रविवार, फ़रवरी 28, 2010

जनाब प्रदीप चौबे की आवाज़ में उनकी ये मज़ेदार हास्य कविता... भारतीय रेल की जनरल बोगी

होली का मौसम आते ही उन हास्य कविताओं की याद आ जाती है जिनका हम कवि सम्मेलनों या पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से सुनने या देखने का बेसब्री से इंतज़ार किया करते थे। उस वक्त यानि अस्सी के दशक में आज की तरह टीवी चैनलों की भरमार नहीं थी। ले देकर एक दूरदर्शन था जो इस अवसर पर हास्य कवि सम्मेलनों का आयोज़न किया करता था। पर उससे भी ज्यादा हम इंतज़ार करते थे धर्मयुग के होली विशेषांक का। धर्मयुग चूँकि उस वक़्त की लोकप्रिय पत्रिका थी इसलिए प्रतिष्ठित हास्य कवियों काका हाथरसी, हुल्लड़ मुरादाबादी, शैल चतुर्वेदी, ओम प्रकाश आदित्य व प्रदीप चौबे की ताज़ा कविताओं को पढ़ने का मौका हमें मिल जाया करता था।

अस्सी के पूर्वार्ध की बात है। मैं उस सातवीं क्लास में पढ़ता था। स्कूल में कहा गया था कि वार्षिकोत्सव के दौरान छात्रों को कुछ सुनाना है। वो गीत भी हो सकता है कविता भी और मुझे धर्मयुग में छपी इस कविता का ध्यान हो आया था, जो मैंने होली के समय पढ़ी थी। वो हास्य कविता प्रदीप चौबे की थी और उसे पढ़कर और उसके बारे में सोचकर हफ़्तों मेरा मूड खुशनुमा रहा था। पर कविता इतनी लंबी थी कि मैं कक्षा में उसे समय रहने तक याद ना रख सका। फिर धर्मयुग की वो प्रति भी खो गई और समय के साथ उस कविता की आरंभिक पंक्तियों
......भारतीय रेल की जनरल बोगी पता नहीं
आपने भोगी कि नहीं भोगी
एक बार हम भी कर रहे थे यात्रा
प्लेटफार्म पर देखकर सवारियों की मात्रा
हमारे पसीने छूटने लगे...........के आलावा मुझे कुछ याद भी नहीं रहा।

पिछले हफ़्ते दिल हुआ कि क्यूँ ना होली के माहौल में इस कविता को ढूँढकर आप सबके साथ बाँटा जाए। खुशी की बात ये हुई कि ना केवल मुझे ये कविता मिली साथ ही कवि प्रदीप चौबे की एक रिकार्डिंग भी मिली जिसमें उन्होंने इस कविता का पाठ किया है।

रेल की जनरल बोगी पर अस्सी के दशक में लिखी ये कविता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। वैसे रेलवे ने अस्सी के दशक से आज तक में ट्रेनों की संख्या और यात्री सुविधाओं में निरंतर इज़ाफा किया है पर रेल यात्रियों की संख्या भी उससे कहीं तेजी से बढ़ी है। खासकर आज भी जब आप किसी आम पैसेंजर ट्रेन की बोगी या मेल एक्सप्रेस की जनरल बोगी को देखते हैं तो नीचे जैसे दृश्य आपको सहज ही दिखाई दे जाएँगे।




तो आइए मेरे साथ पढ़िए जबलपुर के इस प्रसिद्ध हास्य कवि प्रदीप चौबे की ये कविता जिसमें उन्होंने हँसी ही हँसी में जनरल बोगी में सफ़र करने वाले आम यात्रियों की व्यथा का बखूबी चित्रण किया है।

भारतीय रेल की जनरल बोगी
पता नहीं आपने भोगी कि नहीं भोगी
एक बार हम भी कर रहे थे यात्रा
प्लेटफार्म पर देखकर सवारियों की मात्रा
हमारे पसीने छूटने लगे

हम झोला उठाकर घर की ओर फूटने लगे
तभी एक कुली आया
मुस्कुरा कर बोला - 'अन्दर जाओगे ?'
हमने कहा - 'तुम पहुँचाओगे !'
वो बोला - बड़े-बड़े पार्सल पहुँचाए हैं आपको भी पहुँचा दूंगा
मगर रुपये पूरे पचास लूँगा.
हमने कहा - पचास रुपैया ?
वो बोला - हाँ भैया
दो रुपये आपके बाकी सामान के
हमने कहा - सामान नहीं है, अकेले हम हैं
वो बोला - बाबूजी, आप किस सामान से कम हैं !
भीड़ देख रहे हैं, कंधे पर उठाना पड़ेगा,
धक्का देकर अन्दर पहुँचाना पड़ेगा
वैसे तो हमारे लिए बाएँ हाथ का खेल है
मगर आपके लिए दाँया हाथ भी लगाना पड़ेगा
मंजूर हो तो बताओ
हमने कहा - देखा जायेगा, तुम उठाओ
कुली ने बजरंगबली का नारा लगाया
और पूरी ताकत लगाकर हमें जैसे ही उठाया
कि खुद बैठ गया
दूसरी बार कोशिश की तो लेट गया
बोला - बाबूजी पचास रुपये तो कम हैं
हमें क्या मालूम था कि आप आदमी नहीं, बम हैं
भगवान ही आपको उठा सकता है
हम क्या खाकर उठाएंगे
आपको उठाते-उठाते खुद दुनिया से उठ जायेंगे !
हमने कहा - बहाने मत बनाओ
जब ठेका लिया है तो उठाओ.
कुली ने अपने चार साथियों को बुलाया
और पता नहीं आँखों ही आँखों मैं क्या समझाया
कि चारों ने लपक कर हमें उठाया
और हवा मैं झुला कर ऐसे निशाने से
अन्दर फेंका कि हम जैसे ही
खिड़की से अन्दर पहुँचे
दो यात्री हम से टकराकर
दूसरी खिड़की से बाहर !
जाते-जाते पहला बोला - बधाई !
दूसरा बोला - सर्कस मैं काम करते हो क्या भाई ?

अब जरा डिब्बे के अन्दर झाँकिए श्रीमान
भगवान जाने डिब्बा था या हल्दी घाटी का मैदान
लोग लेटे थे, बैठे थे, खड़े थे
कुछ ऐसे थे जो न बैठे थे न खड़े थे, सिर्फ थे
कुछ हनुमान जी के वंशज
एक दूसरे के कंधे पर चढ़े थे
एक कन्धा खाली पड़ा था
शायद हमारे लिए रखा था
हम उस पर चढ़ने लगे
तो कंधे के स्वामी बिगाड़ने लगे बोले - किधर?
हमने कहा - आपके कंधे पर !
वे बोले - दया आती है तुम जैसे अंधे पर
देखते नहीं मैं खुद दूसरे के कंधे पर बैठा हूँ
उन्होंने अपने कन्धा हिला दिया
हम पुनः धरती पर लौट आए
सामने बैठे एक गंजे यात्री से गिड़गिडाये - भाई साहब
थोडी सी जगह हमारे लिए भी बनाइये
वो बोला - आइये हमारी खोपड़ी पर बैठ जाइये
आप ही के लिए साफ़ की है
केवल दो रुपए देना
मगर फिसल जाओ तो हमसे मत कहना !

