमार, अशोक कुमार और मीना कुमारी पर फिल्माया गया है।

गीतकार मज़रूह सुल्तानपुरी ने प्रेमिका की बेवफाई टूटे नायक (प्रदीप कुमार) के दिल में उठते मनोभावों को गीत के अलग अलग अंतरों में व्यक्त किया हैं।

दिल जो ना कह सका
वही राज़-ए-दिल कहने की रात आई
दिल जो ना कह सका....

नगमा सा कोई जाग उठा बदन में
झंकार की सी, थरथरी है तन में
झंकार की सी थरथरी है तन में
हो.. मुबारक तुम्हें किसी की
लरज़ती सी बाहों में
रहने की रात आई
दिल जो ना कह सका...

तौबा ये किस ने, अंजुमन सजा के
टुकड़े किये हैं गुनचा-ए-वफ़ा के
टुकड़े किये हैं गुनचा-ए-वफ़ा के
हो..उछालो गुलों के टुकड़े
कि रंगीं फ़िज़ाओं में
रहने की रात आई, दिल जो ना कह सका....

चलिये मुबारक जश्न दोस्ती का
दामन तो थामा आप ने किसी का
दामन तो थामा आप ने किसी का
हो...हमें तो खुशी यही है
तुम्हें भी किसी को अपना
कहने की रात आई, दिल जो ना कह सका...

सागर उठाओ दिल का किस को ग़म है
आज दिल की क़ीमत जाम से भी कम है
आज दिल की क़ीमत जाम से भी कम है
पियो चाहे खून-ए-दिल हो
हो...के पीते पिलाते ही रहने की रात आई
दिल जो ना कह सका...


नायक की दिल की पीड़ा कभी तंज़, कभी उपहास तो कभी गहरी निराशा के स्वरों में गूँजती है और इस गूँज को मोहम्मद रफ़ी अपनी आवाज़ में इस तरह उतारते हैं कि गीत खत्म होने तक नायक का दर्द आपका हो जाता है

तो फिर देर काहे कि सुनिए आप भी इस महान गायक को एक बेमिसाल गीत में



इसी गीत को लता मंगेशकर ने भी गाया है। पर मीना कुमारी वाले गीत का मिज़ाज़ कुछ अलग है। पर उस गीत की बात करेंगे इस कड़ी की अगली पोस्ट में..

शुक्रवार, जून 19, 2009

दोस्ती हर दिन की मेहनत है चलो यूँ ही सही : क्या सोचते हैं चंदन ग़ज़ल और ग़ज़ल गायिकी के भविष्य पर ?

चंदन दास पर आधारित इस श्रृंखला का समापन आज निदा फ़ाज़ली की इस बेहतरीन ग़ज़ल से। पर जैसा कि पिछली पोस्ट में मैने जिक्र किया था, आज ये भी जानेंगे कि क्या सोचते हैं चंदन दास ग़ज़ल गायिकी, इसके श्रोताओं और भविष्य में इसकी लोकप्रियता के बारे में ? कुछ साल पहले अंग्रेजी दैनिक ट्रिब्यून और यूनआई को उन्होंने अलग अलग साक्षात्कारों में बताया था कि
चाहे कितनी तरह का संगीत आए या जाए, ग़ज़लों के प्रशंसक हर काल में रहे हैं और आगे भी रहेंगे। हाँ ये जरूर है कि ग़ज़ल जैसी विधा हर संगीत प्रेमी को आकर्षित नहीं करती। हर कालखंड में ग़ज़ल वैसे ही लोगों द्वारा सराही गई हे जिन्हें उच्च दर्जे की कविता की समझ हो। ग़ज़ल सुनने से थिरकने का मन नहीं होता या जोर से झूमने की इच्छा होती है ये तो अपने अशआरों की अन्तरनिहित भावनाओं से सीधे दिल के पुर्जों को झिंझोड़ देती है। अब गालिब की शायरी को ही लें, उनकी मृत्यु की दो शताब्दियों के बाद भी उसके असर का मुकाबला किसी अन्य लोकप्रिय संगीत से नहीं किया जा सकता। इसका मतलब ये भी नहीं कि संगीत के अन्य रूपों डिस्को, जॉज, पॉप , रिमिक्स की जगह नहीं। है पर दोनों की प्रकृति में कोई साम्य नहीं , दोनों की दुनिया ही अलग है।
ग़ज़ल में शब्दों का बहुत महत्त्व है। वैसे तो ग़ज़ल गायक कई बार जनता का ध्यान रखते हुए ऍसी ग़ज़लों को चुनते हैं जो उनकी आसानी से समझ आ जाए। पर इस बाबत एक सीमा से ज्यादा समझौता करने वाले गायक ज्यादा दिनों तक लोकप्रियता का दामन नहीं छू पाते।
ग़ज़लों को बढ़ावा देने में टीवी के रोल से चंदन असंतुष्ट हैं. वो कहते हैं कि ".....एक ज़माने में जब दूरदर्शन था तो ग़ज़लों और मुशायरों के कई कार्यक्रम हुआ करते थे पर आज जब टीवी के पर्दे पर चैनलों की बाढ़ आई हुई है तो संगीत की अन्य विधाओं के सामने शेर ओ शायरी और कविता से जुड़े कार्यक्रम कहीं नज़र ही नहीं आते।..."

