सोमवार, सितंबर 26, 2011

जा जा रे अपने मंदिरवा जा....शंकर टकर और निराली कार्तिक की बेहतरीन जुगलबंदी !

पिछले हफ्ते आपसे बातें हुई शंकर टकर और उनके एलबम 'दि श्रुति बॉक्स 'में शामिल क्लारिनेट पर बजाई उनकी अद्भुत धुनों पर। अगर आपनें ये धुनें नहीं सुनी तो यहाँ पर जरूर सुन लीजिएगा  इससे पहले कि आज मैं  इस एलबम में शामिल निराली कार्तिक की गाई एक बंदिश का जिक्र करूँ अपने वादे के मुताबिक ये बताना जरूरी होगा कि इस अमेरिकी कलाकार का नाम 'शंकर' कैसे पड़ा ?

दरअसल शंकर का परिवार अम्मा यानि माँ अमृतानंदमयी का भक्त है। अम्मा जब जब अमेरिका की यात्रा पर होती हैं शंकर के माता पिता उनसे अवश्य मिलते हैं। ऐसी ही एक मुलाकात में अम्मा ने टकर परिवार को उनके छोटे से बेटे के लिए शंकर का नाम सुझाया था। तो ये था शंकर टकर के 'शंकर' का रहस्य !


शंकर की तरह ही अहमदाबाद में जन्मी और मेवात घराने से ताल्लुक रखने वाली शास्त्रीय गायिका निराली कार्तिक की अध्यात्मिक गुरु भी अम्मा हैं। निराली की माता ख़ुद एक गायिका हैं जबकि उनके भाई तबला वादक हैं। निराली नौ साल की आयु से ही शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ले रही हैं। शायद अम्मा के सानिध्य ने इन दो कलाकारों को साथ काम करने की प्रेरणा दी और देखिए कितनी प्यारी बंदिश तैयार हुई जो कि मूलतः राग भीम पलासी पर आधारित है। बंदिश के बोल हैं

जा जा रे अपने मंदिरवा जा
सुन पावेगी सास ननदिया
जा जा रे अपने मंदिरवा जा...



एक ओर निराली का आलाप चलता है और साथ ही थिरकती हैं क्लारिनेट पर शंकर की उँगलियाँ। ट्रैक में 75 सेकेंड के बाद की जुगलबंदी सुनने वाले के आनंद को दूना कर देती है।

शंकर, अमेरिका में अम्मा के दौरे में हमेशा साथ रहते हैं और उनके भजनों के कार्यक्रमों में अपने वाद्य के साथ शिरकत भी करते हैं। इस एलबम में भी उन्होंने तमिल का एक भजन शामिल किया है जिसे गाया है अमेरिका में रहने वाली अय्यर बहनों विद्या और वंदना ने। राग दरबारी कानड़ा पर आधारित इस भजन में महालक्ष्मी की स्तुति की गई है।



अब तमिल तो मुझे आती नहीं पर इस ब्लॉग पर अंग्रेजी में दिए हुई व्याख्या के आधार पर संक्षेप में भजन  का अर्थ ये है कि जो तुमने  एक बार सोच लिया तो वो होकर ही रहना है। मनुष्य के जीवन में सुख और दुख दोनों का ही कारण तुम हो। अगर हमें अपने जीवन में सफलताएँ मिलें भी तो बिना तुम्हारे आशीष के क्या हम उन्हें अपने पास रख पाएँगे? अय्यर बहनों का ये भजन यू ट्यूब पर काफी लोकप्रियता हासिल कर रहा है।

वैसे शंकर टकर फिल्मों में भी काम कर रहे हैं। ए आर रहमान के साथ किया गया उनका काम सराहा भी गया है। अगर वो इसी तरह भारतीय संगीत में अपने हुनर को तराशते रहे तो वो दिन दूर नहीं जब हम उनके कुछ और एलबमों को बाजार में उतरता देखेंगे। अगर शंकर टकर के बारे में कुछ और जानना चाहते हों तो उनकी वेब साइट ये रही।

सोमवार, सितंबर 19, 2011

शंकर टकर और क्लारिनेट : पश्चिमी वाद्य यंत्र पर बहती हिदुस्तानी सुर गंगा...