तभी एक बोरा खिड़की के रास्ते चढा
आगे बढा और गंजे के सिर पर गिर पड़ा
गंजा चिल्लाया - किसका बोरा है ?
बोरा फौरन खडा हो गया
और उसमें से एक लड़का निकल कर बोला
बोरा नहीं है बोरे के भीतर बारह साल का छोरा है
अन्दर आने का यही एक तरीका है
हमने आपने माँ-बाप से सीखा है
आप तो एक बोरे मैं ही घबरा रहे हैं
जरा ठहर तो जाओ अभी गददे मैं लिपट कर
हमारे बाप जी अन्दर आ रहे हैं
उनको आप कैसे समझायेंगे
हम तो खड़े भी हैं वो तो आपकी गोद मैं ही लेट जाएँगे

एक अखंड सोऊ चादर ओढ़ कर सो रहा था
एकदम कुम्भकरण का बाप हो रहा था
हमने जैसे ही उसे हिलाया
उसकी बगल वाला चिल्लाया -
ख़बरदार हाथ मत लगाना वरना पछताओगे
हत्या के जुर्म मैं अन्दर हो जाओगे
हमने पुछा- भाई साहब क्या लफड़ा है ?
वो बोला - बेचारा आठ घंटे से एक टाँग पर खड़ा
और खड़े खड़े इस हालत मैं पहुँच गया कि अब पड़ा है
आपके हाथ लगते ही ऊपर पहुँच जायेगा
इस भीड़ में ज़मानत करने क्या तुम्हारा बाप आयेगा ?
एक नौजवान खिड़की से अन्दर आने लगा
तो पूरे डिब्बा मिल कर उसे बाहर धकियाने लगा
नौजवान बोला - भाइयों, भाइयों
सिर्फ खड़े रहने की जगह चाहिए
एक अन्दर वाला बोला - क्या ?
खड़े रहने की जगह चाहिए तो प्लेटफोर्म पर खड़े हो जाइये
जिंदगी भर खड़े रहिये कोई हटाये तो कहिये
जिसे देखो घुसा चला आ रहा है
रेल का डिब्बा साला जेल हुआ जा रहा है !
इतना सुनते ही एक अपराधी चिल्लाया -
रेल को जेल मत कहो मेरी आत्मा रोती है
यार जेल के अन्दर कम से कम
चलने-फिरने की जगह तो होती है !

एक सज्जन फर्श पर बैठे हुए थे आँखें मूँदे
उनके सर पर अचानक गिरीं पानी की गरम-गरम बूँदें
तो वे सर उठा कर चिल्लाये - कौन है, कौन है
साला पानी गिरा कर मौन है
दीखता नहीं नीचे तुम्हारा बाप बैठा है !
क्षमा करना बड़े भाई पानी नहीं है
हमारा छः महीने का बच्चा लेटा है कृपया माफ़ कर दीजिये
और अपना मुँह भी नीचे कर लीजिये
वरना बच्चे का क्या भरोसा !
क्या मालूम अगली बार उसने आपको क्या परोसा !!

एक साहब बहादुर बैठे थे सपरिवार
हमने पुछा कहाँ जा रहे हैं सरकार ?
वे झल्लाकर बोले जहन्नुम में !
हमने पूछ लिया - विथ फॅमिली ?
वे बोले आपको भी मजाक करने के लिए यही जगह मिली ?
अचानक डिब्बे में बड़ी जोर का हल्ला हुआ
एक सज्जन दहाड़ मार कर चिल्लाये -
पकड़ो-पकड़ो जाने न पाए
हमने पुछा क्या हुआ, क्या हुआ ?
वे बोले - हाय-हाय, मेरा बटुआ किसी ने भीड़ में मार दिया
पूरे तीन सौ रुपये से उतार दिया टिकट भी उसी में था !
कोई बोला - रहने दो यार भूमिका मत बनाओ
टिकेट न लिया हो तो हाथ मिलाओ
हमने भी नहीं लिया है गर आप इस तरह चिल्लायेंगे
तो आपके साथ क्या हम नहीं पकड़ लिए जायेंगे ....
वे सज्जन रोकर बोले - नहीं भाई साहब
मैं झूठ नहीं बोलता मैं एक टीचर हूँ ....
कोई बोला - तभी तो झूठ है टीचर के पास और बटुआ ?
इससे अच्छा मजाक इतिहास मैं आज तक नहीं हुआ !
टीचर बोला - कैसा इतिहास मेरा विषय तो भूगोल है
तभी एक विद्यार्थी चिल्लाया - बेटा इसलिए तुम्हारा बटुआ गोल है !

बाहर से आवाज आई - 'गरम समोसे वाला'
अन्दर से फ़ौरन बोले एक लाला - दो हमको भी देना भाई
सुनते ही ललाइन ने डाँट लगायी - बड़े चटोरे हो !
क्या पाँच साल के छोरे हो ?
इतनी गर्मी मैं खाओगे ?
फिर पानी को तो नहीं चिल्लाओगे ?
अभी मुँह मैं आ रहा है समोसे खाते ही आँखों में आ जायेगा
इस भीड़ में पानी क्या रेल मंत्री दे जायेगा ?
तभी डिब्बे में हुआ हल्का उजाला
किसी ने जुमला उछाला ये किसने बीड़ी जलाई है ?
कोई बोला - बीड़ी नहीं है स्वागत करो
डिब्बे में पहली बार बिजली आई है
दूसरा बोला - पंखे कहाँ हैं ?
उत्तर मिला - जहाँ नहीं होने चाहिए वहाँ हैं
पंखों पर आपको क्या आपत्ति है ?
जानते नहीं रेल हमारी राष्ट्रीय संपत्ति है
कोई राष्ट्रीय चोर हमें घिस्सा दे गया है
संपत्ति में से अपना हिस्सा ले गया है
आपको लेना हो आप भी ले जाओ
मगर जेब में जो बल्ब रख लिए हैं
उनमें से एकाध तो हमको दे जाओ !

