सोमवार, फ़रवरी 08, 2010

वार्षिक संगीतमाला 2009 : पॉयदान संख्या 14 - ज़मीन से उखड़े लोगों में उम्मीद जगाते प्रसून जोशी

वार्षिक संगीतमाला 2009 में आज बारी है 14 वीं पॉयदान पर के गीत की। ये एक ऐसा गीत है जो हफ्ते दर हफ्ते मेरे मन में घर बनाता जा रहा है और मेरी आरंभिक सोच से छः पॉयदानों की छलाँग लगा कर ये आ पहुँचा है इस पॉयदान पर। पहली बार जब इसे सुना था तो लगा था कि एक बैंड को प्रमोट करने की परिस्थिति के अनुरूप ही इस गीत का मुखड़े और साथ का धूम धड़ाका रचा गया है। पर फिर भी कुछ बात थी इस नग्मे में कि मैंने इसे बाद में सुनने के लिए सहेज कर रख लिया।

दरअसल पाश्चात्य संगीत आयोजन के आवरण में आम सा लगने वाला गीत खास तब हो जाता है जब गीत के पहले 75 सेकेंड बीत चुके होते हैं। उसके बाद आ ज़माने आ.. के साथ गीत की लय यूँ बदलती है कि मन झूम उठता है और गायक के साथ सुर में सुर मिलाने को उद्यत हो जाता है।

प्रसून जोशी ने यहाँ एक बार फिर अपनी कलम की जादगूरी का बेहतरीन नमूना पेश किया है। वैसे तो गीत की परिस्थिति विदेशी ज़मीन पर अपने मुकाम की तलाश कर रहे बैंड के जज़्बे को दिखाने की है पर प्रसून ने गीत के माध्यम से विस्थापित जिंदगियों में रंग भरने की सफल कोशिश की है। अपनी जमीन से उखड़े लोगों के दर्द के बारे में हमारे साथी चिट्ठाकार हमेशा लिखते रहे हैं। इस बारे में कुछ दिनों पहले शरद कोकास और महिनों पहले रवीश कुमार का लिखा लेख तुरंत ही याद पड़ता है। प्रसून अपने इस गीत में ऍसे ही लोगों को विषय बना कर उनमें एक अच्छे कल के लिए नई आशा का संचार करते हुए दीखते हैं। प्रसून के इस साल के लिखे गीतों में ये गीत मुझे बोलों के हिसाब से सबसे बेहतरीन लगा। प्रसून अपने इस गीत के बारे में कहते हैं
खानाबदोश जिप्सी को कहते हैं, बंजारे को कहते हैं, जिसका बना बनाया ठिकाना नहीं है वो हम जैसा नहीं है जो जहाँ चल पड़ा वही घर है जहाँ बिस्तरा बिछा लिया वहीं उसका बेड रूम है। ये सिर्फ सलमान और अजय का गाना नहीं है ये उन सब लोगों का गीत है जो प्रवासी हैं जो विदेशों में या देश के अलग अलग शहरों में जाकर कुछ करने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी सोच है कि हम तो अपनी जड़ों से कट कर निकल चुके हैं और अब तो सारी दुनिया ही हमारा घर है। ये गीत सिर्फ अप्रवासी भारतीयों की नहीं बल्कि उन सभी लोगों की बात करता है जो अपना अपना गाँव अपना कस्बा छोड़कर देश के विभिन्न शहरों में जा बसे हैं। वो सब लोग जो काफ़िले में हैं, जो एक सफ़र में हैं, जिनके अंदर एक जुनून है, एक तलाश है जिनके पास, जिनकी आँखों में एक नए कल का सपना है ये उन सब का गाना है।
शंकर अहसान लॉय के संगीत से सजा ये नग्मा वेस्टर्न बीट्स और चुटकी के अद्भुत मिश्रण से शुरु होता है। संगीतकार जोड़ी चाहती तो ये गीत खुद शंकर महादेवन से गवा सकती थी। पर ये इनका बड़प्पन है कि इस गीत को गाने के लिए नवोदित गायक मोहन को चुना गया। तो चलें लंदन ड्रीम्स फिल्म के इस गीत में गायक मोहन की गायिकी का लुत्फ़ उठाने...




