सोमवार, फ़रवरी 27, 2012

वार्षिक संगीतमाला 2011 रनर अप : कुन फाया कुन जब कहीं पे कुछ नहीं, भी नहीं था, वही था, वही था !

वक़्त आ गया वार्षिक संगीतमाला 2011 के रनर अप गीत के नाम की घोषणा करने का। एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमाला का ये खिताब जीता है फिल्म रॉकस्टार की कव्वाली 'कुन फाया कुन' ने। यूँ तो ख़ालिस कव्वालियों का दौर तो रहा नहीं पर ए आर रहमान ने अपनी फिल्मों में बड़ी सूझबूझ और हुनर से इनका प्रयोग किया है। इससे पहले फिल्म जोधा अक़बर में उनकी कव्वाली ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा बेहद लोकप्रिय हुई थी। यूँ तो रॉकस्टार के अधिकतर गीत लोकप्रिय हुए हैं पर कुछ गीतों में रहमान का संगीत इरशाद क़ामिल के बेहतरीन बोलों को उस खूबसूरती से उभार नहीं पाया जिसकी रहमान से अपेक्षा रहती है। पर जहाँ तक फिल्म रॉकस्टार की इस कव्वाली की बात है तो यहाँ गायिकी, संगीत और बोल तीनों बेहतरीन है और इसीलिए इस गीत को मैंने इस पॉयदान के लिए चुना।

अगर संगीत की बात करें तो जिस खूबसूरती से मुखड़े या अंतरों में हारमोनियम का प्रयोग हुआ है वो वाकई लाजवाब है। कव्वाली की चिरपरिचित रिदम में बड़ी खूबसूरती से गिटार का समावेश होता है जब मोहित सजरा सवेरा मेरे तन बरसे गाते हैं। रहमान ने इस गीत के लिए अपना साथ देने के लिए जावेद अली को चुना, मोहित तो रनबीर कपूर की आवाज़ के रूप में तो पहले से ही स्वाभाविक चुनाव थे। इन तीनों ने मिलकर जो भक्ति का रस घोला है उसे मेरे लिए शब्दो में बाँधना मुश्किल है। बस इतना कहूँगा कि ये कव्वाली जब भी सुनता हूँ तो रुहानी सुकून सा मिलता महसूस होता है।

इरशाद क़ामिल के बोलों की बात करने से पहले कुछ बातें कव्वाली की पंच लाइन 'कुन फाया कुन' के बारे में। अरबी से लिया हुए  इस जुमले का क़ुरान में कई बार उल्लेख है। मिसाल के तौर पर क़ुरान के द्वितीय अध्याय के सतरहवें छंद में इसका उल्लेख कुछ यूँ है "... and when He decrees a matter to be, He only says to it ' Be' and it is." यानि एक बार परवरदिगार ने सोच लिया कि ऐसा होना चाहिए तो उसी क्षण बिना किसी विलंब के वो चीज हो जाया करती है।

अब थोड़ा इरशाद साहब के शब्दों के चमत्कार को भी देखिए। मुखड़े में एक कितने प्यारे शब्दों में वो ख़ुदा को अपने चाहनेवाले के घर में आकर दिल के शून्य को भरने की बात करते हैं। चाहे अंतरे में भगवन को शाश्वत सत्य मानने की बात हो, या अल्लाह के रूप में रंगरेज़ की कल्पना इरशाद के बोल दिल में समा जाते हैं

या निजाममुद्दीन औलिया, या निजाममुद्दीन सरकार
कदम बढ़ा ले, हदों को मिटा ले
आजा खालीपन में, पी का घर तेरा,
तेरे बिन खाली, आजा खालीपन में..तेरे बिन खाली, आजा खालीपन में
रंगरेज़ा रंगरेज़ा रंगरेज़ा हो रंगरेज़ा….

कुन फाया कुन, कुन फाया, कुन फाया कुन,
फाया कुन, फाया कुन ,फाया कुन,
जब कहीं पे कुछ नहीं, भी नहीं था,
वही था, वही था, वही था, वही था
वो जो मुझ में समाया, वो जो तुझ में समाया
मौला वही वही माया
कुन फाया कुन, कुन फाया, कुन
सदाकउल्लाह अल्लीउल अज़ीम

रंगरेज़ा रंग मेरा तन मेरा मन
ले ले रंगाई चाहे तन चाहे मन

अब गीत के इस टुकड़े को लें

सजरा सवेरा मेरे तन बरसे
कजरा अँधेरा तेरी जान की लौ
क़तरा मिले तो तेरे दर पर से
ओ मौला….मौला…मौला….


इरशाद यहाँ कहना चाहते हैं वैसे तो तुम्हारे दिए हुए शरीर  के कृत्यों से मैं कालिमा फैला रहा था पर तुम्हारे आशीर्वाद के एक क़तरे से मेरी ज़िदगी की सुबह आशा की नई ज्योत से झिलमिला उठी है। अगले अंतरे में इरशाद पैगंबर से अपनी आत्मा को शरीर से अलग करने का आग्रह करते हैं ताकि उन्हे अल्लाह के आईने में अपना सही मुकाम दिख जाए। कव्वाली के अंत तक गायिकी और इन गहरे बोलों का असर ये होता है कि आप अपनी अभी की अवस्था भूल कर बस इस गीत के होकर रह जाते हैं।

कुन फाया कुन, कुन फाया कुन,
कुन फाया कुन, कुन फाया कुन
कुन फाया कुन, कुन फाया, कुन फाया कुन,
फाया कुन, फाया कुन ,फाया कुन,
जब........वही था

सदकल्लाह अल्लीउम अज़ीम
सदक रसुलहम नबी युनकरीम
सलल्लाहु अलाही वसललम, सलल्लाहु अलाही वसललम,

ओ मुझपे करम सरकार तेरा,
अरज तुझे, करदे मुझे, मुझसे ही रिहा,
अब मुझको भी हो, दीदार मेरा
कर दे मुझे मुझसे ही रिहा, मुझसे ही रिहा…
मन के, मेरे ये भरम, कच्चे  मेरे ये करम
ले के चले है कहाँ, मैं तो जानू ही ना,

तू ही मुझ में समाया, कहाँ लेके मुझे आया,
मैं हूँ तुझ में समाया, तेरे पीछे चला आया,
तेरा ही मैं एक साया, तूने मुझको बनाया
मैं तो जग को ना भाया, तूने गले से लगाया
हक़ तू ही है ख़ुदाया, सच तू ही है ख़ुदाया

कुन फाया, कुन..कुन फाया, कुन
फाया कुन, फाया कुन, फाया कुन, ,फाया कुन,
जब कहीं.....