अचानक डिब्बे में एक विस्फोट हुआ
हलाकि यह बम नहीं था
मगर किसी बम से कम भी नहीं था
यह हमारा पेट था उसका हमारे लिए संकेत था
कि जाओ बहुत भारी हो रहे हो हलके हो जाओ
हमने सोचा डिब्बे की भीड़ को देखते हुए
बाथरूम कम से कम दो किलोमीटर दूर है
ऐसे में कुछ हो जाये तो किसी का क्या कसूर है
इसिलए रिस्क नहीं लेना चाहिए
अपना पडोसी उठे उससे पहले अपने को चल देना चाहिए
सो हमने भीड़ में रेंगना शुरू किया
पूरे दो घंटे में पहुँच पाए
बाथरूम का दरवाजा खटखटाया तो भीतर से एक सिर बाहर आया
बोला - क्या चाहिए ?
हमने कहा - बाहर तो आजा भैये हमें जाना है
वो बोला - किस किस को निकालोगे ? अन्दर बारह खड़े हैं
हमने कहा - भाई साहब हम बहुत मुश्किल में पड़े हैं
मामला बिगड़ गया तो बंदा कहाँ जायेगा ?
वो बला - क्यूँ आपके कंधे
पे जो झोला टँगा है
वो किस दिन काम में आयेगा ...
इतने में लाइट चली गयी
बाथरूम वाला वापस अन्दर जा चुका था
हमारा झोला कंधे से गायब हो चुका था
कोई अँधेरे का लाभ उठाकर अपने काम में ला चुका था

अचानक गाड़ी बड़ी जोर से हिली
एक यात्री ख़ुशी के मरे चिल्लाया - 'अरे चली, चली'
कोई बोला - जय बजरंग बली, कोई बोला - या अली
हमने कहा - काहे के अली और काहे के बली !
गाड़ी तो बगल वाली जा रही है
और तुमको अपनी चलती नजर आ रही है ?
प्यारे ! सब नज़र का धोखा है
दरअसल ये रेलगाडी नहीं हमारी ज़िन्दगी है
और हमारी ज़िन्दगी में धोखे के अलावा और क्या होता है ?



वैसे प्रदीप जी कवि सम्मेलनों में अपनी ये कविता संपादित करकर सुनाते रहे हैं। तो लीजिए सुनिए उन्हीं की आवाज़ में ये कविता..



तो होली के हुड़दंग में आप सभी रंग अबीर से सराबोर रहें इन्हीं शुभकामनाओं के साथ ! आप सब को होली मुबारक!

मंगलवार, फ़रवरी 23, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 : पायदान संख्या 9 - बड़े से शहर में छोटे छोटे घर में...

गीतमाला की नवीं सीढी पर स्वागत करें इस प्यारे से गीत का जिसमें मेलोडी है, सुकून देने वाला संगीत है, दिल छूने वाला मुखड़ा है और साथ ही है एक नए गायक का स्वर। मुझे यकीं है कि इस गीत को आप में से ज्यादातर ने नहीं सुना होगा। जैसा कि मैंने पिछली पोस्ट में इशारा किया था कि डरावनी फिल्मों के संगीत पर हमारा ध्यान सामान्यतः कम ही जाता है।

इस साल एक ऍसी ही फिल्म आई थी 13B। फिल्म का संगीत दिया था शंकर एहसान लॉय ने और उनके इस गीत ने पहली बार सुनने में ही मेरा दिल जीत लिया था।

गीतकार नीलेश मिश्रा जो हिंदुस्तान टाइम्स में पत्रकार, एक घुमक्कड़ और एक अनियमित ब्लॉगर भी हैं ने इस गीत के लिए जो मुखड़ा रचा है उसकी काव्यत्मकता और धनात्मक उर्जा मूड बना देती है या यूँ कहें कि इसे सुनकर आप खुद ब खुद अच्छा महसूस करने लगते हैं।

आँखों से बचाकर, लो रखो छुपाकर,
प्यार को कभी किसी की नज़र ना लगे
चाँद को चुराकर, माथे पे सजाकर
हौले चलना रात को खबर ना लगे
सितारे ढूँढ लाए हैं अँधेरों पे सजाए हैं
जैसे दीवाली की हो रात जिंदगी....


पर इस गीत के नवीं पॉयदान पर होने की एक वज़ह मेरे लिए निजी है। दरअसल नीचे के अंतरा मुझे उन लमहों से जोड़ता है जो मैंने बिहार के छोटे छोटे शहरों गया, सासाराम और आरा में रहने के बाद पटना आकर आफिसर्स हॉस्टल में बिताए। दो कमरों के उस छोटे से घर में बिताए जिंदगी के वो 16 साल जिसमें मुझे जिंदगी की खुशियाँ भी मिलीं और कुछ ग़म भी जो शायद जीवन पर्यन्त मेरे साथ रहें।

उस छोटे से घर में रहते हुए मेरे पहले याद रहने वाले दोस्त बनें, पहली बार दिल फिसला, जहाँ की बॉलकोनी से मैंने कितनी रातों को घंटों चाँद सितारों से मौन वार्तालाप किया। वो प्यारी दीपावली, स्कूल से रुसवा होना, भूकंप की भगदड़ और यहाँ तक की इंजीनियरिंग की परीक्षा में सफल होने की घोषणा करता वो अखबार उसी घर में तो आया था। इस लिए जब भी घर में ये गीत बजता है मैं इन पंक्तियों को बड़े मन से गाता हूँ

बड़े से शहर में छोटे छोटे घर में
इतनी ही खुशियाँ वो उनको रखने का हक़
प्यार मुस्कुराहट सपनों की आहट
जो भी माँगा मिल गया


आगे का अंतरा फिल्म की परिस्थितियों से जुड़ा है
आज कल इक नन्हे
मेहमाँ से बाते करो ख्वाबों में
दोनों कहानियाँ बनाते झूठी सच्ची है बताते
मैंने कल, उससे कहा
यार अब आ भी जाओ घर कभी
भीगने से ना तुम डरना
खुशियों की है बरसातें


सितारे ढूँढ लाए हैं अँधेरों पे सजाए हैं
जैसे दीवाली की हो रात जिंदगी....
बड़े से शहर में छोटे छोटे घर में
इतनी ही खुशियाँ वो उनको रखने का हक़
प्यार मुस्कुराहट सपनों की आहट
जो भी माँगा मिल गया



गीत तो आपने सुन लिया और मेरे उद्गार भी पढ़ लिए अब ये बताइए कि ये गीत गाया किसने हैं। चलिए मैं ही बता देता हूँ इस गीत के गायक हैं कार्तिक चित्र में बाँयी तरफ़ है गीतकार नीलेश और दाँयी ओर कार्तिक।



श्रीनिवास, विजय प्रकाश, राशिद अली, चिन्मया, नरेश अय्यर की तरह कार्तिक भी रहमान भक्त हैं और इन गायकों की तरह ही हिंदी फिल्म संगीत में प्रवेश करने का मौका कार्तिक को रहमान ने ही दिया। स्कूल में ही कर्नाटक संगीत सीखने वाले कार्तिक ने कॉलेज में अपने बैंड के लिए गाते रहे। रहमान के संपर्क में गायक श्रीनिवास की मदद से आए। साथिया, युवा, गज़नी और युवराज के कुछ गीत वे गा चुके हैं। पिछले साल उनका फिल्म गज़नी के लिए गाया गीत बहका मैं बहका.... काफी लोकप्रिय हुआ था।



वार्षिक संगीतमाला 2009 अब लेगी एक हफ्ते का विश्राम। होली के माहौल में अगली सीढ़ी पर बजने वाले ग़मगीन गीत से मैं आपको अभी मिलवाना नहीं चाहता। होली की मस्ती में आपको सराबोर करने के लिए अगली पोस्ट में सुनिएगा मेरी आवाज़ में एक मशहूर पाकिस्तानी शायर का रस भरा गीत। तो गुरुवार तक के लिए दीजिए इज़ाजत..