शंकर 'टकर' ये नाम सुन कर  कुछ अज़ीब नहीं लगता आपको ? जब आप इस अमेरिकी वादक को क्लारिनेट पर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के साथ संगत करते देखेंगे तो आपका ये विस्मय और भी बढ़ जाएगा। कुछ ही दिनों पहले मैंने शंकर को टीवी के एक संगीत चैनल पर अपनी कला का प्रदर्शन करते देखा और एक बार में ही क्लारिनेट पर उनकी कलाकारी देख कर मंत्रमुग्ध हो गया। तो चलिए आज आपसे बातें करते हैं इस अद्भुत युवा अमेरिकी वादक के बारे में, उनकी संगीतबद्ध कुछ मधुर धुनों के साथ..

यूँ तो शंकर पिछले चौदह सालों से क्लारिनेट बजा रहे हैं पर भारतीय शास्त्रीय संगीत की तरफ उनका रुझान हाई स्कूल के बाद हुआ। बोस्टन में उन्होंने स्नातक तक की पढ़ाई 'आर्केस्ट्रा में क्लारिनेट के प्रयोगों पर की। क्लारिनेट हवा की फूँक से बजने वाले वाद्यों में एक प्रमुख वाद्य है जिसका अविष्कार अठारहवीं शताब्दी में  जर्मनी में हुआ था। कॉलेज में पढ़ते वक़्त शंकर के मन में क्लारिनेट पर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत से ताल मेल बिठाने की इच्छा इस तरह घर कर गई थी कि स्नातक की पढ़ाई खत्म करने के बाद उन्होंने सितार वादक पीटर रो से शास्त्रीय रागों और तालों की शिक्षा ली। पीटर की मदद से ना केवल शंकर को भारत में संगीत की शिक्षा ग्रहण करने के लिए वज़ीफा मिला बल्कि साथ ही मशहूर बाँसुरी वादक हरि प्रसाद चौरसिया जैसा गुरु भी।

शंकर ने कुछ ही महिने पहले यू ट्यूब पर अपना एक नया एलबम जारी किया दि श्रुति बॉक्स (The Shruti Box)। उनके इस एलबम में ग्यारह ट्रैक्स हैं  जिनमें छः शुद्ध धुनें और बाकी पाँच विभिन्न गायकों द्वारा गाए गीत व भजन हैं। शंकर द्वारा हर ट्रैक में बजाए क्लारिनेट में कुछ ना कुछ ऐसा जरूर है जो कि आपका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है। पूरा एलबम सुनने के बाद मैं पिछले कुछ दिनों में उनके बजाए कई ट्रैक बारहा सुनता रहा हूँ। और मन में एक ऐसा सुकून तारी हुआ है जिसे लफ़्जों से बयाँ करना मुश्किल है।

बारिश का मौसम हमारी तरफ़ बदस्तूर ज़ारी हैं तो क्यूँ ना शुरुआत करें आज की इस महफ़िल का एक ऍसी धुन के साथ जो कि प्रेरित है राग मेघ मल्हार और मुंबई की बरसात से। शंकर ने इसका नाम दिया है 'नाइट मानसून' (Night Monsoon)। क्लारिनेट पर बजती इस मधुर धुन का सम्मोहन और भी बढ़ जाता है अमित मिश्रा द्वारा की गई तबले की संगत से।





