जिन्दगी यादों का कारवाँ है.खट्टी मीठी भूली बिसरी यादें...क्यूँ ना उन्हें जिन्दा करें अपने प्रिय गीतों, गजलों और कविताओं के माध्यम से!
अगर साहित्य और संगीत की धारा में बहने को तैयार हैं आप तो कीजिए अपनी एक शाम मेरे नाम..
पिछली पोस्ट में मैंने जगजीत साहब की गाई जिस ग़ज़ल का जिक्र किया था वो उनके एलबम 'Visions' से ली गई थी। अपने एलबमों के नाम जगजीत हमेशा अंग्रेजी में ही रखा करते थे। 1976 से ये सिलसिला चला तो 1998 में जावेद अख्तर के साथ किए गए उनके एलबम 'सिलसिला' पे जाकर रुका। इसके बाद उनके एलबम्स के नाम उर्दू में होने लगे। ख़ैर मैं बात कर रहा था 1992 में आए उनके एलबम 'Visions' (विजन्स) की।
टिप्स (tips) द्वारा रिलीज़ इस दोहरे कैसेट एलबम को मैंने कितनी दफ़ा सुना होगा ये याद नहीं। याद रह गई़ तो इसकी ग़ज़लें। सोलह ग़ज़लों के इस गुलदस्ते की शुरुआत जगजीत साहब ने की थी कैफ़ भोपाली के कलाम से। इस ग़ज़ल का संगीत संयोजन अद्भुत था और छोटे बहर की इस बेहतरीन ग़ज़ल के आनंद को दूना कर देता था।
झूम के जब रिंदों ने पिला दी शेख़ ने चुपके चुपके दुआ दी
एक कमी थी ताज महल में हमने तेरी तस्वीर लगा दी
आप ने झूठा वादा कर के आज हमारी उम्र बढ़ा दी
तेरी गली में सज़दे कर के हमने इबादतगाह बना दी
जगजीत के इस एलबम के पहले भाग में जो ग़ज़लें चुनीं उनमें से ज्यादातर शराब व साकी से जुड़ीं थीं। उनमें से अगर नज़र नज़र से मिलाकर... और ये पीनेवाले..को अगर छोड़ दिया जाए तो बाकी मन में मस्ती का ऐसा ख़ुमार जगाती थीं की क्या कहें। अब रुस्तम सहगल 'वफ़ा' के लिखे इस मतले पर गौर करें
तेरे निसार साकिया, जितनी पियूँ पिलाऐ जा....मस्त नज़र का वास्ता, तू मस्त मुझे बनाऐ जा !
वफ़ा ए बदनसीब को बख्शा है तूने दर्द जो
है कोई इसकी भी दवा इतना ज़रा बताए जा
बेख़ुद देहलवी के इन अशआरों की बेख़ुदी के क्या कहने !
ना कह साक़ी बहार आने के दिन हैं ज़िगर के दाग छिल जाने के दिन हैं
अदा सीखो अदा आने के दिन हैं अभी तो दूर, शर्माने के दिन हैं
और फिर रही सही कसर आरज़ू लखनवी साहब पूरी कर देते हैं ये कह कर
किसने भीगे हुए बालों से ये झटका पानी,
झूम कर आई घटा, टूट के बरसा पानी
कोई मतवाली घटा थी, के जवानी की उमंग, जी बहा ले गया बरसात का पहला पानी
इन ग़ज़लों के शब्द विन्यास में भले कोई अनूठापन ना हो पर सहजता से कही इन प्यारी बातों को जब जगजीत बेहतरीन मेलोडी के साथ गाते हैं तो गुनगुनाए बिना रहा भी तो नहीं जाता।
पर विज़न्स के पहले हिस्से की दो ग़ज़ले मस्ती के आलम से आपको निकालती हुई वास्तविक दुनिया में ला पटकती हैं। कई बार क्या ऐसा नहीं होता कि सब कुछ जानते बूझते हम उन बातों को दूसरों को समझाने लगते हैं जिनकी विश्वसनीयता पर हमें खुद भी संदेह रहता है। इसीलिए तो निदा फाज़ली साहब कहते हैं
कभी कभी यूँ भी हमने अपने जी को बहलाया है जिन बातों को ख़ुद नहीं समझे औरों को समझाया है
हमसे पूछो इज़्ज़त वालों की इज़्ज़त का हाल कभी
हमने भी इस शहर में रह कर थोड़ा नाम कमाया है
वहीं बेखुद 'देहलवी' का ये कलाम भी मन को छूता निकलता है...