रविवार, फ़रवरी 21, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 : पायदान संख्या 10 - कैसे बताएँ, क्यूँ तुझको चाहें, यारा बता न पाएँ...

वक्त आ गया है वार्षिक संगीतमाला की अंतिम दस सीढियों को चढ़ने का। ये दसों नग्मे सुनने में बहुत प्यारे हैं। ये जरूर है कि इनमें से कुछ एक खास मूड में ज्यादा भले लग सकते हैं। इन दस में से छः गीत ऐसे हैं जो आप सब ने पिछले साल खूब सुने होंगे और बाकी ऐसे जिन्हें आपने कम या बहुत कम सुना होगा।

तो बात दसवीं पॉयदान के गीत की जिसने पिछले साल के अंत में आकर कुछ ही समय में सबके दिल में घर कर लिया। मज़े की बात है कि संगीतकार प्रीतम ने इस गीत को तीन अलग अलग गायकों से गवाया। एक में कैलाश खेर थे तो दूसरे में सोहम चक्रवर्ती पर सबसे ज्यादा सुनने में आया आतिफ असलम वाला वर्सन। गीत तो आप पहचान ही गए होंगे इसलिए ये कहने की जरूरत अब नही पड़ेगी कि तू जाने ना...

सवाल ये है कि आतिफ असलम (जो हर साल बस एक या दो फिल्में करते हैं) के गीत भारत में इतने लोकप्रिय क्यूँ हो जाते हैं जबकि गायिकी के लिहाज़ से हमारे सारे वरिष्ठ गायक उनसे बीस ही हैं?

इसका उत्तर जानने के लिए किसी संगीतप्रेमी को ज्यादा मशक्कत करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। दरअसल आतिफ़ असलम और कई अन्य पाकिस्तानी गायकों की लोकप्रियता की मुख्य वज़ह उनकी आवाज़ का यहाँ के गायकों की अपेक्षा 'अलग' तरह का होना है। इसी टोनल क्वालिटी के चलते उनकी आवाज़ का असर सुनने वाले पर शीघ्र होता है। वैसे क्या आपको पता है कि आतिफ़ असलम बचपन में एक गायक की जगह इमरान खाँ जैसा तेज गेंदबाज बनना चाहते थे। वो किस्सा मैंने आपके साथ बाँटा था वार्षिक संगीतमाला 2006 के दौरान जब आतिफ़ पहली बार मेरी किसी संगीतमाला का हिस्सा बने थे

बहरहाल अजब प्रेम की गजब कहानी की चौपट कहानी को अगर किसी ने सँभाला तो वो था इसका कर्णप्रिय संगीत। इस गीत में आतिफ़ असलम का असर तो अपनी जगह है ही पर गीत की शुरुआत का कोरस भी मन को मोहता है। वैसे इरशाद क़ामिल ने भी इस गीत के माध्यम से कुछ ऐसे प्रश्न उठाए है जो हर किशोर और युवा इंसान की ज़िंदगी में कभी ना कभी उमड़ते घुमड़ते हैं ही।

यानि वही चिर शाश्वत प्रश्न कि कोई अचानक ही इतना अच्छा हमें क्यूँ लगने लगता है? और जब वो लगने ही लगता है तो चाहकर भी हम अपनी बात को उस तक पहुँचाने में इतना असहाय सा क्यूँ महसूस करते हैं? और फिर मन ही मन उससे सवाल करते हें और फिर अपने ही मन से उधर का जवाब भी पा जाते हैं। कभी ये काल्पनिक जवाब होठों पर अनायास ही मुस्कुराहट ले आते हैं तो कभी ढेर सारा ग़म! और फिर अपनी मानसिक स्थिति को अपने तक सीमित रखकर हम ये भी कहने से नहीं चूकते कि तू जाने ना...

तो आइए एक बार फिर सब मिल जुल कर गुनगुनाएँ इस बेहद रोमांटिक गीत को





कैसे बताएँ
क्यूँ तुझको चाहें
यारा बता न पाएँ
बातें दिलों की
देखो जो बाकी
आके तुझे समझाएँ
तू जाने ना ...तू जाने ना

मिल के भी, हम न मिले
तुमसे न जाने क्यूँ, मीलों के
हैं फासले तुमसे न जाने क्यूँ
अनजाने हैं सिलसिले
तुमसे न जाने क्यूँ, सपने हैं
पलकों तले तुमसे न जाने क्यूँ

कैसे बतायें
क्यूँ तुझको चाहें
यारा बता न पायें
बातें दिलों की
देखो जो बाकी
आके तुझे समझाएँ
तू जाने ना तू जाने ना

आ .......
निगाहों में देखो
मेरी जो है बस गया
वो है मिलता तुमसे हू-ब-हू
ओ हो ओ
जाने तेरी आँखें थी
या बातें थी वजह
हुए तुम जो दिल की आरज़ू
तुम पास हो के भी
तुम आस हो के भी
एहसास हो के भी
अपने नहीं, ऐसे हैं
हमको गिले
तुमसे न जाने क्यूँ, मीलों के
हैं फासले तुमसे न जाने क्यूँ ऊँ ऊँ ऊँ ...
तू जाने ना तू जाने ना....

ऊ ... जाने ना जाने ना जाने ना
हा आ आ... तू जाने ना
ख्यालों में लाखों बातें,
यूँ तो कह गया
बोला कुछ न तेरे सामने
ओ ओ ... हुए न बेगाने भी
तुम हो के और के
देखो तुम न मेरे ही बने
अफ़सोस होता है, दिल भी ये रोता है
सपने सँजोता है, पगला हुआ, सोचे ये
हम थे मिले तुमसे न जाने क्यूँ
मीलों के, हैं फासले तुमसे न जाने क्यूँ
अनजाने, हैं सिलसिले
तुमसे न जाने क्यूँ, सपने हैं
पलकों तले तुमसे न जाने क्यूँ
हो ओ ओ ओ ...

कैसे बतायें
क्यूँ तुझको चाहें
यारा बता न पाएँ
बातें दिलों की
देखो जो बाकी
आके तुझे समझायें
तू जाने ना तू जाने ना....




तो चलिए मंगलवार को आपसे फिर मिलेंगे इस गीतमाला के अगले गीत से जिसे शायद आपने पहले ना सुना हो। भला भुतहा फिल्मों के गीतों पर कोई ध्यान देता है क्या? :)

गुरुवार, फ़रवरी 18, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 : पॉयदान संख्या 11 -बावली सी प्रीत मोरी अब चैन कैसे पावे,आजा रसिया मोहे अंग लगा ले ...