शंकर आजकल मुंबई में रहते हैं। अमेरिका से भारत में बसने  की वज़ह से ज़िदगी में आए बदलाव से अभ्यस्त होने की कोशिश कर रहे हैं। पर संगीतिक रूप से वो मानते हैं कि भारत आने से जिंदगी ने एक अलग ही मोड़ ले लिया है। आज संगीत रचना करते समय वेस्टर्न नोटेशन्स को भूल कर वो भारतीय तालों के बारे में सोचने लगे हैं। उनकी ये सोच उनकी धुनों में स्पष्ट दिखती हैं जब हिंदुस्तानी शास्त्रीयता पश्चिमी वाद्य यंत्र के साथ बिना किसी मुश्किल के घुलती मिलती नज़र आती है। मिसाल के तौर पर इसी धुन को लीजिए जिसे शंकर ने लेमनग्रास (Lemongrass) का नाम दिया है।



क्लारिनेट जैसे वाद्य यंत्र को भारतीय संगीत के अनुरूप ढालना शंकर के लिए सहज नहीं था । कई बार सही सुर उत्पन्न करने की तकनीकी बाधाओं ने शंकर को हताश कर दिया। पर वो क्लारिनेट के आलावा कोई दूसरा वाद्य अपनाना नहीं चाहते थे। इसकी दो वज़हें थीं। एक तो क्लारिनेट से उनका प्रेम और दूसरे उसपर किए गया उनका वर्षों का अभ्यास जो दूसरे साज को अपनाने से बेकार चला जाता।

शंकर के एलबम श्रुति बॉक्स की मेरी सबसे पसंदीदा धुन है 'सोनू'। इस धुन को जब भी सुनता हूँ तो ऐसा लगता है कि जैसे कोई पुराना हिंदी गीत सुन रहा हूँ। इस धुन का नाम 'सोनू' क्यूँ है वो आप इसका वीडिओ देखकर जरूर समझ जाएँगे।




इंटरनेट पर शंकर टकर की इन धुनों की लोकप्रियता का ये आलम है कि कुछ ही महिनों में इनकी ये रचनाएँ यू ट्यूब पर श्रोताओं द्वारा लाखों बार बज चुकी हैं। शंकर, कुछ फिल्मों में ए आर रहमान और दक्षिण के अग्रणी शास्त्रीय गायकों के साथ काम कर चुके हैं। उनके एलबम की पसंदीदा धुनों की बात तो मैंने कर ली पर एलबम में उनके वाद्य की संगत में गाई गयी कुछ बंदिशों की चर्चा करेंगे अगली पोस्ट में। साथ ही ये जानना भी आपके लिए दिलचस्प रहेगा कि भारतीय मूल का ना होते हुए भी उनका नाम शंकर क्यूँ पड़ा?

रविवार, सितंबर 11, 2011

शम्मी कपूर और मोहम्मद रफ़ी : कैसे तय किया इन महान कलाकारों ने सुरीले संगीत का साझा सफ़र - भाग 2

इस कड़ी के पिछले भाग में आपने जाना कि किस तरह रफ़ी साहब और शम्मी कपूर की सफल जोड़ी की शुरुआत हुई। दिन बीतते गए और इन दोनों कलाकारों के बीच की समझ बढ़ती चली गई।