सदकउल्लाह अल्लीउल अज़ीम
सदकरसूलहम नबी उलकरीम
सलल्लाहु अलाही वसल्लम, सलल्लाहु अलाही वसललम,
वैसे अगर इरशाद क़ामिल के बारे में आपकी कुछ और जिज्ञासाएँ तो एक बेहतरीन लिंक ये रही

निर्देशक इम्तियाज़ अली ने इस कव्वाली को फिल्माया है दिल्ली में स्थित हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह में


तो ये था साल का रनर अप गीत? पर हुजूर वार्षिक संगीतमाला का सरताजी बिगुल अभी बजना बाकी है। अगली पोस्ट में बातें होगीं मेरे साल के सबसे दिलअज़ीज गीत और उन्हें रचने वालों के बारे में। तब तक कीजिए इंतज़ार.

गुरुवार, फ़रवरी 23, 2012

वार्षिक संगीतमाला 2011 - पॉयदान संख्या 3 : दिन परेशां है रात भारी है...ज़िदगी है कि फिर भी प्यारी है

वार्षिक संगीतमाला की तीसरी पॉयदान पर के गीत के लिए मैं सिर्फ एक कलाकार की ही प्रतिभा को नमन कर सकता हूँ। वैसे भी जब किसी गीत के गीतकार, संगीतकार और गायक की भूमिका एक ही शख़्स निभा रहा हो तो मेरे पास विकल्प ही क्या बचता है? इस शख़्स का नाम है सज्जाद अली और ये गीत है पाकिस्तान में बनी फिल्म 'बोल' का जो पिछले साल भारत में भी प्रदर्शित और सराही गई थी़। आप भले ही सज़्जाद से परिचित ना हो पर ये कलाकार पिछले तीन दशकों से संगीत की दुनिया में सक्रिय हैं।


46 वर्षीय सज्जाद के पिता शफ़क़त हुसैन एक क्रिकेट खिलाड़ी थे पर बच्चे में संगीत के प्रति रुझान देखते हुए उन्हें शास्त्रीय संगीत की तालीम दी जाने लगी। 1983 में पीटीवी पर अपने कार्यक्रम की बदौलत सज्जाद पाकिस्तान में चर्चा में आए। पिछले तीन दशकों में सज्जाद, शास्त्रीय, सूफ़ी व पॉप जैसे भिन्न भिन्न प्रकृति के संगीत में अपनी काबिलियत दिखलाते रहे हैं। यही नहीं सज्जाद ने दो फिल्में भी बनाई और अभिनय भी किया है। कोई ताज्जुब नहीं कि बहुमुखी प्रतिभा के इस कलाकार के हुनर के शैदाइयों में ए आर रहमानहंस राज हंस जैसे धुरंधर भी शामिल हैं।


'बोल' फिल्म का ये गीत जब मैंने पहली बार सुना था तो मन अनमना सा हो गया था। जाने क्या दर्द था इस नग्में में। मैंने फिल्म 'बोल' देखी तो नहीं थी पर इतना जानता था कि इसकी कहानी एक ऐसी लड़की की कहानी है जो क़त्ल के जुर्म में फाँसी के तख्ते पर लटकाई जा रही है। फिल्म फ्लैशबैक में चलती है नायिका की कथा को अतीत से निकालती हुई। छः लड़कियों के बाद एक रुढ़िवादी पिता को अगली संतान के रूप में ऐसा पुत्र मिलता है जो एक लड़की जैसा दिखना और बनना चाहता है। पिता की सारी आकांक्षाएँ जब मिट्टी में मिल जाती हैं तो वो अपने अंदर की हताशा अपने बच्चे व बेटियों पर निकालता है।

एक ओर प्यारा भाई तो दूसरी ओर उन्हें हेय दृष्टि से देखने वाला ज़ालिम पिता जिसे ना तो अपनी बेटियों की खुशियाँ सुहाती हैं ना अपने निर्दोष बच्चे की मासूमियत। ऐसी ही कठोर परिस्थितियों में चलती ज़िंदगी को सज्जाद अपने बोलों से उभारते हैं

इस कहानी को कौन रोकेगा
उम्र ये सारी कौन सोचेगा, कौन सोचेगा
साथ काटी है या गुजारी है
ज़िंदगी है कि फिर भी प्यारी है
दिल परेशां है रात भारी है

कितना सही कह गए सज्जाद ! ऐसा जीवन कटता नहीं बल्कि जैसे तैसे गुजर जाता है। 'बोल' फिल्म का ये गीत भले ही कहानी के अनुरूप लगे पर सच ये है कि सज्जाद ने ये गीत सबसे पहले अपने एलबम 'चहर बलिश' (Chahar Balish) के लिए लिखा था जो अप्रैल 2008 आया था। सज्जाद को बोल के लिए भी ये गीत उपयुक्त लगा तो उन्होंने उस गीत के एक अंतरे को बदलकर एकदम अलग संगीत संयोजन के साथ इस नग्मे को दोबारा फिल्म 'बोल' में शामिल किया। पर यहाँ ये बताना जरूरी होगा कि सज्जाद ने इस गीत का मुखड़ा अज़ीम शायर जनाब क़ाबिल अजमेरी की ग़ज़ल के मतले दिन परेशां है से लिया है। इस गीत से एकदम अलग इस रूमानी ग़ज़ल को  हरिहरण की आवाज़ में आप यहाँ सुन सकते हैं

इस गीत के बारे में तो बस इतना ही कहना चाहूँगा कि सीधे सच्चे शब्दों में व्यक्त पीड़ा जब पूरी तन्मयता से आप तक पहुँचे तो आँखे क्या दिल तक नम हो जाता है. बोल के इस नग्मे की यही ताकत है। गीत के बोल और संगीत खासकर बीच बीच में उभरती बाँसुरी की तान उदासी की चादर लपेटे हुए हैं जो दिल को कचोटते है। गीत सुनने के बाद भी इस टीस से उबरने में बहुत वक़्त लगता है। शायद आपको भी लगे...




दिन परेशां है रात भारी है
ज़िदगी है कि फिर भी प्यारी है
क्या तमाशा है कब से जारी है
ज़िंदगी है कि फिर भी प्यारी है

इस कहानी को कौन रोकेगा
उम्र ये सारी कौन सोचेगा, कौन सोचेगा
साथ काटी है या गुजारी है
ज़िंदगी है कि फिर भी प्यारी है
दिन परेशां है...

