शुक्रवार, मई 21, 2010

गोपालदास 'नीरज' का जीवन दर्शन : उनके चार विचारों के साथ !

जिंदगी को देखने और महसूस करने के हमारे मापदंड समय और हमारी सोच में हो रहे निरंतर विस्तार से बदलते रहते हैं। वक़्त से आगे देख पाने की सोच, एक आम मानव की प्रकृति में नहीं है। दरअसल हमारे अपने जीवन में जो घटित होता रहता है उसे ही जीवन का सच मानने के लिए हम तैयार बैठे रहते हैं।



पर जिस जीवन दर्शन को समझ पाने में शायद हम अपनी पूरी जिंदगी निकाल दें उसे गोपाल दास नीरज जैसा सक्षम कवि चंद पंक्तियों में कैसे व्यक्त कर देता है ये कविता इसका एक सुंदर उदाहरण है।

इस कविता के माध्यम से नीरज इस बात को सरल सहज शब्दों में पुरजोर तरीके से रखते हैं कि किसी मनुष्य के लिए जीवन की परिभाषा इस बात पर निर्भर करती है कि उसने अब तक जिंदगी के किन रंगों का स्वाद चखा है?

तो आइए जीवन के प्रति नीरज के अनुभवो से रूबरू होते हैं उनकी इस कविता चार विचार में...

(1)
जो पुण्य करता है वह देवता बन जाता है,
जो पाप करता है वह पशु बन जाता है,

और जो प्रेम करता है वो आदमी बन जाता है


(2)
जब मैंने प्रेम किया तो मुझे लगा जीवन आकर्षण है,
जब मैंने भक्ति की तब मुझे लगा जीवन समर्पण है,

किंतु जब से मैंने सेवाव्रत लिया
तब
मुझे पता चला कि जीवन सबसे पहले सर्जन है

(3)
जब मैं बैठा था तो समझता था कि जीवन उपस्थिति है,
जब मैं खड़ा था तब समझता था कि जीवन स्थिति है,

किंतु जब मैं चलने लगा तब लगने लगा, "जीवन गति है"


(4)
जब तक मैं पुकारता रहा
तब तक समझता रहा कि जीवन तुम्हारी आवाज़ है

और जब मैं स्वयम् को पुकारने लगा

तो कहने लगा जीवन अपनी ही आवाज़ है

किंतु जिस दिन मैंने संसार को पुकारना शुरु किया है

उस दिन से मुझे लगने लगा है

कि जीवन मेरी और तुम्हारी नहीं

उन सबकी आवाज़ है
जिनकी कि कोई आवाज़ ही नहीं है.....

पता नहीं आपने जीवन के किन रूपों का अब तक अनुभव किया है । हो सकता है आपका नज़रिया भिन्न हो? पर सारे नज़रियों को मिला कर देखें तो शायद सबमें ही जीवन का कोई ना कोई सच छुपा बैठा मिले।

अब ऊपर के चित्र को ही लें। किसी को वो खरगोश नज़र आया होगा तो किसी को बत्तख! पर वास्तविकता तो ये है कि चित्र में ये दोनों ही रूप विद्यमान है। शायद जिंदगी भी ऐसा ही एक चित्र है जिसमें कई सारे चित्र समाए बैठे हैं...क्यूँ है ना?

शनिवार, मई 15, 2010

गीतकार राजा मेंहदी अली खाँ और उनका लिखा ये प्यारा नग्मा ' इक हसीन शाम को..'