दर्द-ए-दिल में कमी न हो जाए दोस्ती दुश्मनी न हो जाए
अपनी खू-ए-वफ़ा से डरता हूँ
आशिकी बंदगी न हो जाए
वैसे भरतपुर राजस्थान से ताल्लुक रखने वाले बेख़ुद 'देहलवी' का वास्तविक नाम सैयद वहीदुद्दीन अहमद था। वो जाने माने शायर दाग देहलवी के प्रिय शिष्य थे। कहते हैं दाग साहब से जब पूछा गया कि उनकी शायरी का उत्तराधिकारी कौन होगा तो उन्होंने कहा था 'बेखुदें'। उनका इशारा अपने शिष्यों बेखुद 'देहलवी' और बेखुद 'बदायुँनी' की तरफ़ था। बेखुद देहलवी साहब के ग़ज़ल संग्रह गुफ़्तार ए बेख़ुद और सहसवार ए बेख़ुद के नाम से जाने जाते हैं।
अगली पोस्ट में आपको ले चलेंगे इस एलबम के दूसरे हिस्से की तरफ़ जो इतना ही खूबसूरत है...
अगर आपने ये एलबम नहीं सुना तो जरूर सुनें। इसे आप यहाँ से भी खरीद सकते हैं।
'एक शाम मेरे नाम' पर अक्सर आप मेरी पसंद के नए पुराने गीत व ग़ज़लें सुनते रहे हैं और साथ ही उनसे जुड़े कलाकारों के बारे में भी पढ़ते रहे हैं। ग़ज़ल गायिकी हो या हिंदी फिल्म संगीत, हमारे देश ने एक से एक दिग्गज गायक दिए हैं जिन्हें हम सभी महान गायकों की श्रेणी में रखते हैं। अक्सर होता ये है कि ज़िंदगी के एक काल खंड में किसी कलाकार ने आपको ज्यादा प्रभावित किया हो और समय के साथ आप उसके आलावा औरों को भी पसंद करने लगे हों। किसी व्यक्ति की गीत संगीत में पसंदगी नापसंदगी का मापदंड इस बात से भी निर्धारित होता है कि वो किस दौर में पैदा हुआ और किन लोगों के बीच रहकर संगीत के प्रति रुचि बढ़ी। अपने बारे में तो जैसा मैं सदा से कहता आया हूँ ये रुझान क्रमशः किशोर दा, जगजीत सिंह और गुलज़ार साहब की वज़ह से पैदा हुआ।
पिछले चार सालों में इस चिट्ठे पर जहाँ मैंने किशोर दा पर एक लंबी श्रृंखला की वहीं गुलज़ार साहब की अपनी पसंदीदा रचनाओं से आपको रूबरू कराता रहा हूँ। रह गए तो जगजीत सिंह साहब जिनके बारे में मेरी कलम उतनी नहीं चली जितनी चलनी चाहिए थी। खास तौर पर तब, जब कॉलेज जीवन में संगीत को दिए गए समय का सबसे बड़ा हिस्सा उन की झोली में गया हो। बीच में सुदर्शन फक़ीर साहब का देहान्त हुआ तो उनकी लिखी ग़ज़लों पर लेख लिखा। फिर गुलज़ार साहब के साथ उनका एलबम 'कोई बात चले' आया तो लिखना लाज़िमी हो गया पर इसके आलावा उन पर विशेष कुछ नहीं लिख पाया। इसकी कई वज़हें रहीं।
सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक में जगजीत की गाई ग़ज़लों को हमने और हमारी पीढ़ी ने इतना सुना,गुनगुनाया कि उसके बारे में लिखना मन में उत्साह नहीं जगा पाता था। सोचते थे इनके बारे में तो सबको पता ही होगा। और नब्बे के उत्तरार्ध से जगजीत साहब के ऐसे एलबम आने लगे जिसका संगीत उनकी चिर परिचित पुरानी धुनों से मेल खाता था और इक्का दुक्का ग़ज़लों को छोड़ दें तो बाकी कोई खास असर भी नहीं छोड़ पाती थीं।। इससे मैंने उनके नए एलबमों में दिलचस्पी लेनी बंद कर दी। पर उनके सबसे अच्छे दौर की यादें हमेशा मन में समाई रही और साथ ही दिल में ये इच्छा भी कि उनकी गाई पसंदीदा ग़ज़लों के बारे में कुछ लिखूँ और आज इसी वज़ह से मैं इस श्रृंखला की शुरुआत कर रहा हूँ।