1967 में शम्मी साहब की एक फिल्म आई 'An Evening in Paris'. फिल्म के संगीतकार थे एक बार फिर शम्मी के चहेते शंकर जयकिशन । पर संयोग कुछ ऐसा हुआ कि जब निर्माता निर्देशक शंकर सामंत इस फिल्म के गीत की रिकार्डिंग करवा रहे थे तब शम्मी कपूर को भारत से बाहर जाना पड़ गया। इधर शम्मी गए उधर फिल्म के एक गीत 'आसमान से आया फरिश्ता...' की रिकार्डिंग भी हो गई। शम्मी साहब जब वापस आए तो ये जानकर बिल्कुल आगबबूला हो उठे और शक्ति दा और जयकिशन से उलझ पड़े। बाद में समझाने पर वो गीत सुनने को तैयार हुए और सुनकर दंग रह गए कि रफ़ी ने बिना उनसे बात किए गीत में वो सब किया जिसकी वो उम्मीद रखते थे। शम्मी जी रफ़ी साहब के पास गए और पूछा ये सब कैसे हुआ? रफ़ी साहब का जवाब था...
"ओ पापा मैंने पूछ्या ये गाना कौन गा रहा है ये गाना जो आपने बताया आसमान से आया फरिश्ता... और ओ जानेमन... कौन गाएगा ऐसा गाना। मुझसे कहा गया कि शम्मी कपूर साहब गा रहे हैं ये गाना। ओए होए शम्मी कपूर गाना गा रहा है तो आसमान से आया फरिश्ता पर वो एक हाथ इधर फैलाएगा और जानेमन के लिए तो वो हाथ भी फैलाएगा और टाँगे भी। तो मैंने वैसा ही सोचकर गा दिया।"
वैसे An Evening in Paris के बाकी गानों में भी रफ़ी साहब ने शम्मी जी की अदाएगी को ध्यान में रखकर अपनी आवाज़ में उतार चढ़ाव किए। अकेले अकेले... की शुरुआत जिन ऊँचे सुरों से होती है और फिर रफ़ी शम्मी के मस्तमौला अंदाज़ में गीत को जिस तरह नीचे लाते हैं उसका आनंद हर सुननेवाला बयाँ कर सकता है।

अकेले अकेले कहाँ जा रहे हो
हमें साथ ले लो जहाँ जा रहे हो
कोई मिट रहा है तुम्हें कुछ पता है
तुम्हारा हुआ हैं तुम्हें कुछ पता है
ये क्या माज़रा है तुम्हें कुछ पता है,  अकेले....
 


फिल्म के शीर्षक गीत आओ तुमको दिखलाता हुँ पेरिस की इक रंगीं शाम.. हो या शैलेंद्र के शब्दों की मधुरता से मन को सहलाता ये नग्मा...
रात के हमसफ़र थक के घर को चले
झूमती आ रही है सुबह प्यार की

रफ़ी ने अपनी गायिकी से शम्मी कपूर की इस फिल्म को हिट करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

रफ़ी ,शम्मी कपूर और शंकर जयकिशन की तिकड़ी ने साठ के दशक में इतने गुनगुनाने लायक नग्मे दिए कि उनमें कुछ को छाँटना बेहद मुश्किल है पर An Evening in Paris के आलावा फिल्म 'प्रिंस' का ये गीत जिसमें शम्मी का पर्दे पर साथ वैजयंतीमाला ने दिया था दिल को बहुत लुभाता है। जैसे ही आप रफ़ी को
बदन पे सितारे लपेटे हुए
ओ जाने तमन्ना किधर जा रही हो
जरा पास आओ तो चैन आ जाए
गाते हुए सुनते हैं मन शम्मी की अदाओं के साथ थिरकने लगता है।





रफ़ी साहब को जिस गीत के लिए पुरस्कृत किया गया वो था अपनी प्रियतमा से बिछड़ने के दर्द को समाहित किए हुए शैलेंद्र का लिखा ये रूमानी नग्मा..

दिल के झरोखे में तुझको बिठा कर
यादों को तेरी मैं दुल्हन बनाकर
रखूँगा मैं दिल के पास
मत हो मेरी जाँ उदास


द्रुत लय में बना क्या कमाल का गीत था ये, शैलेंद्र का लिखा हर अंतरा लाजवाब और शंकर जयकिशन का बेमिसाल आर्केस्ट्रा,बाकी कसर शम्मी रफ़ी की युगल जोड़ी ने पूरी कर दी थी।