वार्षिक संगीतमाला की ग्यारहवीं पॉयदान का गीत एक ऐसा गीत हे जिससे शायद आप अभी तक अनजान हों। वैसे तो ये गीत जिस फिल्म से है उसका विभिन्न चैनलों पर काफी प्रमोशन किया गया था। पर प्रमोशन के दौरान इस गीत के बजाए अन्य गीतों को ज्यादा तरज़ीह दी गई। इस गीत की गायिका का फिल्मों के लिए गाया ये सिर्फ तीसरा गीत है। पर इनकी गायिकी का कमाल देखिए कि पिछले साल अपने पहले गीत के लिए इन्हें फिल्मफेयर एवार्ड के लिए नामित कर दिया गया।


आप भी सोच रहे होंगे कि ये बंदा पहेलियाँ ही बुझाता रहेगा या गायिका का नाम भी बताएगा। तो चलिए आपकी उत्सुकता भी शांत किए देते हैं। ये गायिका हैं श्रुति पाठक जिनका फैशन फिल्म के लिए गाया गीत मर जावाँ... बेहद लोकप्रिय हुआ था और पिछले साल मेरी संगीतमाला की 16 वीं पॉयदान पर बजा भी था। पर उस पोस्ट में श्रृति के बारे में आपसे ज्यादा बातें नहीं हो पाई थीं।

27 वर्षीय श्रुति पाठक गुजरात से ताल्लुक रखती हैं। संगीत की प्रारंभिक शिक्षा श्रुति ने अपने गुरु दिवाकर ठाकुर जी से अहमदाबाद में ली। स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद वो मुंबई आ गईं। फिलहाल वो सुनील गुरगावकर से संगीत की शिक्षा ले रही हैं। यूँ तो श्रुति का नाम फैशन फिल्म के संगीत रिलीज होने के बाद चमका पर उन्हें गाने का पहला मौका ले के पहला पहला प्यार... के रीमिक्स वर्सन (एलबम - बेबी डॉल) को गाने में मिला था। अगला मौका मिलने में श्रुति को 3 साल लग गए और इसके लिए नवोदित संगीतकार अमित त्रिवेदी से उनकी जान पहचान काम आई जिन्होंने फिल्म Dev D में उन्हें गाने का मौका दिया।

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि श्रुति गाने के साथ साथ गीत लिखने का शौक भी रखती हैं। देव डी के गीत पायलिया .... को गाने के साथ उसे अपनी कलम से सँवारने का काम भी उन्होंने किया। श्रुति सोनू निगम की जबरदस्त प्रशंसक हैं और रोज़ कम से कम दो घंटे का समय रियाज़ में देती हैं।

आखिर क्या खास है श्रुति की आवाज़ में.. कुछ ऐसा कि आप उस आवाज़ की गहराइयों में डूबते चले जाएँ। ऐसी आवाज़ रूमानियत भरे नग्मों को आपकी संवेदनाओं के काफी करीब ले जाने की क्षमता रखती है। इसीलिए फैशन के बास फिल्म कुर्बान में जब संगीतकार सलीम सुलेमान के सामने एक शादी शुदा जोड़े के बीच प्रणय दृश्य की परिस्थिति आई तो एक बार फिर उन्होंने श्रुति पाठक को ही चुना। और श्रृति ने गीतकार प्रसून जोशी के शब्दों में निहित भावनाओं को बखूबी अपनी आवाज़ के साँचे में ढाल कर श्रोताओं तक पहुँचा दिया।

तो आइए सुनें कुर्बान फिल्म का ये गीत।



ओ रसिया...रसिया..

बावली सी प्रीत मोरी
अब चैने कैसे पावे
आ जा रसिया मोहे
अंग लगा ले

अंग लगा ले..अंग लगा ले

गेसुओं सी काली रतियाँ
अधरों पे काँपे बतियाँ
सांवली सी साँसे मोरी
अरज सुनावें
आके मोरी श्वेत प्रीत पे
रंग सजा दे

बावली सी प्रीत मोरी ....





और हाँ अगर पहले अंतरे के बाद की आवाज़ आपको अलग तरह की लगे तो बता दूँ कि गीत के बीच की ये पंक्तियाँ करीना कपूर ने पढ़ी हैं।
तन एक, जाँ एक
अपना खूँ ज़हाँ एक
ऐसे लिपटे रुह से रुह
कि हो जाए ईमाँ एक...


आशा है श्रुति की इस खास आवाज़ का फ़ायदा संगीतकार आगे भी उठाते रहेंगे जिससे हम जैसे संगीतप्रमियों को उनकी आवाज़ के अन्य आयामों का भी पता चल सके।

मंगलवार, फ़रवरी 16, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 : पॉयदान संख्या 12 -जैसे के दिन से रैन अलग है,सुख है अलग और चैन अलग है

पहले लखनऊ और फिर पटना में शादियों में शिरकत करने और कुछ ब्लॉगर दोस्तों से दिलचस्प मुलाकातों के सिलसिले को निबटाते हुए वापस आ गया हूँ अपनी इस वार्षिक संगीतमाला की ऊपर की 12 सीढ़ियों को चढ़ने। इस क्रम में पहला यानि 12वीं पॉयदान का गीत एक ऐसा गीत है जो कि राग भैरवी पर आधारित है। इस गीत को लिखा जावेद अख्तर साहब ने, इसकी धुन बनाई संगीतकार तिकड़ी शंकर एहसान लॉय ने और इसे अपनी आवाज़ से सँवारा शंकर महादेवन ने। फिल्म का नाम तो आप पहचान ही गए होंगे। जी हाँ ये फिल्म थी जोया अख्तर द्वारा निर्देशित 'लक बाई चांस'। इसी फिल्म का शेखर की आवाज़ में गाया गीत संगीतमाला की 22 वीं पॉयदान पर पहले ही बज चुका है।



वैसे निर्देशिका जोया अख्तर का कहना था कि गर उनका बस चलता तो इस फिल्म के सारे गीत शंकर महादेवन से ही गवा लेती। वहीं गायक शंकर महादेवन कहते हैं कि कुछ गीत ऐसे होते हैं जिन्हें मन में बैठने में वक़्त लगता है। पश्चिमी वाद्य यंत्रों ड्रम्स, बेस के बैकग्राउंड और राग भैरवी में ठुमरी स्टाइल गायिकी के स्ममिश्रण से बना गीत इसी श्रेणी में आता है। इस गीत के जिन हिस्सों में शास्त्रीयता का पुट अधिक है वो मन को गहरा सुकून देते हैं। जावेद साहब ने ऐसे रूपको का इस्तेमाल किया जो गीत की शास्त्रीयता से मेल खाए।

फिल्म उद्योग में जब भी कोई कलाकार कदम रखता है तो सबसे पहले उसे काम पाने के लिए विभिन्न स्टूडिओ में आडिशन देना पड़ता है। पहली बार कैमरे के सामने की घबराहट, ठुकराए जाने के डर से लेकर सफल होने की आशा इन सभी मिश्रित भावनाओं से हर अभिनेता को गुजरना पड़ता है।

पर जावेद अख्तर सफल होने की इस सर्वव्यापी चाह और उसे पाने के लिए अपने सभी मूल्यों को दाँव पर लगाने की प्रवृति पर चोट करते हुए बेहद वाज़िब परंतु कठिन प्रश्न करते हैं। जावेद साहब हम सब के समाने ये सवाल करते हैं कि
सिर्फ अपना लक्ष्य पूरा करने से सुख की अनुभूति तो आती है पर क्या दिल में चैन आ जाता है?
सुख हमारे से बाहर हैं या इसकी तलाश दिल के अंदर करनी चाहिए ?
हमने अपने जीवन में सुख के मापदंड बना रखे हैं वो क्या मन को सुकून देने वाले होते हैं?