राजा मेंहदी अली खाँ, जब भी ये नाम सुना तो लगा भला इतने रईस खानदान के चराग़ को गीत लिखने का शौक कैसे हो गया? गोकि ऍसा भी नहीं कि हमारे राजे महाराजे इस हुनर से महरूम रहे हों। तुरंत ही जनाब वाज़िद अली शाह का ख्याल ज़ेहन में उभरता है। पर उनकी मिल्कियत दिल्ली और अवध तक फैली हुई थी पर राजा साहब को क्या सूझी कि वो अपने बाप दादाओं की जमीदारी छोड़कर मुंबइया फिल्म इंडस्ट्री का हिस्सा बन बैठे?
राजा साहब के बारे में जानने की इच्छा बहुत दिनों तक बनी रही पर उनके अनमोल गीतों और संगीतकार मदनमोहन के साथ उनकी अनुपम जोड़ी के किस्सों के आलावा कुछ ज्यादा हाथ नहीं लगा।

कुछ दिनों पहले फिल्म 'दुल्हन एक रात की' का अपना एक पसंदीदा नग्मा गुनगुना रहा था कि याद आया कि अरे ये गीत भी तो राजा साहब का ही लिखा हुआ है। राजा साहब के बारे में मेरा पुराना कौतुहल, फिर जाग उठा। इस बार उन पर लिखे कुछ लेख हाथ लगे। पता चला कि राजा साहब, अविभाजित भारत के करमाबाद की पैदाइश हैं। पिता बचपन में ही गुजर गाए और माता हेबे जी के संरक्षण में मेंहदी अली खाँ पले बढ़े। माँ अपने ज़माने उर्दू की क़ाबिल शायरा के रूप में जानी गयीं। चालिस के दशक में जब वो आकाशवाणी दिल्ली में काम कर रहे थे तो मुंबई से उन्हें सदात हसन मंटो का बुलावा आ गया। मंटों ने तब हिंदी फिल्मों में काम करना शुरु किया था।

पर राजा साहब ने आते ही अपनी शायरी के जलवे दिखाने शुरु कर दिये ऐसा भी नहीं था। आपको जानकर हैरानी होगी कि राजा साहब की फिल्म उद्योग में शुरुआत बतौर पटकथा लेखक के हुई। और तो और उन्होंने एक फिल्म के लिए छोटा सा रोल भी किया। पर पटकथालेखन और अभिनय उन्हें ज्यादा रास नहीं आया। 1947 की फिल्म दो भाई में राजा साहब को पहली बार गीत लिखने का मौका मिला । इस फिल्म का गीत "मेरा सुंदर सपना टूट गया..." बेहद चर्चित रहा। विभाजन और दंगों की आग में जल रहे देश में डटे रहने का फ़ैसला भी राजा साहब के भारत के प्रति प्रेम को दर्शाता है। और फिर फिल्म शहीद (1950) में देशप्रेम से ओतप्रोत उनके लिखे उस गीत को भला कौन भूल सकता है 'वतन की राह में वतन के नौजवान शहीद हो'.. '

पचास का दशक राजा मेंहदी अली खाँ के उत्कर्ष का दशक था। दशक की शुरुआत में संगीतकार मदनमोहन के साथ फिल्म 'मदहोश' में उनकी जो सफल जोड़ी बनी वो 'अनपढ़', 'मेरा साया', 'वो कौन थी', 'नीला आकाश', 'दुल्हन एक रात की' आदि फिल्मों में और पोषित पल्लवित होती गई।

राजा मेंहदी अली खाँ के लिखे गीतों पर नज़र रखने वाले फिल्म समीक्षकों का मानना है कि राजा ने ही फिल्मी गीतों में 'आप' शब्द का प्रचलन बढ़ाया। मसलन उनके लिखे इन गीतों को याद करें... 'आप की नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल मुझे...' या 'जो हमने दास्ताँ अपनी सुनाई आप क्यूँ रोए ' , 'आपने अपना बनाया मेहरबानी आपकी...'। मदन मोहन के आलावा राजा साहब ने ओ पी नैयर व सी रामचंद्र के संगीत निर्देशन में भी बेहतरीन नग्मे दिये। वैसे क्या आपको पता है कि 'मेरे पिया गए रंगून वहाँ से किया है टेलीफून.. ' भी राजा साहब का ही लिखा हुआ गीत है।