उर्दू का बेहद थोड़ा ज्ञान रखने वाली भारतीय जनता को ग़ज़ल की विधा के प्रति आकर्षित करने में जगजीत जी का योगदान भुलाया नहीं जा सकता। आज भी अगर कोई युवा मुझसे पहले पहल ग़ज़ल सुनने के लिए किसी एलबम का नाम पूछता है तो में उसे जगजीत जी के किसी एलबम का ही नाम बताता हूँ।
दरअसल जगजीत जी की ग़ज़लों की खासियत इसी बात में थी कि उन्होंने ज्यादातर ऐसे शायरों की ग़ज़लें गाने के लिए चुनीं जिनमें उर्दू के भारी भरकम शब्द तो नहीं थे पर भावनाओं की गहराई थी। अगर कोई ग़ज़ल इस मामले में थोड़ी कमज़ोर भी रहती तो जगजीत की आवाज़ का जादू उसकी वो कमी भी ढ़क लेता।
जगजीत ने पहली बार अपनी ग़ज़लों में परंपरागत भारतीय वाद्य यंत्रों तबला,सितार,संतूर, सरोद और बाँसुरी के साथ पाश्चात्य वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल किया। ग़ज़लों की डिजिटल रिकार्डिंग भी उनके एलबमों से ही शुरु हुई। ग़ज़ल गायिकी को उन्होंने सेमी क्लासकिल संगीत की परिधि से बाहर निकाला। लिहाज़ा वो परंपरागत ग़जल ग़ायिकी के प्रशंसकों की आलोचना के भी पात्र बने। पर जगजीत जी के ये नए प्रयोग, आम जनता को खूब भाए। जगजीत ना केवल देश के सबसे लोकप्रिय ग़ज़ल गायक बने बल्कि उन्होंने भारत में ग़ज़लप्रेमियों की एक नई ज़मात पैदा की।
जगजीत की गाई ग़ज़लों के माध्यम से बशीर बद्र, सुदर्शन फक़ीर, निदा फाज़ली,राजेश रेड्डी जैसे प्रतिभावान शायरों को एक विशाल पाठक वर्ग तक पहुँचने में मदद मिली। शायरों के आलावा जगजीत ने तलत अजीज़, घनश्याम वासवानी, अशोक खोसला जैसे कई प्रतिभावान ग़ज़ल गायकों को जनता के सामने लाने में मदद की। जगजीत सिंह एक ऐसे प्रकाश स्तंभ है जिसकी रोशनी के बिना भारतीय ग़ज़ल गायिकी की चमक फीकी पड़ जाती है। यूँ तो जगजीत ने अपने कैरियर की शुरुआत से अभी तक तकरीबन पचास के करीब एलबम्स निकाले हैं पर जगजीत से जुड़ी ये श्रृंखला उन एलबमों और ग़ज़लों से जुड़ी रहेगी जो मुझे खासे प्रिय रहे हैं।
तो आइए ग़ज़लों की इस श्रृंखला का आगाज़ करें उनके एक बेहतरीन एलबम की एक ग़ज़ल से। इसे लिखा था जनाब रुस्तम सहगल 'वफ़ा' ने। जगजीत जी ने जिस प्यार और आवाज़ की मुलायमित से ये ग़ज़ल गाई है वो सुनते ही बनती है। अपने किसी मीत से बरसों बाद मिलने का अहसास दिल को कितना गुदगुदाता है वो इस ग़ज़ल को सुनकर महसूस कर सकते हैं