चंदन की बात वाज़िब है। यूँ तो संगीत चेनल के नाम पर MTV, etc और चैनल V जैसे कई चैनल हैं पर इनमें से किसी ने भी ग़ज़लों को केंद्रित कर दैनिक या साप्ताहिक श्रृंखला नहीं चलाई। आज के हिट गीतों को तो ये दिन में बीसियों बार बजा सकते हैं पर एक अच्छा ग़ज़लों का कार्यक्रम करने के बारे में ये सोचते तक नहीं। विविध भारती को छोड़ दें तो निजी एफ एम चैनलों की भी कमोबेश यही हालत है। ये स्थिति चिंतनीय है और इसे सुधारने के लिए आम श्रोताओं को भी एक दबाव बनाना होगा नहीं तो आगे की पीढ़ियाँ संगीत की इस अनमोल विधा को सुनने से वंचित रह जाएँगी।

इस श्रृंखला में


तो लौटते हैं आज की ग़ज़ल पर जो मुझे तीनों ग़ज़लों में सबसे अधिक प्रिय है। ये ग़ज़ल चंदन दास की अब तक पेश की गई ग़ज़लों से भिन्न एक दूसरे मिज़ाज़ की ग़ज़ल है जिसका हर शेर आपको कुछ सोचने पर मजबूर कर देता है। खासकर एक शेर तो आज के इस सोशल नेटवर्किंग के दौर में खास मायने रखता है। फेसबुक, आर्कुट में सैकड़ों की संख्या में हम दोस्त बना लेते हैं पर क्या हमारे पास उनमें से सभी तो छोड़ें कुछ खास के लिए भी पर्याप्त वक़्त होता है। इसी लिए मुझे निदा फ़ाज़ली का ये शेर सबसे ज्यादा कचोटता है

मैले हो जाते हैं रिश्ते भी लिबासों की तरह
दोस्ती हर दिन की मेहनत है चलो यूँ ही सही
चंदन दास ने जिस संयमित और सधी आवाज़ में इस ग़ज़ल का निर्वाह किया है उसे आप उनकी आवाज़ में इस ग़ज़ल को सुनकर ही महसूस कर सकते हैं।





आती जाती हर मोहब्बत है चलो यूँ ही सही
जब तलक़ है खूबसूरत है चलो यूँ ही सही

जैसी होनी चाहिए थी वैसी तो दुनिया नहीं
दुनियादारी भी जरूरत है चलो यूँ ही सही

मैले हो जाते हैं रिश्ते भी लिबासों की तरह
दोस्ती हर दिन की मेहनत है चलो यूँ ही सही

हम कहाँ के देवता हैं, बेवफा वो हैं तो क्या
घर में कोई घर की ज़ीनत है चलो यूँ ही सही


यूँ तो चंदन दास की ग़ज़लों की फेरहिस्त बेहद लंबी है पर मैंने अभी तक उनके कई एलबमों को नहीं सुना है। इस बार की श्रृंखला तो आज यहीं खत्म कर रहा हूँ पर फिर कभी उनकी कुछ और बेहतरीन ग़ज़लें हाथ लगेंगी तो आपके साथ उन्हें जरूर शेयर करूँगा।