साठ के दशक के मध्य में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ 'अनीता' और 'जाल' जैसी फिल्में उनके फिल्मी सफ़र की आखिरी फिल्में थी। जुलाई 1996 में राजा साहब इस दुनिया से कूच कर गए। पर उनके रचे गीतों से आज भी वे हमारे मन में समाए हैं। आज की ये पोस्ट उस गीत के जिक्र बिना अधूरी रह जाएगी जिसकी वज़ह से राजा साहब की याद पुनः मन में आ गई।

फिल्म 'दुल्हन एक रात की' फिल्म का ये गीत मुझे बेहद पसंद है और क्यूँ ना हो 'शामों' से मेरे लगाव की बात क्या आप सब से छिपी हे। और फिर जहाँ गीत में ऐसी ही किसी शाम को अपने हमसफ़र की यादों में गोता लगाने का जिक्र हो तो वो गीत क्या दिलअज़ीज नहीं बन जाएगा ?

मदनमोहन द्वारा मुखड़े की आरंभिक धुन कमाल की है। यही कारण हे कि इस गीत के मुखड़े को गुनगुनाना मेरा प्रिय शगल रहा है। आज सोचा मोहम्मद रफ़ी साहब की मखमली आवाज़ में गाए पूरे गीत को गुनगुनाने की कोशिश करूँ। रफ़ी साहब ने जिस मस्ती से इस गीत को गाया है कि सुन कर ही मन झूम उठता है और होठ थिरकने लगते हैं।


इक हसीन.. शा..म को दिल मेरा... खो गया
पहले अपना, हुआ करता था, अब किसी का... हो गया

मुद्दतों से.., आ..रजू थी, जिंदगी में.. कोई आए
सूनी सूनी, जिंदगी में. कोई शमा.. झिलमिलाए
वो जो आए तो रौशन ज़माना हो गया
इक हसीन.. शा..म को दिल मेरा... खो गया

मेरे दिल के, कारवाँ को ले चला है.. आज कोई
शबनमी सी. जिसकी आँखें, थोड़ी जागी.. थोड़ी सोई
उनको देखा तो मौसम सुहाना हो गया
इक हसीन.. शा..म को दिल मेरा... खो गया
पहले अपना, हुआ करता था, अब किसी का... हो गया

मुझे झेल लिया है ! ठीक है जनाब अब रफ़ी की आवाज़ में भी इस गीत को सुनवाए देते हैं। वैसे फिल्म में इस गीत को फिल्माया गया था धर्मेंद्र व नूतन पर..


मंगलवार, मई 11, 2010

तुम ना मानो मगर हक़ीकत है, इश्क़ इंसान की जरूरत है...

अस्सी का दशक मेरे लिए हमेशा नोस्टालजिया जगाता रहा है। फिल्म संगीत के उस पराभव काल ने ग़ज़लों को जिस तरह लोकप्रिय संगीत का हिस्सा बना दिया वो अपने आप में एक अनूठी बात थी। उस दौर की सुनी ग़ज़लें जब अचानक ही ज़ेहन में उभरती हैं तो मन आज भी एकदम से पच्चीस साल पीछे चला जाता है। बहुत कुछ था उस समय दिल में महसूस करने के लिए, पर साथ ही बड़े कम विकल्प थे मन की भावनाओं को शब्द देने के लिए।

पहले भी आपको मैं अपनी इन्हीं पुरानी यादों के सहारे राजकुमार रिज़वी, राजेंद्र मेहता, अनूप जलोटा पीनाज़ मसानी की गाई अपनी पसंदीदा ग़ज़लों से मिलवाता रहा हूँ। इसी क्रम में आज बारी है उस दशक के लोकप्रिय ग़ज़ल गायक पंकज उधास की। उस दशक में पंकज जी की लोकप्रियता का आलम ये था कि उनके गाए गीत व ग़ज़लें मिसाल के तौर पर 'चाँदी जैसा रंग है तेरा', 'इक तरफ तेरा घर इक तरफ मैकदा..', 'घुँघरू टूट गए..' गली नुक्कड़ों पर ऐसे बजा करते थे जैसे आज के हिट फिल्मी गीत।