तो आइए सुनें इस गीत में शंकर महादेवन की लाजवाब गायिकी को..




बगिया-बगिया बालक भागे,तितली फिर भी हाथ ना लागे!
इस पगले को कौन बताये,
ढूँढ रहा है जो तू जग मैं,कोई जो पाये तो मन में ही पाए!
सपनों से भरे नैना, तो नींद है न चैना!


ऐसी डगर कोई अगर जो अपनाए,
हर राह के वो अंत पे रस्ता ही पाए!
धूप का रस्ता जो पैर जलाए,
मोड़ तो आए छाँव ना आए,
राही जो चलता है चलता ही जाए,
कोई नही है जो कहीं उसे समझाए!

सपनों से भरे नैना,
तो नींद है ना चैना!
नैना रे नैना रे......

दूर ही से सागर जिसे हर कोई माने,
पानी है वो या रेत है ये कौन जाने,
जैसे के दिन से रैन अलग है,
सुख है अलग और चैन अलग है,
पर जो ये देखे वो नैन अलग है,
चैन तो है अपना सुख हैं पराए!


सपनों से भरे नैना,
तो नींद है न चैना.....



पर ना तो आदमी सफल होने की इच्छा छोड़ सकता है ना इसे पाने के लिए होने वाली जद्दोज़हद से दूर रह सकता है। सफल होने की चाह ही तो शायद जिंदगी का टॉनिक है जो हमें विषम परिस्थियों में भी जूझने के लिए प्रेरित करता रहता है। इस गीत की शूटिंग के दौरान अपनी किस्मत आज़माने आए एक कलाकार द्वारा कहा गया ये शेर सब कुछ कह जाता है...

कि दिल मे चुभ जाएँगे जब अपनी जुबाँ खोलेंगे
हम भी शहर में काँटों की दुकाँ खोलेंगे
और शोर करते रहे गलियों में हजारों सूरज
धूप निकलेगी तो हम भी अपना मकाँ खोलेंगे

गुरुवार, फ़रवरी 11, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 : पॉयदान संख्या 13 - दिलों की दूरियों की गहराई नापते मोहित चौहान

वार्षिक संगीतमाला का सफ़र तय करते करते हम आ पहुँचे हैं ठीक इसके बीचो बीच। यानि 12 पॉयदानों का सफ़र पूरा करके गीतमाला की 13 वीं पॉयदान तक। अभी भी सबसे ऊपर की 12 सीढ़ियों की चढ़ाई बाकी है। आज की पॉयदान पर का गीत एक ऐसा गीत है जिसे इस साल काफी लोकप्रियता मिली। मोहित चौहान की गायिकी का अंदाज़ , प्रीतम का कर्णप्रिय संगीत और इरशाद कामिल के बोलों की रूमानियत ने लोगों के हृदय को इस गीत से जोड़ दिया।

दरअसल शायद ही हम में से कोई हो जिसने अपने अज़ीज़ों से दूर रहने की व्यथा ना झेली हो। इसलिए इंसानी रिश्तों में दूरियों की बात करता ये गीत जल्द ही सबके ज़ेहन में समा गया। जब लव आज कल का संगीत रचा जा रहा था तो सबसे पहले इसी गीत पर काम शुरु हुआ। निर्देशक इम्तियाज़ अली इसे मोहित चौहान से ही गवाना चाहते थे। शायद मोहित का उनकी फिल्म जब वी मेट में गाया गाना ना है कुछ खोना ना पाना ही है.. उनको बेहद प्रभावित कर गया था। संगीतकार प्रीतम को मोहित को ट्रैक करने में दो महिने का वक़्त जरूर लगा पर मोहित निर्देशक और संगीतकार के विश्वास पर बिल्कुल खरे उतरे।

वैसे क्या आपको पता है कि हिमाचल के रहने वाले मोहित चौहान ने कभी भी संगीत की विधिवत शिक्षा नहीं ली। बिलासपुर ,मंडी और नाहन के कॉलेजों से विचरते हुए उन्होंने अपनी परास्नातक की उपाधि धर्मशाला से ली। संगीत जगत की सुर्खियों में वो तब आए जब बतौर मुख्य गायक उनके काम को बैंड सिल्क रूट के एलबम बूँदें में सराहा गया। वैसे इस चिट्ठे पर उनके बारे में चर्चा उनके गाए गीतों गुनचा अब कोई मेरे नाम कर दिया और ना है कुछ खोना ना पाना ही है की वज़ह से पहले भी हो चुकी हैं।

वैसे शिक्षा की दृष्टि से गीत के गीतकार इरशाद क़ामिल भी पीछे नहीं हैं। हिंदी में डॉक्टरेट की उपाधि से विभूषित इरशाद, इम्तियाज़ अली और प्रीतम के साथ पहले भी काम कर चुके हैं। उनसे साक्षात्कार में जब पूछा गया कि गीतकार के लिहाज़ से सबसे कठिनाई भरी बात वो किसे मानते हैं तो उनका जवाब था

मेरे लिए सबसे कठिन किसी रूमानी गीत को रचना है। ऐसा इसलिए कि इस विषय पर इतना ज़्यादा और इतनी गहराई से लिखा जा चुका है कि लगता है कि कुछ कहने को बचा ही नहीं है। मैंने तो अपनी डिक्शनरी से दिल,धड़कन, ज़िगर, इकरार, इंतज़ार इन सभी शब्दों को हटा रखा है। अगर अपनी पसंद की बात करूँ तो मुझे सूफ़ियत और अकेलेपन का पुट लिए रूमानी गीतों को लिखना ज्यादा संतोष देता है।

इरशाद की यही सोच मोहित द्वारा इस गीत की अदाएगी में दिखाई देती है। जिंदगी के अकेलापन में पुरानी स्मृतियों के साए मन में जो टीस उभारते हैं ये गीत उसी की एक अभिव्यक्ति है। तो आइए सुनें फिल्म लव आज कल का ये नग्मा




ये दूरियाँ, ये दूरियाँ,ये दूरियाँ

इन राहों की दूरियाँ
निगाहों की दूरियाँ
हम राहों की दूरियाँ
फ़ना हो सभी दूरियाँ

क्यूँ कोई पास है
दूर है क्यूँ कोई
जाने न कोई यहाँ पे
आ रहा पास या दूर मैं जा रहा
जानूँ न मैं हूँ कहाँ पे