खानाबदोश खानाबदोश
फिरते हैं हम ख्वाबों के संग लिए
लंदन ड्रीम्स

है होठों पे सीटी, पैरों में सफ़र है
है दूर मंजिल, साथ बस हुनर है

गुनगुनाएँगे हम, चलते जाएँगे हम
जब तक देखे ना, सुने ना
समझे ना , माने ना, ये सारा ज़हाँ

आ ज़माने आ, आ ज़माने आ,
आजमाने आ, आजमाने आ,
पेशेवर हवा, पेशेवर हवा,
मुश्किलें सजा, हो ओ ओ हो
ख़्वाब ना सगे, ख़्वाब ना सगे,
ज़िंदगी ठगे,ज़िंदगी ठगे,


फिर भी जाने क्यूँ, फिर भी जाने क्यूँ,
उम्मीद जगे हो ओ ओ हो
खानाबदोश खानाबदोश
फिरते हैं हम ख्वाबों के संग लिए
लंदन ड्रीम्स

हम तो नदी ताल के,लहरें उछाल के
रहते वहीं जहाँ, बहते हैं हम
दिल की सुराही, सोंधी सोंधी गहराई
जहाँ छलके हैं गीत, जिन्हें कहते हैं हम
आ ज़माने आ, आ ज़माने आ,
आजमाने आ.... उम्मीद जगे

आसमाँ से छनती है, आँधियों से बनती है
ठोकरों में हैं, अपने तो मस्तियाँ
सागरों के यार हैं, झूमने से प्यार है
डोलते रहेंगे हैं आवारा कश्तियाँ
खानाबदोश खानाबदोश

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6 टिप्पणियाँ:

Priyank Jain on फ़रवरी 09, 2010 ने कहा…

aaj mai aapka pehla pathak hoon!!!!
mujhe is film ke sabhi geet achche lage,jaisa ki aapne charcha ki Prasoon Joshi ki ,to we mere pasandeeda lyrics writer hain(turned from manager to a writer and poet),
To talk on 'khanabadosh',I would say they just have emotions and rememberings,so justly Joshiji writes 'phirte hain khawaboon ke sang liye'(although Osho said something different about this word).
AABHAR

Abhishek Ojha on फ़रवरी 09, 2010 ने कहा…

बढ़िया ! खासकर फ़िराक वाली गजल का याद दिलाने के लिए शुक्रिया.

Himanshu Pandey on फ़रवरी 09, 2010 ने कहा…

यहाँ ऑडियो-वीडियो दोनों के साथ आपका विश्लेषण !
बेहतरीन चल रहा है यह काउन्टडाउन !

रंजना on फ़रवरी 11, 2010 ने कहा…

ईमानदारी से कहती हूँ,यदि आप इसे न पढवाते सुनवाते और इसके बारे में इतने तरतीब से बताते तो शायद ही इसपर ध्यान जाता...और एक सुन्दर गीत और संगीत के रसास्वादन से वंचित रह जाती...
दरअसल आजकल के अधिकाँश गानों की समस्या यह है कि इनमे इतने अधिक वेस्टर्न इन्सट्रूमेंटों का इस्तेमाल किया जाता है कि ज्यादातर गानें सुरीले कम शोर अधिक लगते हैं और शोर के बीच उसके गीत पर ध्यान जाता ही नहीं...

बहुत बहुत आभार आपका इस प्रकार से अच्छे गीत और संगीत और उससे जुड़े तथ्यों से अवगत करवाने के लिए...

गौतम राजऋषि on फ़रवरी 14, 2010 ने कहा…

रंजना दी की बातों से सहमति। इस गीत पर वाकई मैंने भी कभी ध्यान नहीं दिया था पहले।

Manish Kumar on फ़रवरी 15, 2010 ने कहा…

रंजना जी मुझे लगता है कि संगीतकार युवा पीढ़ी का बीट्स से ध्यान खींचने के लिए इस तरह का संगीत संयोजन रचते हैं जिससे क्लासेज और मासेज़ दोनों के लिए कुछ रहे। वैसे इस गीत में शंकर एहसान लॉय को एक रॉक बैंड को तेजी से ऊपर बढ़ने की कहानी कहनी थी इसलिए पश्चिमी वाद्य यंत्रों का प्रयोग लाज़िमी था। पर शायद मुखड़े को शब्द और संगीत दोनों दृष्टियों से और असरदार बना पाने की गुंजाइश थी।

फिर भी जैसे मैंने कहा कि अंतरे से गीत की लय मुझे बहुत ज्यादा आकर्षित करती है और इसी वज़ह से मेरे बनाए क्रम में ये गीत यहाँ तक पहुँच गया है।

 

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