इतना होते हुए भी पंकज उधास मेरे पसंदीदा ग़ज़ल गायक कभी नहीं रहे। पर इस नापसंदगी का वास्ता मुझे उनकी आवाज़ से कम पर उनके द्वारा चुनी हुई ग़ज़लों से ज्यादा रहा है। पंकज उधास ने ग़ज़लों के चुनाव से अपनी एक ऐसी छवि बना ली जिससे उनकी गाई हर ग़ज़ल में 'शराब' का जिक्र होना लाज़िमी हो गया। ग़ज़लों का दौर मंदा होने पर पंकज ने कुछेक फिल्मी गीतों में भी अपनी आवाज़ दी और बीच बीच में ग़ज़ल के इक्का दुक्का एलबम निकालते रहे।

वर्ष 2006 में ग़ज़ल गायिकी के 25 साल पूरे होने पर उन्हें पद्मश्री से सम्मानित भी किया गया। हाल फिलहाल में पंकज उधास अपनी उस पुरानी छवि को धोने का प्रयास कर रहे हैं। 2004 में उन्होंने मीर तकी 'मीर' की ग़ज़लों से जुड़ा एलबम निकाला और आजकल वो दाग 'देहलवी' की ग़ज़लों से जुड़े एलबम को निकालने की तैयारी में हैं।

ख़ैर लौटते हैं आज की ग़ज़ल पर जिसका मुखड़ा अनायास ही पिछले हफ्ते मेरे होठों पर आ गया.. क़ाबिल अजमेरी की लिखी इस ग़ज़ल को यूँ तो इकबाल बानो ने भी गाया है पर पंकज उधास का अंदाज़ कहीं ज्यादा दिलकश है। तो आइए गुनगुनाते ते हैं पंकज उधास के साथ इस ग़ज़ल को



तुम ना मानो मगर हक़ीकत है
इश्क़ इंसान की जरूरत है

हुस्न ही हुस्न जलवे ही जलवे
सिर्फ एहसास की जरूरत है


उस की महफिल में बैठ के देखो
ज़िंदगी कितनी खूबसूरत है

जी रहा हूँ इस ऍतमाद* के साथ
ज़िंदगी को मेरी जरूरत है

*विश्वास

पर पंकज जी ने क़ाबिल अजमेरी साहब की पूरी ग़ज़ल नहीं गाई है। इसके बाकी अशआरों से रूबरू होने से पहले इस अनजान से शायर के बारे में कुछ बातें। क़ाबिल अज़मेरी, मोहसीन भोपाली, अख़्तर अंसारी अकबराबादी व हिमायत अली शायर के समकालीन थे। साठ के दशक में क़ाबिल का नाम पाकिस्तान के साहित्यिक परिदृश्य में उभरा। पर फलक़ पर ये तारा ज्यादा दिनों तक चमक ना सका और इकतिस साल की कम उम्र में ही टीबी की बीमारी से पीड़ित होने की वज़ह से वो चल बसे। अपने समय के शायरों की आपसी प्रतिद्वंदिता और उनकी बीमारी ने उन्हें जीवन भर परेशान रखा। फिर भी जिंदगी के प्रति उनकी आस्था खत्म नहीं हुई और शायद इसीलिए उन्होंने लिखा।

जी रहा हूँ इस ऍतमाद के साथ
ज़िंदगी को मेरी जरूरत है


कुछ साल पहले पाकिस्तान में उनका एक काव्य संकलन छपा था जिसका नाम उनकी इसी मशहूर ग़ज़ल के नाम पर 'इश्क़ इंसान की जरूरत है' रखा गया है। तो आइए पढ़ें इस ग़ज़ल के बाकी अशआर

कुछ तो दिल मुब्तला ए वहशत* है
कुछ तेरी याद भी क़यामत है
* डरा सहमा सा

मेरे महबूब मुझसे झूठ ना बोल
झूठ सूरत ए गर सदाक़त* है
* गवाही

उस के वादे पे नाज़ थे क्या क्या
अब दरो ओ बाम से नदामत* है
* शर्मिन्दगी

रास्ता कट ही जाएगा क़ाबिल
शौक़ ए मंजिल अगर सलामत है

गुरुवार, मई 06, 2010

पटना, मौर्य लोक और मिलना गौतम राजरिशी से : भाग 2

पिछली दफ़ा आपने पढ़ा गौतम से पटना में हुई मुलाकात का पहला भाग। आज बात को वहीं से आगे बढ़ाते हैं जहाँ से वो पिछली बार खत्म हुई थी...