ये दूरियाँ....फ़ना हो सभी दूरियां

ये दूरियाँ, ये दूरियाँ

कभी हुआ ये भी,
खाली राहों पे भी
तू था मेरे साथ
कभी तुझे मिल के
लौटा मेरा दिल यह
खाली खाली हाथ
यह भी हुआ कभी
जैसे हुआ अभी
तुझको सभी में पा लिया
तेरा मुझे कर जाती है दूरियाँ
सताती हैं दूरियाँ
तरसाती हैं दूरियाँ
फ़ना हो सभी दूरियाँ

कहा भी न मैंने
नहीं जीना मैंने
तू जो न मिला
तुझे भूले से भी
बोला न मैं ये भी
चाहूँ फासला, बस फासला रहे
बन के कसक जो कहे
हो और चाहत ये ज़वां
तेरी मेरी मिट जानी है दूरियाँ
बेगानी है दूरियाँ
हट जानी हैं दूरियाँ
फ़ना हो सभी दूरियाँ

क्यूँ कोई पास है
दूर है क्यूँ कोई
जाने न कोई यहाँ पे
आ रहा पास या दूर मैं जा रहा
जानूँ न मैं हूँ कहाँ पे

ये दूरियाँ....फ़ना हो सभी दूरियाँ
ये दूरियाँ, ये दूरियाँ, ये दूरियाँ



सोमवार, फ़रवरी 08, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 : पॉयदान संख्या 14 - ज़मीन से उखड़े लोगों में उम्मीद जगाते प्रसून जोशी

वार्षिक संगीतमाला 2009 में आज बारी है 14 वीं पॉयदान पर के गीत की। ये एक ऐसा गीत है जो हफ्ते दर हफ्ते मेरे मन में घर बनाता जा रहा है और मेरी आरंभिक सोच से छः पॉयदानों की छलाँग लगा कर ये आ पहुँचा है इस पॉयदान पर। पहली बार जब इसे सुना था तो लगा था कि एक बैंड को प्रमोट करने की परिस्थिति के अनुरूप ही इस गीत का मुखड़े और साथ का धूम धड़ाका रचा गया है। पर फिर भी कुछ बात थी इस नग्मे में कि मैंने इसे बाद में सुनने के लिए सहेज कर रख लिया।

दरअसल पाश्चात्य संगीत आयोजन के आवरण में आम सा लगने वाला गीत खास तब हो जाता है जब गीत के पहले 75 सेकेंड बीत चुके होते हैं। उसके बाद आ ज़माने आ.. के साथ गीत की लय यूँ बदलती है कि मन झूम उठता है और गायक के साथ सुर में सुर मिलाने को उद्यत हो जाता है।

प्रसून जोशी ने यहाँ एक बार फिर अपनी कलम की जादगूरी का बेहतरीन नमूना पेश किया है। वैसे तो गीत की परिस्थिति विदेशी ज़मीन पर अपने मुकाम की तलाश कर रहे बैंड के जज़्बे को दिखाने की है पर प्रसून ने गीत के माध्यम से विस्थापित जिंदगियों में रंग भरने की सफल कोशिश की है। अपनी जमीन से उखड़े लोगों के दर्द के बारे में हमारे साथी चिट्ठाकार हमेशा लिखते रहे हैं। इस बारे में कुछ दिनों पहले शरद कोकास और महिनों पहले रवीश कुमार का लिखा लेख तुरंत ही याद पड़ता है। प्रसून अपने इस गीत में ऍसे ही लोगों को विषय बना कर उनमें एक अच्छे कल के लिए नई आशा का संचार करते हुए दीखते हैं। प्रसून के इस साल के लिखे गीतों में ये गीत मुझे बोलों के हिसाब से सबसे बेहतरीन लगा। प्रसून अपने इस गीत के बारे में कहते हैं
खानाबदोश जिप्सी को कहते हैं, बंजारे को कहते हैं, जिसका बना बनाया ठिकाना नहीं है वो हम जैसा नहीं है जो जहाँ चल पड़ा वही घर है जहाँ बिस्तरा बिछा लिया वहीं उसका बेड रूम है। ये सिर्फ सलमान और अजय का गाना नहीं है ये उन सब लोगों का गीत है जो प्रवासी हैं जो विदेशों में या देश के अलग अलग शहरों में जाकर कुछ करने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी सोच है कि हम तो अपनी जड़ों से कट कर निकल चुके हैं और अब तो सारी दुनिया ही हमारा घर है। ये गीत सिर्फ अप्रवासी भारतीयों की नहीं बल्कि उन सभी लोगों की बात करता है जो अपना अपना गाँव अपना कस्बा छोड़कर देश के विभिन्न शहरों में जा बसे हैं। वो सब लोग जो काफ़िले में हैं, जो एक सफ़र में हैं, जिनके अंदर एक जुनून है, एक तलाश है जिनके पास, जिनकी आँखों में एक नए कल का सपना है ये उन सब का गाना है।
शंकर अहसान लॉय के संगीत से सजा ये नग्मा वेस्टर्न बीट्स और चुटकी के अद्भुत मिश्रण से शुरु होता है। संगीतकार जोड़ी चाहती तो ये गीत खुद शंकर महादेवन से गवा सकती थी। पर ये इनका बड़प्पन है कि इस गीत को गाने के लिए नवोदित गायक मोहन को चुना गया। तो चलें लंदन ड्रीम्स फिल्म के इस गीत में गायक मोहन की गायिकी का लुत्फ़ उठाने...




खानाबदोश खानाबदोश
फिरते हैं हम ख्वाबों के संग लिए
लंदन ड्रीम्स

है होठों पे सीटी, पैरों में सफ़र है
है दूर मंजिल, साथ बस हुनर है

गुनगुनाएँगे हम, चलते जाएँगे हम
जब तक देखे ना, सुने ना
समझे ना , माने ना, ये सारा ज़हाँ

आ ज़माने आ, आ ज़माने आ,
आजमाने आ, आजमाने आ,
पेशेवर हवा, पेशेवर हवा,
मुश्किलें सजा, हो ओ ओ हो
ख़्वाब ना सगे, ख़्वाब ना सगे,
ज़िंदगी ठगे,ज़िंदगी ठगे,


फिर भी जाने क्यूँ, फिर भी जाने क्यूँ,
उम्मीद जगे हो ओ ओ हो
खानाबदोश खानाबदोश
फिरते हैं हम ख्वाबों के संग लिए
लंदन ड्रीम्स

हम तो नदी ताल के,लहरें उछाल के
रहते वहीं जहाँ, बहते हैं हम
दिल की सुराही, सोंधी सोंधी गहराई
जहाँ छलके हैं गीत, जिन्हें कहते हैं हम
आ ज़माने आ, आ ज़माने आ,
आजमाने आ.... उम्मीद जगे

आसमाँ से छनती है, आँधियों से बनती है
ठोकरों में हैं, अपने तो मस्तियाँ
सागरों के यार हैं, झूमने से प्यार है
डोलते रहेंगे हैं आवारा कश्तियाँ
खानाबदोश खानाबदोश

शुक्रवार, फ़रवरी 05, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 :पॉयदान संख्या 15 - धूप खिली जिस्म गरम सा है, सूरज यहीं ये भरम सा है..