आप आए जनाब बरसों में हमने पी है शराब बरसों में
फिर से दिल की कली खिली अपनी फिर से देखा शबाब बरसों में
तुम कहाँ थे कहाँ रहे साहिब, आज होगा हिसाब बरसों में
पहले नादाँ थे अब हुए दाना* उनको आया आदाब बरसों में *बुद्धिमान
इसी उम्मीद पे मैं जिंदा हूँ क्या वो देंगे जवाब बरसों में
इस श्रृंखला की अगली कड़ी में आपसे बाते होंगी इस एलबम की कुछ बेहतरीन ग़ज़लों के बारे में। वैसे क्या आपको याद आया कि कौन सा एलबम था ये जगजीत जी का?
कल जगजीत सिंह की गाई एक ग़ज़ल की तलाश में यू ट्यूब पे निकला था कि भटकते-भटकते ये गीत सामने आ गया। अब इसे सुने एक अर्सा हो गया था। दोबारा सुना तो इसकी गिरफ़्त से निकलना मुश्किल था। आजकल कितने गीतों में ये माद्दा है कि वो पाँच मिनट के अंदर ही दर्शकों को नायक नायिका के प्रेम, बेवफाई और विरह की पूरी कहानी कह जाएँ। पर अगर गीतकार कोई और नहीं, साहिर लुधयानवी जैसा संज़ीदा शायर हो तो उनके लिए ये ज़रा भी मुश्किल काम नहीं रहा होगा।
गुमराह फिल्म के यूँ तो सारे गीत ही चर्चित हुए थे, पर रेडिओ पर बाकी गीतों की तुलना में महेंद्र कपूर का गाया ये गीत कम ही बजा है। संगीतकार रवि के संगीत निर्देशन में महेंद्र कपूर के गाए गीत हमेशा से ज्यादा लोकप्रिय हुए हैं। गीत के आरंभ का संगीत संयोजन का अंदाज़ा आप गीत के वीडियो से भी लगा सकते हैं।
महेंद्र कपूर और साहिर जैसे कलाकारों के बारे में तो पहले भी आपको बताता रहा हूँ। पर आज कुछ बातें इस नग्मे के संगीतकार रवि के बारे में। वैसे इस गीत के संगीतकार रवि यानि 'रवि शंकर शर्मा' आज भी हमारे बीच हैं। गुमराह के अलावा चौंदवीं का चाँद, हमराज, वक़्त, नीलकमल जैसी फिल्मों का गीत देने वाले रवि ने 1970 के बाद से हिंदी फिल्मों के लिए संगीत देना छोड़ दिया। 1982 में ये सिलसिला फिल्म 'निकाह' में उनके द्वारा संगीत निर्देशित करने से टूटा।
पर इसी दशक में उन्होंने ये निर्णय लिया कि वो सिर्फ मलयालम फिल्मों के लिए बांबे रवि के नाम से संगीत निर्देशित करेंगे। अपनी प्रतिभा के बल पर रवि मलयालम फिल्मों में दिए अपने संगीत से भी छा गए।
आज भी पुराने ज़माने की तरह रवि पहले गीतकारों द्वारा लिखे गीतों को सुनकर ही उसके अनुरूप संगीत देते हैं। विधिवत संगीत की शिक्षा ना लेते हुए भी रवि जी ने अपने लिए जो मुकाम बनाया है वो उनके लिए क्या किसी भी संगीतकार के लिए गर्व का विषय हो सकता है।
फिलहाल तो महेंद्र कपूर के गाए इस गीत की रूमानियत में डूबिए और शाबासी दीजिए साहिर, रवि और कपूर साहब की इस तिकड़ी को जिनके सम्मिलित प्रयास से ये गीत इतना जानदार बन पड़ा है। पर उसके पहले मेरी आवाज़ में सुनिए इस गीत के मुखड़े और अंतरे की गुनगुनाहट...