रंगों से कहूँ, लकीरों से कहूँ
मैली मैली सी तसवीरों से कहूँ, तसवीरों से कहूँ
बेक़रारी सी बेक़रारी है
ज़िदगी है कि फिर भी प्यारी है

बहुत लोगों को सज्जाद की आवाज़ सामान्य पुरुष स्वर से अलग लगती है। मुझे भी लगी थी पर इस गीत के बोल और संगीत का कुल मिलाकर असर ऐसा है कि उनकी आवाज़ की बनावट (texture) कम से कम मुझे तो इस गीत से विमुख नहीं करती।


मंगलवार, फ़रवरी 21, 2012

वार्षिक संगीतमाला 2011 - पॉयदान संख्या 4 : रात मुझे ये कहकर चिढ़ाए, तारों से भरी मैं तू है अकेली हाए !

दोस्तों, वार्षिक संगीतमाला के इस मुकाम पर अब साल के सरताज गीत से महज़ तीन गीतों का फ़ासला रह गया है। गीतमाला की चौथी पॉयदान पर पेश है एक ऐसा नग्मा जिसके मुखड़े की काव्यात्मकता दिल को छू जाती है। क्या आप यकीन करेंगे कि एक बार सुन कर ही सम्मोहित करने वाले इस गीत के गीतकार ने अपनी पेशेवर ज़िंदगी की शुरुआत 'अपराध पत्रकारिता' से की थी ? जी हाँ, फिल्म 'साहब बीवी और गैंगस्टर' के इस रूमानी नग्मे को लिखा है संदीप नाथ ने।

उत्तरप्रदेश में इलाहाबाद में अपना बचपन और फिर मुरादाबाद और बिजनौर से आगे की पढ़ाई करने वाले संदीप नाथ को कविता करने का चस्का मात्र बारह साल की उम्र से ही लग गया था। मुंबई फिल्म जगत के लिए संदीप नाथ कोई नया नाम नहीं हैं। एक मध्यमवर्गीय बंगाली परिवार से ताल्लुक रखने वाले संदीप जब एक दशक पूर्व  मुंबई पहुँचे तो अपने मित्र की बदौलत उन्हें विज्ञापन के जिंगल को लिखने का मौका मिला। बतौर गीतकार वर्ष 2003 से फिल्म 'भूत' से शुरु हुआ उनका सफ़र 'पेज 3','सरकार','साँवरिया', 'फैशन' और अब 'साहब बीवी और गैंगस्टर' तक जा पहुँचा है। 

संदीप एक गीतकार होने के साथ साथ एक पटकथा लेखक भी हैं। उन्होंने कविताओं के आलावा ग़ज़लें भी लिखी हैं। 'मुझे कुछ भी नाम दो' और 'दर्पण अब भी अंधा है' के नाम से उनकी किताबें प्रकाशित भी हुई हैं। अपराध पत्रकारिता ने उन्हें अपने शुरुआती दिनों में एक आर्थिक अवलंब दिया जिसकी वज़ह से उन्होंने वही फिल्में लीं जिसमें उन्हें अपने काम से समझौता ना करना पड़े। अपने गीतो की रचना के बारे में उनका कहना है

"मुझे फिल्म में निर्देशक द्वारा दी गई परिस्थिति एक चुनौती की तरह लगती है। मैं अपने आप को चरित्रों और घटनाक्रमों के बीच रखता हूँ। उन हालातों को अपनी ज़िदगी के अनुभवों से जोड़ता हूँ और इस तरह से नग्मा हौले हौले साँस लेने लगता है। वैसे भी सृजन स्वतःस्फूर्त होता है। हम चाह कर कुछ बाहर नहीं निकाल सकते।"

फिल्म के इसी गीत को लीजिए।  गीत के मुखड़े में संदीप लिखते हैं

रात मुझे ये कहकर चिढ़ाए
तारों से भरी मैं तू है अकेली हाए

भई वाह! रात का उपालंभ देकर नायक को प्रणय के लिए प्रेरित करने की सोच और उपजे बोल आज के इस शोर शराबे वाले दौर में अद्भुत हैं

वैसे तो फिल्म 'साहब बीवी गैंगस्टर' में पाँच अलग अलग संगीतकारों को मौका मिला है पर इस गीत की धुन बनाई है नवोदित संगीतकार अभिषेक रॉय ने। मुख्यतः गिटार और तबले का प्रयोग करते हुए अभिषेक ने इस चुहल भरे रूमानी नग्मे को मजबूत आधार दिया है। इस गीत की गायिका श्रेया घोषाल के लिए ये साल कमाल का रहा है। मात्र सताइस साल की उम्र में ही श्रेया कई राष्ट्रीय और फिल्मफेयर पुरस्कारों को अपनी झोली में डाल चुकी हैं। इस गीत में भी उनकी आवाज़ की खनक दिल के तारों को झंकृत करने के लिए काफ़ी रही है।

तो आइए सुनते हैं इस गीत को...


रात मुझे ये कहकर चिढ़ाए
तारों से भरी मैं तू है अकेली हाए
कानों से मैं जली जली जाऊँ
आज रुको तो बली जाऊँ

क्या कहूँ, बोलो ना, क्या सुनूँ बोलो ना
रातों की हरकतों को तुम भी समझो ना
बातों की हरकतों को तुम भी समझो ना
शैतानियाँ ये रोज़ दिखाए
ऐसा कुछ करो कि रात लजाए

क्या कहूँ, बोलो ना, क्या सुनूँ बोलो ना
इस दिल की करवटों को तुम भी समझो ना
साँसों की हसरतों को तुम भी समझो ना
बेताबियाँ रात जगाए
ऐसा कुछ करो कि होश उड़ जाए

रात मुझे ये कहकर चिढ़ाए
तारों से भरी मैं तू है अकेली हाए
कह दो इसे ये ना इतराए
कल जो आए तो सर को झुकाए
रात मुझे..रात मुझे..



गीतों के बोलों के गिरते स्तर को संदीप स्वीकारते हैं पर भविष्य के लिए वो नाउम्मीद नहीं हैं। वे मानते हैं कि ऐसे दौर पहले भी आते रहे हैं और इन्हीं के बीच से एक नई धारा निकलेगी जो अच्छे बोलों को वापस लौटा लाएगी। संदीप जी की ये सकरात्मक सोच फलीभूत हो, हम जैसे संगीत प्रेमी तो यही कामना कर सकते हैं।

गुरुवार, फ़रवरी 16, 2012

वार्षिक संगीतमाला 2011 - पॉयदान संख्या 5 : कैसे कहें अलविदा, मेहरम...कैसे बने अजनबी, हमदम ?