फिल्म जगत में बहुत से तो नहीं, पर कुछ पटकथा लेखक जरूर हुए हैं जिन्होंने बतौर गीतकार भी नाम कमाया है। गुलज़ार से तो हम सब वाकिफ़ हैं ही। जावेद साहब ने भी सलीम के साथ कई यादगार पटकथाएँ लिखी पर अपने गीतकार वाले रोल में तभी आए जब पटकथा लेखन का काम उन्होंने छोड़ दिया।

आज के संगीत परिदृश्य में एक ऐसा ही एक युवा गीतकार है जिसने बतौर पटकथा लेखक भी उतना ही नाम कमाया है। चक दे इंडिया जैसी पटकथा से चर्चित हुए जयदीप साहनी ने तुझमें रब दिखता है... जैसे गीत की रचना भी की है। आज इस साल वार्षिक संगीतमाला की १५ वीं पॉयदान पर पहली बार पदार्पित हुए हैं वो संगीतकार सलीम सुलेमान की जोड़ी के साथ।


जयदीप द्वारा लिखे इस गीत के बोलों में एक दार्शनिकता है जो सलीम सुलेमान के शांत बहते संगीत में उभर कर सामने आती है।

पंखों को हवा ज़रा सी लगने दो
दिल बोले सोया था अब जगने दो
दिल दिल में है दिल की तमन्ना सो
..चलो जरा सी तपने दो
उड़ने दो ...उड़ने दो ...
हवा ज़रा सी लगने दो.... दो
सोया था अब जगने दो
पंखों को हवा ज़रा सी लगने दो


वैसे भी हम सभी उड़ना ही तो चाहते हैं या उड़ नहीं भी पाते तो उसका स्वप्न जरूर देखते हैं। चाहे वो कामयाबी की उड़ान हो या सुखों के लोक में हमेशा विचरने की चाह। पर जयदीप लक्ष्य की सोच कर उड़ान भरने का संदेश इस गीत से नहीं देते। वो रुक कर, सँभल कर उड़ान भरने को तो कहते हैं पर साथ ही ये कहना भी नहीं भूलते कि एक बार सही उड़ान भर कर भटकना भी जरूरी है। सुलझाव भरी जिंदगी की उम्मीद करने के पहले बिखराव का सामना करने की क्षमता लाना जरूरी है।

धूप खिली जिस्म गरम सा है
सूरज यहीं ये भरम सा है
बिखरी हुई राहें हजारों सुनो
थामो कोई फिर भटकने दो
उड़ने दो ...उड़ने दो ...
हवा ज़रा सी लगने दो.... दो
सोया था अब जगने दो
पंखों को हवा ज़रा सी लगने दो



दिल की पतंग चलो दिखाती है
ढील तो दो देखो कहाँ पे जाती है
उलझे नहीं तो कैसे सुलझोगे
बिखरे नहीं तो कैसे निखरोगे

उड़ने दो ....उड़ने दो
हवा ज़रा सी लगने दो.... दो
सोया था अब जगने दो
पंखों को हवा ज़रा सी लगने दो

सलीम सुलेमान ने गिटार की मधुर धुन के साथ गीत का आगाज़ किया है। सलीम मर्चेंट अपनी गायिकी से चक दे इंडिया ,फैशन, कुर्बान आदि फिल्मों में पहले ही प्रभावित कर चुके हैं। उनके स्वर की मुलायमियत गीत के मूड के साथ खूब फबती है।

तो आइए सुनें सलीम का गाया फिल्म रॉकेट सिंह का ये गीत



बुधवार, फ़रवरी 03, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 :पॉयदान संख्या 16 - उम्मीद अब कहीं कोई दर खोलती नहीं..जलने के बाद शमा और बोलती नहीं !

वार्षिक संगीतमाला 2009 की 16 वीं पॉयदान स्वागत कर रही है पिछले साल की एकमात्र फिल्मी ग़ज़ल का जो इस साल के मेरे पच्चीस मनपसंद गीतों में अपनी जगह बना सकी है। नंदिता दास द्वारा निर्देशित फिल्म फिराक़ की इस ग़ज़ल की रचना की है एक बार फिर गुलज़ार साहब ने। गुजरात के दंगों पर बनी इस गंभीर फिल्म के गीतों में जिस संवेदनशीलता की जरूरत थी उसे गुलज़ार ने बखूबी निभाया है।


अब आप ही बताइए दंगों से हैरान परेशान आदमी अपना कष्ट लिए प्रशासन के पास जाए और अगर उसे दुत्कार और प्रताड़ना के आलावा कुछ ना मिले तो वो क्या करेगा ? नाउम्मीद हो कर अपना दर्द मन में छुपाए मौन ही तो रह जाएगा ना। गुलज़ार ने इन भावनाओं को ग़ज़ल के मतले में शब्द देते हुए लिखा और क्या लाजवाब लिखा....

उम्मीद अब कहीं कोई दर खोलती नहीं
जलने के बाद शमा और बोलती नहीं


चारों ओर हिंसा और आगजनी से पसरे सन्नाटे को गुलज़ार ने अगले दो अशआरों में समेटने की कोशिश की है

जो साँस ले रही है हर तरफ़ वो मौत है
जो चल रही है सीने में वो जिंदगी नहीं

हर एक चीज जल रही है शहर में मगर
अँधेरा बढ़ रहा है कहीं रौशनी नहीं

जलने के बाद शमा और बोलती नहीं
उम्मीद अब कहीं कोई दर खोलती नहीं...

ये एक ऐसी ग़ज़ल है जो फिल्म की ही भांति हमें ये सोचने पर मजबूर करती है कि इंसान जब हैवानियत की चादर ओढ़ लेता है तो एक जीवंत शहर को लाशों और राख का ढेर बनते देर नहीं लगती।

इस ग़ज़ल का संगीत दिया है एक नवोदित संगीतकार जोड़ी पीयूष कनौजिया और रजत ढोलकिया ने । ये वही रज़त ढोलकिया हैं जिन्होंने पंचम के इंतकाल के बाद १९४२ ए लव स्टोरी का संगीत पूर्ण किया था। वे धारावी, होली और मिर्च मसाला जैसी लीक से हटकर बनाई गई फिल्म का संगीत भी दे चुके हैं। हाल फिलहाल में दिल्ली ६ में रहमान के साथ उनका नाम भी सह संगीत निर्देशक की हैसियत से था। चाहे मुखड़े के पहले की बात करे या अशआरों के बीच का फिलर हर जगह ग़ज़ल का संगीत मन में गहरी उदासी का रंग भरता नज़र आता है। रेखा भारद्वाज एक बार फिर अपनी उत्कृष्ट गायिकी द्वारा ग़ज़ल के मिज़ाज को हूबहू पकड़ने में सफल रही हैं।

तो अगर आपके पास कुछ फुर्सत के लमहे हों तो कोशिश कीजिए इस ग़ज़ल की भावनाओं में डूबने की...



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