मंगलवार, जून 16, 2009

जब मेरी हक़ीकत जा जा कर उनको जो सुनाई लोगों ने :चंदन दास / इब्राहिम अश्क़

पिछली पोस्ट में आपने सुनी चंदन दास की आवाज़ में जनाब मुराद लखनवी की ग़ज़ल। इससे पहले इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए आज की ग़ज़ल की चर्चा की जाए कुछ बातें चंदन दास के बारे में।

अक्सर देखा गया है कि संगीत से जुड़े फ़नकार एक सांगीतिक विरासत के उत्तराधिकारी होते हैं पर चंदन दास को ऍसा सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। उन्हें तो ग़ज़ल गायिकी के क्षेत्र में आने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी।

उनके पिता चाहते थे कि चंदन उनका मुर्शीदाबाद का व्यापार सँभाले। चंदन इस बात के लिए राजी नहीं हुए और ग्यारहवीं कक्षा के बाद वो अपने चाचा के यहाँ पटना आ गए। १९७६ में उन्हें दिल्ली के ओबेरॉय होटल में काम करने का मौका मिला। दिल्ली आने के बाद दो साल बाद उनकी किस्मत तब खुली जब गाने के लिए मुंबई की संगीत कंपनी का न्योता उन्हें मिला। चंदन की खुशकिस्मती थी कि उनकी पहली एलबम में उनका परिचय खुद ग़ज़ल गायक तलत अज़ीज ने दिया।

अपने इन्हीं अनुभवों को ध्यान में रख कर चंदन दास ने एक साक्षात्कार में कहा था कि ...."नए गायकों को संगीत के क्षेत्र में और संयम से अपनी दिशा तय करनी चाहिए। आज की पीढ़ी सफलता का स्वाद जल्दी चखने के लिए संगीत की उस विधा को चुन लेती हे जहाँ आसानी से नाम और पैसा कमाया जा सके। दरअसल उन्हें निरंतर रियाज़ करते हुए ये तय करना चाहिए कि वे अपनी काबिलियत के बल पर किस क्षेत्र में अपना मुकाम हासिल कर सकते हैं।"


इस श्रृंखला में


चंदन दास ने गंभीर और हल्की फुल्की (जिसमें गीत का मिज़ाज ज्यादा और बोलों का वज़न कम हो) दोनों तरह की ग़ज़ले गाई हैं। आज की ग़ज़ल कौ मैं इन दोनों श्रेणियों के बीच की मानता हूँ। यानि अच्छे अशआरों के साथ गाई एक ऍसी ग़ज़ल जिसे सुनते ही मन प्रफुल्लित हो जाता है। दरअसल जब इब्राहिम अश्क़ जैसा मँजा हुआ गीतकार ग़ज़ल लिखता है तो उसकी गेयता तो अच्छी होगी ही। इस ग़ज़ल में चंदन दास ने संगीत भी लफ़्जों के उतार चढ़ाव के अनुरूप ही रखा है जिसे इसे सुनने का आनंद बढ़ जाता है। शायद ही कोई ग़ज़ल प्रेमी हो जो इसे सुनकर साथ ही साथ इसे गुनगुनाने का लोभ संवरण कर सके।

और अब सुनिए चंदन दास की मोहक आवाज़ में ये ग़ज़ल



जब मेरी हक़ीकत जा जा कर उनको जो सुनाई लोगों ने
कुछ सच भी कहा कुछ झूठ कहा कुछ बात बनाई लोगों ने


ढाए हैं हमेशा जुल्म ओ सितम दुनिया ने मोहब्बत वालों पर
दो दिल को कभी मिलने ना दिया दीवार उठाई लोगों ने

आँखों से ना आँसू पोंछ सके, होठों पे खुशी देखी ना गई
आबाद जो देखा घर मेरा तो आग लगाई लोगों ने

तनहाई का साथी मिल ना सका रुसवाई में शामिल शहर हुआ
पहले तो मेरा दिल तोड़ दिया फिर ईद मनायी लोगों ने

इस दौर में जीना मुश्किल है ऐ अश्क़ कोई आसान नहीं
हर एक कदम पर मरने की अब रस्म चलाई लोगों ने


इस श्रृंखला की अगली कड़ी में होगी निदा फाज़ली की एक संवेदनशील ग़ज़ल और साथ में जानेंगे कि चंदन दास क्या सोचते हैं ग़ज़ल गायिकी के भविष्य के बारे में..