शास्त्रीय संगीत के महारथी कलाकारों का हिंदी फिल्म संगीत में संगीत निर्देशन करना कोई नई बात नहीं रही है। आपको तो याद ही होगा कि यशराज फिल्म के बैनर तले संतूर वादक शिव कुमार शर्मा और बाँसुरी वादक हरि प्रसाद चौरसिया ने 'शिवहरि' के नाम से तमाम फिल्मों में सफल संगीत निर्देशन किया था। इसी सिलसिले में एक नया नाम जुड़ा है प्रसिद्ध सितार वादक उस्ताद निशात खान का जिनकी संगीत निर्देशित फिल्म 'ये साली ज़िंदगी' का गीत है वार्षिक संगीतमाला की पाँचवी पॉयदान पर। सवाल ये उठता है कि सितार की परंपरा को पीढ़ियों से निभाने वाले परिवार से ताल्लुक रखने वाले उस्ताद इमरत खाँ के सुपुत्र को संगीत निर्देशन का ख़्याल क्यूँ आया ?

दरअसल अमेरिका में बसे निशात खान पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के धुरंधरों के साथ सितार की जुगलबंदी करते रहे हैं। कुछ सालों पहले मुंबई में उनकी मुलाकात फिल्म निर्देशक सुधीर मिश्रा से हुई जिन्हें उन का विदेशी कलाकारों के साथ किया गया फ़्यूजन बहुद पसंद आया। वर्षों बाद जब सुधीर को अपनी फिल्म 'ये साली ज़िंदगी' के लिए इस तरह के संगीत की दरकार हुई तो उन्हें निशात खान का ख्याल आया। निशात साहब ने पारंपरिक शास्त्रीय संगीत के इतर एक बॉलीवुड थ्रिलर का संगीत देने की सुधीर मिश्रा की पेशकश को एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया। निशात साहब के संगीत निर्देशन का अपना एक नज़रिया है जिसके बारे में वो कहते हैं

"..मैं जब संगीत बनाता हूँ तो बहुत ज्यादा सोचता नहीं हूँ कि ये फिल्म में कैसा लगेगा वो कैसा लगेगा। जो मेरे दिल को बहुत अच्छा लगता है मैं वो सब सामने रख देता हूँ। उनमें से जो संगीत फिल्म के निर्देशक को पटकथा की परिस्थितियों के अनुरूप लगता है वो रख लेते हैं। इसी तरह जब मैं अपने कनसर्ट में जाता हूँ तो ज्यादातर मेरे को मालूम नहीं होता कि मैं कौन सा राग बजाऊँगा? मैं वहाँ जाता हूँ बैठता हूँ आवाज जाँचता हूँ और फिर उस पल जो मन में आता है वही बजा देता हूँ।.."

निशात खान ने इस गीत को गवाया है जावेद अली से। ये वही जावेद हैं जिन्हें पिछले साल आप बच्चों के सा रे गा मा पा में बतौर जज टीवी के पर्दे पर देख चुके हैं। जोधा अकबर से अपनी पहचान बनाने वाले जावेद ने रावण, जब वी मेट, गजनी, युवराज,दिल्ली ६, आक्रोश और रॉकस्टार में गाए गीतों से अपनी कामयाबी का सफ़र ज़ारी रखा है। जावेद को जो शोहरत आज मिली है वो उनकी फिल्म जगत में पिछले एक दशक से की गई लगातार मेहनत का नतीजा है।

पाँचवी पॉयदान का ये गीत पिछली पॉयदानों पर बजने वाले रूमानी गीतों से अलहदा है क्यूँकि यहाँ प्रेम की उमंग नहीं बल्कि जुदाई की पीड़ा है। नायक के लिए अलविदा कहने का वक़्त तो आ गया है पर कैसे वो उन साथ गुजारे लमहों, उन खुशनुमा यादों को एक झटके से अपने दिल से अलग कर ले? विरह की वेदना को मन में समाए जब जावेद ये गीत गाते हैं किरदार का दर्द अपना सा लगता है। निशात खाँ का संगीत गीत के मूड के अनुरुप है और गीतकार स्वानंद किरकिरे के बोल दिल में नश्तर की तरह चुभते हें जब वो कहते हैं

जिए जाओ जो तुम, जी ही जाएँगे हम
यादों के ज़ख़्म पर जिंदगी मरहम

तो आइए डूबते हैं इस उदास करते भावनात्मक नग्मे में



कैसे कहें अलविदा, मेहरम
कैसे बने अजनबी, हमदम
भूल जाओ जो तुम, भूल जाएँगे हम
ये जुनूँ ये प्यार के लमहे नम
कैसे कहें अलविदा, मेहरम
कैसे कहें....

गेसू रेशम, लब पर शबनम
वो बहकता सा दिल
वो दहकता सा तन
भूल जाओ जो तुम, भूल जाएँगे हम
ये जुनूँ ये प्यार के लमहे नम
कैसे कहें अलविदा, मेहरम
कैसे कहें

वो रातें वो सहर
वो सुकूँ के पहर
भूल जाएँगे हम, भूले क्यूँ हम मगर ?
जिए जाओ जो तुम, जी ही जाएँगे हम
यादों के ज़ख़्म पर जिंदगी मरहम


फिल्म ये साली ज़िंदगी में इस गीत को फिल्माया गया है इरफान खान और चित्रांगदा सिंह पर



गीत तो आप ने सुन लिया पर ये तो बताइए क्या इस गीत के संगीत में कहीं भी सितार का प्रयोग हुआ है?

सोमवार, फ़रवरी 13, 2012

वार्षिक संगीतमाला 2011 - पॉयदान संख्या 6 : इक ज़रा चेहरा उधर कीजै इनायत होगी, आप को देख के बड़ी देर से मेरी साँस रुकी ..