वो पुणे चले गए पर प्रेम का जज़्बा भी बना रहा। बस मुलाकात की जगह बदल गई.. शहर बदल गया...पर एक कठिन पर रोमांचकारी जीने की ख्वाहिश रखने वाले गौतम को अपनी निजी जिंदगी की प्रेरणा को हक़ीकत में तब्दील करने में भी उतने ही कठिन मानसिक संघर्ष से होकर गुजरना पड़ा। घर वाले उनके प्रेम पर विवाह की मुहर लगाने के लिए तैयार नहीं थे वही गौतम भी ठान चुके थे कि दिल एक बार दिया तो वो उसी का हो गया। इसीलिए मोहब्बत के हसीन पलों की याद दिलाने के साथ जब गौतम विरह की वेला का खाका खींचते हैं तो उनकी कलम ग़ज़ब का प्रभाव छोड़ती है..

एक सवेरा इक तन्हा तकिये पर आँखें मलता है
मीलों दूर कहीं इक छत पर सूनी शाम टहलती है

यादें तेरी, तेरी बातें साथ हैं मेरे हर पल यूँ
इस दूरी से लेकिन अब तो इक-इक साँस बिखरती है

चांद को मुंडेर से "राधा" लगाये टकटकी
इश्क के बीमार को दिखता है कोई दाग क्या


एक तो काम की कठिन परिस्थितियाँ और दूसरी ओर मन का तनाव, गौतम के स्वास्थ पर बुरा प्रभाव पड़ने लगा। इन पंक्तियों पर गौर करें क्या ये उन दिनों के गौतम का मन नहीं टटोलतीं

कटी रात सारी तेरी करवटों में
कि ये सिलवटों की निशानी कहे है


"रिवाजों से हट कर नहीं चल सकोगे"
कि जड़ ये मेरी ख़ानदानी कहे है


आखिर बेटे की हालत और हठ को देखकर उनके परिवारवालों को उनकी इच्छा के आगे झुकना पड़ा। इस रज़ामंदी में गौतम के कुछ मित्रों ने भी महत्त्वपूर्ण किरदार निभाया। गौतम कहते हैं को वो दौर उनके लिए बेहद कठिन था और खुशी की बात ये है कि इतना सब होने के बाद आज के दिन 'घर की ये बहू' सबकी चहेती बन गई है।


(चित्र साभार)


मेरा मानना है कि ज़िदगी के इस कठिन अनुभव ने गौतम की शायरी पर महत्त्वपूर्ण असर डाला है। पर गौतम की शायरी में इश्क़, विरह के आलावा भी कुछ और रंग बराबर उभरे हैं और इनमें से एक अहम हिस्सा है, सिपाही के रूप में जिंदगी से बटोरा उनका अनुभव। उनके लिखे इन अशआरों पर गौर कीजिए आप मेरी बात खुद ब खुद समझ जाएँगे

लिखती हैं क्या किस्से कलाई की खनकती चूडि़याँ
सीमाओं पे जाती हैं जो उन चिट्ठियों से पूछ लो

होती है गहरी नींद क्या, क्या रस है अब के आम में
छुट्टी में घर आई हरी इन वर्दियों से पूछ लो

जब से सीमा पर हरी वर्दी पहन कर वो गये
घर में "सूबेदारनी" के क्या दिवाली फाग क्या


कहाँ वो लुत्फ़ शहरों में भला डामर की सड़कों पर
मज़ा देती है जो घाटी कोई पगडंडियों वाली

बहुत दिन हो चुके रंगीनियों में शह्‍र की ‘गौतम’
चलो चल कर चखें फिर धूल वो रणभूमियों वाली