आप आए तो खयाल ए दिले नाशाद आया
कितने भूले हुए जख़्मों का पता याद आया
('दिल- ए- नाशाद' का मतलब हैं दिल का दुखी, अप्रसन्न होना)
आप के लब पे कभी अपना भी नाम आया था
शोख नज़रों-सी मुहब्बत का सलाम आया था
उम्र भर साथ निभाने का पयाम आया था
आपको देख के वो अहदे वफ़ा याद आया
कितने भूले हुए ज़ख्मों का पता याद आया
रूह में जल उठे बुझती हुई यादों के दीये
कैसे दीवाने थे हम, आपको पाने के लिए
यूँ तो कुछ कम नहीं जो आपने ऐहसान किए
पर जो माँगे से ना पाया वो सिला याद आया
कितने भूले हुए ज़ख्मों का पता याद आया
आज वो बात नहीं फिर भी कोई बात तो है
मेरे हिस्से में ये हल्की-सी मुलाकात तो है
ग़ैर का होके भी ये हुस्न मेरे साथ तो है
हाय किस वक्त मुझे कब का गिला याद आया
वो युग था प्रत्यक्ष यानि लाइव रिकार्डिंग का। अब क्या किसी गीत की रिकार्डिंग के पहले वाइलिन, सितार और बाँसुरी वादकों का समूह दिखता है जैसा कि इस गीत के वीडियो के आरंभ में दिखाया गया है।
फिल्म गुमराह में ये गीत फिल्माया गया है सुनील दत्त, माला सिन्हा व अशोक कुमार पर। सुनील दत्त गीत को गा तो रहे हैं पर माला सिन्हा ने भी गीत के भावों को अपनी चेहरे की भाव भंगिमाओं से जिस खूबसूरती से उभारा है वो देखते ही बनता है।
मनोज भावुक की लिखी किताब 'तस्वीर जिंदगी के' के बारे में पिछली पोस्ट में मैंने आपको बताया था कि इस किताब की अधिकांश ग़ज़लों में उनके आस पास का समाज झलकता है। ज़ाहिर है कोई भी ग़ज़लकार अपनी जिंदगी से जो अनुभव समेटता है वही अपनी ग़ज़लों में उड़ेलता है।
खुद मनोज अपने एक शेर में कहते हैं..
दुख दरद या हँसी या खुशी, जे भी दुनिया से हमरा मिलल ऊहे दुनिया के सँउपत हईं, आज देके ग़ज़ल के सकल
सामाजिक समस्याओं पर उनके अशआरों की चर्चा तो मैं पहले कर ही चुका हूँ पर गरीबों की हालत पर अपने इस संकलन में एक पूरी गज़ल लिखी है। दीन दुखियों के दर्द को अपनी इस छोटी बहर की ग़ज़ल में वो कुछ यूँ व्यक्त करते हैं..