भावनाएँ तो सबके मन में होती हैं और उनकों अभिव्यक्त करने के लिए जरूरी भाषा भी । पर फिर भी दिल के दरवाजों में बंद उन एहसासों को व्यक्त करना हमारे लिए दुरूह हो जाता है। पर ये शायर, उफ्फ बार बार उन्हीं शब्दों से तरह तरह से खेलते हुए कमाल के भाव रच जाते हैं। ऐसे लफ़्ज़ जो ना जाने दिल कबसे किसी को कहने को आतुर था। दोस्तों यकीन मानिए वार्षिक संगीतमाला की छठी पॉयदान के गीत में भी कुछ ऐसे जज़्बात हैं जो शायद हम सब ने अपने किसी ख़ास के लिए ज़िंदगी के किसी मोड़ पर सोचे होंगे।
और इन जज़्बों में डूबा अगर ऐसा कोई गीत गुलज़ार ने लिखा हो और आवाज़ संगीतकार विशाल भारद्वाज की हो तो वो गीत किस तरह दिल की तमाम तहों को पार करता हुआ अन्तरमन में पहुँचेगा, वो इन विभूतियों को पसंद करने वालों से बेहतर और कौन समझ सकता है?

गीतकार संगीतकार जोड़ी का नाम सुनकर तो आप समझ ही गए होंगे कि ये गीत फिल्म सात ख़ून माफ़ का है। पर इससे पहले कि इस गीत की बात करूँ, आप सबको ये बताना दिलचस्प रहेगा कि ये गीत कैसे बना। ये बात तबकी है जब फिल्म  'सात ख़ून माफ़' की शूटिंग हैदराबाद में शुरु हो चुकी थी पर अब तक इसके गीतों पर काम शुरु भी नहीं हो पाया था। हैदराबाद की ऐसी ही एक शाम को ज़ामों के दौर के बीच गुलज़ार ने विशाल को अपनी एक नज़्म का टुकड़ा सुनाया और कहा अब इसे ही आगे डेवलप करो। नज़्म कुछ यूँ थी...


गैर लड़की से कहे कोई मुनासिब तो नही
इक शायर को मगर इतना सा हक़ है
पास जाए और अदब से कह दे
इक ज़रा चेहरा उधर कीजै इनायत होगी
आप को देख के बड़ी देर से मेरी साँस रुकी है


विशाल ने जब ये नज़्म सुनी तो उनका दिल धक्क सा रह गया। उन्हें गुलज़ार की ये सोच कि किसी लड़की की खूबसूरती इस क़दर लगे कि कोई जा कर कहे कि मोहतरमा अपना चेहरा उधर घुमा लें नहीं तो ये साँस जो आपको देखकर रुक गई है हमेशा के लिए रुक जाएगी बहुत ही प्यारी लगी। और विशाल ने आख़िर को दो पंक्तियों को लेते हुए मुखड़ा तैयार किया। विशाल से एक रेडियो इंटरव्यू में गीत के अज़ीब से लगने वाले मुखड़े के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा..
"हाँ मुझे मालूम है कि इस गीत को सुननेवाले मुखड़े में प्रयुक्त शब्द बेकराँ को बेकरार समझेंगे पर वो शब्द गीत के मुखड़े को खूबसूरत बना देता है। दरअसल बेकराँ का मतलब है बिना छोर का.."
बेकराँ हैं बेकरम आँखें बंद कीजै ना
डूबने लगे हैं हम
साँस लेने दीजै ना लिल्लाह

(भई अब तो अपनी आँखे बँद कर लो ! बिना छोर की इन खूबसूरत आँखों की गहराई मैं मैं डूबने लगा हूँ। अब क्या तुम मेरी जान लोगी ?) है ना कितना प्यारा ख़याल !

गुलज़ार पहले अंतरे में अपनी प्रेयसी को देख वक़्त के ठहरने की बात करते हैं और दूसरे में बीती रात के उन अतरंग क्षणों को याद कर शरमा उठते हैं। विशाल भारद्वाज ने अपनी फिल्मों में बतौर गायक गुलज़ार के लिखे वैसे गीत चुने हैं जिनमें खूबसूरत कविता हो, गहरे अर्थपूर्ण बोल हों जो गायिकी में एक ठहराव माँगते हों। चाहे वो फिल्म ओंकारा का ओ साथी रे दिन डूबे ना हो या फिर फिल्म कमीने का इक दिल से दोस्ती थी या फिर इस गीत की बात हो, ये साम्यता साफ़ झलकती है।  

बारिश की गिरती बूँदों की आवाज़ से गीत शुरु होता एक ऐसे संगीत के साथ जो कोई रहस्य खोलता सा प्रतीत होता है। ये एक ऐसा गीत है जिसकी सारी खूबियाँ आपको एक बार सुनकर नज़र नहीं आ सकती। यही वज़ह है जितनी दफ़े इसे सुना है उतनी आसक्ति इस गीत के प्रति बढ़ी है। तो आइए सुनें इस बेहद रूमानी नग्में को जो कल के प्रेम पर्व के लिए तमाम 'एक शाम मेरे नाम' के पाठकों के लिए मेरी तरफ़ से छोटा सा तोहफा है..
बेकराँ हैं बेकरम आँखें बंद कीजै ना
डूबने लगे हैं हम
साँस लेने दीजै ना लिल्लाह
इक ज़रा चेहरा उधर कीजै इनायत होगी
आप को देख के बड़ी देर से मेरी साँस रुकी है
बेकराँ है बेकरम...

इक ज़रा देखिए तो आपके पाँव तले
कुछ तो अटका है कहीं
वक़्त से कहिए चले
उड़ती उड़ती सी नज़र
मुझको छू जाए अगर
एक तसलीम को हर बार मेरी आँख झुकी
आपको देख के...

आँख कुछ लाल सी है
रात जागे तो नहीं
रात जब बिजली गयी
डर के भागे तो नहीं
क्या लगा होठ तले
जैसे कोई चोट चले
जाने क्या सोचकर इस बार मेरी आँख झुकी
आप को देख के बड़ी देर से मेरी साँस रुकी है
बेकराँ है बेकरम...

फिल्म में ये गीत फिल्माया गया है इरफ़ान खाँ और प्रियंका चोपड़ा पर । इरफ़ान का किरदार एक शायर का है। गीत के पहले वो एक शेर पढ़ते हैं

इस बार तो यूँ होगा थोड़ा सा सुकूँ होगा
ना दिल में कसक होगी, ना सर पर जुनूँ होगा

गुरुवार, फ़रवरी 09, 2012

वार्षिक संगीतमाला 2011 - पॉयदान संख्या 7 : कोई दिल बेकाबू कर गया और इश्काँ दिल में भर गया...