शम्मी कपूर को लोग डान्सिंग स्टार की पदवी भी देते हैं। उनकी इस छवि को हमारे दिलो दिमाग में बसाने का श्रेय बहुत हद तक 1966 में आई उनकी फिल्म तीसरी मंजिल को दिया जाना चाहिए। ॠषि कपूर ने अपने एक साक्षात्कार में शम्मी कपूर की नृत्य प्रतिभा के बारे में बड़े पते की बात की थी। अगर आप शम्मी कपूर के गीतों को ध्यान से देखेंगे तो पाएँगे कि शायद ही कैमरे का फोकस उनके पैरों पर हो। यानि शम्मी नृत्य में पैरों का इस्तेमाल करते ही नहीं थे पर अपनी इस कमी को वो अपने चेहरे, आँखों और हाथों के हाव भावो और शरीर की लचक से पूरा कर लेते थे। उस ज़माने में उनकी ये स्टाइल इस कदर लोकप्रिय हो गई थी कि उनके सहकलाकारों ने हू-ब-हू वही करना सीख लिया था। आशा पारिख के साथ अभिनीत तीसरी मंजिल का उनका वो नग्मा कौन भूल सकता है जिसमें शम्मी जैसी अदाएँ आशा जी ने भी दिखलाई थीं।



तीसरी मंजिल भी रफ़ी साहब और शम्मी कपूर की संयुक्त सफलता का एक नया अध्याय जोड़ गई। तुमने मुझे देखा, दीवाना हुआ बादल जैसे रोमांटिक और ओ हसीना जुल्फोंवाली तथा आ जा आ जा मैं हूँ प्यार तेरा जैसे झूमते झुमाते गीत आम जनमानस के दिल में बस गए। पर इस सफलता के पीछे नाम था एक नए संगीतकार पंचम का। पंचम के अनुसार उनका नाम, इस फिल्म के लिए मजरूह ने सुझाया था पर शम्मी जयकिशन को ही रखना चाहते थे। बाद में जयकिशन के कहने पर उन्होंने पंचम द्वारा संगीतबद्ध सभी गीतों को सुना और फिर कहा तुम पास हो गए.. आगे से तुम्हीं मेरी फिल्मों के लिए संगीत निर्देशित करोगे। 

दुर्भाग्यवश ऐसे मौके ज्यादा नहीं आए। तीसरी मंजिल के निर्माण के दौरान ही शम्मी कपूर की पत्नी गीता बाली का स्माल पॉक्स की वजह से असामयिक निधन हो गया। सत्तर के दशक में राजेश खन्ना के फिल्म जगत में पदार्पण के साथ ही इन दोनों कलाकारों का सबसे अच्छा समय बीत गया। शम्मी का वजन इतना बढ़ गया कि वे हीरो के किरदार के काबिल नहीं रहे। वहीं रफ़ी की चमक भी किशोर दा की बढ़ती लोकप्रियता की वज़ह से फीकी पड़ गई।

मोहम्मद रफ़ी ने यूँ तो हर किस्म के गाने गाए पर शम्मी कपूर की वज़ह से उन्हें अपनी गायिकी का वो पक्ष उभारने में मदद मिली जो उनके शर्मीले स्वाभाव के बिल्कुल विपरीत थी। जुलाई 1980 की उस सुबह को शम्मी वृंदावन में थे जब उन्हें किसी राहगीर ने बताया कि उनकी आवाज़ चली गई। पहले तो शम्मी कपूर को समझ नहीं आया कि ये बंदा क्या कह रहा है पर जब उन्हें पता चला कि उनकी आवाज़ से उसका इशारा रफ़ी साहब की ओर है तो वो ग़मज़दा हो गए। उन्हें इस बात का बेहद मलाल रहा कि वो रफ़ी साहब की अंतिम यात्रा में शामिल नहीं हो पाए।  मुझे नहीं लगता कि आज कल के अभिनेता संगीतकार व गायक के साथ इतना वक़्त बिताते हों जितना शम्मी कपूर ने बिताया।  