शनिवार, जून 13, 2009

खेलने के वास्ते अब दिल किसी का चाहिए, उम्र ऍसी है कि तुमको इक खिलौना चाहिए

पिछले महिने एक शाम मेरे नाम पर अस्सी के दशक में ग़ज़लों की दुनिया के लोकप्रिय गायकों और गायिकाओं की चर्चा चल रही थी। इस सिलसिले में मैंने आपको पीनाज़ मसानी, राज कुमार रिज़वी और राजेंद्र मेहता - नीना मेहता की गाई अपनी कुछ पसंदीदा ग़ज़लों को सुनवाया था। इसी सिलसिले को आज आगे बढ़ाते हैं अस्सी के दशक की एक और सुरीली आवाज़ से, जिसे आप और हम चंदन दास के नाम से जानते हैं। पीनाज़ मसानी की तरह ही चंदन दास को सबसे पहले देखने और सुनने का मौका मुझे दूरदर्शन की वज़ह मिला। पीनाज़ की तरह ही उन दिनों चंदन अक्सर अपने चिरपरिचित सफेद या क्रीम कुर्ते में दूरदर्शन के सुगम संगीत के कार्यक्रम में बारहा नज़र आते थे।

भारतीय ग़ज़ल गायिकी में ग़ज़लों को गीतनुमा शैली में गाने की उनकी शैली बिल्कुल अलग थी। अपनी ग़ज़लों में संगीत तो उन्होंने परंपरागत ही इस्तेमाल किया पर ज्यादातर ऍसी ग़ज़लें चुनी जिसे उर्दू का विशेष ज्ञान ना रखने वाला भी समझ सकता था। और फिर चंदन की जानदार आवाज़ और लफ्ज़ों का पैना उच्चारण, आम के साथ विशिष्ट जनों को भी अपनी पकड़ में ले ही लेता था।
चंदन दास की एक खासियत और रही वो ये कि उन्होंने अपने समकालीनों की तरह, अपने आप को एक प्रारूपित ढांचे में नहीं ढाला। मेरा इशारा पंकज उधास और अनूप जलोटा की ओर है । पंकज जी का ध्यान आते ही सुर के साथ सुरा याद आने लगती है वहीं अनूप जलोटा नाम सुनते ही मन में घुँघरु खनकने लगते हैं। शायद यही वज़ह रही की पच्चीस सालों बाद भी चंदन दास की गाई कई ग़ज़लें मन कि तहों से निकल निकल कर ज़ुबान पर आती रहती हैं। हाल ही में विमल भाई ने आपको चंदन दास की लोकप्रिय ग़ज़ल

ना जी भर के देखा ना कुछ बात की
बड़ी आरजू थी मुलाकात की

सुनवाते हुए ये लिखा था कि इतनी अच्छी आवाज़ के मालिक होते हुए भी चंदन की ग़ज़लों की फेरहिस्त ज्यादा नहीं है। पर अगर चंदन दास के संगीत सफ़र पर ध्यान दें तो उनके एलबमों की तादाद बीस को पार कर जाती है जिसे कम भी नहीं कहा जा सकता।


इस श्रृंखला में


इस श्रृंखला के लिए मैंने जिन ग़जलों को आपके सामने प्रस्तुत करने की इच्छा है वो वे ग़जलें हैं जिन्हें नब्बे के दशक में मैंने बहुत सुना और गुनगुनाया है। इस कड़ी में आज पेश है मुराद लखनवी की एक ग़जल जिसका मतला मुझे इस ग़जल की जान लगता है।

खेलने के वास्ते अब दिल किसी का चाहिए
उम्र ऍसी है कि तुमको इक खिलौना चाहिए

तो क्यूँ ना इसे गुनगुनाना शुरु किया जाए..