संत वैलेंटाइन के मजे ही मजे हैं। पहले उनका ज़लवा साल में एक दिन देखने को मिलता था अब दुनिया के आशिक़ पूरे हफ्ते उनकी चरण वंदना कर ही नित्य नए कृत्यों (rose, propose, hug....) को अंज़ाम देने निकल पड़ते हैं। ख़ैर संत का आशीर्वाद आपके प्रेम के मार्ग को प्रशस्त कर पाया या नहीं ये तो अगले हफ़्ते ही आपको पता चलेगा। हाँ, मैं इतना तो कर ही सकता हूँ कि इस प्रेम पर्व पर आपको एक ऐसा खुशनुमा नग्मा सुनवाऊँ जो प्रेम के प्रथम अंकुर फूटने के अहसास को बखूबी श्रोताओं तक पहुँचाता है। जी हाँ आपने सही पहचाना वार्षिक संगीतमाला की सातवीं पॉयदान का गीत है फिल्म 'मौसम' का। इस गीत के बोल लिखे इरशाद क़ामिल ने, धुन बनाई प्रीतम ने और इस गीत को गवाया गया दो अलग अलग गायकों शाहिद मलया और राहत साहब से।



पंजाब के गाँवों में पनपती इस पहले प्यार की खुशबू को बड़े क़रीने से समेटा है क़ामिल ने अपने सहज पर असरदार बोलों में। किसी की एक उड़ती सी नज़र और इधर हमारे नायक का दिल धाराशायी। उन आँखों का दिल पे अक़्स लिए बेचारा बेचैन फिरता है नायिका की एक अदद झलक पाने के लिए। इरशाद क़ामिल आँखों की इस लुका छुपी को 'तकनी' का नाम देते हैं। पहले अंतरे में नायक के दिल का हाल बताने के बाद गीतकार दूसरे अंतरे में नायिका की सुंदरता को प्राकृतिक बिंबों में बड़ी खूबसूरती से बाँधते हैं। 


रही प्रीतम के मोहक संगीत की बात तो मुखड़े के पहले गिटार पर आधारित धुन बड़ी आसानी से श्रोता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। दूसरे अंतरे के बाद बाँसुरी की धुन भी सुनने में अच्छी लगती है। यूँ तो प्रीतम ने इस गीत को नवोदित गायक शाहिद और राहत से गवाया पर एक नई सी आवाज़ के रूप में मुझे शाहिद मलया का गाया हुआ वर्सन दिल के ज्यादा करीब लगता है।

बतौर गायक शाहिद का नाम आपके लिए नया जरूर होगा।शाहिद के पिता रफ़ी साहब के जबरदस्त प्रशंसक थे और ख़ुद भी गायक बनने की तमन्ना रखते थे। वो तो अपनी हसरत पूरी नहीं कर पाए पर शाहिद को उन्होंने ख़ुद संगीत की शिक्षा दी। वैसे शाहिद मलया को फिल्मों में गाने का मौका अपने गीतकार मित्र कुमार के ज़रिए मिला। कुमार ने ना केवल शाहिद की भेंट प्रीतम से करवाई बल्कि उन्हें इस फिल्म के दो गीतों को गाने का मौका भी दिलवाया। शाहिद की इस अलग सी आवाज़ का इस्तेमाल बाकी संगीतकार किस तरह करते हैं ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा। चलिए प्रेम के रंग से रँगे इस गीत को सुनते हैं।

कोई दिल बेकाबू कर गया
और इश्काँ दिल में भर गया
आँखों-आँखों में वो लाखों गल्लां कर गया ओए
ओ रब्बा मैं तो मर गया ओए
शैदाई मुझे कर गया ओए
ओ रब्बा मैं तो मर गया ओए
शैदाई मुझे कर गया कर गया ओए

अब दिल चाहे ख़ामोशी के होठों पे मैं लिख दूँ
प्यारी सी बातें कई
कुछ पल मेरे नाम करे वो, मैं भी उसके नाम पे
लिखूँ मुलाकातें कई
पहली ही तकनी में बन गयी जान पे
नैणा-वैणा उसके मेरे दिल पे छपे
अब जाऊँ कहाँ पे, दिल रुका है वहाँ पे
जहाँ देख के मुझे वो आगे बढ़ गया ओए
ओ रब्बा मैं तो...

मौसम के आज़ाद परिंदे, हाथों में है उसके
या वो बहारों सी है
सर्दी की वो धूप के जैसी, गर्मी की शाम है
पहली फुहारों सी है
मेरे प्यार का मौसम भी है, लगे मेरी महरम भी है.
जाने क्या क्या दो आँखों में मैं पढ़ गया ओए रब्बा मैं तो..


चलते चलते मैं तारीफ़ करना चाहूँगा निर्देशक पंकज कपूर की जिन्होंने इस गीत का इतना खूबसूरत फिल्मांकन किया है मानो  पर्दे पर प्रेम की वैतरणी बह रही हो। सोनम और शाहिद कपूर पर फिल्माए गए इस गीत को देखना ना भूलें...शायद उसे देखकर आप भी अपने उस छोटे से गाँव या कस्बे की यादों में खो जाएँ..



सोमवार, फ़रवरी 06, 2012

वार्षिक संगीतमाला 2011 - पॉयदान संख्या 8: बदमाश दिल तो ठग है बड़ा...

वार्षिक संगीतमाला की आठवीं पॉयदान पर पधार रही है दो भाइयों की नवोदित संगीतकार जोड़ी जो पिछले कुछ सालों से मराठी फिल्म उद्योग में अपने संगीत का परचम लहराते रहे हैं। ये जोड़ी है अजय और अतुल गोगावले की जिन्होंने फिल्म सिंघम के लिए एक बेहद कर्णप्रिय रोमांटिक गीत बनाया। पर इससे पहले कि इस गीत को सुनें क्या आप इस संगीतकार जोड़ी की उत्कर्ष गाथा नहीं जानना चाहेंगे ? 