डँसे उम्र भर, डेग डेग पर बन के करइत साँप गरीबी
हीत मीत के दर्शन दुर्लभ जब से लेलस छाप गरीबी
जन्म कर्ज में मृत्यु कर्ज में अइसन चँपलस चाँप गरीबी
हम सभी अपनी जिंदगी में कभी हताशा के दौर से गुजरते हैं तो कभी दिन हँसते खेलते निकल जाते हैं। मनोज की शायरी में ये दोनो मनःस्थितियाँ उजागर हुई हैं। कभी जिंदगी को वो बोझ की तरह वो खींचता सा अनुभव करते हैं
अब त हर वक़्त संग तहरे बा दिल के क़ागज, पर रंग तहरे बा
तोहसे अलगा बला दहब कैसे धार तहरे, पतंग तहरे बा
पर ये जरूर गौर करने की बात है कि जिंदगी की जो तस्वीर मनोज ने अपनी इस पुस्तक में दिखाई है उसमें प्यार का रंग बाकी रंगों की तुलना में फीका है। हाँ, ये जरूर है कि मनोज की ग़ज़लें सिर्फ सामाजिक असमानता का आईना भर नहीं हैं पर साथ ही साथ वो उनसे लड़ने का हौसला भी दिलाती हैं। मिसाल के तौर पर उनके लिखे इन अशआरों पर गौर कीजिए.. क्या जोश जगाती हैं इक आम जन के मन में !
होखे अगर जो हिम्मत कुछुओ पहार नइखे मन में ज ठान लीं कहँवाँ बहार नइखे
कुछ लोग नीक बाटे तबहीं तिकल बा धरती कइसे कहीं की केहू पर ऐतबार नैखे
या फिर हमें जीवन में जुझारू होने का का संदेश देती इन पंक्तियों को देखें..
हर कदम जीये मरे के बा इहाँ साँस जबले बा लड़े के बा इहाँ
जिंदगी तूफान में एगो दिया टिमटिमाते हीं जरे के बा इहाँ
उहे आग सबका जिगर में बा, पर राह बा सबका जुदा केहू कर रहल बा धुआँ धुआँ, केहू दे रहल बा रोशनी
तो कहीं वो संवाद के रास्ते आपसी संशय को मिटाने की बात कहते हैं.. भेद मन के मन में राखब कब ले अँइसे जाँत के आज खुल के बात कुछ रउरो कहीं कुछ हमहूँ कहीं
घर बसल अलगे अलग, बाकिर का ना ई हो सके रउरा दिल में हम रहीं और हमरा में रउरा रहीं
मनोज की लेखनी आज की जीवन शैली और खासकर इंटरनेट पर हमारी बढ़ती निर्भरता पर बड़ी खूबसरती से चली है। उर्दू की मज़ाहिया शायरी के अंदाज में उन्होंने 'इंटरनेट' पर जो भोजपुरी ग़ज़ल कही है उसके कुछ शेर तो वाकई कमाल के हैं। कुछ अशआरों की बानगी देखिए..
कइसन कइसन काम नधाइल बाटे इंटरनेट पर माउस धइले लोग धधाइल बाटे इंटरनेट पर
बेदेखल बेजानल चेहरा से भी प्यार मोहब्बत अब अजबे गजबे मंत्र मराइल बाटे इंटरनेट पर
जहाँ ऊपर का शेर सोशल नेटवर्किंग के प्रति हमारे बढ़ते खिंचाव को दिखाता है तो वहीं ये शेर इंटरनेट की सामाजिक स्वीकृति को मज़े मज़े में पूरी कामयाबी से उभारता है
साली से जब पूछनीं, काहो दूल्हा कतहूँ सेट भइल कहली उ मुस्कात, खोजाइल बाटे इंटरनेट पर
इस ग़ज़ल के अपने सभी पसंदीदा अशआरों को बोल कर पढ़ने का आनंद ही कुछ और है। तो लीजिए सुनिए इसे पढ़ने का मेरा ये प्रयास..