वैसे आप ये बताइए क्या आजकल दिल लगाना और तोड़ना एक खेल की तरह नहीं हो गया है? और तो और अगर जेब भरी हो तो प्रेम की लता ज़रा ज्यादा तेजी से फलती फूलती है इसलिए तो मक़ते में मुराद कहते हैं

कल तलक था दिल जरूरी राह ए उलफत में मुराद
आज के इस दौर में चाँदी औ सोना चाहिए

तो लीजिए सुनिए चंदन दास की धारदार आवाज़ में इस ग़ज़ल को



खेलने के वास्ते अब दिल किसी का चाहिए
उम्र ऍसी है कि तुमको इक खिलौना चाहिए

मुझ को कहिए हाथ में मेंहदी लगाना है अगर
खूने दिल दूँ या कि फिर खूने तुमन्ना चाहिए

बज़्म मे आओ किसी दिन कर के तुम सोलह सिंगार
इक क़यामत वक़्त से पहले भी आना चाहिए

तुम कहो तो मर भी जाऊँ मैं मगर इक शर्त है
बस कफ़न के वास्ते आँचल तुम्हारा चाहिए

कल तलक था दिल जरूरी राह ए उलफत में मुराद
आज के इस दौर में चाँदी और सोना चाहिए

ये ग़ज़ल चंदन दास के एलबम सितम का हिस्सा है जिसे बाजार में टी सीरीज द्वारा लाया गया था।
इस श्रृंखला की अगली कड़ी में चंदन दास से जुड़ी कुछ और बातें होंगी और साथ में होगी उनकी एक प्यारी सी ग़ज़ल ...

सोमवार, जून 08, 2009

सजन रे झूठ मत बोलो..: कैसे रचा शैलेंद्र ने इस नायाब गीत को ?

तीसरी कसम के गीतों की इस श्रृंखला में मेरी पसंद का तीसरा गीत वो है जो अक्सर पिताजी के मुख से बचपन में सुना करता था। मुझे याद हे कि गीत के बोल इतने सरल थे कि बड़ी आसानी से पिताजी से सुन सुन कर ही मुखड़ा और पहला अंतरा याद हो गया था। उस वक्त तो इस गीत से पापा हमें झूठ ना बोलने की शिक्षा दिया करते थे। आज इतने सालों बाद जब यही गीत फिर से सुनाई देता है तो दो बातें सीधे हृदय में लगती हैं। पहली तो ये कि हिंदी फिल्मों में फिलॉसफिकल गीत आजकल नाममात्र ही सुनने को मिलते हैं और दूसरी ये कि गीतकार शैलेन्द्र ने जिस सहजता के साथ जीवन के सत्य को अपनी पंक्तियों में चित्रित किया है उसकी मिसाल मिल पाना मुश्किल है। अब इन पंक्तियों ही को देखें

लड़कपन खेल में खोया,
जवानी नींद भर सोया
बुढ़ापा देख कर रोया
बुढ़ापा देख कर रोया, वही किस्सा पुराना है
बड़े बड़े ज्ञानी महात्मा जिस बात को भक्तों को प्रवचन, शिविरों में समझाते रहे हैं वो कितनी सरलता से शैलेंद्र ने अपने इस गीत की चंद पंक्तियों में समझा दी। चलिए ज़रा कोशिश करें ये जानने कि शैलेंद्र के मन में ऍसा बेहतरीन गीत कैसे पनपा होगा?

शैलेंद्र की उस वक़्त की मानसिक स्थिति के बारे में उनके मित्र फिल्म पत्रकार रामकृष्ण लिखते हैं

वो उन दिनों के किस्से सुनाता... जब परेल मजदूर बस्ती के धुएँ और सीलन से भरी गंदी कोठरी में अपने बाल बच्चों को लेकर वह आने वाली जिन्दगी के सपने देखा करता था और इन दिनों के किस्से जब रिमझिम जैसे शानदार मकान और आस्टिन-कैम्ब्रिज जैसी लंबी गाड़ी का स्वामी होने के बावजूद अपने रीते लमहों की आग उसे शराब की प्यालियों से बुझानी पड़ती।
शैलेंद्र कहा करता...उन दिनों की याद, रामकृष्ण, सच ही भूल नहीं पाता हूं मैं। मानसिक शांति का संबंध, लगता है, धनदौलत और ऐशोआराम के साथ बिलकुल नहीं है, ऐसी बात न होती तो आज मुझे वह सुकून, वह चैन क्यों नहीं मिल पाता आखिर जो उस हालत में मुझे आसानी से नसीब था-आज, जब मेरे पास वह सब कुछ है जिसकी तमन्ना कोई कर सकता है-नाम, इज्जत पैसा... यह सब कहते कहते शैलेंद्र अचानक ही बड़ी गंभीरता के साथ चुप हो जाया करता था और देखने लगता था मेरी आँखों की ओर, जैसे उसके सवालों का जवाब शायद वहां से उसे मिल सकें।
वहीं सत्तर के दशक में विविध भारती से फौजी भाइयों के लिए प्रसारित जयमाला कार्यक्रम में इस गीत को सुनाने के पहले में संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन वाले शंकर ने शैलेन्द्र के बारे में कहा था