अजय व अतुल को स्कूल में कभी पढ़ने में दिल नहीं लगा। स्कूल के समय से ही उनकी रुचि संगीत से हो चुकी थी वो भी तब जबकि उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि में संगीत का कहीं दखल ना था। घर में वाद्य यंत्रों को खरीदने के पैसे ना थे । पर दोनों भाइयों ने इसके लिए भी एक तरकीब निकाल ली। वे ऐसे मित्र बनाते जिनके पास पहले से ही हारमोनियम,ढोल, मृदंग जैसे वाद्य मौजूद हों। कॉलेज में आने पर पिता ने कीबोर्ड खरीद दिया जो उनके नए प्रयोगों का माध्यम हो गया। मुंबई आने के बाद विज्ञापनों से लेकर नाटकों तक के लिए संगीत देते रहे। विश्वविनायक जैसे अन्तरराष्ट्रीय गैर फिल्मी एलबम की सफलता ने उनमें आत्मविश्वास भरा और मराठी फिल्म उद्योग में उनके प्रवेश का रास्ता खोल दिया। 


पिछले आठ वर्षों से वे मराठी फिल्म जगत के जाने माने नाम हैं। यहाँ तक कि मराठी फिल्म 'जोगवा' के संगीत निर्देशन के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। जहाँ तक हिंदी फिल्मों का सवाल है 2004 में फिल्म 'गायब' और वर्ष 2005 में 'विरुद्ध' के कुछ गीतों को छोड़कर उनकी झोली में कुछ नहीं आया। पर पिछले साल अजय अतुल ने सिंघम के आलावा My Friend Pinto का भी संगीत दिया। और हाँ फिलहाल फिल्म अग्निपथ के संगीत के ज़रिए वे कैसी धूम मचा रहे हैं वो तो आपको मालूम ही होगा।

तो आइए लौटें इस गीत की तरफ। मुखड़े के पहले बाँसुरी का स्वर मन को सोहता है। पर गीत का असली आनंद मुखड़े की पहली दो पंक्तियों के बाद से शुरु होता है जब गीत का टेंपो बदलता है । श्रेया दिल तो उड़ा उड़ा रे...... गाते गाते सचमुच श्रोताओं को झूमने पर विवश कर देती हैं। अजय अतुल गीत की इस कर्णप्रियता को अंत तक बरक़रार रखते हैं।

इस गीत के बोल लिखे हैं स्वानंद किरकिरे ने। स्वानंद का दिल को 'बदमाश' और 'ठग' जैसे विशेषणों से सुशोभित करना बड़ा प्यारा लगता है। गीत के इस हिस्से में अजय भी श्रेया का साथ देने आ जाते हैं। श्रेया के कोकिल कंठी स्वर की बात करते करते मेरी कलम घिसने लगी है पर क्या करें ये साल है ही इस बेहतरीन गायिका का। वैसे उनकी शान में कसीदे पढ़ने के लिए इस गीतमाला का एक और गीत बाकी है। तो आइए सुनते हैं ये मधुर गीत..




साथिया साथिया पगले से दिल ने ये क्या किया
चुन लिया चुन लिया तुझको दीवाने ने चुन लिया

दिल तो उड़ा-उड़ा रे
आसमान में बादलों के संग
ये तो मचल-मचल के
गा रहा है सुन नयी सी धुन


बदमाश दिल तो ठग है बड़ा
बदमाश दिल यूँ तुझसे जुड़ा
बदमाश दिल मेरी सुने ना ज़िद पे अड़ा


अच्छी लगे, दिल को मेरे, हर तेरी बात रे
साया तेरा, बन के चलूँ, इतना है ख्वाब रे
काँधे पे सर, रख के तेरे, कट जाए रात रे
बीते ये दिन, थामे तेरा, हाथों में हाथ रे
ये क्या हुआ, मुझे मेरा ये दिल
फिसल-फिसल गया
ये क्या हुआ, मुझे मेरा ज़हाँ
बदल-बदल गया
बदमाश दिल तो...

नींदें नहीं, चैना नहीं, बदलूँ मैं करवटें
तारे गिनूँ, या मैं गिनूँ, चादर की सलवटें

यादों में तू, ख्वाबों में तू, तेरी ही चाहतें
जाऊँ जिधर, ढूँढा करूँ, तेरी ही आहटें
ये जो है दिल मेरा, ये दिल सुना ना
कह रहा यही
वो भी क्या ज़िन्दगी, है ज़िन्दगी कि
जिसमें तू नहीं,बदमाश दिल तो...

फिल्म में ये गीत फिल्माया गया है काजल अग्रवाल व अजय देवगन की जोड़ी पर

शुक्रवार, फ़रवरी 03, 2012

वार्षिक संगीतमाला 2011 : पॉयदान संख्या 9 - कैलाश खेर कहाँ ले जा रहे हैं इस 'अभिमानी मन' को !

विनय पाठक और कैलाश खेर! एक सुनहरे पर्दे का बेहतरीन अभिनेता, तो दूसरा एक ऐसा गायक जिसकी आवाज़ ऐसी प्रतीत होती है जैसे साक्षात भगवन की वाणी हो। ये एक सुखद संयोग ही है कि आज से तीन साल पहले वार्षिक संगीतमाला की नवीं पॉयदान पर पर्दे के आगे पीछे की इस जोड़ी का एक और गीत बजा था माँ प्यारी माँ मेरी माँ मम्मा...। आज ये दोनों कलाकार फिर एक साथ हुए हैं एक फिलासफिकल मूड के गीत के साथ जो जिंदगी की इस भागम भाग में ठहरकर अपने कृत्यों पर ठंडे दिमाग से एक बार पुनर्विचार करने की बात कहता है। पप्पू कॉन्ट डांस साला के इस गीत को लिखा है, फिल्म के निर्देशक सौरभ शुक्ला ने जो कि अपने आप में कमाल के चरित्र अभिनेता हैं।


क्या आपको ऍसा नहीं लगता कि कई बार हम अपने जिंदगी के तमाम जरूरी फैसले तार्किक तरीके से नहीं बल्कि अपनी भावनाओं के आवेश में आकर ले लेते हैं। इस आवेश के पीछे बहुधा होता है हमारा 'अहम' यानि 'ईगो'(ego)। ये 'ईगो' हमें अपने अपनी बनी बनाई धारणाओं में लचीला रुख इख्तियार करने से विमुख करता है। नतीजन अहम के इस बोझ से कई बार रिश्तों की मजबूत दीवारें भी चरमरा उठती है। बाद में जब अपनी भूल का अहसास होता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है। 
गीतकार सौरभ शुक्ला अपने गीत में ऐसे ही एक 'अभिमानी मन' की बात कर रहे हैं जो अपनों से भाग कर कहीं दूर शांति की तलाश में जा रहा है। शायद एकांत में रो लेने से उसका जी हल्का हो जाए ..

जिया हुआ जो मलंग
छोड़ अपनों का संग
चला मन अभिमानी मन चला
छाए बदरा सघन
और दूर है गगन
चला मन अभिमानी मन चला

जाएगा..जाएगा पर कहाँ
रो सके पल दो पल छुपके जहाँ
जिया हुआ जो मलंग...