अस्सी पृष्ठों के इस ग़ज़ल संग्रह में मनोज भावुक की 72 ग़जलें हैं। और जैसा कि मैंने पिछली पोस्ट में भी कहा कि अगर आप एक ग़ज़ल प्रेमी हैं और भोजपुरी भाषा की जानकारी रखते है तो मात्र 75 रुपये की ये पुस्तक आपके लिए है। इसे हिंद युग्म ने उत्कृष्ट छपाई के साथ बाजार में उतारा है। इस पुस्तक को खरीदने के लिए आप sampadak@hindyugm.com पर ई मेल कर सकते हैं या मोबाइल पर +91 9873734046 और +91 9968755908 पर संपर्क कर सकते हैं।
और हाँ आपको ये पुस्तक चर्चा कैसी लगी ये जरूर बताइएगा।
भोजपुरी में ग़ज़लों की किताब, सुनने में कुछ अज़ीब लगता है ना ? मुझे भी लगा था जब दो महिने पहले हिन्द युग्म के संचालक शैलेश भारतवासी ने दिल्ली में मुलाकात के दौरान इस पुस्तक हाथ में पकड़ाते हुए कहा था कि इसे पढ़िएगा जरूर आपको पसंद आएगी। वेसे तो शैलेश ने कविताओं की कई और किताबें पढ़ने को दी थीं पर जहाँ बाकी पुस्तकों के कुछ पन्नों तक जाकर ही पढ़ने का उत्साह जाता रहा, वहीं मनोज भावुक द्वारा लिखा ये भोजपुरी संग्रह 'तस्वीर जिंदगी के' ऐसा मन में रमा कि इसकी कई ग़ज़लों को बार बार पढ़ना मन को बेहद सुकून दे गया।
34 वर्षीय मनोज भावुक भोजपुरी साहित्य जगत में एक चिरपरिचित नाम हैं। सीवान, बिहार में जन्मे और रेणुकूट में पले बढ़े मनोज, भोजपुरी भाषा, साहित्य और संस्कृति के प्रचार प्रसार में हमेशा से सक्रिय रहे हैं। एक आंचलिक भाषा में ग़ज़ल कहना अपने आप में एक गंभीर चुनौती है और मुझे ये कहने में कोई संदेह नहीं कि मनोज अपने इस प्रयास में पूर्णतः सफल रहे हैं। शायद यही वज़ह है किमनोज को इस पुस्तक के लिए वर्ष 2006 का भारतीय भाषा परिषद सम्मान दिया गया और वो भी गिरिजा देवी व गुलज़ार साहब की उपस्थिति में। किसी भी नवोदित गज़लकार के लिए ये परम सौभाग्य की बात हो सकती है।
मनोज की ग़ज़लों में जहाँ भावनाओं की गहराई है वही भोजपुरी के ठेठ शब्दों के प्रयोग से उपजा माधुर्य भी है। मनोज अपनी ग़ज़लों में हमारे आंतरिक मनोभावों, हमारी अच्छी व बुरी वृतियों को बड़ी सहजता से व्यक्त करते दीखते हैं। मिसाल के तौर पर उनके इन अशआरों को देखिए
अगर जो प्यार से मिल जा त माँड़ो भात खा लीले मगर जो भाव ना होखे, मिठाई तींत लागेला
दुख में ढूँढ लऽ न राह भावुक सुख के जीये के दरद जब राग बन जा ला त जिनगी गीत लागेला
जमीर चीख के सौ बार रोके टोके ला तबो त मन ई बेहाया गुनाह कर जाला
बहुत बा लोग जे मरलो के बाद जीयत बा बहुत बा लोग जे जियते में यार, मर जाला
अपने इस ग़ज़ल संग्रह में मनोज ने भारतीय गाँवों की पुरानी पहचान खत्म होने पर कई जगह अपने दिल के मलाल को शब्द दिए हैं
कहहीं के बाटे देश ई गाँवन के हऽ मगर खोजलो प गाँव ना मिली अब कवनो भाव में