सच्ची और खरी बात कहना और सुनना शैलेन्द्र को अच्छा लगता था। कई बार गीत के बोलों को लेकर हम खूब झगड़ते थे, लेकिन गीत की बात जहाँ खत्म होती, फिर वोही घी-शक्कर.. शैलेन्द्र एक सीधा सच्चा आदमी था, झूठ से उसे नफ़रत थी क्यूँकि उसका विश्वास था, 'ख़ुदा के पास जाना है'
अब शैलेन्द्र के बारे में शंकर ने सही कहा ये गलत इस पर तो पर हम बाद में चर्चा
करेंगे पर पहले सुनिए ये गीत..

 

सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है
न हाथी है ना घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है

तुम्हारे महल चौबारे, यहीं रह जाएँगे सारे
अकड़ किस बात कि प्यारे
अकड़ किस बात कि प्यारे, ये सर फिर भी झुकाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है


भला कीजै भला होगा, बुरा कीजै बुरा होगा
बही लिख लिख के क्या होगा
बही लिख लिख के क्या होगा, यहीं सब कुछ चुकाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है...

लड़कपन खेल में खोया,
जवानी नींद भर सोया
बुढ़ापा देख कर रोया
बुढ़ापा देख कर रोया, वही किस्सा पुराना है

सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है
न हाथी है ना घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है
सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है...



और इससे पहले की इस श्रृंखला का समापन करूँ कुछ और बातें गीतकार शैलेंद्र के बारे में। शैलेंद्र की फिल्म तीसरी कसम बुरी तरह फ्लॉप हुई और लोगों का मानना है कि वो इस फिल्म के असफल होने का आघात नहीं सह पाए थे। पर आपको ये भी बताना मुनासिब रहेगा कि शैलेंद्र मँहगी शराब के बेहद शौकीन थे और इस वज़ह से उनका स्वास्थ दिनों दिन वैसे भी गिरता जा रहा था।
नेट पर विचरण करते हुए मुझे उनके मित्र और फिल्म पत्रकार रहे रामकृष्ण का आलेख मिला जो शैलेंद्र के व्यक्तित्व की कई कमियों को उजागर करता है। मिसाल के तौर पर हर रात शराब के नशे में धुत रहना, अपनी आलोचना को बर्दाश्त ना कर पाना, अपने स्वार्थ के लिए मित्रों में फूट डालना और यहाँ तक कि अपने पक्ष में पत्र पत्रिकाओं में लेख छपवाने के लिए पैसे देना। अगर आप गीतकार शैलेंद्र के बारे में रुचि रखते हैं तो ये लेखमाला 'गुनाहे बेलात 'अवश्य पढ़ें।
ये कुछ ऍसी बाते हैं जो शायद प्रतिस्पर्धात्मक फिल्म इंडस्ट्री के बहुतेरे कलाकारों में पाई जाती हों। पर इससे यह स्पष्ट है कि बतौर कलाकार हम क्या सृजन करते हैं और वास्तविक जिंदगी में हम कैसा व्यवहार करते हैं इसमें जरूरी नहीं कि साम्य रहे।
जैसा कि मैंने इस श्रृंखला की पहली पोस्ट में कहा कि तीसरी कसम के अन्य सभी गीत भी अव्वल दर्जे के है। पिछली पोस्ट में आप में से कुछ ने तीसरी कसम के अन्य गीतों को भी पेश करने की इच्छा ज़ाहिर की थी। शीघ्र ही उन्हें आपके सामने संकलित रूप से पेश करता हूँ।

मंगलवार, जून 02, 2009

सजनवा बैरी हो गए हमार :.लोकगीत सी मिठास लिए हुए एक उदास करता नग्मा..