क्या अपने आप को सबसे अलग थलग कर लेना अपने मन को छलावा देना नहीं हैं? गीतकार, गीत के अंतरे में नायक से यही सवाल करते हैं।

क्या रुत आई है, आँख भर आई है
प्रेम तेरी क्या है दास्तान
कल जो हमारा था, सब कुछ सारा था
अब ना रहेगा वास्ता
जग मेला पर अकेला
चैन पगले तू पाएगा कहाँ
जाएगा जाएगा.....

चल रे मुसाफ़िर, भोर भई पर
जाना है किस पार रे
दूर तू है आया सबको भुलाया
फिर भी हें यादें साथ रे
ना वो भूली ना तू भूला
ना वो भूली ना तू भूला
फिर बनाए हैं क्यूँ फासले
जाएगा जाएगा.....

सौरभ शुक्ला के सरल सहज शब्द, कैलाश खेर के स्वर में सीधे दिल से लगते हैं।  शायद इसीलिए फिल्म के नायक विनय पाठक को भी ये गीत फिल्म का सर्वश्रेष्ठ गीत लगता है। बतौर संगीतकार मल्हार की ये पहली फिल्म है। सचिन जिगर की तरह मल्हार भी संगीतकार प्रीतम के शागिर्द रहे हैं।  प्रीतम,  मल्हार के बारे में कहते हैं कि उसकी लोक संगीत और पश्चिमी संगीत दोनों पर पकड़ है और वो फ्यूजन बेहतरीन करता है। प्रीतम का इशारा जिस तरफ है वो आप इस गीत के मुखड़े और इंटरल्यूड्स को सुन कर समझ जाएँगे। कुल मिलाकर मल्हार का बेहतरीन संगीत संयोजन एक नई बयार की तरह कानों में पड़ता है। तो आइए सुनते हैं इस अलग मिज़ाज के गीत को..



बुधवार, फ़रवरी 01, 2012

वार्षिक संगीतमाला 2011 : पॉयदान संख्या 10 - मनवा आगे भागे रे. बाँधूँ... सौ-सौ तागे रे !

दोस्तों एक शाम मेरे नाम की वार्षिक संगीतमाला में वक़्त आ पहुँचा है शुरुआती दस सीढ़ियों पर कदम रखने का ! दसवीं पॉयदान पर गीत वो जिसे लिखा गुलज़ार ने, धुन बनाई राजा नारायण देव और संजय दास ने और जिसे गाया एक बार फिर से श्रेया घोषाल ने। जी हाँ ये गीत है फिल्म कशमकश से। आपको याद होगा कि इसी फिल्म का एक और संवेदनशील गीत तेरी सीमाएँ कोई नहीं है निचली पॉयदान पर बज चुका है। जैसा कि मैंने आपको पहले भी बताया था ये फिल्म गुरुवर रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास नौका डूबी पर आधारित है।

रितुपर्णा घोष द्वारा निर्देशित फिल्म को जब सुभाष घई साहब ने गोआ के फिल्म फेस्टिवल में देखा तो उन्हें लगा कि ये फिल्म तो हिंदी में भी बनानी चाहिए। उन्होंने तभी रितुपर्णा से इस बाबत बात की। रितुपर्णा तो राजी हो गए पर फिल्म को हिंदी में बनाने के पहले इसके गीतों को अनुदित करने के लिए घई साहब को बस एक नाम सूझ रहा था और वो नाम था 'गुलज़ार' का।

गुलज़ार साहब ने फिल्म देखते ही अपनी हामी भरी और कहा कि ये रितुपर्णा की बनाई अब तक की सबसे बेहतरीन फिल्म है। रवींद्र संगीत पर आधारित फिल्म का संगीत पहले ही राजा व संजय द्वारा रचा जा चुका था। गुलज़ार और सुभाष घई द्वारा गीतों को अनुदित करने के पीछे धारणा ये थी कि गुरुवर द्वारा शब्द प्रयोग और भावों से छेड़ छाड़ ना की जाए।


बंगाली फिल्मों से अपनी पहचान बनाने वाले युवा संगीतकार राजा नारायण देव और संजय दास खुद ही अच्छे गिटार व कीबोर्ड प्लेयर है। वांयलिन, पिआनो, बैंजो, सेलो और डुकडुक जैसे वाद्यों का वे अपने संगीतबद्ध गीतों में बखूबी इस्तेमाल करते हैं पर उनका ये भी मानना है कि किसी फिल्म के संगीत का निर्धारण उसकी पटकथा करती है ना कि उनकी व्यक्तिगत पसंद। शायद यही वज़ह है कि कशमकश के ज्यादातर गीतों में संगीत पृष्ठभूमि में ही रहा है ताकि शब्दों की प्रभावोत्पादकता में कोई कमी ना आए।

अब टैगोर ने मूल रूप से तो लिखा था खेलाघर बाँधते लेगेची.आमार मोन भीतरे.. यानि अपने मन के अंदर मैंने एक घर बना लिया अपने ख्वाबों से खेलने के लिए और देखिए गुलज़ार ने इस गीत का भावानुवाद कर हिंदी में कितना खूबसूरत मुखड़ा लिखा है मेरी समझ से ये चंद पंक्तियाँ गीत की जान हैं जो गीत सुनने के बाद भी बहुत समय तक ज़ेहन में बनी रहती हैं। आप भी गौर फ़रमाइए

मनवा आगे भागे रे
बाँधूँ सौ-सौ तागे रे

ख्वाबों से खेल रहा है
सोए जागे रे..
चंचल मन को पकड़ने कि कितनी जुगतें पर वो भला कब पकड़ में आने वाला है.. श्रेया का गीत के मुखड़े के पहले का आलाप, फिर मुखड़े की अदाएगी सुनते ही गीत की मधुरता से मन झूमने लगता है। अंतरों में भी गीत की मिठास में कोई कमी नहीं आती। ऐसा लगता है कि गीत का मिज़ाज मानो उनकी आवाज़ में रच बस गया है। तो आइए सुनते हैं श्रेया के स्वर में ये मधुर गीत... 

डारी पे बोले कोयलिया
कौन रस घोले कोयलिया
सारी रात अपने सपनों में
सोए जागे रे

दिन गया जैसे रूठा-रूठा
शाम है अंजानी,
पुराने पल जी रहा है
आँखें पानी-पानी
वो जो था था कि नहीं था
आए तो बताएगा
सपनों से वो उतरेगा
ऐसा लागे रे


और ये है गीत का बँगला संस्करण....

 

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