चीड़ के जंगल खड़े थे देखते लाचार से
गोलियाँ चलती रहीं इस पार से उस पार से


मुट्ठियाँ भीचे हुये कितने दशक बीतेंगे और
क्या सुलझता है कोई मुद्दा कभी हथियार से

गौतम को ब्लागिंग शुरु किए हुए डेढ़ साल से ऊपर हो गया है। सच बताऊँ तो जब पिछले साल के शुरु में पहली बार जब उनके चिट्ठे पर पहुँचा था तो उनका लिखा मुझे खास प्रभावित नहीं कर पाया था। पर पिछले एक साल में उनकी ग़ज़लों में और निखार आया है। गौतम का कहना है कि इसमें गुरु सुबीर जी का महती योगदान है।

मुझे लगता है कि छोटी बहरों की ग़ज़लों में गौतम और पैनापन ला सकते हैं। गौतम ने हाल ही में उपन्यास के किरदारों को अपनी ग़ज़ल के अशआरों में बड़ी खूबसूरती से पिरोया था। मुझे उनकी ये पेशकश बेहद नायाब लगी थी। उनकी इस ग़ज़ल के इन अशआरों पर गौर कीजिए कमाल का असर डालते हैं


जल चुकी है फ़स्‍ल सारी पूछती अब आग क्या
राख पर पसरा है "होरी", सोचता निज भाग क्या

ड्योढ़ी पर बैठी निहारे शह्‍र से आती सड़क
"बन्तो" की आँखों में सब है, जोग क्या बैराग क्या


क्लास में हर साल जो आता था अव्वल "मोहना"
पूछता रिक्शा लिये, ‘चलना है मोतीबाग क्या’


गौतम से बातों का ये क्रम इतनी तन्मयता से चल रहा था कि कब दिन के बारह बज गए हमें पता ही नहीं चला। हमें लगा कि अब कहीं चल कर कम से कम चाय कॉफी पीनी चाहिए।

थोड़ी दूर पर एक दुकान मिली। हमे अपने लिए जगह बनाई और बातों का क्रम फिर चल पड़ा। गौतम से मैंने कश्मीर के ज़मीनी हालातों के बारे में पूछा। गौतम विस्तार से वहाँ के हालातों और सेना के किरदार के बारे में बताने लगे। बातों ही बातों में ये भी पता चला कि गौतम एक्शन पैक्ड कंप्यूटर गेम्स खेलने में उतनी ही दिलचस्पी रकते हैं जितनी हथियार चलाने में। उनके चिट्ठे को पढ़ने वालों को ये तो पता है ही कि वे कॉमिक्स पढ़ने के कितने शौकीन रहे हैं। फिर ब्लॉग जगत के कुछ किरदारों, दिल्ली में हिंद युग्म के समारोह में शिरकत, अनुराग से श्रीनगर में मुलाकात, आदि प्रसंगों से जुड़ी बातचीत ज़ारी रही।


इतनी देर में हम तीन बार कॉफी पी चुके थे और दुकान वाला हमारी बतकूचन से परेशान हो गया था। उसकी चेहरे की झल्लाहट को पढ़ते हुए हम वहाँ से भी निकल गए।

वैसे भी हमने बातें करते करते आराम से चार घंटे का समय बिता लिया था। दिन के दो बज रहे थे। गौतम को भी अपनी 'प्रेरणा' जो अब 'हक़ीकत' बन गई हैं, को 'मोना' में सिनेमा दिखाना था । वैलेंटाइन डे के दिन किए गए उनके इस वादे में बिना कोई और बाधा उत्पन्न किए हम दोनों ने एक दूसरे से विदा ली।

तो चलते-चलते उनके लिखे कुछ और अशआरों से रूबरू कराना चाहूँगा जो मुझे बेहद पसंद हैं..