आज ये दोनों महान हस्तियाँ हमारे बीच नहीं है। पर गीत संगीत की जो अनुपम भेंट हमें शम्मी कपूर और मोहम्मद रफ़ी विरासत में दे गए हैं, को क्या हम उसे कभी भुला पाएँगे ? शायद कभी नहीं।


आज इस प्रविष्टि के साथ एक शाम मेरे नाम के छठवें साल के इस सफ़र में 500 पोस्ट्स का सफ़र पूरा हुआ । आशा है आपका साथ यूँ ही बना रहेगा।

सोमवार, सितंबर 05, 2011

शम्मी कपूर और मोहम्मद रफ़ी : कैसे तय किया इन महान कलाकारों ने सुरीले संगीत का साझा सफ़र - भाग 1

शम्मी कपूर को गुजरे तीन हफ्ते हो चुके हैं। शम्मी कपूर व मोहम्मद रफ़ी ने मिलकर हिंदी फिल्म संगीत का जो अद्भुत अध्याय रचा है उस पर लिखने की बहुत दिनों से इच्छा थी। पर पहले अन्ना के आंदोलन को लेकर ये इच्छा जाती रही और फिर कार्यालय की व्यस्तताओं ने कंप्यूटर के कुंजीपटल के सामने बैठने नहीं दिया। दरअसल मैं जब भी शम्मी कपूर के बारे में सोचता हूँ तो मुझे सत्तर और अस्सी के दशक का श्वेत श्याम और बाद का रंगीन दूरदर्शन याद आ जाता है। साठ के दशक में जब शम्मी कपूर या शमशेर राज कपूर रुपहले पर्दे पर अपनी फिल्मों की सफलताओं के झंडे गाड़ रहे थे तब तक तो मेरा इस दुनिया में पदार्पण ही नहीं हुआ था। शम्मी कपूर की फिल्मी दुनिया व उनके गीतों से मेरा पहला परिचय दूरदर्शन की मार्फत ही हुआ था।

वो दूरदर्शन ही था जो हम सब को गुरुवार और रविवार को बारहा शम्मी कपूर की फिल्में दिखाया करता था। सच कहूँ तो शुरु शुरु में हम तीनों भाई बहनों को शम्मी जी के नैन मटक्के और उनकी थरथराती अदाएँ बिल्कुल नागवार गुजरती थीं। पर जैसे जैसे वक़्त गुजरा हमें उनके तौर तरीके पसंद आने लगे। शायद इसकी वज़ह ये रही कि हमने उनकी फिल्मों को एक दूसरे नज़रिए से देखना शुरु किया। गीतों में उनकी तरफ़ से डाली गई उर्जा इनके समर्पण को देख सुन हो कर अपने मन को भी तरंगित होता पाया। उनकी फिल्मों के गीत हम बड़े चाव से सुनने लगे। आज जब वे इस दुनिया में नहीं हैं उनके द्वारा अभिनीत गीतों के साथ उन्हें ये श्रृद्धांजलि देना चाहता हूँ।
शम्मी कपूर के गीतों की लोकप्रियता में रफ़ी साहब का कितना बड़ा योगदान था ये किसी से छुपा नहीं है। रफ़ी साहब और शम्मी कपूर की इस बेमिसाल जोड़ी का सफ़र कैसे शुरु हुआ और फिर परवान चढ़ा इसी बात पर चर्चा करेंगे आज की इस पोस्ट में। साथ ही होंगे रफ़ी साहब के गाए और शम्मी कपूर पर फिल्माए मेरे दस पसंदीदा नग्मे। शम्मी कपूर ने सबसे पहले रफ़ी साहब को जबलपुर में एक संगीत के कार्यक्रम में देखा। शम्मी उस वक़्त कॉलेज में थे और वहाँ अपने एक रिश्तेदार से मिलने गए थे। पचास के दशक में शम्मी कपूर की आरंभिक फिल्मों रेल का डिब्बा, लैला मजनूँ, शमा परवाना, हम सब चोर हैं में शम्मी के गाए अधिकांश गीत रफ़ी साहब की ही आवाज़ में थे। पर ये फिल्में ज्यादा सफल नहीं हुईं और उनके संगीत ने भी कोई खास धूम नहीं मचाई। शम्मी कपूर अक्सर अपने गीतों की रिकार्डिंग देखने जाया करते थे। 1957 में नासिर हुसैन की फिल्म तुमसा नहीं देखा के गीतों की रिकार्डिंग चल रही थी। गीत था सर पे टोपी लाल.. ओ तेरा क्या कहना...। शम्मी कपूर ने अपने एक साक्षात्कार में इस गीत के बारे में कहा था

