आज
गुलज़ार साहब का
७३ वाँ जन्मदिन है। वैसे तो गुलज़ार की बात '
एक शाम मेरे नाम' पर होती ही रहती है और इस बात का प्रमाण है कि ये उन से जुड़ी इस चिट्ठे की
२५ वीं पोस्ट है।
मेरे हिन्दी फिल्म संगीत के प्रति आरंभिक झुकाव में इस शख़्स का महती योगदान रहा है। कॉलेज जीवन के कितने ही रंगीन और एकाकी लमहे उनके गीतों के साथ कटे हैं। ऍसा ही एक लमहा था आज से करीब बीस वर्ष पूर्व का जिसे आज इस अवसर पर आप सब से बाँटने की इच्छा हो रही है। साथ ही उनकी लिखी दो नज़्मों और एक ग़ज़ल से भी फिर से रूबरू कराने का इरादा है आज...
बात १९९० की है। हमें इंजीनियरिंग कॉलेज में गए हुए छः महिने बीत चुके थे यानि यूँ कहें कि शुरुआती दो तीन महिनों वाली रैगिंग का फेज़ समाप्त प्रायः हो गया था। घर से निकलने के बाद की पहली पहल आज़ादी का असली स्वाद चखने का यही समय था। यानि अब हम आराम से कॉलेज हॉस्टल से राँची के फिरायालाल के चक्कर लगा पा रहे थे। फुर्सत के लमहों में पढ़ाई के आलावा नई नई बालाओं की विशिष्टताओं की चर्चा में भी खूब आनंद आने लगा था। ऍसे में पता चला कि मार्च के महिने में मेसरा का सालाना महोत्सव जिसे वहाँ बिटोत्सव (Bitotsav) कहा जाता है आरंभ होने वाला है।
अब अपन इन कार्यक्रमों में हिस्सा-विस्सा तो नहीं लिया करते थे पर सारे कार्यक्रमों को देखने की इच्छा जरूर होती थी। और सबसे अधिक इंतज़ार रहता था इस उत्सव की समाप्ति पर होने वाले संगीत महोत्सव का जिसमें पूरे आर्केस्ट्रा के साथ पाश्चात्य और हिन्दी दोनों तरह के संगीत का कार्यक्रम हुआ करता था। मार्च महिने की वो रात मुझे कभी नहीं भूलती। बहुत सारे गीत गाए जा चुके थे पर वो लुत्फ़ अभी तक नहीं आया था जिसकी अपेक्षा लिए हम खुले आकाश के नीचे मैदान में दो घंटे से बैठे थे। तभी हमारे सीनियर बैच की दो छात्राओं के नाम स्टेज़ पर उद्घोषित किए गए। हम सब ने सोचा कोई युगल गीत होगा। और फिर शुरु हुआ
आशा ताई का गाया वो गीत जिसके प्रभाव से मैं वर्षों मुक्त नहीं हो पाया।
वो गीत था गुलज़ार का लिखा हुआ और पंचम का संगीत बद्ध
कतरा कतरा मिलती है, कतरा कतरा जीने दो... ।
भावना भंडारी और बी. सुजाता की जोड़ी ने आशा ताई के इस एकल गीत को मिल कर इतनी खूबसूरती से निभाया कि हम रात भर पागलों की तरह इस गीत को गुनगुनाते रहे।
अगले दिन छुट्टी थी पर इस गीत को फिर से सुनने की इच्छा इतनी बलवती थी कि नाश्ता करने के ठीक बाद अगली बस से राँची इस फिल्म की कैसेट खरीदने के लिए निकल पड़े। अब कैसेट तो दिन तक हॉस्टल में आ गई पर अगली समस्या थी कि इसे बजाया कैसे जाए क्यूँकि मेरे पास उस वक़्त कोई टेपरिकार्डर तो था नहीं। लिहाज़ा बारी बारी से पड़ोसियों के दरवाजे ठकठकाए गए ताकि एक अदद टेपरिकार्डर उधारी पर माँगा जा सके। तीसरे या चौथे दरवाज़े पर हमारी इल्तिज़ा रंग लाई और चार घंटे के लिए हमें टेपरिकार्डर मिल गया। फिर तो ये गीत घंटों रिवाइण्ड कर कर के बजाया गया। गुलज़ार के प्रति मेरा अनुराग ऍसे कई अनुभवों की बदौलत मेरे दिल में सतत पलता बढ़ता रहा है। खैर बात हो रही थी कतरा कतरा की...

दरअसल गीत को इतना खूबसूरत बनाने में गुलज़ार, पंचम और आशा जी की तिकड़ी का बराबर का हाथ है। क्या धुन बनाई थी पंचम दा ने और अपनी प्यारी चहकती छनछनाती आवाज़ में कितनी खूबसूरती से निभाया था आशा जी ने। पंचम तो संगीत में नित नए प्रयोग करने में माहिर रहे हैं। इस गीत में पंचम ने आशा जी की आवाज़ का इस्तेमाल मल्टी ट्रैक रिकार्डिंग में इस तरह किया है कि पूरे गीत में दो आशाएँ एक साथ सुनाई देती है।
तो आइए गुलज़ार के लिखे शब्दों को महसूस कीजिए पंचम की अद्भुत स्वरलहरियों और आशा जी की बहती आवाज़ में ...
कतरा कतरा मिलती है
कतरा कतरा जीने दो
जिंदगी है, जिंदगी है
बहने दो, बहने दो
प्यासी हूँ मैं, प्यासी रहने दो
रहने दो ...
कल भी तो कुछ ऐसा ही हुआ था
नींद में थी तुमने जब छुआ था
गिरते गिरते बाहों में बची मैं
सपने पे पाँव पड़ गया था
सपनों में रहने दो
प्यासी हूँ मैं प्यासी रहने दो
तुम ने तो आकाश बिछाया
मेरे नंगे पैरो में जमीं है
पा के भी तुम्हारी आरजू है
हो शायद ऐसी जिंदगी हसीं है
आरजू में बहने दो
प्यासी हूँ मैं ,प्यासी रहने दो
रहने दो, ना ...
कतरा कतरा मिलती है....
हल्के हल्के कोहरे के धुएँ में
शायद आसमाँ तक आ गयी हूँ
तेरी दो निगाहों के सहारे
देखो तो कहाँ तक आ गयी हूँ
कोहरे में बहने दो
प्यासी हूँ मैं, प्यासी रहने दो
रहने दो, ना ...
कतरा कतरा मिलती है.....गुलज़ार का लिखा गीत तो आपने सुन लिया पर उनकी लिखी नज़्मों या ग़ज़लों को आपने नहीं सुना तो फिर गुलज़ार के शब्द चित्रों में डूबने का मौका तो खो दिया आपने। इसलिए चलते चलते उनसे जुड़ी
मेरी चार पसंदीदा कड़ियाँ भी पढ़ते सुनते जाइए। मैं जानता हूँ कि अगर आपने इन्हें पहले नहीं सुना तो बार बार जरूर सुनना चाहेंगे...
आज गुलज़ार साहब के जन्मदिन पर मेरी यही कामना है कि वे इसी तरह अपने कलम की विलक्षणता से मामूली शब्दों में भावों के जादुई रंग भरते रहें और हमें यूँ ही अपनी रचनाओं से अचंभित, मुदित और निःशब्द करते रहें...आमीन