पिछली पोस्ट में मैंने जिक्र किया था कि तीसरी कसम के तीन गीत मुझे विशेष तौर पर प्रिय हैं। आशा जी के मस्ती से भरे गीत के बाद आज बात करते हैं इस फिल्म में मुकेश के गाए हुए मेरे दो प्रिय गीतों में से एक की। तीसरी कसम में बतौर नायक राज कपूर के अलग से रोल में थे। मैंने दूरदर्शन की बदौलत राज कपूर की अधिकांश फिल्में देखी हैं। बतौर अभिनेता वे मुझे औसत दर्जे के कलाकार ही लगते रहे पर तीसरी कसम में गाड़ीवान का उनका किरदार मुझे बेहद प्यारा लगा था और जीभ काटकर इस फिल्म में उनके द्वारा बोले जाने वाले उस इस्स........ को तो मैं आज तक भूल नहीं पाया।

राजकपूर ने जहाँ गाड़ीवान के किरदार हीरामन को बेहतरीन तरीके से निभाया वहीं उनकी आवाज़ कहे जाने वाले गायक मुकेश ने भी उन पर फिल्माए गीतों में अपनी बेहतरीन गायिकी की बदौलत जान फूँक दी। उनसे जुड़े एक लेख में मैंने पढ़ा था कि मुकेश ने अपने मित्रों को ख़ुद ही बताया था कि जब शैलेंद्र ‘तीसरी कसम’ बना रहे थे तब उन्होंने राजकपूर अभिनीत गीतों की आत्मा में उतरने के लिए फ़णीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफ़ाम’ को कई बार पढ़ा था। ये बात स्पष्ट करती है कि उस ज़माने के गायक गीत में सही प्रभाव पैदा करने के लिए कितनी मेहनत करते थे।

अब सजनवा बैरी हो गए हमार की ही बात करें। शैलेंद्र ने इस गीत की परिपाटी लोकगीतों के ताने बाने में बुनी है। पिया के परदेश जाने और वहाँ जा कर अपने प्रेम को भूल जाने की बात बहुतुरे लोकगीतों की मूल भावना रही है। शैलेंद्र के बोल और मुकेश की आवाज़ विरहणी की पीड़ा को इस पुरज़ोर तरीके से हमारे सामने लाते हैं कि सुनने वाले की आँखें आद्र हुए बिना नहीं रह पातीं। और शंकर जयकिशन का संगीत देखिए सिर्फ उतना भर जितनी की जरूरत है। जब मुकेश गा रहे होते हैं तो सिर्फ और सिर्फ उनकी आवाज़ कानों से टकराती है और दो अंतरे के बीच दिया गया संगीत बोलों के प्रभाव को गहरा करते चलता है।

शायद इसीलिए ये गीत मुझे इस फिल्म का सर्वप्रिय गीत लगता है। तो पहले सुनिए इस गीत को गुनगुनाने का मेरा प्रयास..


सजनवा बैरी हो गए हमार
चिठिया हो तो हर कोई बाँचे
भाग ना बाँचे कोए
करमवा बैरी हो गए हमार

जाए बसे परदेश सजनवा, सौतन के भरमाए
ना संदेश ना कोई खबरिया, रुत आए, रुत जाए
डूब गए हम बीच भँवर में
कर के सोलह पार, सजनवा बैरी हो गए हमार

सूनी सेज गोद मेरी सूनी मर्म मा जाने कोए
छटपट तड़पे प्रीत बेचारी, ममता आँसू रोए
ना कोई इस पार हमारा ना कोई उस पार
सजनवा बैरी हो गए हमार...

तो आइए सुनें और देखें मुकेश के गाए इस गीत को

और हाँ एक रोचक तथ्य ये भी है कि जिस गाड़ी में राज कपूर और वहीदा जी पर ये गीत फिल्माया गया वो गाड़ी रेणु जी की खुद की थी और वो आज भी उनके भांजे के पास यादगार स्वरूप सुरक्षित है।

 
अगली बार बात उस गीत की जिसे मैंने इस फिल्म देखने के बहुत पहले अपने पापा के मुँह से सुना था और जो आज भी वक़्त बेवक़्त जिंदगी की राहों में आते प्रश्नचिन्हों को सुलझाने में मेरी मदद करता आया है...
 

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