"मैं रफ़ी साहब के पास रिकार्डिंग रूम  में गया और उनसे कहा कि ये गीत मैं गाने वाला हूँ। मेरे कुछ सुझाव हैं कि गीत के इन इन हिस्सों को आप यूँ गाइए तो मुझे उस पर अभिनय करने में सहूलियत होगी। रफ़ी साहब ने कहा ठीक है आपने जैसा कहा वैसी ही कोशिश कर के देखता हूँ। आप विश्वास नहीं करेंगे कि रफ़ी ने जिस तरह से मेरे सुझावों से भी बढ़कर उस गीत के लहजे को ढाला कि वो एक अलग ऊँचाई पर चला गया। यहीं से रफ़ी साहब के साथ मेरी एक जोड़ी की शुरुआत हो गई ।"
रफ़ी साहब और शम्मी की इस जुगलबंदी में मैंने पहला गीत जो लिया है वो है 1959 में आई फिल्म 'दिल दे के देखो से' । इस गीत को लिखा था मजरूह सुल्तानपुरी ने और इसकी धुन बनाई थी उषा खन्ना ने। इस गीत की खास बात ये है कि ये उषा जी की पहली संगीत निर्देशित फिल्म थी वहीं बतौर नायिका आशा पारिख जी की भी ये पहली फिल्म थी। ये याद दिलाना जरूरी होगा कि रफ़ी की संगत के साथ सह नायिका के रूप में आशा पारिख का साथ भी शम्मी कपूर के लिए बेहद सफल रहा।

कहना होगा कि जिस सुकून जिस तबियत से रफ़ी साहब ने उषा जी की इस बेहतरीन कम्पोजीशन को अपनी आवाज़ दी है कि क्या कहने। मजरूह के बोल भी कम असरदार नहीं। मिसाल देखिए

हम और तुम और ये समां
क्या नशा नशा सा है
बोलिए ना बोलिए
सब कुछ सुना सुना सा है  





रफ़ी साहब की शांत धीर गंभीर आवाज़ शम्मी कपूर के लिए शोख और चंचल हो उठी। उन्होंने अपनी गायिकी में शम्मी के हाव भावों को इस तरह उतारा की ये भिन्न करना मुश्किल हो गया कि इस गीत को शम्मी कपूर गा रहे हैं या रफ़ी साहब। साठ के दशक में ही रिलीज हुई फिल्म 'बदतमीज' का ये गाना याद आ रहा है जिसमें रफी साहब गाते हैं...

बदतमीज कहो या कहो जानवर
मेरा दिल तेरे दिल पे फिदा हो गया
बचा लो कोई,सँभालो कोई,
ओ मेरी जाने जाँ मैं तबाह हो गया
होलल्ला होलल्ला होलल्ला होलल्ला




द्रुत गति से गाए इस गीत में रफ़ी साहब जब अपने दिल को बमुश्किल सँभालते हुए होल्ल्ला होलल्ला की लय पकड़ते हैं तो शम्मी कपूर की अदाओं की मस्ती गीत के बोलों में सहज ही समा जाती है। साधना के साथ गाए इस गीत में जो चंचलता थी वो तो आपने महसूस की होगी पर फिल्म राजकुमार में जहाँ एक बार फिर शम्मी कपूर और साधना की जोड़ी थी रफ़ी शम्मी कपूर के लिए एक अलग से संजीदा अंदाज़ में नज़र आए