खिली-सी धूप में भी बज उठी बरसात की रुन-झुन
उड़ी जब ओढ़नी वो छोटी-छोटी घंटियों वाली

दुआओं का हमारे हाल होता है सदा ऐसा
कि जैसे लापता फाइल हो कोई अर्जियों वाली


बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मगरूर का अहसान लेते हैं

तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं


कुछ नए चेहरों से मुलाकात दिल्ली में भी हुई पर उसका ब्योरा फिर कभी।

सोमवार, मई 03, 2010

पटना, मौर्य लोक और मिलना गौतम राजरिशी से : भाग 1

वक्त आ गया है अपनी पिछली से पिछली पोस्ट में किए अपने वायदे को पूरा करने का यानि गौतम राजरिशी से पटना में हुई मुलाकात का लेखा जोखा प्रस्तुत करने का। लखनऊ से पटना तो दस फरवरी की शाम को मैं आ गया। गौतम भी वहाँ चौदह को ट्रेन से पहुँचने वाले थे। चौदह की रात को मुझे वापस राँची आना था। पर गौतम चौदह की बजाए तेरह को ही राँची आ गए और शाम को फोन पर बातचीत के बाद तय हुआ कि अगली सुबह पटना के मौर्य लोक में मुलाकात की जाए। डाक बँगला रोड के पास बना मौर्य लोक किसी अन्य राजधानी के शॉपिंग मॉल की तरह भव्य तो नहीं पर शहर की चहल पहल का मुख्य केंद्र जरूर है।


दस बजे मिलने का वक़्त तय था पर मैं घर से इसके बीस मिनट पहले ही निकल सका। निकलने के बाद ख्याल आया ये कोई सिविलियन मीट तो है नहीं, एक फौजी से मिलने जा रहा हूँ वक़्त का ध्यान रखना चाहिए था। गौतम जरूर वक़्त के मुताबिक दस बजे पहुँच चुके होंगे। करीब पंद्रह बीस मिनट बाद मौर्य लोक के परिसर में कदम रखे तो दूर से ही गौतम मोबाइल पर बात करते दिखे। जैसी की आशा थी वो दस बजे से पहले ही वहाँ पहुँच चुके थे। पता चला की वो दिल की बात वाले अनुराग को शादी की सालगिरह की शुभकामनाएँ दे रहे थे। शादी की सालगिरह और वो भी वैलेंटाइन डे के दिन..मन ही मन सोचा खूब दिन ढूँढ कर ब्याह रचाया अनुराग ने।

कहने को वो वैलेंटाइन डे था पर मौर्य लोक में कोई रौनक दिख नहीं रही थी। दिखती भी कैसे? रविवार होने की वज़ह से सारी दुकानें बंद थीं। हम घूमते टहलते बैठ कर बातें करने की जगह तलाशने लगे। परिसर के अंदर ही चाउमिन की दुकान के सामने कुछ खाली कुर्सियाँ दिखाई दीं। सोचा चाय का आर्डर देकर गप्पे हाँकने का काम शुरु किया जाए। पता चला वहाँ चाय कॉफी का कोई इंतज़ाम नहीं है। अब बैठ गए थे तो सोचा बैठे ही रहा जाए। वहीं से बातों का सिलसिला शुरु हुआ। मैंने गौतम को अपनी कॉलेज की जिंदगी व फरीदाबाद में अपनी नौकरी के संस्मरणों और किस्सों के बारे में बताया।

फिर जो बात मेरे मन में घूम रही थी उसी को प्रश्न बना कर मैंने दाग दिया। कविताएँ /ग़जलें उनकी जिंदगी में पहले आईं या फिर सेना में काम करने का जज़्बा? (वैसे मुझे बाद में पता चला कि मेरा मूल प्रश्न ही गलत था :)। इन दो बातों के बीच में गौतम की जिंदगी में और भी बहुत कुछ आया जिसने उनके इन दोनों पहलुओं को निखारने में मदद की।)