लोर पोंछत बा केहू कहाँ गाँव अपनो शहर हो गइल
बदलाव के उठत बा अइसन ना तेज आन्ही कहवाँ ई गोड़ जाता कुछुओ बुझात नइखे
पर पूरी पुस्तक में मनोज अपनी ग़ज़लों में सबसे ज्यादा हमारी ग्रामीण व कस्बाई जिंदगी की समस्याओं की बात करते हैं। भूख, गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सामाजिक व आर्थिक विषमता इन सारी समस्याओं को उनकी लेखनी बार बार हमारा ध्यान आकृष्ट करती है। मिसाल के तौर पर इन अशआरों में उनकी लेखनी का कमाल देखिए
पानी के बाहर मौत बा, पानी के भीतर जाल बा लाचार मछली का करो जब हर कदम पर काल बा
संवेदना के लाश प कुर्सी के गोड़ बा मालूम ना, ई लोग का कइसे सहात बा
एह कदर आज बेरोजगारी भइल आदमी आदमी के सवारी भइल
आम जनता बगइचा के चिरई नियन जहँवाँ रखवार हीं बा शिकारी भइल
ना रहित झाँझर मड़इया फूस के घर में आइत कैसे घाम पूस के
आज उ लँगड़ो दारोगा हो गईल देख लीं सरकार जादू घूस के
रोशनी आज ले भी ना पहुँचल जहाँ केहू उहँवो त दियरी जरावे कबो
सब बनलके के किस्मत बनावे इहाँ केहू बिगरल के किस्मत बनावे कबो
यूँ तो इस पूरी किताब के ऐसे कई शेर मन में गहरी छाप छोड़ते हैं पर एक ग़ज़ल जो मुझे इस पूरी पुस्तक में सबसे ज्यादा रोमंचित कर गई, को आपको सुनाने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ।
वैसे गर सुन ना भी पाएँ तो इन अशआरों पर जरूर गौर फरमाएँ
देह बा मकान में ,दृष्टि बा बागान में होश में रहे कहाँ, मन तो इ नवाब हऽ
आदमी के स्वप्न के खेल कुछ अजीब बा जी गइल त जिंदगी, मर गइल तो ख्वाब हऽ
हीन मत बनल करऽ दीन मत बनल करऽ आदमी के जन्म तऽ खुद एगो खिताब हऽ
वाह वाह क्या बात कही है मनोज ने!
अगर आप एक ग़ज़ल प्रेमी हैं और भोजपुरी भाषा की जानकारी रखते है तो मात्र 75 रुपये की पुस्तक आपके लिए है। इसे हिंद युग्म ने उत्कृष्ट छपाई के साथ बाजार में उतारा है। इस पुस्तक को खरीदने के लिए आप sampadak@hindyugm.com पर ई मेल कर सकते हैं या मोबाइल पर +91 9873734046 और +91 9968755908 पर संपर्क कर सकते हैं।
और अगर आप अब भी आश्वस्त ना हो पाएँ हो इस किताब को खरीदने के बारे में तो इंतज़ार कीजिए इस पुस्तक यात्रा की दूसरी किश्त का जहाँ मनोज भावुक की शायरी के कुछ अन्य रंगों से रूबरू होने का आपको मौका मिलेगा..
इस चिट्ठे का उद्देश्य अच्छे संगीत और साहित्य एवम्र उनसे जुड़े कुछ पहलुओं को अपने नज़रिए से विश्लेषित कर संगीत प्रेमी पाठकों तक पहुँचाना और लोकप्रिय बनाना है। इसी हेतु चिट्ठे पर संगीत और चित्रों का प्रयोग हुआ है। अगर इस चिट्ठे पर प्रकाशित चित्र, संगीत या अन्य किसी सामग्री से कॉपीराइट का उल्लंघन होता है तो कृपया सूचित करें। आपकी सूचना पर त्वरित कार्यवाही की जाएगी।