शम्मी कपूर और रफ़ी की इस जोड़ी ने नैयर साहब के साथ सफलता का एक और सोपान हासिल किया है 1964 में आई फिल्म 'कश्मीर की कली' में। इस फिल्म का एक गीत था तारीफ़ करूँ क्या उसकी जिसने तुझे बनाया। शम्मी कपूर चाहते थे अपनी प्रेमिका के प्रति अपने जज़्बे को उभारने के लिए इस जुमले तारीफ़ करूँ क्या उसकी ....को तरह तरह से दोहराएँ। पर ओ पी नैयर अड़ गए कि उससे गाना लंबा और उबाऊ हो जाएगा। शम्मी दुखी होकर रफ़ी साहब के पास गए। रफ़ी ने उनकी परेशानी सुनी और कहा कि मैं  नैयर को समझाता हूँ। नैयर ने उनसे भी वही कहा पर रफ़ी ने उन्हें ये कहकर मना लिया कि अगर वो ऐसा चाहता है तो एक बार कर के देखते हैं अगर तुम्हें पसंद नहीं आया तो हटा देना। जब गीत पूरा बना तो सब को अच्छा लगा और  शम्मी कपूर को नैयर और रफ़ी साहब दोनों ने सराहा ।

ये घटना दिखाती है कि शम्मी कपूर और रफ़ी साहब की जोड़ी इतनी सफ़ल क्यूँ हुई। मैं आपको ये गीत तो नहीं पर इसी फिल्म के दो और गीत सुनाना चाहूँगा जो मेरे बहुत प्रिय हैं। एक तो ये रोमांटिक गीत..'दीवाना हुआ बादल .....बहार आई...ये देख के दिल झूमा ...ली प्यार ने अँगड़ाई 'जिसे एक बार गुनगुनाकर ही मन हल्का हो जाता है





और दूसरा एस. एच. बिहारी का लिखा ये शानदार नग्मा जिसमें मनोहारी सिंह के सेक्सोफोन ने एक ना छू सकने वाली बुलंदियों तक पहुँचाया है। क्या संगीत, क्या शब्द और क्या गायिकी ...बेमिसाल शब्द भी छोटा जान पड़ता है इस गीत के लिए... सच ऐसी मेलोडी बार बार जन्म नहीं लेती

है दुनिया उसी की ज़माना उसी का,
मोहब्बत में जो हो गया हो किसी का...
लुटा जो मुसाफ़िर दिल के सफ़र में
है जन्नत यह दुनिया उसकी नज़र में
उसी ने है लूटा मज़ा ज़िंदगी का
मोहब्बत में ...
 
है सज़दे के काबिल हर वो दीवाना
के जो बन गया हो तसवीर-ए-जानाँ   
करो एह्तराम उस की दीवानगी का
मोहब्बत में ...

बर्बाद होना जिसकी अदा हो
दर्द-ए-मोहब्बत जिसकी दवा हो
सताएगा क्या ग़म उसे ज़िंदगी का
मोहब्बत में ...




शम्मी कपूर एक ऐसे अभिनेता थे जिन्होंने अपनी फिल्मों के संगीत को जबरदस्त अहमियत दी। वे खुशकिस्मत रहे कि उनकी इस मुहिम में रफ़ी साहब जैसे गायक और शंकर जयकिशन व ओ पी  नैयर जैसे संगीतकारों का साथ मिला। इस श्रृंखला की अगली कड़ी में उपस्थित हूँगा रफ़ी और शम्मी साहब के इस जोड़ी के पाँच अन्य चुनिंदा गीतों और उनसे जुड़ी बातों को लेकर...
 

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