जिस तरह मुझमें गीत संगीत व साहित्य में रुचि अंकुरित करने का श्रेय मैं अपनी बड़ी बहन और माँ को देता हूँ वैसे ही गौतम को ग़ज़लों और कविताओं में रुचि जाग्रत करने में उनके पिता का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। गौतम ने बताया कि किस तरह उनके पिता मँहदी हसन और गुलाम अली की ग़ज़लों को सुनवाकर उनका भावार्थ बताते थे। संयुक्त परिवार में पले बढ़े गौतम को किताबें पढ़ने का शौक भी लड़कपन से हो गया और शायद हाईस्कूल के आस पास ही उन्होंने अपनी पहली कविता भी लिखी।

जैसा कि एक आम उत्तर भारतीय और खासकर बिहार जैसे राज्य में होता रहा है मैट्रिक के बाद इंजीनियर डॉक्टर बनाने वाले के लिए माता पिता बच्चों को कोचिंग के लिए राज्य की राजधानी भेज देते हैं। गौतम को भी इसी वज़ह से पटना भेज दिया गया। अब डाक्टर पिता को अपने होनहार पुत्र को पटना भेजते समय उसकी काव्यात्मकता के बारे में जानकारी थी या नही ये तो पता नहीं, पर पुत्र ने पटना की धरती पर उतरते और कोचिंग का माहौल देखने समझने के बाद शीघ्र ही ये निर्णय ले लिया यह भूमि ही उसके काव्य की कर्म भूमि होगी..

आप समझ ही गए होंगे कि हमारे 'कवि' को उसकी 'प्रेरणा' मिल गई थी। पर उस प्रेरणा को अभी भी इस बात पर पर्याप्त संदेह था कि उसे सच्चा कवि मिला है या रोड साइड रोमियो :)। पर कवि अपने कावित्य कौशल से प्रेरणा को समझाने बुझाने में लगा रहा। शायद वो पंक्तियाँ कुछ इस तरह की रही हों जिसे आप व मैं पहले भी पढ़ चुके हैं

तुम हमें चाहो न चाहो, ये तुम्हारी मर्ज़ी
हमने साँसों को किया नाम तुम्हारे यूँ तो

ये अलग बात है तू हो नहीं पाया मेरा
हूँ युगों से तुझे आँखों में उतारे यूँ तो

'प्रेरणा' ने गौतम को पूरी तरह अनुमोदित तो नहीं किया पर उनकी लेखनी को एक संवेदनशील पाठक जरूर मिल गया। गौतम इतने से ही खुश थे। अपनी पाठिका को प्रेमिका की मंजिल तक पहुँचाने में उनकी लेखनी उनका अवश्य साथ देगी, ऐसा उनका भरोसा था। लिहाज़ा गौतम की शायरी में इश्क़ का ख़ुमार चढ़ता रहा। बहुत कुछ उनके इन खूबसूरत अशआरों की तरह

हर लम्हा इस मन में इक तस्वीर यही तो सजती है
तू बैठी है सीढ़ी पर, छज्जे से धूप उतरती है

एक हवा अक्सर कंधे को छूती रहती "तू" बनकर
तेरी गंध लिये बारिश भी जब-तब आन बरसती है

हमने देखा है अक्सर हर पेड़ की ऊँची फुनगी पर
हिलती शाख तेरी नजरों से हमको देखा करती है

अब बताइए भला ऐसे अशआरों को पढ़ और महसूस कर किसका हृदय नहीं पिघलेगा सो 'प्रेरणा' का भी पिघला। पर इधर गौतम ने एक और गुल खिलाया। इंजीनियरिंग से ज्यादा दिलचस्पी उन्हें एक रोमंचकारी ज़िंदगी जीने में थी। माता पिता को खुश रखने के लिए इंजीनियरिंग का पर्चा भरा पर साथ ही NDA में दाखिला के लिए भी परीक्षा दी। IIT की परीक्षा में रैंक नीचे आई,पर उसके बारे में घर पर बिना बताए NDA में दाखिला ले लिया। वो पुणे चले गए पर प्रेम का जज़्बा भी बना रहा। बस मुलाकात की जगह बदल गई.. शहर बदल गया...

और क्या बदला गौतम की जिंदगी में ये जानते हैं इस मुलाकात की अगली किश्त में...



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